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डॉ. पूनम पाठक
कोलकाता
मानव मन की अंतर्यात्राएँ : विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ
हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक युग की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है -- गद्य, जिसकी विविध विधाओं में जीवन के यथार्थ को प्रतिबिंबित करने वाली- उपन्यास तथा कहानी नामक दो विशिष्ट विधाएँ अत्यंत लोकप्रिय विधाएं बन चुकी हैं. हिंदी साहित्य में नित नवीन प्रयोग करने की प्रवृति, विषय वैविध्य, विदेशी शैली का प्रभाव, अभिव्यक्ति के विभिन्न आयाम तथा प्रस्तुतिकरण के शिल्प आदि के कारण नवीन विकसित विधाओं में 'लघु कथा' सर्वाधिक तीव्रता से विकसित हुई है। लघु कथा कहानी की निकटतम विधा कही जा सकती है, किन्तु अपनी संक्षिप्तता, चुस्त शैली, तीव्रता और सांकेतिकता आदि के कारण कहानी से अलग एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा के रूप में अपने पूर्ण वैभव के साथ निर्विवाद रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है.
अब तक हुए शोधों के अनुसार हिंदी - लघु कथा का उद्भव उन्नीसवीं शताब्दी का आठवां दशक माना जाता है. उस काल में यह विधा लघु कथा नाम से नहीं जानी जाती थी. 1875 ईसवीं में आधुनिक हिंदी के जन्मदाता बाबु भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित 'परिहासिनी ' नामक कृति में छोटी -छोटी व्यंग्यपूर्ण कथाओं के दर्शन होते हैं. इसके साथ ही खलील जिब्रान की धीर गंभीर और पैनी कथाओं का भी उल्लेख इस सन्दर्भ में किया जा सकता है. भारतेंदु की धारा बहुत विकसित न हो सकी, किन्तु खलील जिब्रान की धारा को जय शंकर प्रसाद, माखन लाल चतुर्वेदी, जगदीश चन्द्र मिश्र, पद्म लाल पुन्ना लाल बक्शी, आचार्य जगदीश चन्द्र शास्त्री, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', दिनकर, उपेन्द्र लाल 'अश्क ', तथा विष्णु प्रभाकर आदि जैसे कथाकाओं ने जाने -अनजाने इस विधा के विकास में अपना उल्लेखनीय योगदान देकर इस विधा के महत्त्व को सिद्ध किया. लघु कथा में छोटे से कलेवर में क्षण - विशेष को कथानक बनाकर सजीवता और सम्प्रेषणीयता के द्वारा प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया जाता है. चन्द्र धर शर्मा 'गुलेरी ' तथा प्रेमचंद जी ने भी लघु कथाएं लिखीं.
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने लघु कथाओं की शुरुआत की, ऐसा माना जाता है. सन 1929 में बापू के देश भ्रमण के हितार्थ चंदा एकत्र करते हुए किसी धनी व्यक्ति से उनका वार्तालाप हुआ जिससे प्रेरित होकर उन्होंने छोटी -छोटी कहानियाँ लिखने का पहला प्रयास किया. वे कहानियाँ थीं -'सेठ जी ' और 'सलाम '. उनके साहित्यिक मित्र अज्ञेय जी और बाद को प्रेमचंद जी ने भी इन्हें सराहा. इस सम्बन्ध में प्रेमचंद का यह कथन उल्लेखनीय है,”यह एक नयी कलम है, गद्य काव्य और कहानी के बीच एक नयी पौध, जिसमें गद्य- काव्य का चित्र और कहानी का चरित्र है. ”उनका लघु कथाओं का प्रथम संग्रह ' आकाश के तारे :धरती के फूल ' नाम से छपा था. उसकी सर्जना में इस विधा का विकास बिना किसी बाहरी प्रभाव के अनायास ही हो गया. इसके साथ ही उन्हें कहानी की इस नयी विधा का प्रवर्तक माना जाने लगा.
इसके पूर्व माखन लाल चतुर्वेदी ने 1915-18 के मध्य बहुत सी लघु कथाएँ लिखीं. मासिक पत्र ' प्रभा ' की फ़ाइलों में माखन लाल जी की सबसे पहली लघु कथा प्राप्त हुई है. 'कहानीकार ' के मार्च - अप्रैल 1976 के संयुक्तांक में माखन लाल जी के भाई बलराम ने अपने विस्तृत लेख ' हिंदी लघु कहानी - एक पुनर्मूल्यांकन ' में स्पष्ट रूप से लिखा है कि”हम माखन लाल चतुर्वेदी की ' बिल्ली ' और ' बुखार ' को हिंदी की आधुनिक लघु कहानी मानते है . इसके बाद नाम आता है कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की कहानी 'सेठ जी ' का, जो उन्होंने 1929 में लिखी थी. सन 1942 ईo में बुद्ध नाथ झा 'कैरव ' ने अपने 'हिंदी -साहित्य -सधना की पृष्ठभूमि ' में पहली बार इस प्रकार की छोटी कथाओं को ' लघुकथा ' के नाम से संबोधित किया. तब से लेकर आज तक परिवर्तनों के अनेक रूप, रंग, आकार ग्रहण करती हुई, आलोचनाओं तथा प्रत्यालोचनाओं को झेलती हुई, स्वयं को सिद्ध करती हुई लघुकथा लोकप्रियता के चरम शिखर पर पहुँच चुकी है.
हिंदी में मूलतः नाटककार एवं कथाकार के रूप में ख्याति प्राप्त मूर्धन्य साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर शरतचंद्र की जीवनी 'आवारा मसीहा ' लिखकर जीवनीकारों की प्रथम पंक्ति में गिने जाने लगे. उन्होंने साहित्य की विवादस्पद तथा अनेक प्रश्नों व संदेहों के घेरे में घिरी विधा ' लघुकथा ' को भी प्रारंभ से ही अपना लिया था और 1938- 1987 तक अनेक लघु कथाएँ लिखीं जो समय- समय पर अनेक पत्र - पत्रिकाओं में छपीं और सराही भी गयीं. लघु कथाओं का उनका पहला संग्रह ' जीवन पराग ' 1963 में प्रकाशित हुआ. जीवन के सभी उदात्त पक्षों को उजाकर करतीं हुईं छोटी -छोटी ये मार्मिक कथाएँ, जो सभी सत्य पर आधारित थीं, लेखक उन्हें लघु कथाओं के रूप में रेखांकित नहीं करना चाहते क्यों कि उनका मानना है कि सत्य मात्र होने के कारण ही कोई रचना कहानी नहीं बन जाती. उसी दशक में विष्णु प्रभाकर ने रेडियो के विदेश विभाग के लिए पौराणिक साहित्य से चुन कर ऐसी कथाएँ सीमित शब्दों में लिखीं जो सुनने और पढ़नेवालों को भारतीय संस्कृति के विभिन्न रूपों की पहचान करने वालीं थी. इनके चार संग्रह उपलब्ध है और उन्हें भी लेखक लघुकथा के अंतर्गत शामिल करना नहीं चाहते. 80 के दशक में लघुकथा का पुनर्मूल्यांकन हुआ तथा 1982 में दिशा प्रकाशन से विष्णु प्रभाकर जी की लघु कथाओं का दूसरा संग्रह 'आपकी कृपा है ' प्रकाशित हुआ. इस संग्रह में कुल 46 रचनाएँ संकलित थीं और वे भी विभिन्न कारणों से विवादस्पद बनीं किन्तु प्रशंसित हुईं. इस संकलन की कथाओं की भाषा को लेकर विद्वानों में अनेक मतभेद थे.
विष्णु प्रभाकर स्वयं भी इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते थे और इसी लिए उन्होंने कभी लघु कथा लिखने का दावा भी नहीं किया. 'आपकी कृपा है ' के 'दो शब्द ' में प्रभाकर जी ने लिखा है,”लघु कथा की विधा को लेकर आजकल बहुत उहापोह मचा हुआ है. उसकी एक सुनिश्चित परंपरा है या वह एक नितांत नयी विधा है अथवा उसकी कुछ उपयोगिता है या वह मात्र चुटकुले बाज़ी है या जो किसी अन्य विधा में सफलता नहीं पा सकते, वे ही लघु कथा के क्षेत्र में आकर चहकने लगते हैं. प्रारंभ में एकांकी तथा प्रयोगवाद, नयी कविता आदि को भी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा. निराला जी भी इस विवाद से बच न सके. कुछ लोग इसे मृत विधा भी कह गए. प्रमाण है कि एकांकी आज साहित्य की एक लोकप्रिय तथा सशक्त विधा के रूप में प्रतिष्ठित है.
विष्णु प्रभाकर लघुकथा को पश्चिम से आयातित नहीं मानते और न ही इसे बीसवीं शती के आठवें दशक की देन ही मानते हैं. आठवें दशक में इसे नवीन रूप अवश्य दिया गया किन्तु, विष्णु जी के मतानुसार, लघु कथा वास्तव में किसी -न - किसी रूप में अनादि काल से चली आ रही है. उनके अनुसार,”प्राचीन काल में ऋषियों व् मुनियों द्वारा लिखे गए दृष्टान्तों से ही लघुकथा का विकास माना जा सकता है. लघुकथा का बीज रूप पंचतंत्र और बोध कथाओं में भी उपलब्ध होता है. विकसित होने पर बीज का रूप तो बदल सकता है किन्तु, उसकी परिणति अंततः बीज ही होती है, फल नहीं. अतः बीज कभी नष्ट नहीं होता. समय, मौसम व् परिस्थितियों के अनुसार फलों के रूप- आकार में जिस प्रकार परिवर्तन होना स्वाभाविक है. उसी प्रकार लघुकथा के रूप, कलेवर और भाषा आदि में भी समयानुसार परिवर्तन आना भी स्वाभाविक ही है. जो गतिशील है वह एक समय अपने रूप -रंग में नितांत भिन्न होकर भी अतीत से अलग नहीं होता है बल्कि उसी का विकसित होता हुआ रूप है.
वर्तमान और भविष्य सबका केंद्र अतीत में ही रहता है. लेकिन इसका अर्थ अतीत को ओढ़ना नहीं बल्कि प्रवाह के स्वरुप को समझना होता है. विकास क्रम की इस यात्रा में लघु कथा ने दृष्टान्त, रूपक, लोक कथा, बोध कथा, नीति कथा, व्यंग्य, चुटकुले, संस्मरण -ऐसी अनेक मंजिलें पार करते हुए वर्तमान स्वरूपों को पाया है और अपनी सामर्थ्य को गहरे से अंकित किया है. आज लघुकथा यथार्थ से जुड़कर हमारे चिंतन को अधिक पैना और सशक्त बना रही है. अणु युग में लघुकथा विराट और वामन, भूमा और अल्प के संबंधों को नया अर्थ देती है. शब्द अल्प पर अर्थ भूमा है. सूत्र रूप में जीवन की व्याख्या करती है. ” लघु कथा की भाषा के विषय में विष्णु जी कथन है कि”उसकी अपनी भाषा होती है. न भावुकता, न उहापोह, न आसक्ति, पर अर्थ- वहन करने की क्षमता में अपूर्व. यही अपूर्वता लघुकथा को सशक्त और मार्मिक बनती है. ” विष्णु प्रभाकर स्पष्ट रूप से लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा ही स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि लघु कथा भी कथा ही है. युगों से कथा को क्षणों में भोगने को लघु कथा कहते हैं. इसका प्लाट ही अलग है. लघु कथा वह चीज़ है, जिसे मैं कहानी में नहीं कह सकता. ....वह कहानी का प्लाट नहीं हो सकता और अपने आप में सम्पूर्ण है. ...यह नहीं कि किसी प्लाट पर आप लघुकथा लिखें तो उसी पर लम्बी कहानी भी लिख दें. ...लघु कथा लिखना कठिन काम है. ...बहुत कठिन.
विष्णु प्रभाकर ने सन 1939 में लघुकथा का लेखन प्रारंभ किया था. उनकी पहली लघु कथा ' सार्थकता ' शीर्षक से ' हंस ' पत्रिका के जनवरी 1939 के अंक में प्रकाशित हुई थी. इसमें एक फूल की व्यथा को बड़े मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया गया है. अब तक प्रभाकर जी की लघु कथाओं के तीन संग्रह प्रकाशित हुए है -- 'जीवन पराग ' (1963), 'आपकी कृपा है ' (1982), तथा ' कौन जीता कौन हारा ' (1989) में प्रकाशित हुए. उनकी सम्पूर्ण लोककथाओं का एक संग्रह ' सम्पूर्ण लघु कथाएँ ' शीर्षक से सन 2009 में प्रकाशित हुआ है जिसमें उनकी कुल 101 लघु कथाएँ संकलित हैं. 'जीवन पराग ' की भूमिका में प्रभाकर जी ने लिखा है कि ये बोध कथाओं का संग्रह है. दूसरे संग्रह ' आपकी कृपा है ' में पहले संग्रह की कुछ रचनाएँ सम्मिलित की गयीं हैं. इसी प्रकार दूसरे लघुकथा संग्रह ' आपकी कृपा है ' में 15 और नयी लघुकथाएँ जोड़ कर विष्णु जी का तीसरा संग्रह ' कौन जीता कौन हारा ' प्रकाशित हुआ.
पद्म भूषण, भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी तथा सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड से सम्मानित विष्णु प्रभाकर का रचना संसार विविधता से भरा हुआ है. उनके लेखन में भावों और विषयों की ये विविधता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है. विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ मानव समाज और उसके आचार - व्यवहार के अनेक विषयों को अपने समेटे हुए है. भूख, गरीबी, स्वार्थपरता, रिश्वतखोरी, जाति - धर्मगत भेदभाव, बाल मनोविज्ञान, ईश्वरीय सत्ता, भाग्यवादिता, निरंकुश साम्राज्यवादी मानसिकता, पतनशील सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था, समाज के तथाकथित धनी वर्ग की खोखली आदर्शवादिता और पाखंड, स्त्री व् दलित वर्ग का शोषण आदि अनेक विषय प्रभाकर जी लेखनी के संस्पर्श से आलोकित हुए हैं. विष्णु जी की लघु कथाओं के अवगाहन से मुख्य रूप से जो तथ्य निष्पादित होकर समक्ष आता है, वह यह है कि विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ मानव के अंतर्मन की वे यात्रा कथाएँ हैं जो मन की रहस्य- गुत्थियों को परत -दर -परत खोलती हुईं उसकी संवेदनाओं के सूक्ष्म तारों को झनझनाती हुईं अपनी पूर्णता तक पहुँचती है. मन की इस अंतर्यात्रा में अनेक पड़ाव आते हैं. हर पड़ाव में कई लोग चढ़ते हैं और कुछ लोग उतरते हैं. नए सदस्य जुड़ते है और पुराने बिछड़ जाते हैं. इन सबके बीच से शुरू होती है, यात्रा मन की और मन पर जाकर समाप्त होती है.
विष्णु प्रभाकर की लघु कथाएँ अपनी प्रवृति में मानव- मन की अंतर्यात्राओं के रूप में उभर कर समक्ष आतीं हैं. उनके लेखन में मानवीय मन के विविध चित्रों की अनेक बहुरंगी झाकियाँ दिखाई देती है. मानव मन में अनेक भाव और विचार उठते हैं जो उसके मन एवं मस्तिष्क को निरंतर मथते रहते हैं, तदनुसार उसके कार्यों को प्रेरित और प्रभावित भी करते रहतें हैं . अपने आस -पास के वाह्य संसार से प्राप्त अनुभवों के अनेक टेढ़े -मेढ़े गलियारों से होकर गुज़रता हुआ, विभिन्न अनुभूतियों, संवेदनाओं को अपने अंतर में समेटता हुआ मानव, अंततः अपनी यात्रा मन पर ही आकर समाप्त करता है. मन ही मनुष्य से वह सब कुछ करवाता है जो उसे कभी तो उच्चता के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ कर देता है तो कभी निम्नता के गह्वर में ले जा कर पटक देता है या फिर तटस्थ मूक दर्शक बना देता है . अच्छा या बुरा, पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म ये सब मानव -मन के ही रचे हुए प्रपंच हैं. उसका मस्तिष्क मन को अपने तर्क -वितर्क के जाल में उलझाकर उसे भ्रमित कर देता है. किन्तु, मन ही चतुर खिलाडी के समान स्वयं खेल निर्धारित करता हैऔर खेल के नियम भी वही बनाता है. अपने खेल में खिलाडी वही और खेल का प्रतिद्वंद्वी भी वह स्वयं ही होता है. अपने रचे इस खेल में विजेता भी वही बनता और हारने वाला भी वही . मन और मस्तिष्क के अलावा भी एक तत्व ऐसा है जो मानव संसार को 'मानव संसार ' बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वह है - मन के साथ घनिष्टता से जुडी हुई संवेदनाएँ. अंतर्द्वन्द्व के धुंधले रास्तों से गुज़रती हुई मन के किसी कोने में छिप कर बैठीं हुईं संवेदनाएँ मस्तिष्क के तर्कों -कुतर्कों के घने जाल से स्वयं को मुक्त करती हुईं अपना रास्ता तलाशती हैं और अंततः अपनी मंजिल पा जातीं हैं. वह मंजिल है- मानवता की, मानवीय संवेदनाओं की जो नैतिकता और जीवन मूल्यों के सुदृढ़ स्तंभों पर आधारित है.
विष्णु प्रभाकर की प्रत्येक लघुकथा में मानव मन की अंतर्यात्रा के ऐसे अनेक मार्मिक चित्र बिखरे पड़े हैं जो जीवन मूल्यों से अनुप्राणित होकर उसके अंतरतम को दीप्त ही नहीं करते, वरन वाह्य जगत को भी आलोकित करते हैं. ये लघुकथाएँ दुविधा से मुक्त करके सत्कर्म की राह पर चलना सिखाती हैं, मानव को मानव बनाना सिखाती हैं. 'अभी आती हूँ ' में सेवा का वास्तविक अर्थ तब उजागर होता है जब मुंशी जी प्लेग की गिल्टी निकल आये अपने नौकर को इसलिए छोड़कर जाने को तैयार नहीं होते क्यों कि,”जन्म भर रामू ने मेरी सेवा की. अब जब उसके सिर पर मौत मंडरा रही है, मैं उसे छोड़ कर कैसे जा सकता हूँ. ”इसी प्रकार ' मूक शिक्षण ' लघु कथा मन की गहराइयों तक मानवीय संवेदनाओं के तारों को झंकृत कर जाती है. फुलेना प्रसाद भयंकर जाड़ों में भी इसलिए कोट नहीं पहनना चाहते क्यों कि गरीबी और गंदगी में रहने वाले मजदूरों के शरीर पर वस्त्र नहीं थे और न पेट में अन्न. प्रभाकर जी की लघु कथाओं में जीवन का शुभ और सुन्दर पक्ष द्वंद्व के माध्यम से उभर कर सामने आया है. वस्तुतः क्या होना चाहिए से अधिक महत्वपूर्ण है, कैसे होना चाहिए. विष्णु प्रभाकर की लघुकथाओं में सर्वत्र जीवन मूल्यों और आदर्शों के सच्चे मोती बिखरे पड़े हैं. इनमें मनुष्य की भीतरी शक्ति और सद्गुणों का प्रकाश सर्वत्र फैला है.
डॉ. अशोक भाटिया की यह मान्यता इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण है कि, ”विष्णु प्रभाकर ने मनुष्य के गुणों व् शक्तियों को अपनी लघु कथा में समेटा है, उभारा है. समय के साथ -साथ जो विसंगतियाँ, विडंबनाएँ अपने वीभत्स रूप लेकर सामने आती रहीं, प्रभाकर जी ने उनका चित्रण भी अपनी परवर्ती रचनाओं में किया है, किन्तु मानव मूल्यों को वहाँ भी वे दृढ़ता से पकडे रहे हैं. ”इतनी सी बात, भला काम, मुक्ति, अतिथि, क्षमा, ममता, अनोखा दण्ड, सबसे बड़ा शिल्पी, ऋण, सहानुभूति, शांति की राह, निर्भयता, आपकी कृपा है, अहंकार का नाश, घृणा पर विजय, डॉक्टर और चोर, प्रेम की भेंट, तर्क का बोझ, अयाचित सुख, खोना और पाना, सीमा, मूक शिक्षण, बिंध गया सो मोती अदि ऐसी लघुकथाएँ हैं जो विष्णु प्रभाकर की लेखनी का स्पर्श कर आज भी आलोकित हैं.
हिदू -मुस्लिम समस्या भारत की एक ऐसी शाश्वत समस्या बन गयी है जिसका अंत देश के बंटवारे के बाद भी नहीं हो सका है. फर्क, पानी की जात, जात या जान, मोहब्बत आदि अनेक लघुकथाएँ इस परिदृश्य को एक नयी राह पर ले जाने को उत्प्रेरित करतीं हैं. 'जात या जान' की ज़द्दोज़हद में जात की ही हार होती है और होनी भी चाहिए. प्यास से व्याकुल एक हिन्दू युवक मुसलमान किसान की कुटिया में पहुँच कर पानी मांगता है-- उसने हांफते हांफते किसी तरह कहा,”पानी”. उस युवक ने उसकी ओर देखा और कहा,”मैं मुसलमान हूँ. ”"तो क्या हुआ ?”उसने कहा,”होता क्या, मैं तुम्हारी जात नहीं ले सकता. तुम हिन्दू हो. अपने रास्ते जाओ. ”. . ”मैं जात नहीं जान की बात कर रहा हूँ तुम जान तो नहीं लोगे. मुझे पानी दो. .....मैं यहीं पड़ा हूँ. .देखता हूँ तुम जात लेते हो या जान. ”अंत में एक मानव पानी देकर दूसरे मानव की प्यास बुझाता है.
अपनी बहुचर्चित लघुकथा 'फर्क ' में प्रभाकर जी ने ' देखन में छोटी लगे घाव करे गंभीर ' कहावत को चरितार्थ किया है. यह आदमी ही है जिसने देश, जाति, धर्म, नस्ल और रंग की दीवारें खड़ी की हैं अन्यथा ये फर्क जानवर करना नहीं जानते. यही वह बिंदु है जहाँ आदमी स्वयं को जानवर से भी बद्तर जानवर पाता है. ' मोहब्बत 'नामक लघुकथा में भावनात्मक स्तर पर सांप्रदायिक सद्भाव को दर्शाया गया है. ईद के दिन एक मुसलमान दोस्त अपने हिन्दू दोस्त के घर से दूध ले जाकर उससे बनी हुई सेवइयाँ बना कर जब हिन्दू दोस्त के घर जाता है तो उसकी माँ सेवइयाँ लेने से इंकार कर देती है. संयोग वश सेवियों का कटोरा वहीँ दरवाजे पर गिर जाता है. यही कथा की चरमावस्था आती जो मन को झिझोड़ जाती है और मानवता की राह तक ले जाती है --' वे सेवइयाँ नहीं थी, इन्सान की मोहब्बत थी जो मेरे दरवाजे पर पैरों से रौंदे जाने के लिए पड़ीं थी. ”यह निष्कर्ष वाक्य वैमनस्य से जलते हुए मन को मानों सहिष्णुता का शीतल जल पिला कर भीतर तक शांत कर जाता है.
विष्णु प्रभाकर की कथा यात्राओं का एक पड़ाव है -- बाल - मन की यात्रा. बच्चों को पास से देखने और उनके मन का अध्ययन करने का विष्णु जी को बहुत अवसर मिला है. यह बात उन्होंने स्वयं भी स्वीकार की है. उनकी संवेदनशीलता और उनके निरीक्षण करने की क्षमता से प्रभाकर जी अत्यंत प्रभावित थे. बच्चे जो कुछ भी कह या कर जाते है, उन पर सहसा विश्वास नहीं होता. बच्चों के भोले और निश्छल मन की सहजता से माँगी गयी हर सच्ची पुकार ईश्वर के दरबार में स्वीकार की जाती है, किन्तु जैसे- जैसे वे बड़े होते जाते हैं, बालपन में आत्मा की यह पवित्रता धुंधलाने लगती है, उस पर स्वार्थ की अनेक परतें चढ़ने लगतीं हैं .
निःस्वार्थ मन से की गयी प्रार्थना और स्वार्थ भरी प्रार्थना के अंतर को 'वह बच्चा थोड़े ही न था ' नामक लघु कथा में बड़े ही मार्मिकता के साथ दर्शाया गया है. एक लेखक बिजली जाने से परेशान थे. पाँच घंटे गुज़र जाने के बाद भी बिजली नहीं आयी. लेखक अपने ढाई वर्ष के शिशु से कहते है, ”बेटे ! बिजली रूठ गयी है, ज़रा बुलाओ तो उसे. ”शिशु ने सहज भाव से बिजली को पुकारा और संयोग से बिजली आ जाती है . देर रात तक पति घर नहीं लौटते तो पत्नी अपनी छोटी बच्ची से बोली,”बेटी, तुम्हारे पापा अभी तक नहीं आये. बहुत देर हो गयी. तुम उन्हें पुकारो तो. ”संयोग वश बच्ची के पुकारते ही दरवाजे पर पापा खड़े मुस्करा रहे थे. किन्तु, अपनी प्रिय पत्नी की मृत्यु के बाद एक पति जब सच्चे मन से पुकारता है,”प्रिये ! तुम लौट आओ, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पा रहा. ”तो वह नहीं आती है . बाल -मन की सहजता और निर्मलता के सामने वयस्क मन को मानो उन्होंने एक चुनौती दी है.
बालमन की यात्रा के दौरान उनके मन के भीतर की स्वाभाविक जिज्ञासा, उत्सुकता, प्रश्नाकुलता, स्नेहासिक्त तरलता तथा बाल -बुद्धि की प्रौढ़ता को विष्णु जी ने जिस सहजता से दर्शाया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. बच्चों के मन में चल रहे द्वंद्व का बाहर से आभास लगाना अत्यंत कठिन होता है. सबसे तेज़ गति मन की, शैशव की ज्यामिति, वह शरारत, शैशव का भोलापन, शैशव, तो अच्छा, दो बच्चों का घर आदि लघु कथाओं में इसी सत्य को दर्शाया गया है. 'शैशव की ज्यामिति - तीन कोण ' नामक कथा में चार वर्षीय बेटे टिंकू की शरारतों से माता - पिता दोनों त्रस्त हैं. टिंकू अपने माता -पिता के साथ ही अपनी दादी का भी बहुत दुलारा है . टिंकू की शरारतें जब सीमाएँ लाँघ जाती हैं तो खीज कर उसके पिता उसके गाल पर तड़ातड चांटे जड़ देते हैं. टिंकू तड़प कर कह उठता है,”भगवान के पास जाते हुए अम्मा कह गयी थीं बच्चों को डांटना मत, प्यार से रखना और आप मुझे इतनी जोर से मारते हैं. मैं अम्मा के पास चला जाऊँगा. ” यह वाक्य किसी भी बच्चे के मन की परतों खोल कर देता हैं. इसी प्रकार 'तो अच्छा ' नामक लघुकथा में बच्चों का भोलापन बड़ों को किस प्रकार उद्विग्न कर देने का कारण भी बन जाता है, इस आश्चर्यजनक तथ्य के साथ ही एक लेखक के दर्द को भी बड़ी ही मार्मिकता से बयां किया गया है. एक बच्चा कई बार अपने लेखक पिता से क्रिकेट खेलने का सामान लाने के लिए कह चुका है, किन्तु पिता अपनी व्यस्तता के चलते नहीं ला पाता.
बच्चा जब पिता से सवाल -जवाब करता है तो पिता अपनी कम कमाई का तर्क देता है. बच्चे की जिज्ञासा फिर भी शांत नहीं हो पाती. खेल का सामान न ला पाने का यह तर्क उसकी बाल -बुद्धि स्वीकार नहीं कर पाती. आखिर वह पूंछ बैठता है,”सारा दिन मेज पर बैठे -बैठे लिखते रहते हो, इतने पैसे भी नहीं कम सकते कि मेरे लिए खेल का सामान ला सको”“हाँ, नहीं कम सकता”. ”तो कितना कमा सकते हो ?”“उतना जितने में अपना और तुम सबका पेट भरा जा सके. ” यह कह कर उसने बालक की ओर देखा कि वह और भी उग्र हो उठेगा. लेकिन आश्चर्य, वह उतना ही शांत हो आया और अपने स्वर में अत्यंत करुणा भर कर बोला,”तो अच्छा”. कथा यहीं समाप्त नहीं जाती . ”बालक के इस शांत रूप को देख कर पिता का रोम -रोम उद्विग्न हो उठा. उसके जी में आया कि इस बालक का गला घोंट दे. इस दुष्ट का इतना साहस कि उससे सहानुभूति प्रकट करता है. .. वह इतना उद्विग्न हो उठा था कि उस दिन कुछ काम काम न कर सका. उसका वह 'तो अच्छा ' उसके लिए चुनौती बन गया. . कथा नए रहस्य खोलती है, पाठकों के जिज्ञासा को और भी बढाती है. इसी प्रकार”पिरान पियारे पिराणनाथ ' कथा एक गूंगे और मूढ़ बालक को अकथ प्रेम का रहस्य समझाने में अपने यात्रा पूर्ण करती है.
प्रत्येक मनुष्य का मन सुखी होना चाहता है, किन्तु मस्तिष्क सदा तर्कों की बात करता है. जब मस्तिष्क के तर्क मानव की चेतना पर हावी हो जाते है तो इन्सान मन मसोस कर रह जाता है लेकिन ख़ुशी को प्राप्त करके ही वह संतुष्ट होता है. जो ख़ुशी मन पाना चाहता है वही जब उसके सामने आती है तो मस्तिष्क के तर्क उसे चुनौती नहीं दे पाते हैं. 'अयाचित सुख ' में एक लाचार भाई परीक्षक महोदय से अपनी बहन को उतीर्ण कर देने की विनती करता है क्यों कि उसके परीक्षा परिणाम पर ही उसकी बहन का विवाह होना निर्भर करता है. अपने सिद्धांतों से समझौता करके, अनुग्रहांक देने के पश्चात् भी बहन सफलता अर्जित न कर सकी. परीक्षक पतन की पराकाष्ठा को छूना नहीं चाहते इसलिए कुछ अधिक न कर सके. कुछ माह बीतने पर वही युवक अपनी बहन के विवाह की सूचना देता है.
हतप्रभ परीक्षक के लिए यह सूचना वेदना देने वाली थी, किन्तु उसके पीछे छिपा सुख उन्हें अलोहित कर गया. 'संवेदन ' नामक लघुकथा मन की अबूझ पहेली की ऐसी कथा कहती है, जो अकथनीय संवेदना को व्यक्त करती है. स्टेशन पर गाड़ी के रुकते ही अनेक भिखारी आ खड़े होते हैं जिनमें एक अर्ध नग्न लड़की अपने बदरूप शिशु को गोद में लिए खिड़की के आगे गिड़गिड़ाती है. लेखक उपेक्षा और तिरिस्कार से भर कर उसे भगाते हैं. तभी एक पुलिस का सिपाही उस लड़की को घसीटता हुआ वहाँ ले जाता है. लड़की की चीख और गोद के शिशु के क्रंदन को सुनकर लेखक का ह्रदय भर आता है और वह सिपाही को गलियाँ देने लगता है. अपने छोटे से कथानक में भी भावनाओं की लम्बी यात्रा तय का ली है इस लघुकथा ने. इसी प्रकार ' व्यवस्था का राज़दार ' नामक अत्यंत लघु कथा में समाज में व्याप्त कुव्यवस्था को जिस तीखे व्यंग्य के साथ से प्रस्तुत किया गया वह विष्णु प्रभाकर को श्रेष्ठ लघुकथाकारों की पंक्ति में लाकर खड़ा करता है.
आदर्श और सिद्धांतों से द्वंद्व करता हुआ मन यात्रा करता हुआ अगले पड़ाव पर पहुंचता है जहाँ उनकी व्यवहारिकता के समक्ष उसे अनेक प्रश्नों का सामना करना पड़ता है और जहाँ मानवता भी न्याय पाने के लिए चीत्कार कर उठती है, तड़प उठती है. लीक से अलग हट कर रची गयी स्वयं में एक विशिष्ट लघु कथा है”विकृति और विकृति”. खचाखच भरी अदालत में प्रतिवादी पर आरोप लगाया गया था कि उसने स्थानीय कॉलेज की एक छात्रा पर एक बार नहीं, दो -दो बार बलात्कार किया है. लेकिन, प्रतिवादी का वकील जिरह करता है कि प्रतिवादी ने बलात्कार तो किया है लेकिन एक बार, दूसरी बार नहीं.
इस अविश्वसनीय बात को प्रमाणित करने के लिए स्तब्ध अदालत में वादी को बयान देने के लिए बुलाया जाता है. वादी ने स्पष्ट किया कि,”माननीय न्यायधीश महोदय ! प्रतिवादी ने मुझ असहाय को अकेली पाकर मेरे अनुनय- विनय और प्रतिरोध करने पर भी जब मेरे साथ बलात्कार किया तो मेरी प्रतिहिंसा जाग उठी. कैसे उससे बदला लूँ, यह सोचते -सोचते मुझे प्रभु ईसा के ये शब्द याद आ गए, 'जब कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी उसके आगे कर दो. ' और तब मैं प्रतिवादी को दूसरी बार अपना शरीर भेंट करने को विवश हो गयी. ”ऐसा बयान सुनने के बाद न्यायधीश यह निर्णय देने के लिए विवश को गए,”दूसरी बार स्वेच्छा से समर्पण करने के पश्चात् प्रथम बार बलात्कार करने का आरोप स्वतः ही निरस्त हो जाता है और इसलिए कानून निर्दोष वादी को मुक्त करने का आदेश देता है. ”प्रस्तुत लघुकथा में अंधे कानून की विवशता और आम आदमी के न्याय पाने की आशा पर तीक्षण कटाक्ष करते हुए प्रभाकर जी ने सम्पूर्ण न्याय प्रक्रिया को ही कटघरे में ला खड़ा कर दिया है. मूल्यगत दृष्टिकोण से इनकी लघु कथाओं में नए पुराने जीवन -मूल्यों के मध्य समन्वय तथा सामंजस्य परिलक्षित होता है.
ईश्वर के अस्तित्व और किस्मत जैसे विचारों के प्रति शंकाकुल मन सदा ही असमंजस में रहता है. मन की अंतर्यात्रा का एक पड़ाव है -- उस परम सत्ता की अनुभूति और उसके दर्शन. ईश्वर को किसी ने देखा नहीं, किसी ने जाना नहीं. ईश्वर मानव मन का विश्वास है, आस्था है और उसके जीवन की शक्ति है. मन सदा उसके होने और न होने के बीच झूलता रहता है. मस्तिष्क के तर्क उसके न होने को सिद्ध करते हैं और मन उसे सृष्टि के विभिन्न रूपों में खोज ही लेता है क्यों कि मानव मन में उस परम सत्ता पर अविश्वास करने की शक्ति नहीं है. मेरा यक्ष, न जाने कही वेश में, भगवान और पुजारी लघु कथाओं में मन की यात्रा के इस पड़ाव को अंकित किया गया है. अच्छी और लोक कल्याण की भावना से किया गया कोई भी काम हमें ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति करा देता है. प्रभा सबीना के चेहरे में ईश्वर का ही रूप देखती है तो एक ग्रामीण महिला ईश्वर के अस्तित्व का आभास दूसरों की सेवा में तलाशती है.
आज के इस वैज्ञानिक युग में अनायास घटित होने वाली सुखद घटनाओं के घटित होने में भी प्रभाकर जी ईश्वर का प्रतिबिम्ब देखते है. ऊँच - नीच, जाति -धर्म, छुआ छूत ये सब ईश्वर के नहीं, वरन मनुष्य के बनाये हुए नियम हैं जहाँ ईश्वर की उपस्थिति नहीं है. 'भगवान और पुजारी ' नामक लघुकथा इसी सामाजिक अव्यवस्था और असमानता को दर्शाती है. भगवान सबका है और उसी भगवान ने हम सभी को बनाया है, किन्तु धर्म के ठेकेदारों की मनमानी और उनके सर्वोच्च बने रहने की कुमंशा ने भोले -भाले लोगों को सदा से ही बेवकूफ बनाया है. अछूत जाति का एक व्यक्ति मंदिर में भगवान के दर्शन करना चाहता है. पुजारी उसे अछूत कहकर मंदिर में प्रवेश करने रोक देता है साथ ही प्रवेश पाने का उपाय भी बताता है कि दो साल तपस्या करने के पश्चात् ही वह उसे मंदिर में प्रवेश करने देगा. तीन वर्ष बीतने पर भी वह न आया. कारण पूंछने पर वह व्यक्ति अत्यंत कृतज्ञता से उत्तर देता है -”मैंने दो वर्ष बड़ी कठिन तपस्या की, इतनी कि भगवान् सचमुच प्रसन्न हो गए. उन्होंने दर्शन दिए. मैंने कहा, प्रभु ! मैं मंदिर में आपके दर्शन करना चाहता हूँ. ”प्रभु हँसे, बोले,”तुम वहाँ जाकर क्या करोगे ? हजारों वर्ष बीत गए, मैं भी वहाँ नहीं गया हूँ. ” आज तक भी अहंकारी पुजारी प्रभुहीन मंदिर के द्वार बंद किये बैठा है और भावना हीन पूजा करने का पाखंड करता है. ' किस्मत की फाइल ' लघुकथा भी इसी प्रकार किस्मत के होने -न होने की स्थिति को उजागर करती है.
पूर्वाग्रह और शंकाओं से ग्रसित मन जाने क्या -क्या सोचना शुरू कर देता है. मन अनेक ग्रंथियां पाल लेता है. उसकी सहजता जाने कहाँ खो जाती है और असहज व्यवहार मनुष्य को भीड़ में अकेला छोड़ देता है. पहचान, आँखों देखा, बिंध गया सा मोती, अहम्, तर्क का बोझ, ब्रहमानन्द सरोवर, नाम और काम आदि. व्यवस्था का राजदार और आचरण की सभ्यता नामक लघु कथाओं में सामाजिक जीवन में व्याप्त होती संवेदनशून्यता तथा तिनका तिनका होकर ढहती, चरमराती सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का सच जो प्रभाकर जी की अनुभूतियों के सच से होकर गुज़रता है और शीशे की तरह पारदर्शी होकर झिलमिलाता है. आम जीवन में मनुष्य अक्सर मानवीयता और मदद के नाम पर स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करता है. ऊँगली पकड़ते -पकड़ते पहुँचा पकड़ लेने की कहावत चरितार्थ होने लगती है. ' कौन जीता कौन हारा ' लघु कथा में यही दिखाया गया है कि व्यस्तता और भाग -दौड़ की जिंदगी में शंकालु मन किस प्रकार मुसीबत में फंसे व्यक्ति की मदद करते हुए भी असमंजस में पड़ा रहता है और अंत तक अपनी दुविधा से बाहर निकल नहीं पाता. ट्रेन की यात्रा के समय लेखक से आधुनिक से दिखाई देने वाले एक सज्जन अपने परिवार का ध्यान रखने का आग्रह करते हैं जो अकेले यात्रा कर रहा है.
स्वीकृति मिलने के पश्चात् वे सज्जन अपना एक ज़रूरी पत्र अगले स्टेशन पर स्टेशन मास्टर को देने की विनती करते हैं. लेखक को झिझकता हुआ देख कर वे सज्जन किसी अन्य व्यक्ति को इसी काम के लिए खोजते हैं और जब उन्हें कोई नहीं मिलता तो स्वयं ही जाकर पत्र देने की बात कहते हैं. अचानक ही यात्रा करना, टिकट का प्रबंध न हो पाना फिर टिकट के पैसे न होने की स्थिति में घर वापस जाने में असमर्थता ज़ाहिर करना तथा पुन: उसी व्यक्ति से धन की माँग करना और जल्द से जल्द उसे वापस कर देने का वादा भी करना आदि सब कुछ उनके मन में संदेह और अविश्वास को और भी अधिक बढ़ाते है. पाठक स्वयं भी जैसे कथा का हिस्सा बनता चला जाता है. व्यक्ति का मन मोह की सी स्थिति में आकर सोच में पड़ जाता है. ..."मन ने कहा, यह तो पेशेवर था, अब रुपये नहीं मिल सकते. हो सकता है पर किसी का अविश्वास करने से विश्वास करके ठगा जाना कहीं अच्छा है.
मन ने मुस्कराकर धीरे से कहा, तुम्हारे पास तर्क कुछ कम हो तो मैं दूँ. कहो कि पिछले जन्म का क़र्ज़दार था मैं या यह कि वह अपनी ईमानदारी गिरवी रख गया है मेरे पास या कि अपराध उसका नहीं व्यवस्था का है जिसने उसे इस स्थिति में पहुँचा दिया है. ” अंतिम स्टेशन पर पहुँचने तक वे सज्जन लेखक के पास नहीं आये और पास के कक्ष में उनका परिवार भी नदारत था. विजयी मन बार -बार धिक्कारता - कचोटता पर फिर भी मुस्कराता रहा. इसी घटना को लेखक लेखनीबद्ध कर एक पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजते है जो शीघ्र ही न केवल प्रकाशित होती है बल्कि उसका पारिश्रमिक भी प्राप्त होता है. इस घटना पर मन व्यंग्य पूर्ण हँसी हँसता है और लेखक की हँसी में विजय का दर्प झलकता है. व्यंग्य और दर्प एक स्तर पर दोनों समानार्थी हैं. ” कथा का यह अंतिम वाक्य पाठकों को असमंजस्य और संभ्रम स्थिति में ले जाकर छोड़ देता है.
' पूज्य पिता जी ' में इन्सान की स्वाभाविक मूल प्रवृत्तियों को दर्शाया गया है जिन पर उसके सिद्धांतों, विचारों और आयु -सीमा के बंधनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. इन्सान चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर ले वे शरीर से त्वचा की भांति चिपके ही रहते हैं और जब मनुष्य को अपनी प्रवृत्ति गत दुर्बलताओं का आभास होता है तो भी वह इनसे छुटकारा नहीं पा सकता.
विष्णु प्रभाकर की कथाओं के माध्यम से पाठक अपने अंतर्मन की उस यात्रा से गुज़रता है जहाँ कुछ समय के लिए कुतर्कों से बुद्धि भ्रमित होती है किन्तु अगले ही पल मन की कोमलता, शीतलता, आर्द्रता, स्निग्धता और तरलता के समक्ष बुद्धि की रुक्षता, कठोरता और खुरदुरा जाता रहता है जहाँ मानवता, संवेदनशीलता, जीवन आदर्श और मूल्यों की भीनी -भीनी सुगंध फ़ैल जाती है. यह सुगंध बाहर तक फ़ैल कर जन जीवन और समाज को भी सुगन्धित व् धन्य बना देती है.
लघु कथा की भाषा के लिए संक्षिप्तता और संश्लिष्टता दो ऐसे अपरिहार्य गुण हैं जो विष्णु प्रभाकर की लघु कथाओं में अपने पूरे वैभव के साथ विद्यमान है. सन 1938 -1987 तक के बीच लिखी गयीं उनकी समस्त लघुकथाओं के अंतर्गत प्रारंभिक कथाओं और बाद की कथाओं की भाषा और भाव में अंतर दिखाई देता है. उनकी लघु कथाओं में भाषा की सांकेतिकता में पात्रों, चरित्रों और घटनाओं की मन: स्थिति को अत्यंत चुस्ती के साथ प्रस्तुत किया गया है. कथानक के मूल स्वरुप, प्रभाव और उद्देश्य को क्षति पहुँचाये बिना सहज, सरल, आम बोल -चाल के बोधगम्य शब्दों के प्रयोग के द्वारा सतत सम्प्रेषणीयता को बनाये रखा गया है, जिसका प्रत्येक शब्द सार्थक अर्थवत्ता को ध्वनित करता है. कथा की प्रथम पंक्ति से लेकर अंतिम पंक्ति तक वाक्यों का भाषिक स्तर सुष्ठु है जो अपने विकासात्मक क्रम में परिणामगामी है. व्याकरणिक शुद्धता तथा विराम चिह्नों के समुचित प्रयोग से सम्प्रेषणीयता को बनाये रख कर नाटकीय गौरव का भी समावेश किया गया है.
लघु कथाओं की शैली उसके लक्ष्य और प्रभाव की नियामक होती है. कभी बात या स्थिति को उठाकर आधे में ही छोड़ दिया गया है और कभी चरम पर ले जाकर एकदम झटक दिया गया है. हास्य पूर्ण कथाओं में भाषा का प्रयोग मौलिक है जो पाठकों के ह्रदय को हौले से गुदगुदा जाता है और साथ ही अपनी सार्थकता को भी सिद्ध कर जाता है (कथा- 'नपुंसक व धातु और रुपया '). अंतिम वाक्य के द्वारा कथाकार का उद्देश्य सीधे पाठकों के मर्म पर आघात करता है. प्रभाकर जी ने लघुकथाओं में विभिन्न प्रभावशाली वाक्यांशों के द्वारा वातावरण सृष्टि की अभूतपूर्व योजना की है.
उदाहरण स्वरुप --- ”जहाँ खतरा था, वहीँ उत्फुल्ल सौन्दर्य पाया. ”“संकट में साहस सघन हो उठता है. ”“जो क्षणिक है वही आनंद है. अमरता तो थका देने वाली होती है. ” “कितनी अंधी है ये शक्ति. खून में स्नान करके भी हँस देती है. ” “व्यंग्य और दर्प एक स्तर पर दोनों समानार्थी हैं. ”“जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते. ”“वह गणित से अतीत बच्चा थोड़े ही न था. ” ”यदि भूख मिट गयी तो हम दान किसे देंगे. ”आदि. इन वाक्यांशों का प्रयोग कथा के मध्य और अंत दोनों ही स्थानों पर भावानुकूल किया गया है. संवाद यद्यपि लघु कथा का अनिवार्य तो तत्व नहीं हैं, किन्तु लघु कथाकार संक्षिप्त और तेज़-तर्रार संवादों के द्वारा लघुकथा में कसाव भरने की कोशिश करता है, परन्तु संवादहीन लघुकथाएं भी पर्याप्त मात्र में उपलब्ध हैं. विष्णु प्रभाकर की लघुकथाओं में संवाद कथानक के अनुरूप स्वाभाविक रूप से आयें हैं. उन्हें कहीं भी ज़बरदस्ती लादा नहीं गया है. संक्षिप्त, कटे -छंटे तथा उपयोगी संवादों से लघुकथाओं में अतिरिक्त प्रभाव तथा नाटकीयता का गुण आ गया है तथा वे पात्रों के चरित्र को भी उजागर करते हैं .
आकारगत लघुता ' लघुकथा ' का प्रमुख गुण है और इसका 'शीर्षक ' रखना एक कौशल. रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा हाथ होता है. शीर्षक लघु कथा के पूरे बिम्ब को संप्रेषित करता है. उसके समग्र व्यक्तित्व का आइना है --.शीर्षक. प्रथम दृष्ट्या शीर्षक ही पाठक को पढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है. शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथ -साथ आकर्षक, विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न कर सके ताकि पाठक तुरंत उसे पढना आरम्भ कर दे. विष्णु प्रभाकर जी ने लघुकथा में शीर्षक कई प्रकार से रखे हैं. कथा के लक्ष्य या परिणाम को ध्यान में रख कर उन्होंने अनेक शीर्षकों का चयन किया है जो कथा के उद्देश्य की ओर ध्यान तो अवश्य आकर्षित करते हैं किन्तु आज ऐसे शीर्षक प्रचलन में नहीं हैं और कम ही पसंद किये जाते हैं. ऐसे शीर्षकों की मुख्य कमी यही है कि बिना लघुकथा को पढ़े ही ये पाठकों की जिज्ञासा को शांत कर देते हैं. फर्क, ईश्वर का चेहरा, आपन जन, जाति या जान, पानी की जाति, पाप की कमाई आदि शीर्षक इस श्रेणी में आते हैं.
लघुकथा के अंतर्गत प्रयुक्त किसी वस्तु, स्थान या किसी भाव आदि को भी लेखक नें शीर्षक के तौर पर अपनाया है. जैसे -अयाचित सुख, मेरा यक्ष, खोना और पाना, वह शरारत, ममता, कोशिश, विकृति और विकृति, मूक शिक्षण, लीक से हट कर आदि. व्यंजना शक्ति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत इस प्रकार के शीर्षक सर्वाधिक लोकप्रिय होते हैं. व्यंजना शक्ति लघुकथा के प्राण हैं और उन्हें ऊँचाई प्रदान कर जाता है इनसे लघुकथा की सम्प्रेषणीयता में भी कोई कमी नहीं आती. ऐसे शीर्षक लघुकथा की आत्मा को स्पर्श करता है. विष्णु जी ने अपनी लघुकथा के शीर्षक निर्धारित करते समय जिस तकनीकि का सर्वाधिक प्रयोग किया है, वह है - वाक्यों या वाक्यांशों के आधार पर शीर्षक का चयन. योरोपीय व अमरीकी लेखक अधिकांशतः इस प्रकार के शीर्षकों को प्रमुखता से अपनाते हैं, किन्तु लघुकथा में कम ही प्रयोग किये जाते हैं. इस प्रकार के शीर्षक एक अतिरिक्त आकर्षण तो पैदा करते ही हैं साथ ही पूरी लघु कथा का अनकहा भी बड़ी ख़ूबसूरती से कह जाते हैं .
चोरी का अर्थ, अंतर दो यात्राओं का, वह बच्चा थोड़े ही न था, पीरीन पियारे पिराणनाथ, न जाने केहि वेश में, सबसे तेज़ गति मन की, शैशव की ज्यामिति -तीन कोण, और बहन राह देखती रही, अभी आती हूँ, किस्मत की फाइल, प्रेम की भेंट, भगवान और पुजारी, ब्रहमानंद सरोवर, कौन जीता कौन हारा, दो बच्चों का घर, मणि का प्रभाव, धन्य है आपकी परख, आँखों देखा झूठ, धर्मराज के अवतार आदि लम्बी सूची है इस प्रकार के शीर्षकों की. आठवें दशक में व्यंग्यात्मक शीर्षक रखने का काफी प्रचलन था जिन्हें प्रभाकर जी की लघु कथाओं में भी देखा जा सकता है. इस प्रकार के शीर्षकों की लघुकथाओं में दोस्ती, मोहब्बत, पूज्य पिता जी, दान, तो अच्छा, आधा किलो सम्मान आदि को देखा जा सकता है. विष्णु जी की अनेक लघुकथाओं के शीर्षक स्वतंत्र एवं केन्द्रीय प्रतीक बनकर अपनी महत्ता को स्थापित करते हैं. ऐसे शीर्षक लघुकथा का अभिन्न अंग बन कर उसके सम्प्रेषण की कुंजी बन जाते हैं. चुटकी, अहम्, सीमा, नपुंसक तथा संवेदन आदि कुछ ऐसे शीर्षक हैं जिनको यदि न पढ़ा जाये या इन पर ध्यान न दिया जाये तो लघुकथा की चमक महसूस नहीं होती. ऐसे शीर्षक लघुकथा के शिल्प का एक आवश्यक अंग बन कर उपस्थित होते हैं.
. हिंदी लघुकथा अपेक्षाकृत नयी विधा है. स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा ने अपने आरंभिक समय में अनेक संघर्षों का सामना किया है. अस्सी के दशक के बाद जैसे- जैसे लघुकथा विकसित होती गयी, उसकी लोकप्रियता बढ़ती गयी वैसे- वैसे समीक्षकों और आलोचकों का ध्यान इस उपयोगी विधा की ओर गंभीरता से जाने लगा. लघु कथा का नया समीक्षा शास्त्र विकसित करने का प्रयास किया गया. हिंदी लघुकथा के मानक निर्धारित किये गए तथा तुलनात्मक आधार पर लघुकथा की पहचान, उसके गुण - दोष पर विस्तार से चर्चा भी की जाने लगी. आज स्थिति यह है कि हिंदी लघुकथा का समीक्षाशास्त्र भी स्वरुप ले रहा है. विष्णु प्रभाकर की लघुकथा के विषय में विचार करते समय हमें इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है. प्रभाकर जी ने लघुकथा लेखन की शुरुआत उस समय की थी जब लघुकथा अपने शैशव काल में थी. इस दृष्टिकोण से उनकी लघुकथाओं का भाषा शिल्प -पक्ष अपेक्षाकृत कहीं -कहीं दुर्बल- सा पड़ता अवश्य प्रतीत होता है, किन्तु उनमें निहित भाव, संवेदनाएँ, नैतिक व् मानवीय मूल्य तथा सन्देश का महत्त्व किसी भी दृष्टिकोण से कम करके नहीं आँका जा सकता.
सत्यता में विष्णु प्रभाकर जी की लघु कथाएँ उनके व्यक्तिगत जीवन में भोगे गए अनुभवों की अनुगूँज हैं जिनमें उनका व्यक्तित्व और जीवन - दर्शन सुर -ताल बद्ध होकर नर्तन करता है. साहित्य का मूल उद्देश्य है - इन्सान को इन्सान बनाये रखना, उसे हर स्तर पर इन्सान से जोड़े रखना, अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत करना, विपरीत परिस्थितियों में उसे टूटने से बचाना और उसे उस दिशा में ले चलने को उत्प्रेरित करना जो सही और सच्ची है. लघु कथा व्यक्ति को सतर्क और सचेष्ट बनाये रख कर वर्तमान के प्रति सजग बनाती है.
आज के भौतिकतावादी और उपभोगतावादी समाज में जब सब कुछ टूट रहा है, बिखर रहा है - पारस्परिक सम्बन्ध, नैतिक मूल्य, उच्च आदर्श, विश्वास, मानवता सब कुछ. पैसा ही सबके केंद्र में है. समाज धन के अंध कूप में समाता जा रहा है. समयाभाव के कारण लोग अध्ययन से विमुख होते जा रहे हैं. ऐसे में विष्णु जी की लघु कथाएँ राहत पहुँचाती हैं. समाज में व्याप्त असंगतियों, विसंगतियों और अनेक विडम्बनाओं को विष्णु प्रभाकर ने जिस क्षिप्रता और व्यंग्यों की पैनी धार से तीखे तेवर के साथ कथाओं में प्रस्तुत किया है, वह आज के समय में सार्थक भी है और प्रासंगिक भी. आज की बनावटी तथा व्यस्तता की लाचारी में मरती हुई संवेदनशीलता को जीवित रखने की कोशिश हैं विष्णु प्रभाकर की लघु कथाएँ.
इन लघु कथाओं के तीखे व्यंग्यों की चाबुक से मार खाकर पाठक की सोई हुई संवेदनशीलता तिलमिला कर 'आह ' कहकर जाग उठती है जो अब तक विवशतावश अपना मुँह और साथ ही आत्मा को भी सिये बैठी रहती है. प्रभाकर जी की लघुकथाएँ अपने लघु यात्रा में भावनाओं और संवेदनाओं का एक विस्तृत संसार को समेटे हुए है. प्रभाकर जी की लघुकथाओं की यात्राएँ जिज्ञासु पाठक को अपने रहस्यपूर्ण संसार में भीतर प्रवेश करने को आमंत्रित करतीं हैं और पाठक क्षण - प्रतिक्षण यात्रा के प्रत्येक पड़ाव पर जिज्ञासा के अनेक स्तरों को पार करता हुआ ' देखें, अब क्या होता है ' के उच्च स्तर पर जैसे ही पहुँचता है कि अचानक ही कथा का अंत पाठक को एक सुकून भरी शांति प्रदान करता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि प्यास से व्याकुल मन शांत झरने का शीतल जल पीकर अपनी तृषा बुझाता है जिससे उसकी आत्मा तक तृप्त और पवित्र हो जाती है. विश्वास और अविश्वास के सब खंडहर ढह जाते है. प्रश्नों की दुविधापूर्ण स्थिति से निकल कर पाठक एक ऐसे उच्च धरातल पर पहुँचता है जहाँ सत्य अपने पूर्ण वैभव के साथ विराजमान और दैदीप्यमान रहता है. यह स्थिति पाठक के लिए अत्यंत सुकूनदायी होती है मानो जैसे कि कोई अनर्थ होते- होते रह गया हो.
बहुमुखी प्रतिभा संपन्न विष्णु प्रभाकर ने मानव- मन की यात्रा को अनेक चरित्रों व घटनाओं के माध्यम से चित्रित किया है. बहुरंगी जीवन के विविध पक्ष उसके सह यात्री हैं और अनेकानेक संवेदनाएँ उसके विभिन्न पड़ाव. मानव मन की इस यात्रा का एकमेक लक्ष्य है उन जीवन -मूल्यों और आदर्शों की प्राप्ति जिनसे अनुप्राणित होकर मानव जीवन सुन्दर और धन्य बनता है.
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बहुत सुंदर आलेख . धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआभार उमेश जी
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