भवानी प्रसाद मिश्र : हिन्दी जगत का अलबेला कवि मघ्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में 29 मार्च 1913 को जन्में भवानी प्रसाद मिश्र दूसरे सप्तक के...
भवानी प्रसाद मिश्र : हिन्दी जगत का अलबेला कवि
मघ्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में 29 मार्च 1913 को जन्में भवानी प्रसाद मिश्र दूसरे सप्तक के प्रमुख कवि है। सृजन की भावुकता और जीवन की व्यवहारिकता के बीच के द्वंद्व को बड़े बेबाकी से अभिव्यक्त किया है अपनी कविताओं में भवानी प्रसाद मिश्र ने। ईमानदारी की प्रतिमूर्ति रहे भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाओं में प्रभावपूर्ण शैली, निष्कपट बेबाकी, सत्योद्धाटन की अदम्य क्षमता के साथ-साथ काव्य की मर्यादा का अनुपालन होते देखा जा सकता है।
भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाओं में पाठक से संवाद करने की क्षमता है। जब हम जीवन में सफल होते हैं तो हममें से अधिकांश के जीवन में भारी-भरकम समानों का दखल ज्यादा हो जाता है, घर के खाली जगहों में मंहगी मोटर कारें खड़ी हो जाती है और जीवन की अनमोल छोटी-छोटी खुशियां इन्ही भारी-भरकम समानों के बीच कहीं खो जाती है। भवानी प्रसाद मिश्र ने हम सभी को अगाह करते हुए लिखते हैं-जिंदगी में कोई बड़ा सुख नहीं हैं
इस बात का मुझे बड़ा दुख नहीं है
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऐसा कमरा नहीं है जिसमें उन्हें टिका दूं ।
यहां एक बात
इससे भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते है
मैंने बडी कोशिश की है कि उन्हें
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है ।
प्रेम में अंहकार प्रेम को न सिर्फ मसल देता है अपितु रौंद डालता है। आजकल तो प्रेम में असफल प्रेमी प्रेमिका को रौंद ही डालता है। निष्कपट बेबाकी से प्रेम जैसी कोमल भावना का सत्योद्धाटन करते हुए भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा था-
उसे मान प्यारा था, मेरा स्नेह मुझे प्यारा लगता है,
माना मैंने, उस बिन मुझको जग सूना सारा लगता है
उसे मनाउं कैसे, क्योंकर प्रेम मनाने क्यों जाएगा ?
उसे मनाने में तो मेरा प्रेम मुझे हारा लगता है ।
कविता में कहानी कहने की कला में सिद्धहस्त भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'सन्नाटा' एक पागल प्रेमी और उसकी प्रमिका, जो रानी भी थी कि दुखभरी कहानी कुछ इस तरह कहती है-
मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ
मैं शांत बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ
यह 'सर-सर' यह 'खड़-खड़-खड़ सब मेरी है
है यह रहस्य, मैं इसको खोल रहा हूँ ।
यहां बहुत दिन हुए, एक थी रानी
इतिहास बताता उसकी नहीं कहानी
वह किसी एक पागल पर जान दिये थी
थी उसकी केवल एक यही नादानी ।
शाम हुए रानी खिड़की पर आती
थी पागल के गीतों को वह दुहराती,
तब पागल आता और बजाता बंसी,
रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती ।
तुम जहां खड़े हो यहीं कभी सूली थी
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी
हाँ, पागल को भी यहीं, यहीं रानी की
राजा हँस कर बोला, रानी भूली थी ।
आमजन के कवि भवानी प्रसाद मिश्र के सीने में किसानों के लिए बेशुमार दर्द था। शायद इसलिए कवि भवानी प्रसाद मिश्र के समय किसानों ने आत्महत्या नहीं की थी। आज अगर किसानों के दुख-दर्द को समझने वाला उनके जैसा कवि होता तो शायद आज भी किसान आत्महत्या नहीं करते। उन्होंने किसानों की महता समझाते हुए एक तंजात्मक कविता लिखी-
मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हॅू
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूँ
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते है उपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि जोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं ।
आप बड़े चितिंत है मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते है कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती कुरता बहुत जोर से लिपटाये हूँं याने ।
गरीबों के लिए उनके ह्दय में जो स्थान था, उसकी एक बानगी उनकी एक कविता में देखने को मिलती है-सागर से मिलकर जैसे
नदी खारी हो जाती है
तबियत वैसे ही
भारी हो जाती है मेरी
सम्पन्नों से मिलकर
व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता
ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है
एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है
तब कहना चाहिए
संपन्न व्यक्ति, व्यक्ति नहीं है
वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है
कई बातों का जमाव है
सही किसी भी अस्तित्व का अभाव है
मैं उनसे मिलकर अस्तित्वहीन हो जाता हूँ
दीनता मेरी
बनावट का कोई तत्व नहीं है
फिर भी धनाढ्य से मिलकर
मैं दीन हो जाता हूँ
अरति जन संसदि का मैंने
इतना ही अर्थ लगाया है
अपने जीवन के, समूचे अनुभव को
इस तत्व में समाया है
कि साधारण जन, ठीक जन है
उनसे मिलो-जुलो
उसे खोलो, उसके सामने खुलो
वह सूर्य है जल है, फूल है फल है
नदी है धार है सुंगध है
स्वर है घ्वनि है छंद है
सधारण का ही जीवन में आनंद है ।
लीक से हटकर सोचने वाले तथा एक भविष्यद्रष्टा की तरह आने वाले समय पर भी पकड़ रखते थे भवानी प्रसाद मिश्र, लगभग पांच दशक पहले ही कविताओं को बाजार के जाल में फंसते हुए उन्होंने देख लिया था जिसकी तसदीक उनकी कविता 'गीत-फरोश' से होती है-
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ
मैं सभी किसिम के गीत बेचता हूँं
जी माल देखिये, दाम बताउंगा
बेकाम नहीं है, काम बताउंगा
कुछ गीत लिखे है मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे है पस्ती में मैंने
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं से गुजरते हुए पाठक न सिर्फ भावनाओं के विभिन्न आयामों में उब-डुब करता है अपितु यथार्थ के ठोस धरातल पर भी पहुंच जाता है।
'बुनी हुई रस्सी' कविता के लिए उन्हें 1972 में साहित्य अकादमी पुरूस्कार दिया गया था तथा भारत सरकार द्वारा वे पद्यश्री से भी नवाजे गए थे। 22 पुस्तकों में उनकी विभिन्न कविताएं यथा, 'गीत-फरोश, चकित है दुख, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संघ्या, परिवर्तन जिए, नीली रेखा तक, सतपुड़ा के घने जंगल' सहित संग्रहित है। कविताओं के अतिरिक्त उन्होंने संस्मरण, निबंध तथा बाल साहित्य भी रचा। 20 फरवरी 1985 को हिन्दी काव्य जगत का यह अलबेला कवि अपनी कविताओं की थाती छोड़ हमलोगों से हमेशा के लिए विछड़ गया।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301, झारखंड
संपर्क-9471765417
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