अनुसंधानों का दायरा प्रकृति विरूद्ध न हो मानवीय जीवन अथवा इस पृथ्वी पर रहने वाला हर प्राणी आपदाओं और कठिनाइयों का दास बना हुआ है। हम क...
अनुसंधानों का दायरा प्रकृति विरूद्ध न हो
मानवीय जीवन अथवा इस पृथ्वी पर रहने वाला हर प्राणी आपदाओं और कठिनाइयों का दास बना हुआ है। हम कितनी भी तकनीकें ईजाद कर लें, हमारे वैज्ञानिकों की विश्वस्तरीय खोजें, इंजीनियरों के आविष्कार और न जाने कैसे-कैसे विकास धरे के धरे रह जाते हैं, जब प्राकृतिक आपदा हम पर कहर बरपाती है। इस प्रकार के कहर को हम कभी भारी बारिश के रूप में पाते हैं तो कभी भूस्खलन से मची हा-हा कार हमें विचलित कर जाती है। इतना ही नहीं कभी किसी प्रकार की महामारी हमारे चिकित्सा विशेषज्ञों को चुनौती देते दिखायी पड़ती है तो कभी समुद्री तूफान उसे रोकने वैज्ञानिक प्रयासों का मखौल उड़ाते प्रतीत होते हैं। इन सारी आपदाओं के पीछे जो कारण सामने आ रहे हैं, वे प्रकृति के साथ किये गये छेड़छाड़ और मौसम को अपने हिसाब से परिवर्तित करने की असफल वैज्ञानिक कोशिशें ही है।
प्राकृतिक रूप से चलने वाले मौसम को मानवीय क्रियाओं ने अपने स्वार्थ के चलते प्रभावित करने का जो निर्भीक प्रयोग शुरू किया है, उन्हीं के चलते हमें विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। यह शास्त्रोक्त मत है कि प्रकृति का कोप सारे कोपों से बढ़कर होता है। हमारे शास्त्रों में प्रकृति को भी ईश्वर का ही पर्याय माना गया है तथा संरक्षण के लिए नियमों का उल्लेख किया गया है। प्रकृति के विरूद्ध आचरण करने पर जो आपदा कोप के रूप में हमारे समक्ष आती है उसका सामना कर पाना मनुष्य के बस के बाहर होता है। परिणामतः मानवीय जान-माल के साथ हर प्राणी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।
मनुष्य को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि उसने अपनी शिक्षा और वैज्ञानिक अनुसंधानों के सहारे प्रकृति पर विजय पा ली है। हमें यह भी नहीं मानना चाहिए कि हम प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में सक्षम नहीं है। सुरक्षा के प्रयास जरूरी और मानवीय हित में है किन्तु कोई ऐसी प्रयोग से बचना चाहिए जो प्रकृति के विरूद्ध हो । उदाहरण के रूप में विकास के नाम पर जंगलों का काटा जाना और शहरों में हाईवे निर्माण के लिए वृक्षों की बलि चढ़ा देना, आंधी तूफान जैसी घटनाओं के साथ ही मानसून को अनियमित करने वाली मानवीय विकास की धारा से जोड़कर देखा जा सकता है। यह वैश्विक सत्य है कि मनुष्य प्रकृति को अपना गुलाम नहीं बना सकता वरन् प्रकृति के अनुसार अपने जीवन को सही दिशा दे सकता है। समय-समय पर हम पर आने वाली आपदाएँ हमें अहसास कराती है कि हम प्रकृति को अपने अनुसार नहीं ढाल सकते बल्कि प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करते हुए उसके अनुसार आचरण रखें। प्रकृति के संरक्षण में जीवन यापन करने वाला मनुष्य प्रकृति के स्वभाव को समझ नहीं पा रहा है। यहीं कारण है कि प्रकृति हम पर अपना आक्रोश आपदाओं के रूप में परोस रही है। हम संयमित रहते हुए प्रकृति के व्यवहार की समीक्षा करें तो वह अनंत शांत और सौम्य रूप लिए हमारे समक्ष आती है। इसके विपरीत प्रकृति की अवहेलना मनुष्य जीवन को बेडौल और कर्कश रूप में अपना अहसास करा जाती है।
अतिवादी मानवीय गतिविधियों के चलते प्रकृति ने हमें बार-बार चेतावनी दी किन्तु हम उससे बे-खबर अपनी मनमर्जी करते रहे। चेतावनी के रूप में धरती पर बढ़ता तापक्रम, कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि, भूकम्प, भूस्खलन, समुद्री तूफान ने हमें सावधान किया है। इन्हीं सारी प्रकृति विरूद्ध मानवीय क्रियाओं ने हमें प्रकृति के उग्र रूप से परिचित कराया। क्या इस बात से इन्कार किया जा सकता है कि प्रकृति के सौम्य और मातृ स्वरूप रूप ने ही हमें जीवन पोषण का आधार प्रदान किया है, जो आज भी हमारे समक्ष अमृत तुल्य जल से परिपूर्ण नदियों, प्राकृतिक झरनों, पहाड़ो, वनो और समुद्र के रूप में विद्यमान है। मानवीय छेड़-छाड़ से प्रकृति का उग्र रूप हमारे सामने आना स्वभाविक है। हम यदि अपनी प्रकृति से सहयोग करें तो वह हमें मार्ग भी सुझाती है। इसका बड़ा अच्छा दृष्टांत रामचरितमानस में सुंदर कांड के अंतर्गत गोस्वामी तुलसीदास जी ने बताया है। दृश्य उस समय का है जब भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और वानर सेना के साथ लंका गमन कर रहे थे। समुद्र का भयंकर रूप लगातार उनकी सेना को लंका जाने से रोक रहा था। तब प्रभु राम ने अपना संयम छोड़ समुद्र को सुखाने अपने बाणों का उपयोग यह कहते हुए करना चाहा -
विनय न मानत जलधि, जड़ गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।
जैसे ही प्रभुराम ने बाण का संधारण करना चाहा वैसे ही समुद्र ने ब्राम्हण का रूप लेकर अनुनय-विनय करते हुए कहा कि मैं आपको प्रकृति के विरूद्ध मार्ग तो नहीं दे सकता किन्तु इतना आवश्यक बता सकता हूं कि आपकी सेना में शामिल नल और नील को बचपन में वरदान मिला हुआ है कि वे कितने भी वजनी पत्थर को मेरे सीने पर रखेंगे तो वे डूबेंगे नहीं वरन् तैरते रहेंगे। आप उनकी सहायता से मेरे ऊपर सेतु बनाकर लंका नगरी में प्रवेश करें और अपने जन्म को सफल बनायें।
हमारी प्रकृति विरूद्ध चाल-चलन ने ही हमें अनेक तूफानों के द्वारा ताड़ना दी है। सुनामी से लेकर फैलिन, आइला और अब हुद-हुद भी हमें अपना रौद्र रूप दिखा चुका है। समुद्री तूफानों का उग्र रूप में आना और मानवीय जीवन को तहस-नहस कर डालना हमारी अपनी भूल का ही परिणाम है। आइला उस चक्रवाती तूफान का नाम है जिसने वर्ष 2009 में भारत वर्ष के पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश में व्यापक तबाही मचाई थी। इसी तरह सैण्डी नामक चक्रवाती तूफान ने अमेरिका में अपना रौद्र रूप दिखाया था। गुजरात के भुज में आये भूकम्प ने भी हमें पृथ्वी के अंदर की हलचल से अवगत कराया था। भारत वर्ष की देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में बादल फटने की घटना ने जल प्रलय की याद ताजा कराते हुए हजारों लोगों को बीते वर्ष में ही अपनी लहरों में जल समाधि लेने विवश कर दिया था। महात्मा गाँधी ने बहुत पहले ही इस बात को कह दिया था - प्रकृति में सभी व्यक्तियों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने की सामर्थ्य है किन्तु इसमें किसी एक व्यक्ति के भी लालच के लिए कोई स्थान नहीं है।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ जैसे विषय को समझने के लिए कुछ उदाहरण पर्याप्त है। कारण यह कि प्राकृतिक आपदाओं की फेहरिस्त काफी लम्बी है जो एक शास्त्र का रूप ले सकती है। इसका दायरा भी विश्व स्तर पर फैला हुआ है। जैसे-जैसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है वैसे-वैसे प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी बढ़ रही है। प्रकृति के विरूद्ध हमारे आचरण के कारण तथा प्रकृति के संरक्षण की दृष्टि के अभाव में प्रकृति का प्रकोप भले ही अपनी पराकाष्ठा पर अभी नहीं पहुंचा है, किन्तु इतना अवश्य है कि वह अपनी पराकाष्ठा के काफी करीब पहुंच चुका है। बीते दो दशकों में प्राकृतिक आपदाएँ बेतहाशा बढ़ी है, तो वह अकारण ही नहीं है। वह प्रकृति के क्षरण और दोहन का ही परिणाम है। प्राकृतिक आपदा से सर्वाधिक क्षति हमारी अर्थव्यवस्था को पहुंचती है। राहत व पुनर्वास कार्यो के कारण अर्थ-व्यवस्था पर दबाव पड़ता है, जिससे विकास की धार धीमी पड़ जाती है। साथ ही बेरोजगारी, भुखमरी, अपराध व पलायन जैसी समस्याएं भी सामने आती है। प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए हमें इस सूत्र वाक्य को याद रखना होगा - प्रकृति हमारी रक्षक है यदि हम उसका दुरूपयोग न करें।
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
dr.skmishra_rjn@rediffmail.com
सुन्दर लेख। आपने सही कहा मनुष्य ने अपने लालच के चलते कई बार प्रकृति से छेड़खानी करने कि कोशिश की है और हमेशा ही मुँह की खायी है। हमे इन सीमित संसाधनों का सोच समझ कर उपयोग करना होगा। अगर हम चीज़ें जाया करना छोड़ दें और केवल अपनी ज़रुरत के हिसाब से इस्तेमाल करें तो भी काफी फर्क पढ़ सकता है। लेख के लिए साधुवाद स्वीकार करें।
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