' तु लसी ममता राम सों समता सब संसार' यही मात खा गये तुलसीदास जैसे सर्वयुगीन संत। ममता राम सो तो ठीक है। समता सा...
' तुलसी ममता राम सों समता सब संसार' यही मात खा गये तुलसीदास जैसे सर्वयुगीन संत। ममता राम सो तो ठीक है। समता सारे संसार से क्यों ? घृणा क्यों नहीं ? राम के नाम पर यदि समता हो गई तो विषमता का पोषण कैसे होगा ? सत्तानंद की प्राप्ति कैसे होगी ? दंगार्थियों को रोजगार कैसे मिलेगा। अकबर का जमाना नहीं है कि आप और रहीम एक साथ गलबहियां करके रह लिए। फैजी,अबुलफजल और तानसेन महाभारत और वेद की चर्चा करते रहे। भई खांटी महात्माओं का युग है। हां हर संत यह जरूर मानता है -'मो सम दीन न दीनहित तुम्ह समान रघुवीर।। धर्म रक्षकों का गिरोह हमेशा चौकन्ना है कि कोई कबीर न हो जाये क्योंकि कबीर ने कह दिया - दसरथ सुत तिहुलोक बखाना, रामनाम का मर्म है आना। कहेंगे तो उलटबांसी ही। राम का मर्म आप ही बता दो। एक राम तो वह हैं जिनके भक्तिगीत मुस्लिम कवियों ने भी झूम-झूमकर गाये हैं। एक राम वह हैं जिनके नाम पर मस्जिद ढहा दी जाती है। भारत में रहने वाले हर आदमी को राम का पुत्र बताया जाता है। एक राम वह हैं जिनके बारे में तुलसी कहते हैं-राम सिया मय सब जग जानि। एक राम हैं -जय श्री राम। एक राम हैं जिनके लिए अलाम्मा इकबाल कहते हैं-नक्शे तहजीबे हुनुद अपनी नुमायां हैं अगर, तो वो सीता से हैं, लक्ष्मण और राम से है।
अत्यंत दुःख के साथ सूचित किया जाता है कि राम से ममता अकेले तुलसीदास को ही नहीं है। सारी उम्मीदों पर पानी फेरते हुये। दो दर्जन से ऊपर मुसलमान भक्तों ने राम नाम गाये हैं।एक समय था जब जमीन और जमीर बंटे नहीं थे। हिन्दू मुहर्रम की सोज पढ़ते थे और मुसलमान रामलीला या कृष्ण जन्माष्टमी मनाते थे। हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान के नारे के पहले इकबाल साहब खांटी भारतीय थे। उनके गीत सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा........ तो जन-जन का गीत है ही। उन्होनें राम पर देखिये कितनी मार्मिक बात कहीं है- '
यह हिन्दियों की फिक्र फलकरस का है असर
रिफअत में आसमां से भी ऊंचा है नामे हिन्द
है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उनको इमामें हिन्द।।
यह मजाल ! अब्लदुला बुखारी न हुये। ऐसा फतवा जारी करते कि छुपने की जगह न मिलती। राम को इमाम कहना। हद हो गई। उन दिनों शायद राम को हिन्दू और मुसलमानों मे बांटा नहीं गया था। मुल्क नहीं बंटा था। जमीन के साथ-साथ तहजीब भी साझा थी। होली, दीवाली और ईद बंटे नहीं थे। तभी तो नजीर अकबराबादी होली और दीवाली की बहारों के गीत तो गाता ही है। ईदउल फिरत के भी तराने छेड़ता है। बांसुरी में कृष्ण पर मोहित होता है तो नानकदेव जी की शान में भी कविताएं करता है।
सब सुनने वाले कह उठे जय,जय हरि-हरि
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसुरी।।
साथ ही -
इस बखिशश के इस अजमत है, बाबा नानक शाह गुरू
सब शीश नवा अरदास करो और हरदम बोलो वाह गुरू ।।
काश ! उन दिनों आज के फायर ब्रांड साधु और सध्वियां होतीं तो नजीर की तकदीर लिख देते। ऐसी मजाल कि आप बिना इजाजत लिये हरिगुण गाने लगे। नानक देव जी के गुण गाने हो तो गाओ। उन दिनों अंग्रेज आ गये थे। नजीर गालिब से पहले के शायर हैं। कहते है उनकी पाठशाला में गालिब को भी पढ़ने का मौका मिला था। अंग्रजों के डर से मजहब के सौदागर चुप हो गये होंगे। पर , साहब मुगलकाल में तो छाती ठोक कर आगे आना चाहिए था। आजाद भारत में जब धर्मांतरण कराने वाले खम ठोक कर भिड़ गये हैं। उनको पता है सैयां भये कोतवाल तो अब डर काहे का। सैया और कोतवाली का यह मधुर संबंध तो उन दिनों भी था जब मुगलकाल था। दारा शिकोह तो कुलकलंकी था ही। उसके बाबा अकबर कौन से कम थे। रामायण और महाभरत के अनुवाद करा रहा था। वंदे मातरम को भी गैर इस्लामी समझने वाले समझदार उन दिनों नहीं थे शायद। फैजी और अबुलफज़ल इतना पढ़-लिखकर भी मजहब से मुहब्बत नहीं करते थे।
एक हुये सागर निजामी साहब राम की भक्ति में लीन । कहते हैं-
हिन्दिओं के दिल में बाकी है मुहब्बत राम की।
मिट नहीं सकती कयामत तक हुकुमत राम की।
राम की हुकुमत मानने वाले आप कौन ? आपने किससे आदेश पत्र प्राप्त किया ? साई की पूजा करने के आदेश आचार्य श्री दे रहे हैं। आप तो सीधे-सीधे राम पर आ गये। राम से आप भी मुहब्बत करेंगे तो हम हुकुमत कैसे करेंगे ? सूफी संतों की बात छोड़ ही दें। उनका तो आशिकाना मिजाज था। अमीर खुसरो किस मिट्टी का बना था। खुसरो की नकल तो बड़े-बड़ों ने मारी लेकिन उसकी हिन्दुसतानियत को केवल कबीर छू सका। कबीर तो बगटूट सांड है। मन में आया तो हरि की बहुरिया बन गया। राम का कुत्ता भी बनने से परहेज नहीं। नाम भी रख लिया मोतिया। हद लोग थे। लोदी के शासन में कबीर मुल्ला और पांडे दोनों को चुन चुनकर गाली दे रहा था। सत्ता वाले क्या कर रहे थे। आज के धर्म के चौकीदार होते तो .............। ईसाई पादरी के बच्चों को कार में जिदा जला दिया गया था। लोकतंत्र है हम स्वतंत्र हो गये है। मोदी और लोदी राज में कुछ अंतर तो होना ही चाहिए। नरसिंह मेहता सबको सदबुद्धि देने की प्रार्थना करते ही रह गये और गुजरात जल गया।
राम की वंदना करने वालों में एक अत्यंत मीठा स्वर है अब्दुलरशीद खां 'रशीद' का। पढ़कर लगता है कि सूर और रत्नाकर की पंक्ति है-
वाहै निषाद बसी हिय सों,प्रभु प्रेम वशी तट नाव न लावत
ढीठ ढिठाई को जोर कठोर, कठौती में नाथ के पांय धोवावत ।।
हमारे दंगााचाार्यों को को भी इन मुसलमान कवियों से सीखना चाहिए। राम के नाम पर मस्जिद ही नहीं ढ़ायी जाती कविताएं भी की जाती हैं। राम केवल सत्ता प्राप्ति के साधन ही नहीं है। राम पहले परमानंद प्राप्ति के साधन थे अब सत्तानंद प्राप्ति के हैं।राम के नाम से तो मुस्लिम भक्त प्रभावित थे ही। संस्कृति को भी समृद्ध कर रहे थे। होली पर यदि गुलाल किसी मुसलमान को लगा दी जाये तो वह आग बबुला हो जाता है। वह बेचार अपनी जगह पर सही हो सकता है लेकिन वाजिद अली साह को क्या कहा जाये जिसने होली के गीत लिखे। जोगीरे लिखे। होली के दिन किले के अंदर रंग के हौज बनावाता था। उसे क्यों नहीं समाज से बाहर कर दिया गया।
पुराने जमाने में तो माटी और जाति की एकता थी ही। कांग्रेस राज्य में भी भक्त मुसलमान हो गये। दंगाचार्यों ने समझाने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी कि मुसलमान पाकिस्तान परस्त होता है। क्रिकेट मैच के दौरान वह कलमा पाकिस्तान के पक्ष में पढ़ता है। वंदेमातरम नहीं गाता। चंदन नहीं लगाता। हमें तो दिखते हैं सहबा अख्तर। दंगार्थियों के लिए अशुभ सूचना यह है कि कवि पाकिस्तान का है-
मिलेंगे अब भी बनवासी हजारों
नहीं किस राम के सीने में सीता
पाकिस्तान में रहकर भी राम और सीता के प्रतीकों को मन में रखना अर्थात पेट्रोल की टंकी में दिया जलाना। बनवासी तो हजारों हैं ही लेकिन वोटर के तौर पर है। राम-सीता के नाम पर वोट देने के।
बेकल उत्साही भी उत्साह से लबालब हैं। कहते हैं-
साकार हो तो भेद बता क्यों नहीं देते
हे राम! हमें अपना पता क्यों नहीं देते
हम कागजी रावन को जला देते हैं हर साल
तुम भीतरी रावन को मिटा क्यों नहीं देते।।
भीतरी रावण मिट गया तो दंगे कैसे होंगे। दंगे नहीं होंगे तो नंगे कैसे रहेंगे। मुसलमान यदि इतने मार्मिक गीत लिखे और हिन्दू पढ़े कलमा तो धर्मांतरण की क्या जरूरत। होम-हवन कराने के लिए घर वापसी की जरूरत ही क्या है। आदमी किसी भी घर में रहे लेकिन दूसरे के घर की देख रेख भी रखे तो बुरा क्या है। मिर्जा नासिर की इन पंक्तियों के साथ मुस्लिम भक्तों की बात बंद करते हैं-
धर्म की होने लगी फिर हार 'नासिर'
पाप के बढ़ने लगे हैं वार 'नासिर'
अवतरित होने को हैं फिर राम भू पर
दिख रहे ऐसे ही आसार 'नासिर' ।।
यह आसार नासिर साहब को दिख रहे हैं। हमारे पक्के तौर पर जानते हैं कि राम ऐसा नहीं सोच रहे होंगे। अखबार यदि स्वर्ग में जाता होगा तो उन्हें आने में डर भी लगता होगा। निषाद को गले लगाने वाले राम जब देखते होंगे कि दलित के नाम पर तो केवल दल बन रहे हैं। सत्ता को एक आदेश पर छोड़ने वाले राम जब देखते होंगे कि सत्ता के लिए हर प्रकार के कुकुर्म हो रहे हैं।
जय श्री राम नारा एक राजनीतिक नारा होकर रह गया। जय श्रीराम का मतलब भाजपा। सबरी के जूठे बेर खाने वाले राम जब देखते होंगे कि साई को मंदिर से निकाला जा रहा है। मंदिर को भगवान का नहीं खाला का घर समझने वाले लोग भक्तों को भी निर्देश दे रहे है कि पूजा किसकी करें। उन्हें भी तो डर लगता होगा। जरूरी नहीं कि हर युग में भालू और बानर रावण से लड़ने के लिए मिल जायें। रावण एक हो तो आप सेना सजाकर समुद्र पर बांध बनाकर मार सकते हैं लेकिन साहब यहां तो गली-गली में रावण है। रावण की आशोक वाटिका में तो फिर भी सीता सुरक्षित थी। यहां तो सीता अपनी अशोक वाटिका में सुरक्षित नहीं है। अब तो जटायु भी नहीं रहे जो अपहरण होती सीता के लिए जान दे दे। अपहरण होती सीता पर दस दोष आरोपित करने वाले आज भी है। सीता की अग्नि परीक्षा लेने वाले लोग आज भी हैं। सीता आज भी घर से निकाली जा रही है। राम आज भी लोक-लाज के भय से चुप हैं।
शशिकांत सिंह 'शशि'
जवाहर नवोदय विद्यालय
शंकरनगर, नांदेड़ महाराष्ट्र 431736
skantsingh28@gmail.com
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