नाम में क्या रखा है दोपहर के बाद सीएसटी की तरफ जाने वाली गाड़ियों में कम भीड़ होती है। या हूं कहिए करीब-करीब खाली ही होती है। क्योंकि उस स...
नाम में क्या रखा है
दोपहर के बाद सीएसटी की तरफ जाने वाली गाड़ियों में कम भीड़ होती है। या हूं कहिए करीब-करीब खाली ही होती है। क्योंकि उस समय उधर से आने वालों की भीड़ होती है। इसलिए अक्सर मैं दोपहर के बाद ही सीएसटी जाने का प्रोग्राम बनाती हूं। ताकि लोगों की धक्का-मुक्की से बची रहूं। प्राइम टाइम में इन लोकल्स में तो सांस तक लेना दु:स्वार हो जाता है। उस दिन भी मैं यही कोई तीन बजे दादर से वीटी जाने के लिए लोकल में चढ़ी। उम्मीद के मुताबिक आसानी से विंडो सीट मिल गई। परेल में एक और महिला हमारे डिब्बे में चढ़ी। काफी परेशान लग रही थी। मेरे बगल में आकर बैठ गई। उसको एक नजर देखने के बाद आदत के मुताबिक, खुली किताब पर मैंने फिर से अपनी आँखें गड़ा दीं। सहसा मुझे ऐसा लगा मानो कोई रो रहा है। मैंने किताब को परे खिसका के देखा तो सामने वाली सीट पर बैठी तीनों लड़कियां दीन-दुनिया से बेखबर अपनी बातों में तल्लीन थी। मुझे लगा कि मुझे धोखा हुआ है। भला यहां ट्रेन में कोई क्यों रोएगा। और मैं फिर पढ़ने लगी, पर मन नहीं लगा। रह-रहकर घुटी-घुटी सी आवाज कानों से टकरा रही थी। पहली बार मैंने अपने बगल में बैठी उस महिला पर नज़र डाली। मन ने कहा, शायद यही रो रही है, पर मैंने कहा भला ऐसे ट्रेन में सबके सामने कोई क्यों रोएगा। लेकिन मन नहीं माना और चोर नज़रों से उस महिला को देखने लगी। सचमुच वह व्यथित थी। आँखों में आँसू छलछला रहे थे, लेकिन उन्हें जबरदस्ती रोक कर रखा हुआ था। परेल में वो तीनों लड़कियां उतर गईं। अब गाड़ी लगभग खाली थी। मैंने हल्के से उनकी बांह छुई।
शायद आपकी तबियत ठीक नहीं है। आप विंडो सीट पर बैठ जाइए। हवा लगेगी तो आराम मिलेगा।
मेरे स्पर्श से वे चौंक गईं। काफी मुश्किल से रोका गया बांध मेरे स्पर्श मात्र से टूट गया। अपनी अँजुली में अपना चेहरा छुपा कर वह फूट-फूट कर रो पड़ी।
उनका रोना मेरे लिए अप्रत्याशित था। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा हो सकता है। पल भर के लिए मैं स्तब्ध रह गई। ये क्या हो गया। मेरी किस बात ने उन्हें इतनी चोट पहुँचा दी, मुझे समझ नहीं आ रहा था। लेकिन वे जिस तरह रो रही थी। वह सामन्य रुदन नहीं था। मन ने कहा कोई बहुत गहरी चोट पहुँची है इन्हें, जरा संभलकर। मैंने अपने बैग से पानी की बोतल निकाल कर उनके आगे बढ़ा दी। रुदन का ज्वार कुछ कमजोर पड़ गया था। उन्होंने पानी की बोतल मेरे हाथ से ले ली और दो घूँट पानी पिया। अब वे सामान्य होने की कोशिश कर रही थी। कुछ कहना चाहती थी पर शब्द गले में अटक से गए थे। मैंने हल्के से उनका हाथ थपथपाया। उन्होंने दोनों हाथों से मेरा हाथ पकड़ लिया। पहली बार उन्होंने चेहरा ऊपर उठाया। यही कोई तीस-बत्तीस साल की उम्र रही होगी। अभी तक मुझे ठीक से कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या है।
अचानक उन्होंने अपने बैग से मोबाइल निकाला और नम्बर डायल करने लगी। नम्बर मिलते ही फोन उन्होंने मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैं हड़बड़ा गई-मैं क्या करूं इस फोन का।
मेरे पति का नम्बर है। एक बार बात कर लीजिए।
लेकिन मैं तो आपको जानती तक नहीं।
वे बहुत नाराज हैं। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया है।
क्यों?
क्योंकि मैं उनको बच्चा नहीं दे सकी। उनकी आवाज अभी भी रुंधी-रुंधी सी बाहर आ रही थी। और उंगलियां, उंगलियों में उलझी हुई थी।
क्यों?
मुझे बच्चा एबॉर्ट कराना पड़ा......
मतलब बच्चा मिस कैरिज़ हो गया था- मैंने स्पष्ट करना चाहती थी।
नहीं गिरवाना पड़ा। सात मंथ की प्रेग्नेंसी थी। पेट में बहुत दर्द हो रहा था। घर में कोई था नहीं इसलिए अकेले जाना पड़ा।
फिर……..
डॉक्टर ने जांच करके कहा-बच्चा मर गया है। तुरंत एबॉर्शन करना पड़ेगा। फोन लगाया था मैंने। मैंने लगाया था फोन अपने पति को, सब कुछ बताने के लिए, पर वह बिज़ी आ रहा था। और डॉक्टर कह रहा था कि अगर तुरंत कुछ नहीं किया गया, तो शरीर में जहर फैल सकता है। उन्होंने मेरे रिश्तेदारों के बारे में पूछा, लेकिन इस शहर में मेरे पति के सिवा मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है। नर्स ने कहा, आप खुद इस परमीशन लैटर पर दस्तख़त कर सकती है। आप ऑपरेशन थियेटर में जाइए। मैं आपके पति को फोन लगा कर उन्हें सब बता दूंगी। बस यहीं मुझसे गलती हो गई। मैं अपने पति से पूछे बिना एबार्शन कराने चली गई। पर इसमें गलत क्या हुआ। आपकी जगह कोई भी होता यही निर्णय लेता।
पर वे यह मानने को तैयार नहीं है। वे कहते है कि मैंने जानबूझ कर ऐसा किया है क्योंकि मुझे मेरा कैरियर प्यारा है इसलिए मैं उनके बच्चे की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहती और मैंने जानबूझ कर बच्चे को गिरा दिया। पर यह झूठ है। सच नहीं हैं। विश्वास मानिए, मैं झूठ नहीं बोल रही। इस बच्चे के लिए मैंने हर दर पर माथा टेका। मन्नतें मांगी। तब कहीं आठ साल बाद यह बच्चा नसीब हुआ था। क्या आपको लगता है कि मैं ऐसी औरत हूं कि अपने ही बच्चे को...... उसके हाथों की पकड़ मेरे हाथों पर और मजबूत हो गई थी।
एक बार फिर उसकी हिचकियां बंध गई। कल रात उन्होंने गुस्से में आकर मुझे घर से निकाल दिया। अब मैं कहां जाऊं?
तो कल रात से आप......
हां यूंही भटक रही हूं।
अपने किसी दोस्त को फोन क्यों नहीं कर लेती....
कौन दोस्त...जब तक नौकरी थी सब दोस्त थे। नौकरी जाते ही सब दोस्त भी चले गए...
मतलब…….
बॉस ने कहा-तुम्हारा काम में मन नहीं लगता। इतनी सिली मिस्टेक्स करती हो। जाओ घर जाओ। जब ठीक हो जाना आ जाना।
ये कब हुआ…….
बस कुछ दिन पहले…….
मतलब आपके पति जानते थे कि आपकी नौकरी छूट गई है इसके बावजूद उन्होंने आपको घर से निकाल दिया !!!
नहीं! नहीं! उन्हें तो इस बात का पता भी नहीं है। उस हादसे के बाद से उन्होंने मुझसे बात ही नहीं की। कल जब बोले तो सीधे.......
आपने बताया नहीं....
किसे बताती...वे तो पत्थर से हो गए है। न कुछ कहते हैं न सुनते हैं
तो अब आप कहां जाएंगी…….
पता नहीं……..
उनका मोबाइल अभी तक मेरे हाथ में था। मैंने वही नम्बर रिडायल कर दिया।
मैंने तुम्हें पचास बार कहा है कि बारबार फोन करके मुझे परेशान मत करो। जब बच्चे को मार रही थी तब मेरा ख़्याल नहीं आया, तो अब यह सब नाटक क्यों कर रही हो,–उनकी आवाज में गुस्सा था।
मैंने बड़ी शांति से कहा मैं अमिता बोल रही हूं। आपकी पत्नी की दोस्त।
इस नाम की उसकी कोई दोस्त नहीं है, मैं उसके सब दोस्तों को जानता हूं-उनकी आवाज अभी भी उखड़ी हुई थी।
अच्छा, दोस्तों को जानते है, पर उसे नहीं जानते। कमाल है-मैंने भी बहुत ही रुखे ढंग से जवाब दिया।
आप हैं कौन और कहना क्या चाहती हैं?
मैंने बताया न उसकी दोस्त और मस्जिद स्टेशन पर आपकी पत्नी को लेकर उतर रही हूं। आकर ले जाइए।
क्यों आऊं मैं और किसके लिए आऊं। उसके लिए जो अपने बच्चे की भी सगी नहीं हुई। उससे कहिए, नौकरी करे। मुझे उसकी जरूरत नहीं है।
वह कोई नौकरी नहीं करती। उस दुर्घटना के बाद ही उसने नौकरी छोड़ दी थी।
क्या! उसने मुझे तो कुछ नहीं बताया?
आपने सुनना ही कब चाहा?
..............................
मैंने कहना जारी रखा। बुरा मत मानिएगा, आप दोनों ने अपना बच्चा खोया है। समझने की कोशिश करिए कि पिता होने पर जब आपको इतनी तकलीफ हो रही है, तो वो तो उसकी मां है। साथ महीने उसे अपनी कोख में रखा था और हर गुजरते दिन के साथ वह उसके लिए एक नया सपना बुना था। उसने सिर्फ बच्चा ही नहीं खोया, बल्कि वे सारे सपने भी खो दिए जो सात महीने हर पल उसने उसके और परिवार के लिए संजोए थे। और आप अपने बच्चे के गम में इतना खो गए कि एक बार भी उस बच्चे की मां की तरफ पलट कर भी नहीं देखा। सोचा भी नहीं कि क्या बीत रही होगी उस उस मां पर। जब उसे आपके सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उस समय आपने उसे अपनी ज़िदगी से ही निकाल दिया। ऐसा कैसे कर सकते हैं आप। यह सब मैं उस औरत के पति से कह रही थी जिससे अभी दस-पंद्रह मिनट पहले मेरी मुलाकात हुई थी। और मैं उसका नाम तक नहीं जानती थी।
थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद एक आवाज आई, कहां है आप?
मस्ज़िद में………..
इंतजार करिए......
स्टेशन आ गया था। हम दोनों वहीं उतर गए।
पास ही एक बेंच खाली थी, हम उस पर बैठ गए। हम दोनों में से कोई भी इस बारें में निश्चित नहीं थी कि वे आएंगे। मैंने यूं ही पूछ लिया कि अगर आपके पति नहीं आए तो आप क्या करेगी। उनकी नज़रें आती-जाती ट्रेनों पर टिकी हुई थी।
प्राइम टाइम में लाइन बहुत बिज़ी होती है न!
मेरी रूह अंदर तक कांप गई। मैंने आँखें बंद कर ईश्वर से कहा-ये तू मेरी कैसी परीक्षा ले रहा है।
उस महिला के हाथों एक बार फिर से मेरे हाथों का जकड़ रखा था। मतलब उसका पति आ गया था। मैंने अपनी आँखे खोल दीं। मेरे सामने एक पैतीस-छत्तीस साल का पुरुष खड़ा था। हम तीनों ही खामोश थे। उसी ने हाथ बढ़ाकर कहा-पाटिल, एस.के.पाटिल।
मैंने भी हाथ बढ़ाते हुए कहा-अमिता।
मेरा एक हाथ उसकी पत्नी के हाथ में था और दूसरे उसके। उसने मुस्करा कर कहा-आपने हम दोनों के हाथ थामे हुए हैं। मैंने हड़बड़ा कर अपना हाथ उसके हाथ से खींच लिया। वह अपनी पत्नी की तरफ मुड़ा-तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं था। दस मिनट भी इंतजार नहीं कर सकी। और कल, कल जब मैंने गुस्से में कह दिया कि निकल जाओ मेरे घर से और तुम निकल गई। एक बार भी पलट कर नहीं देखा। जानती हो, कल सारी रात मैं इन सड़कों पर भटकता रहा हूं।
उस महिला के हाथों की पकड़ मेरे हाथों पर धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ने लगी थी।
इतनी देर में पहली बार उसने कहा-मैं डर गई थी।
मैं समझ चुकी थी कि अब मेरी यहां कोई जरूरत नहीं है। उसका हाथ अब अपने पति के हाथों में था। सीएसटी की तरफ जाने वाली ट्रेन आती हुई दिखाई दे रही थी। मैंने हाथ हिलाते हुए ट्रेन की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। वे भी हाथ हिला रहे थे। उसी समय ट्रेन मूव कर गई। तभी मुझे याद आया कि इतना सब हो गया और मैंने उसका नाम तक नहीं पूछा। उनको एक साथ जाते हुए देखकर मेरे ओंठों पर मुस्कान आ गई और मैंने खुद से कहा-छोड़ो जाने दो, अंत भला तो सब भला। और फिर नाम में क्या रखा है! ट्रेन ने गति पकड़ ली थी।
वाह
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