लघु कथा सड़ी हुई मछली डा0 अरविंद कुमार मैं कई दिन से सोच रही थी कि अखिल को फोन करूँ, पर अपने आप को कमजोर पाती। आखिर मैंने ही तो ...
लघु कथा
सड़ी हुई मछली
डा0 अरविंद कुमार
मैं कई दिन से सोच रही थी कि अखिल को फोन करूँ, पर अपने आप को कमजोर पाती। आखिर मैंने ही तो उससे रिश्ता तोड़ लिया। उसने तो स्वयं मुझे प्रपोज किया था। आज चार महीने के बाद मैं अपने आप को रोक न सकी। उसे फोन मिला दिया।
''हेलो, साधना बोल रही हूँ पहचाना कि नहीं।''
''अपनों को भी कोई भूल जाता है।''
''कैसे हो ?''
''अच्छा हूँ।''
''मैं तुमसे कुछ बात करना चाहती हूँ।''
''क्या ?''
''सुना है तुमने मंगनी कर ली है, बिना मुझसे बताए।''
''कितनी बार मैंने तुमको फोन मिलाया, तुमने एक बार भी फोन रिसीव किया। कम से कम एक बार फोन पर बात तो कर सकती थी।''
''अखिल तुमने मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा, पाँच साल का रिश्ता एक पल में तोड़ दिया।''
''इसका जिम्मेदार मैं नहीं हूँ, तुम हो। तुमसे मैंने कई बार कहा मेरी बात गौर नहीं किया। और फिर तुम्हीं तो लाई थी मेरे लिए दुल्हन। तुम्हारे लिए मैं दुल्हन तलाश करूँगी।''
''मैं मानती हूँ, मैंने अपना पांव कुल्हाड़ी पर मार लिया है। लेकिन तुम तो सोच सकते थे।''
''इसीलिए तुम्हें बार-बार फोन किया, एक बार नहीं अस्सी काल की तुम्हें, तुमने किसी का जवाब दिया ।''
''मैं कुछ नहीं जानती। तुम सिर्फ मेरे हो। तुमने एक बार पूछा तक नहीं। तुमने मुझे सड़ी हुई मछली कि तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया।''
मैं रोती रही अपनी बात कहती रही----। और फोन फिर कट गया।
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सुविधा शुल्क
मैं चुपचाप अपने कागज पत्तर लिये ऑफिस में खड़ा था हेड बाबू के सामने । लोग आते जा रहे थे अपना काम कराते जा रहे थे। मैं एक घण्टे से इंतजार कर रहा था कि अबकी मेरी बारी आएगी। पर हेड साहब मेरी तरफ देखकर नजर अंदाज कर दे रहे थे। मेरे सब्र का बांध टूट गया। मैंने कहा,'' साहब, मैं एक घण्टे से खड़ा हूँ मेरा ये फार्म जमा कर लीजिए।''
''मैंने तो नहीं कहा, तुम खड़े रहो, देख रहे हो फुर्सत नहीं हैं। जाओ एक घण्टे बाद आना।''
मैं वापस बाहर जाकर बैठ गया। सोचने लगा, क्या जमाना आ गया। कोई किसी को समझता ही नहीं, सोचता रहा। फिर गया ऑफिस । और कहा ,'' साहब ये फार्म जमा कर लीजिए ।''
उसने मुझे ऊपर से नीचे देखा और बोला,'' ऐसे ही फार्म जमा हो जाएंगे। कुछ सुविधा शुल्क दीजिए। वरना आठ दिन बाद शाम को पाँच बजे आइएगा।''
मैं अवाक् रह गया- सुविधा शुल्क।
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सफेद झूठ
मैं बगल वाली सीट पर बैठा हुआ था तभी सामने वाली सीट पर बैठे सज्जन का फोन बज उठा । मोबाइल फोन की रिंगिंग बेल की ट्यूनिंग पर कबीर की 'साखी' बज रही थी। भला किसी का कर न सके, तो बुरा किसी का मत करना।
पुष्प नहीं बन सकते तो कांटे बनने की कोशिश मत करना।
मैं उस ट्यूनिंग 'साखी' को ध्यानपूर्वक सुन रहा था। उस सज्जन ने मोबाइल फोन रिसीव किया।
''मैं इस समय दिल्ली में हूँ। आठ दिन बाद आऊँगा।'' जबकि महोदय लखनऊ में थे। फोन करने वाले ने मान भी लिया सचमुच लखनऊ में होगा। उसने पुष्टि की।
''नहीं, यार मैं वाकई दिल्ली में हूँ।''
सभी लोग उस सज्जन की बातों को गौर से सुन रहे थे। कुछ लोग अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया भी कर रहे थे। मेरा मन बरबस कह उठा- पता नहीं लोगों को सफेद झूठ बोलने में क्या मिलता है।
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भुतही पंचायत
आज मेघन की बिटिया सोमवतिया बीमार हो गयी थी। उसकी दवा दरमत के बाद सुबह उसके दोनों पुत्रों को जूड़ी ने पकड़ लिया था बचे थे मात्र मेघन और उनकी दोनों बहुएं। घर का दशा ठीक न होने के कारण, हाथ में पैसा-कौड़ी भी न थे उस पर से निपट निरक्षर।
उसने पड़ोसी गाँव के ओझा को दिखाया तो उसने बताया।
'' तुम्हारे घर को तहस-नहस करने के लिए तुम्हारे पड़ोसी ने बहुत ताकतवर भूत को भेजा है।''
''पर हमने उसका क्या बिगाड़ा है।''
वापस लौटने के बाद मेघन ने रामचरन से कहाँ सुनी कर दी। यहाँ तक की हाथा पाई होने से बची। अब रामचरन भी अपने ओझा के पास गया।
मेघन ने कहा, '' अब अइसे काम नाइ चली। पंचायत बुलावैक पड़ी।''
उसने आस-पास गाँव के लोगों को एकत्रित किया । दोनों तरफ से ओझा भी बुलाये गये। दोनों तरफ ओझा आमने-सामने थे। सारा गाँव से लेकर पड़ोसी गाँव के लोग भी तमाशा देख रहे थे आश्चर्य से सब लबरेज थे। दोनों ओझाओं ने आपस में तंत्र-मंत्र की गुप्त भाषा में बात-चीत की। सारी जनता ने जब दबाव बनाया तो राम चरन ने हामी भर दी।
''हाँ, मैंने भूत भेजा था। मैं अपने भेजे गये भूत को वापस बुला लूँगा, लेकिन एक शर्त पर तत्काल पाँच बोतल दारू, पाँच नींबू की बलि और सात मेर के फूल लाइये।''
तुरंत की सारी चीजों की व्यवस्था हो गयी। दोनों ओझाओं ने पाँचों नींबूओं की बलि चढ़ा दी न समझ पाने वाले मंत्रों का उच्चारण किया। भूत चला गया ओझाओं ने अपनी ढाई-ढाई हजार रूपये फीस ली, और कहा भूत वापस चला गया है। 'भूतही पंचायत' समाप्त हो गयी थी और लोगों ने अपने-अपने घरों की राह पकड़ ली।
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हरिजन
दिन के तीन बज चुके थे। मैं भी अपनी केबिन से निकलकर सभी के साथ कामन रूम में बैठ गया था। सामने देखता हूँ कि मेरे परिचारक के साथ, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आ रहा है। वह हाथ में एक प्लास्टिक का झोला, कंधे पर एक अंगौझा डाले हुए था। जैसे ही वह हमारे पास आए हमारे सीनियर ऑफीसर ने पूछा, '' काम हो गया वर्मा।''
परिचारक ने भी कहा,'' हाँ, साहब सब काम हो गया। इसीलिए इतनी देर लग गयी।''
कुछ समय सभी मौन रहे। मैंने आगंतुक व्यक्ति से पूछा, '' बताइए कैसे आना हुआ।''
''साहब रसीद चाहिए।'' मैंने पूछा, '' किसकी रसीद चाहिए। छात्रा कहाँ हैं। आपको नहीं मिलेगी, ऊपर से सख्त निर्देश हैं।''
''साहब दूर है बिटिया काका आना ठीक नहीं।''
''कितनी दूर है ?''
''साहब, डेढ़ किलोमीटर।''
''डेढ़ किलोमीटर नहीं भेज सकते। उसी भी समझने बूझने दीजिए। आप ही सब करते रहेंगे तो वह जाने समझेगी कैसे ?''
''साहब जमाना बहुत खराब है।''
तब तक मेरे सीनियर सर ने कहा,'' आप कल रसीद ले लीजिएगा। आफिस बंद हो गया है। यही सर आपको कल रसीद देंगे।
मैंने सर से कहा, '' सर, मैं चलता हूँ कुछ जरूरी काम है।''
तब आगुंतक ने फिर कहा,'' साहब मुझे कल फिर छुट्टी लेनी पड़ेगी, पैंतालिस-छियालिस किमी से फिर आना पड़ेगा।''
मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा था। दुबला-पतला सा चेहरा, चेहरे पर छुर्रिया, असमय सफेद बाल, हल्की बढ़ी हुई दाढ़ी ने समय से पहले ही उसे बूढ़ा कर दिया था। मैं अब ठिठक गया था।
''क्यों, आपकी लड़की कहाँ है ?आप क्यों परेशान होते हैं, वह कल आके ले जाए।''
'' साहब समय को देखकर चलना पड़ता है। जमाना बहुत खराब आ गया है।''
''ऐसा क्यों बोल रहें हैं ? जमाना तो बहुत अच्छा है।''
''नहीं, साहब। बिटिया नहीं आ पाएगी।''
''अरे कितनी सारी लड़कियां वहाँ से आती हैं , भेज दीजिए। ले जाये आ के।''
''अपनी ससुराल में है साहब। साहब समय को देखते हुए ही इस साल ही मैंने बिटिया की शादी कर दी।''
''इतनी जल्दी शादी कर दी ?''
वह मेरे तरफ देखने लगा। शायद मेरे प्रश्न से आहत हो चुका था। जहाँ तक मैं समझ रहा था आए दिन लड़कियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से पीड़ित था एक पिता का अपनी पुत्री के प्रति चिंतित होना स्वाभाविक था। अब वह रह न सका बोल ही पड़ा।
''साहब, पिछले साल मेरे रिश्तेदार की लड़की ने एक हरिजन के साथ भाग गयी और विवाह कर लिया। अब वह उसी गाँव में रह भी रही है।''
''अरे, उसने विवाह ही तो किया है, कुछ और तो नहीं किया । 'हरिजन' समझते हो किसे कहते हैं।
वह सहम गया।
''साहब हरिजन तो हरिजन..... हरिजन के साथ........। बिरादरी स्वीकार नहीं करती।''
मेरा स्वाभिमान जाग उठा। वह अपनी बात को मनवाना चाहता था। लेकिन मैं उससे भिड़ गया।
''हरिजन'' का अर्थ समझते हो। हरिजन का अर्थ है भगवान का सेवक अथवा भगवान का हितैषी। यहाँ तक की सभी नर-नारी भगवान के सेवक ही है।
'' जी, साहब ?''
'' जी, साहब क्या ? उसने एक इंसान के साथ विवाह किया है फिर जाति कहाँ से आ गयी। तुम भी इंसान हो । बोलो हो कि नहीं।''
'' हाँ, साहब, लेकिन ---।''
''लेकिन क्या ?भगवान के मंदिर जाते हो। भगवान आपसे पूछता है तुम ठाकुर, ब्राह्मण, पासी, चमार, धोबी, धानुक, अहीर, गड़रिया इत्यादि हो। उसकी नजर में सब समान होते हैं।''
''साहब, समाज को देखना पड़ता है ?''
''समाज जाये भाड़ में, समाज को लेकर बैठो, दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। तुम वहीं-के-वहीं बैठे हुए हो।''
''अब कोई भी उनके यहाँ, खाना-पीना, उठना-बैठना, यहाँ तक की हुक्का पानी तक नहीं--।''
मेरे तेवरों को देखकर मेरे सीनियर सर ने उसे समझाना चाहा।
''लड़की-लड़का एक दूसरे का खाना खाते हैं कि नहीं।''
'' हाँ खाते हैं।''
''तो फिर ठीक है।''
वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गये। लेकिन मैंने उससे फिर कहा, '' इस दुनिया में इंसानों के जाति बना दी। भगवान ने कभी - किसी से कहा, तुम फला जाति के हो तुम मंदिर आओ, तुम फला जाति के नहीं हो, तो मंदिर मत आओ। कहा भी किसी से। तुम अपने आप को क्या मानते हो ?''
''इंसान।''
'' तो फिर गलत कैसे बोल गए। एक पिता के मुख ये किसी भी लड़की के लिए ऐसे शब्द नहीं निकलने चाहिए। तुम्हारी लड़की, उसकी लड़की बराबर है, अरे, उसने विवाह ही तो किया गलत तो नहीं किया।''
''लेकिन समाज के अनुसार हम तो तिवारी लिखते हैं एक पिता हूँ चिंता तो होगी ही।''
''फिर गलत बोल गए। हर कोई हरिजन है हम भी हरिजन है। तुम भी हरिजन हो।''
मेरे हरिजन कहने से वह मेरा मुँह ताकने लगा।
संप्रतिः असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी
रा0 म0 महावि0 ढिंढुई, पट्टी,
प्रतापगढ़, उ0प्र0
drdivyanshu.kumar6@gmail.com
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