सूर्यकांत मिश्रा का आलेख - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-इतिहास के आईने में

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8 मार्च महिला दिवस पर विशेष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-इतिहास के आईने में ४महिलाओं की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा को मजबूती प्रदान...

8 मार्च महिला दिवस पर विशेष
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-इतिहास के आईने में
४महिलाओं की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस प्रतिवर्ष 8 मार्च को विश्व भर में मनाया जा रहा है। महिला दिवस की सर्वप्रथम घोषणा अमेरिका का समाजवादी पार्टी ने 28 फरवरी 1909 में की थी। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की सोच ने 20वीं शताब्दी के मध्य बड़ी तेजी से अपनी जरूरत महसूस करायी। उस समय ग्रामीण महिलाएं जो कपड़ा बनाने वाले कारखानों में काम करती थी, उनके आर्थिक उन्नयन के लिए जोरदार आवाज उठायी है। 8 मार्च 1857 को न्यूयार्क में ऐसी गरीब कामगार महिलाओं की कम मजदूरी और कार्य की दयनीय स्थिति के विषय में आवाज बुलंद की गई, जो कपड़े बुनने के कार्य में लगी थी। उत्पात मचाये जाने के कारण आवाज बुलंद करने वाले महिलाओं पर पुलिस ने सख्ती बरती जिससे नाराज हो कामगार महिलाओं ने पहली बार ‘श्रम संगठन’ की स्थापना की। 8 मार्च 1908 को न्यूयार्क शहर में ही 15 हजार महिलाओं ने पदयात्रा कर कार्य के घंटे कम करने, वेतन बढ़ाने और मताधिकार के लिए प्रशासन को जगाया। परिणाम स्वरूप 1910 में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय महिला कान्फ्रेन्स का कोपेन हेगन में आयोजन किया गया। इस कान्फ्रेन्स में ही यह निश्चित कर दिया गया कि 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस प्रतिवर्ष मनाया जायेगा 

 
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2009 के अवसर पर अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रास सोसायटी ने ताकिद करते हुए कहा कि युद्घ जैसी स्थिति में महिलाओं के लिए जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं की अनदेखी न की जाये अथवा अपर्याप्त सुविधाओं को दूर कर उन्हें हर संभव सहायता उपलब्ध करायी। युनिसेफ के एक सर्वे के अनुसार विश्व भर के अविकसित देशों के उन महिलाओं की संख्या 3 सौ प्रतिशत के लगभग है जिनकी मृत्यु बच्चों को जन्म देते समय अथवा गर्भावस्था में बरती गई लापरवाही के कारण हो जाती है। मृत्यु के ये आंकड़े विकसित देशों की तुलना में सर्वे में शामिल किये गये। सर्वे में यह बात भी सामने आयी कि युद्घ के दौरान किये जा रहे संघर्ष अथवा इसी प्रकार की हिंसा में महिलाएं विशेषकर बलात्कार या कामवासना की शिकार हो रही है। महिलाओं की मौत में हो रही वृद्घि का एक मुख्य कारण इस वर्ग द्वारा सुरक्षित मातृत्व का सुख प्राप्त करने के तरीकों से अनजान होना भी माना जा रहा है। जिसके अंतर्गत देखरेख का अभाव, यातायात के साधनों की अज्ञानता और सुरक्षित प्रसव के लिए स्वास्थ्य केंद्रों तक न पहुंच पाना जैसे कारण रेखांकित किये जा रहे है।


सन 1932 में सोवियत रूस में एक पोस्टर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर में जारी किया गया जिस पर लिखा गया ‘8 मार्च कामकाजी महिलाओं को रसोई की दासता से मुक्ति दिलाने हेतु विद्रोह दिवस का प्रतीक है।’ एक अन्य पोस्टर में यह भी लिखा गया कि ‘8 मार्च महिलाओं को घरेलू कार्य के उत्पीड़न और दिमाग की संकुचित सोच को समाप्त करने के लिए मनाया जाना चाहिए।’ कैमरून तथा रोमानिया जैसे देश में महिला दिवस को यद्यपि विशेष महत्व नहीं दिया जा रहा है फिर भी इस दिन इन देशों के पुरूषों द्वारा मां से लेकर पत्नी, महिला मित्र, पुत्री एवं साथ में काम करने वाली महिला सहयोगियों को फूल तथा गिफ्ट पैक देने की परंपरा जारी है। रोमानिया के पोलैण्ड आदि देशों में महिला दिवस को ‘मां दिवस’ की तरह महत्व प्रदान किया जा रहा है। इन देशों में बच्चों द्वारा भी अपनी मां तथा दादी को उपहार देने की प्रथा देखी जा रही है। अमेरिका में 8 मार्च से 7 अप्रैल तक समय ‘महिला माह’ के रूप में मनाये जाने का सामूहिक निर्णय वहां की जनता द्वारा लिया जा चुका है। इटली में 8 मार्च के दिन पुरूषों द्वारा महिलाओं को पीले रंग का लाजवंती का पौधा भेंट करने की प्रथा है, जिसे छूने मात्र से वह मुरझा जाता है। इसी प्रकार रशिया और अलबेनिया में जालवंती के पौधों के साथ चाकलेट भी सामान्य रूप से महिलाओं को उपहार स्वरूप दी जाती है।


महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए आज विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष की प्रासंगिकता स्वीकार की जा रही है। भारत वर्ष के संदर्भ में केंद्रीय और राज्य सरकारों ने शासकीय सेवाओं में 35 प्रतिशत आरक्षक सहित आयु का बंधन समाप्त कर महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास शुरू किया है। 21वीं शताब्दी में महिलाएं अब पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में अपनी सहभागिता दर्ज करा रही है। स्कूली बच्चों को मध्याह्न भोजन की जिम्मेदारी भी महिला समूहों द्वारा उठायी जा रही है। अंतरिक्ष से लेकर आकाशीय उड़ान और सेना में भी अब महिलाएं आगे आकर अपने अबला होने को धता बता रही है। आज महिलाओं की दुरह स्थिति के लिए हमारा समाज ही दोषी है। समाज में व्याप्त कुरीतियां और पर्दा प्रथा अब तक समाप्त नहीं हो पायी है। रामायण और महाभारत काल में नारियों को शक्ति स्वरूपा माना जाता था। हिंदू देवी देवताओं में ऐसा देव ढूंढे नहीं मिलेगा जो अपने नाम में पत्नी को प्राथमिकता न दें। लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश, सीता-राम, राधे-श्याम। इन सभी युग्मों में देवियां अर्थात नारियों का नाम पहले आया है और देवताओं अर्थात नरों का नाम द्वितीय क्रम पर है। नारी ही नर की सृजनकर्ता है न की नर नारी का।

महिलाएं यदि अपने वर्ग के उत्थान के लिए खड़ी हो जाये तो उन्हें सहयोग की कमी नहीं है। हमने अनेक महिला संगठनों को इसी प्रकार कार्य करते और बढ़ते हुए देखा है। राजनांदगांव जिले की बम्लेश्वरी महिला समूह इसका जीता जागता उदाहरण हो सकता है। इन्हीं महिला समूहों के क्रियाकलापों ने महिलाओं को घर की चहार-दीवारी से बाहर खींचकर अपने अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने संगठित किया। पूर्व में जहां परिवार की व्यस्क महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकला करती थी, वहीं अब वे गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले सभाएं आयोजित कर महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों का विरोध करने एकजुट हो रही है। परिणामतः महिलाओं ने समाज में लगभग बराबरी का स्थान पा लिया है। अवंतिका बाई गोखले और मैसूर राज्य की यशोधरा दासप्पा ने नारी जागरण का जो बिगुल फूंका वह आज भी नारियों के लिए ताकत बना हुआ है। यशोधरा दासप्पा ने जहां ग्रामीण कन्या विद्यालय, ग्रामीण सेवक प्रशिक्षण केंद्र तथा अनेक नारी संस्थाओं का गठन व संचालन किया, वहीं अवंतिका बाई गोखले ने ‘हिन्द महिला समाज’ का गठन किया और आजीवन उसकी सेवा करती रही। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि परिवार की अधिष्ठात्री नारी ही है, वही गृहस्वामिनी तथा गृहणी भी है। पीड़ितों का उद्घार उसी के आंचल में छिपा है। गरीबी का साया परिवार में होने के बावजूद भी महिला अथवा नारी की सुव्यवस्था पर ही वह घर ‘आनंद निकेतन’ बन सकता है। इस मामले में महात्मा मनु का कथन असत्य नहीं है कि ‘यत्र नारयस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवताः’ अर्थात जहां नारी की पूजा होती है वहीं देवताओं का निवास होता है। 


हमें मानवीय समाज में व्याप्त अनेकानेक अव्यवथाओं पर ध्यान देते हुए चिंतन करना है कि नारी के चित्रों से दीवारों की शोभा बढ़ाते समय उसके पुत्री, भगिनी और माता के रूप में उकेरना हितकर होगा। सीता, सावित्री और सुकन्या जैसी धर्मपत्नियां भी ईश्वरीय रचना के रूप में चुनी जा सकती है। हमारे इतिहास में अरूंधती, अनुसुईया, मीराबाई, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती भी हमारे घरों की दीवारों को सुंदरता प्रदान करने चित्रांकित की जा सकती है। बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि इन विरांगनाओं की तस्वीरें ढूंढे नहीं मिल रही है। घरों से लेकर कार्यालयों, दुकानों और हर उठने बैठने वाले स्थान में रमणी, कामिनी और फिल्मी दुनिया की रंगीन मिजाज महिला पात्रों की ऐसी तस्वीरें ही देखने मिल रही है, जो मनुष्य की पशु प्रवृत्ति को ही जागृत करने का काम कर रही है। उच्च कोटि की भावनाएं भी ऐसी तस्वीरें के आगे घुटने टेकते दिखाई पड़ रही है। आधुनिक काल में कामकाजी महिलाएं स्वेच्छापूर्वक धार्मिक मान्यताओं एवं परंपराओं की निर्वाह करने के लिए स्वतंत्र है। यही स्वतंत्रता उन्हें धार्मिकता के धागे से जोड़ने, संगठित करने एवं इस ओर आकर्षित करने में बड़ी भूमिका निभा रही है। अपनी तमाम व्यस्तता, कैरियर, स्वास्थ्य और परिवार से जुड़ी समस्याओं के बावजूद महिलाएं धार्मिकता तथा आध्यामिकता की राह पर निकल पड़ी है। धार्मिकता के विचारों से सराबोर महिलाओं का भी एकमात्र लक्ष्य अपने परिवार को सुकुन और शांति उपलब्ध कराना ही है। महिलाओं का धर्म की ओर उन्मुख होना शुभ संकेत है। यह उज्ज्वलन भविष्य का परिचायक है। कारण यह है कि धर्म की संवेदना से ही वर्तमान में व्याप्त तमाम विसंगतियों को दूर किया जा सकता है।

 
हम यह निश्चित रूप से कह सकते है कि दुनिया को ईश्वरीय आस्था सिखाने वाले भारत वर्ष में अभी ईश्वरीय विधान का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ है। नारी का पुनरूत्थान निश्चित है। 21वीं शताब्दी नारी वर्चस्व की प्रधानता वाली हो सकती है, यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए। नारी मुक्ति आंदोलन विद्रोह बनकर तो नहीं फूट सका है, किंतु सुधार के दूसरे साधन अपने ढंग से नारी सम्मत विचारधारा को अवश्य जन्म दे रहे है। शिक्षा संवर्धन में नारी की उपेक्षा अब समाप्ति के दौर में है। दासी और अधिपति की परिभाषाओं में बदलाव देखा जा रहा है, जो एकता और समता का रूप ग्रहण कर रही है। घर के कमरें रूपी पिंजरें में कूपमंडूप की तरह नारियों की प्रतिभा कुंठित न की जाये बल्कि सामाजिक संपर्क में उन्हें भी बराबरी का अवसर प्रदान किया जाये। कन्याओं को हर परिस्थिति में शाला भेजा जाये। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, पुत्र और पुत्री के बीच बरता जाने वाला भेदभाव, दहेज प्रथा आदि को समाप्त करने वाले संकल्प अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को सार्थक कर सकेंगे।


                               
                                    डा. सूर्यकांत मिश्रा
                                    जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
                                    मो. नंबर 94255-59291

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रचनाकार: सूर्यकांत मिश्रा का आलेख - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-इतिहास के आईने में
सूर्यकांत मिश्रा का आलेख - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-इतिहास के आईने में
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