बहुत काल मैं कीन्ह मजूरी * विद्यालय में मध्यावकाश का घंटा टन टन की आवाज करने लगा। बच्चों के मुंह पर घंटे की आवाज सुन कर खुशी की लहर दौड़ जाय...
बहुत काल मैं कीन्ह मजूरी *
विद्यालय में मध्यावकाश का घंटा टन टन की आवाज करने लगा। बच्चों के मुंह पर घंटे की आवाज सुन कर खुशी की लहर दौड़ जाया करती थी। पाठशाला अचानक बच्चों के शोर से गूंज उठती थी पर आज बच्चे कुछ शांत से हैं। कुछ बच्चे खेलने के लिए भाग उठे। जिन बच्चों को इंटरवेल पर भी कुछ खुशी नहीं हुई उनकी वजह सत्तो है। सत्तो यहाँ की प्रधानाध्यापिका है। सत्तो को पूरा गाँव और उसके विभाग के सारे अध्यापक एक सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। और स्कूल के बच्चे तो उसे अपना सबसे प्रिय अध्यापक मानते हैं।
सत्तो के गांव से विद्यालय की दूरी महज एक किलोमीटर ही है। उसे कुछ दिनों से गठिया हो गयी सो यहाँ तक आने में एक साल से काफी दिक्कत आने लगी है। एक एक कदम के लिए बहुत कष्ट होते थे। तब किलोमीटर अब लाख कोस। वैसे अब उसे छह माह बाद रिटायर होना ही है। सो अब दिक्कत पर उसकी हिम्मत भारी पड़ रही थी। आज उसकी तबीयत खराब थी सो मध्यावकाश से ही अवकाश ले लिया और इसी कारण बच्चे कुछ दुखी से थे। वह जैसे तैसे रेंगते रांगते घर पहुंची। घर पहुँचने के बाद गठिया का दर्द अचानक और बढ़ गया तो उसके पति भी परेशान हो उठे। आखिरकार वह परेशान होकर कहने लगे अब बताओ क्या करूँ कुछ भी तो समझ नहीं आता। इतने पैसे भी तो नहीं जो किसी अच्छे अस्पताल में तुम्हारा इलाज करवा दूँ और फिर वैसे भी गठिया तो है ही लाइलाज। सत्तो कहने लगी वह सब तो ठीक है पर अगर मुझे कुछ हो जाएगा तो पेंशन आपको मिलती रहे सो कागज जरूर मेरे जिंदा रहते कंप्लीट करवा लो। सत्तो रोज स्कूल तो जाना ही था तभी वह जल्दी उठती और भोजन पकाती ताकि उसके पति और बच्चे भूखे न रहें, फिर स्कूल चल देती। कई बार वह रास्ते में गिर पड़ती पर कर्तव्यों की खातिर फिर जैसे तैसे उठकर चल देती।
सत्तो के बड़े लड़के प्रेमकान्त की शादी को एक साल हो गया था पर बहुरिया बेटे के साथ ही बाहर रहने चली गयी। सत्तो भी सोचती शौक है जाने दो मैं खुद रिटायर होते ही अपने बेटे और बहू के साथ रहूँगी। उसने अपने भविष्य की पूरी योजना बना ली थी ताकि बुढ़ापे पर कोई तकलीफ न हो। उसने सोच रखा था बड़ा लड़का तो कमाता ही है उसकी चिंता ही क्या और जो फ़ंड मिलेगा वह उससे दान पुण्य करेगी और अपने और बच्चों को भी थोड़ा बहुत मदद कर देगी। फिर अगर बड़े बेटे के यहाँ न रह पायी तो किसी को थोड़ा बहुत देती रहेगी सो पानी तो मिल ही जाएगा और पेंशन अपने बच्चों को दे दिया करेगी। हर दिन वह भोजन पकाती सबको खिलाती पिलाती और फिर कहीं विद्यालय पहुँचने में देर न हो जाये यह सोचकर बिना खाये पिये कर्तव्य पालन के पथ पर एक पग और बढ़ा देती।
सत्तो स्वयं के प्रति लापरवाह थी। गठिया शायद उसी का प्रकृति द्वारा दण्ड था। सत्तो को शारीरिक कष्टों के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी बहुत अधिक थे। उसकी बड़ी बेटी कुछ दिन पहले ही विधवा हो गयी। एक छोटी लड़की थी जिसे भी उसके ससुराल वालों ने त्याग दिया। घर में एक छोटा बेटा भी है जिसका विवाह अभी होना बाकी है। वैसे सत्तो की कोई कुछ भी घर में सुनता न था। सब अपने मन मर्जी के मालिक थे। वह कभी कभी सोचती कि देखो विद्यालय के बच्चे मुझे कितना स्नेह देते हैं और मेरे स्वयं के बच्चे जरा सी बात नहीं मानते। सत्तो की छोटी संताने यानी परित्यक्ता पुत्री और पुत्र स्वभावतः आलसी हैं। धीरे धीरे सत्तो के रिटायरमेंट का समय आ गया। इधर गठिया चरम पर आ पहुंची। अब चाह कर भी सत्तो खाना बनाने में असमर्थ थी। उसके पति को उस पर कुछ दया आ गयी तो अब वह दर्द होते ही वह झट उसे अठन्नी की पेनकिलर ला के खिला देता है। सत्तो की बहू भी घर पर आ गयी। सत्तो की देखभाल देख प्रेमकांत का स्नेह अपनी पत्नी पर और अधिक बढ़ गया। सत्तो को रिटायर होते ही लाखों रुपये मिले। यह उसके खून पसीने और पूरे जीवन की निष्ठा से कमाया हुआ धन था। प्रेमकांत की पत्नी ने अपने पति से कहा देखो माँ को अब साथ रखना जरूरी है पर बाहर कमरा लेकर यह संभव नहीं है यह तुम भली तरह से जानते हो। सबका अपना अपना परिवार होता है। अब तुम अपनी तो सोचते ही नहीं।
प्रेमकांत अपनी पत्नी के द्वारा अपनी माता की भक्ति के भाव को स्पष्ट देख रहा था और मन ही मन प्रसन्न भी हो रहा था। प्रेमकांत की पत्नी के आँसू भर आए वह बोली देखो तुमने शादी से पहले जो भी कमाया सब घर पर ही तो लुटा दिया। तुम कर्तव्यों के प्रति इतना समर्पित हो तभी तो मैं तुम्हारी दासी बनकर रह गयी। तुमने जो किया ठीक किया यह तुम्हारा घर है सो कर्तव्य तो बनता ही है। प्रेमकांत अपनी पत्नी को देख रहा था। आत्मप्रशंसा सुनकर कौन मुग्ध नहीं होता। प्रेमकांत अपनी फटने को देख रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसकी पत्नी ने आज उसे ठीक ठीक समझा है। आज तक उसके अहसानों को माना ही किसने। मैं शादी के बाद से इसे सारी कमाई दे रहा हूँ तो यह किसी और पर तो लुटा नहीं आती वह तो मेरे लिए ही सब कुछ जोड़ रही है। घर में तो सब लगा दिया फिर भी कोई अहसान नहीं। प्रेमकांत की पत्नी अचानक कुछ विचार कराते हुए फिर बोल पड़ी अगर तुम्हारा परिवार दुखी हो तो यह भी तो ठीक नहीं। अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी हमारे प्रति और आने वाली पीढ़ी के प्रति भी बनती है। तुम्हारे घर के लिए कोई दूसरा कुछ करने नहीं आएगा। जो करना है अपने लिए तुम्हें खुद करना है। तुम ऐसा करो माता जी के फ़ंड में से एक मकान बनवा लो बस। प्रेमकांत ने कहा लेकिन उसमें तो सबका हक है। प्रेमकांत की पत्नी तपाक से बोली और जो तुम करोगे उस पर किसी को विश्वास नहीं। जो तुम घर बनवाओगे उसमें क्या मैं माँ को घुसने नहीं दूँगी या पिताजी को भगा दूँगी।
प्रेमकांत माँ के पास पहुंचा और माँ से सारे रुपये मांगे तो माँ ने मना कर दिया। माँ ने साफ कह दिया उसमें सब संतानों का बराबर का हक है। प्रेमकांत की पत्नी सब सुन रही थी। उसने प्रेमकांत से अवसर पाकर चुपके से कहा देख लिया सब। तुम्हारे मन में खोंट नहीं यह तो मैं जानती हूँ और दुख तो इस बात का है कि जिस बेटे की कमाई अब तक इन लोगों के हाथ रही वह सब उस बेटे को इतना ही प्रेम कराते हैं। खर्च करो तो तुम्हारा कर्तव्य और कुछ मांगो तो उसमें हिस्से भर हक। पूरी रात प्रेमकांत की पत्नी रोती रही। वह जब भी अपनी पत्नी को शांत कराना चाहता तो वह कह उठती विडम्बना तो देखो हीरे जैसे बेटे पे माँ को विश्वास नहीं। क्या माँ भी ऐसी होती है। प्रेमकांत सुबह उठते ही फिर माँ के पास गया और रोने लगा। बेटे के आँसू देख खाट पर पड़ी माँ का ह्रदय पीड़ा से छटपटा उठा।
माँ ने कराहते हुये कहा बेटा क्या तकलीफ है। बेटे ने मन की व्यथा कह डाली। माँ मुझ पर किसी घरवाले को विश्वास ही नहीं। मैंने अपनी सारी कमाई घर पर लगा दी पर अब आगे मेरा भी परिवार है अगर मेरा घर हो जाएगा तो क्या मैं परिवार छोड़ दूँगा। माँ सब समझ चुकी थी। माँ अपनी पीड़ा भूल गयी। उसे अपने पैसों का कोई गम न था पर भला बेटे के आँख में आँसू कैसे देखती। प्रेमकांत के हाथ उसने सारा पैसा दे दिया। प्रेमकांत बाहर नौकरी करता था सो उसने पूछा कि मकान बने कैसे? पत्नी ने बिना छन गवायें मशविरा दिया सात आठ हजार रुपये महीना पर देख रेख वाला नियुक्त कर दो। प्रेमकांत को अपनी पत्नी की बुद्धिमत्ता और समस्या का तत्काल निराकरण पाकर उस पर बड़ा नाज हुआ। सत्तो सब सुन रही थी पर मौन थी। वह जानती थी अलग दूर शहर में घर बनवाने का मतलब। उसे आज भी वह दिन याद है जब वह स्कूल तक पैदल जाती थी ताकि कुछ पैसे बच सकें पर आज उसका पैसा बहती गंगा बनाया जा रहा था।
मकान बनना शुरू हुआ तो प्रेमकांत की पत्नी ने प्रेमकांत को हिदायत दे डाली देखो वहाँ तुम्हारे निकम्मे और नाकारा भैया न पहुँच जाएँ नहीं तो कल वह कह दें कि मकान उन्होंने बनवाया तब क्या करोगे? हमारा होगा तो हम सब को रख लेंगे पर किसी और का होगा तो हमें घर देखने को भी न मिलेगा। और तुम तो जानते ही हो तभी यह दूसरे की देख रेख में बनाना ही ठीक रहेगा। वह थोड़ा नखरीली अंदाज का अभिनय करते हुए मुंह को ऊपर प्रेमकांत की ओर करके भौंहे चलाते हुए बोली ताकि मेरे भोले भाले पति देव पर कोई अहसान न थोप सके। प्रेमकांत अपनी पत्नी की समझ पर और दूर की सोच पर बहुत खुशी मिलती। वह फूला नहीं समाता। मकान बनने लगा। सभी मजदूरों ने और देखरेख को नियुक्त सेवकों ने बहती गंगा में खूब डुबकी लगाई। जल्द पैसा पानी की तरह बह कर समाप्त हो गया मकान अधूरा ही रह गया। लाखों रुपयों में केवल दीवालों पर सिलेप टंगी थी। न खिड़की थी न दरवाजे।
प्रेमकांत अपनी पत्नी को लेकर सर्विस पर चला गया। इस बार उसकी पत्नी फिर उसके साथ चली गयी। वह प्रेमकांत की सहूलियत के लिए उसके साथ गई थी। माँ अब अकेले घर पर थी उसे न कोई सुनने वाला था न समझने वाला। वह अकेले बिस्तर पर पड़ी रहती। बड़ी बेटी अपने बच्चों की खातिर सहर में रहती थी। उसका जीवन इन्हीं बच्चों पर निर्भर था। कभी कभार रोटी बन जाए तो वह भी खाने को पा जाती है। बाकी सब अपनी सुख सुविधाओं से ही फुर्सत नहीं पाते।
सभी को माँ की पेंशन से अपना अपना हिस्सा मिल जाता है सब लोग माँ पर काम न पड़े सो बाहर से भोजन का प्रबंध कर लेते हैं। सत्तो की दर्द की फिकर सबको है तभी तो दर्द शुरू होते ही उसे पेनकिलर दे दी जाती है। बड़ी बेटी का भार भी सत्तो पर ही है तो सभी उसकी लंबी उम्र की कामना करते हैं। प्रेमकांत की पत्नी का मानना है कि और सब लोग माँ का अच्छा ध्यान रखेंगे और वहाँ का वातावरण माँ के लिए ठीक है परिवार के साथ माँ अधिक खुश रहती है और यहाँ आपसे उन्हें कौन सा खुशी मिलनी। आज सत्तो को अपने बड़े बेटे प्रेमकांत की बहुत याद आ रही है। वह सोच रही है कि पत्नी को प्रेम करना कोई गुनाह थोड़े ही है। फिर उसकी बहुरिया को मेरे बेटे जैसा आदर्श पति मिला है यह मेरे संस्कारों की जीत है और मुझे रोटी न मिले तो यह तो किसी के संस्कारों की हार ही है।
बहुरिया को प्यार बेटा नहीं करेगा तो कौन करेगा। उसके बेटे पर प्रथम अधिकार बहू का ही तो है। लेकिन उस अधिकार की किताब में माँ और पत्नी एक घर में भी तो रह सकते हैं। क्या बहू और सास एक साथ नहीं रह सकतीं। फिर मैंने तो कभी बहू को बेटी से कम न माना कभी दाता तक नहीं। और डाट भी देती तो क्या मेरा हक न है। हो सकता है बीमारी मुझे चिड़चिड़ा बना रही हो और तभी मुझसे हर व्यक्ति कतराता हो पर इसमें भी मेरा दोष ही क्या? वैसे भी छोटे बेटे की शादी होनी बाकी है बेटियाँ अपने दुख से परेशान और मुझसे अधिक बीमार और रही बात पति की तो यह उनका कर्तव्य भी तो नहीं। वह तो अब स्वयं बूढ़े हो चले हैं उन्हें खुद सहारे की जरूरत है। हो सकता है मेरे बड़े ने प्रेम की कोई पुस्तक का अध्ययन किया हो लेकिन उस पुस्तक में माँ को त्याग देना तो कदापि न लिखा होगा। सत्तो को इतने दुखों के बावजूद एक बहुत बड़ा सुख है और वह है बेटे और बहू के सुख और प्रेम पूर्वक जीवन यापन का। सच तो यह है कि सत्तो दुखी है अपने दर्द और रोग से नहीं बल्कि बेटे के दूर होने से, बहू के अलगाव से। सबसे बड़ा दुख है घर की सेवा न कर पाने का।
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डंके की चोट पर ऊटपटांग से छलकी काबिलों की योग्यता....
क्षेत्र कोई हो हर जगह उटपटांग का डंका बज रहा है। भाई आप लोग जैसा कि जानते हो कि मनुष्य को कभी भी किसी भी परस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए। आज कल हमारे यहाँ विद्युत विभाग ने विद्युत देने का शेड्यूल रात्रि 11 बजाए से सुबह 4 बजे कर दिया है। सच वह शेड्यूल बनाने वाले अधिकारी की योग्यता पर सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता। रही बात हमारे इधर की तो अब समय है रात्रिचर प्राणी बनाने का। विद्युत विभाग के इस कृत्य से विद्यार्थियों सहित समस्त सोते समाज को बहुआयामी लाभ मिले हैं जिनका वर्णन करना ओछी बुद्धि से सम्भव नहीं है। विद्युत दिन में जलाने से क्या फायदा रात्रि को जलाएं और सुबह तो सूर्य भगवान का प्रगटीकरण तो पूर्व निर्धारित है ही। हाँ अगर आप सो गए तब तो आप जानते ही हैं “जो सोवत है सो खोवत है”। जवाहर लाल नेहरू ने कहा था “आराम हराम है” अब विद्यूत विभाग इसका पालन कराने का भरसक प्रयास कर रही है। फिलहाल 11 बजे रात्रि से 4 बजे सुबह तक लाइट मिलने का शेडुल बनाने वाला जो भी अधिकारी है मैं उसकी योग्यता, काबिलियत और समझ की भूरि भूरि प्रसंशा करता हूँ। साथ ही उन महोदय के इस प्रकार की कार्यशैली के लिए उन्हें कोटि कोटि शुभकामनायें देता हूँ। मेरी उन अधिकारी महोदय से अपेक्षा है कि वह अपने इस प्रकार की योग्यता का शानदार प्रदर्शन आगे भी करते रहेंगे। इस प्रकार के उनके काफी शोध से और मेहनत से तैयार शेड्यूल से न सिर्फ उपभोक्ता एवं कंपनी के बीच मधुर संबंध कोसों स्थापित न होंगे वरन राज्य सरकार का भी आने वाले इलैक्शन में पूर्णतया बंटाधार होना अवश्यम्भावी तय है। जनता का पैसा और जनता को ही विद्युत लेनी और उसी पैसे से तनख़ाह लेने वाला व्यक्ति जनता के उपभोक्ता अधिकारों की इस प्रकार धज्जी उड़ाता है तो सवाल उठते उठाते रहते हैं क्या कोई उल्लू तो नहीं बना। मेरे हिसाब से जिसका पैसा गया ठगा तो वही माना जाएगा मूर्ख पैसा हजम करने वाला नहीं होता बेईमान कहा जा सकता है फिलहाल कटिया उपभोक्ता लखनऊ जैसे शहर में मजे से है और बने विभाग कार्यवाही करे न करें कौन सी उनकी तनख़ाह पे फर्क पड़ेगा और ये तो स्वतन्त्रता की बात है कौन हनन करे।
बाकी बिजली संकट में कटिया उपभोक्ता का विशेष महत्व है। तुलसी दास जी ने कहा है- “सकल पदारथ हैं जग माही; कर्म हींन नर पावत नाही। मैं बिल्कुल भी नहीं कहता आप कहीं कोई शिकायत करो बूढ़े सुआ राम राम ही करें जादा बेहतर है सेहत के लिए। आज कल लोगों को साहित्य लिखने का शौक चढ़ा है आदत तो ठीक है पर जब कोई महान अधिकारी को यह शौक चढ़ता है तब उसे ऑफिस की फिकर नहीं रहती। बस नाम कमाने पे जुट जाता है लोग भी टैग को खूब सराहना देते हैं यहां तक कि अगर अधिक जुगाड़ी निकला तो रचना हइस्कूल और इंटर की किताबों में भी पढाई जाने लगे कोई तबक्का नहीं। ऐसी स्थिति में भले गरीब पद विहीन लेखकों में से किसी का पाठ हटाना ही क्यों न पड़े। साहित्य में रोचकता एकदम गायब पर कह कौन दे अब तो साहब जो लिखते हैं। वैसे भी ऑफिस के कीमती टाइम में साहब ने लिखा है फिर वह भूंखे लिख सकते हैं तो पेट भरे साहब क्यों नहीं। जब दुःख से मारे लिख सकते हैं तो सुख के भोगी क्यों न लिखें।
जब समाज की पीड़ा एक पीड़ित लिख सकता है तो एक शोषक लिख दे तो कौन सा अपराध हो गया। जब धन से गरीब पर लेखनी से अमीर लिख सकता है तो धन से अमीर लेखनी से गरीब क्यों नहीं। वैसे लिखना बुरा नहीं पर समाज पे थोपना जायज मानना थोडा विचित्र लगता है। तब के लेखकों की लेखनी में भारत माँ के सपूत पैदा करने की ताकत थी आज भी है पर कुछ लेखक पूछो ही मत अगर कविता सुन ली तो पीढ़ियां गुजर जाएंगी अर्थ निकाल न पाओगे। बदनामी के डर से यह भी न कह पाओगे क़ि अर्थ जान नहीं मिला। सवाल योग्यता का जो है। कुल मिलाकर हर जगह हर क्षेत्र में यही सब देखने को मिल रहा है क्या कहा जाए। एक से बढ़कर एक नेता हुए जिनके वचन मशहूर हो गए। और तो और ऐसे नेताओं को प्रवक्ता की उपाधि दी जाती रही है। "जो कह झूठ मसखरी जाना, कलिजुग सोई गुणवंत बखाना।"।
एक दिन एक किसान ने रेडियो पे बिजली वाली हेल्प लाइन का नंबर सुना उसने सोचा सरकार लोगों के हित में कितना पैसा प्रचार में खर्च करती है अब हमही रेडियो न खरीद के सुन पाएं तो सरकार बेचारी क्या करे। किसान ने ठान लिया अबकी फसल बेंच के रेडियो खरीदेगा। संयोगवश उसके खेत से निकली लाइन का तार टूट गया। फसल जलने लगी तो उसने मांग जांच के मोबाइल पाया और झट उनकी हेल्प लाइन पे फोन मिला दिया। फोन तो लगा पर उससे कनेक्शन नंबर पूछा गया और फसल जल गयी पर न वो कनेक्शन नंबर बता पाया न फसल बची। रेडियो तो उस किसान का आएगा अगली बार या फिर अगले जनम ही सही। मैंने भी फोन झोंक दिया तो फिर वहीँ कनेक्शन नंबर तो मैंने कहा आपात स्थिति में भी यह जरुरी है तो कॉलसेंटर वाले महोदय बोले सॉफ्टवेअर ही ऐसा है। वैसे मुझे तो वर्तमान का सिस्टम जरूर गड़बड़ लगता है। लोग विद्वानों का साहित्य पढ़ के विद्वान ही हो गए। बात को जादा न खींचकर यही समाप्त कर दूं क्योंकि अनगिनत खूबियां सामने आ रही है वह भी विभिन्न क्षेत्रों की। वैसे आपको क्या लगता है सिस्टम गड़बड़ है या साफ्टवेअर।
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गीता पर बवाल मतलब सवाल ही सवाल **
मैंने गीता पर पोस्ट पढ़ी और उसमें पड़े श्लोक और उनकी ऊटपटाँग व्याख्या भी। गीता के अठारहवें अध्याय के सरसठवें श्लोक में लिखा है –इदं ते नातपस्काय ना भक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यम न च मां योभ्यसूयति॥ अर्थात तुझे यह गीतारूप रहस्य उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति रहित से, न बिना सुनने की इच्छा वाले से तथा जो ईश्वर में भी दोष देख लेता हो उससे तो कभी नहीं कहना चाहिए। शायद गीता की गलत व्याख्या और कुतर्क करने वाले महोदय को इससे मतलब नहीं रहा होगा। गीता में जगह जगह भगवान ने बताया की धर्म क्या है, तप क्या है, कर्म क्या है, और ज्ञान क्या है।
गीता अच्छाइयां सिखाने वाला धर्म ग्रंथ है फिर वह अद्भुत कैसे नहीं। मैंने नहीं पढ़ा कि इसमें लिखा हो हिन्दू बन जाओ या न बन जाओ मैंने यह जरूर पढ़ा आप अपने धर्म का पालन करें और दूसरे के धर्म पालन के बजाय अपने धर्म पालन की मृत्यु भी भली। अब संबन्धित श्लोक की एक महोदय ने व्याख्या की कि इसमें लिखा है कि “अगर दूसरे के धर्म में गए तो मृत्यु दण्ड दूंगा।“ वास्तव में गीता एक है पाठक अनेक हैं। पाठक कैसा रसामृत लेते हैं यह गीता पर नहीं पाठक पर निर्भर करता है। आप गीता ज्ञान का नहीं बल्कि अपने ज्ञान और धारणाओं का प्रदर्शन करते हैं। कुछ पाठक अधमाधम अधिकारी होते हैं ये लोग हमेशा अपने ज्ञान का प्रयोग विकास के बजाय विनाश, कुतर्क एवं गलत ढंग से करते है।
इसी कारण ये लोग खतरनाक एवं अपने कारण दूसरों को भी भ्रमित करते हैं। ये जितना ज्ञानी होते जाते हैं उतना ही खतरनाक होते जाते हैं। कोई व्यक्ति गीता को गलत कहे तो निश्चित ऐसे व्यक्ति का अपना खुद का धर्म होगा और उसकी टर्म एंड कंडीसन समय समय पर वह खुद बदलता रहता है। सैद्धांतिक होने का वह नाटक भर करता है लेकिन कोई सिद्धान्त उसके टिकाऊ नहीं होते वह उन्हें बार बार बदलता है। ऐसा व्यक्ति अगर माला भी जपता है तो एक्सचेंज आफ़र के लिए जपता है। मुझे एक घटना याद आ रही है एक दिन एक नास्तिक ने प्रहलाद की कथा सुनी और घर चला गया।
अगले दिन वह एक धर्म सभा में फिर गया। उस धर्म सभा में एक महोदय ने कहा कि अच्छे काम करो तभी आपके पुत्र भी अच्छा करेंगे उन्हें भी वहीं संस्कार मिलेंगे। तभी वह नास्तिक सज्जन खड़े हो गए और बोले कहाँ लिखा है? वक्ता कुछ न बोल सका और उसका अपमान मुझे खल गया मैंने कहा “बाढ़हि पुत्र पिता के धरमा”। नास्तिक महोदय बोले तो फिर प्रहलाद कैसे हो गया भक्त। मैंने कहा जाओ अध्ययन करना प्रहलाद के पिता का क्या संबंध था भगवान से। मुझे समझ नहीं आता आखिर धार्मिक ग्रन्थों से छेड़खानी करने वालों को मिलता क्या है। बाकी तो सब जानते हैं जब यहाँ के विश्वविद्यालयों को तहस नहस किया गया तो ये तो सब उसी कड़ी का हिस्सा हैं।
क्या पुस्तकालय भी किसी का कुछ बिगाड़ता है लेकिन वह भी फूँक दिये गए। संसार में गीता के अवतरण का क्या उद्देश्य रहा सभी जानते हैं पर कुछ महानुभाव इसका उद्देश्य जबर्दस्ती बदल रहे हैं। सदियों से गीता से विश्व का कोई अहित न हुआ पर आज यह न मालूम कैसे अहित करने वाली हो गई। बाकी होने को तो राम भी काल्पनिक हो गए थे लेकिन यह कटु सत्य है सबके लिए नहीं। कलुषित कार्यों का महत्व सिर्फ स्वार्थ है नथिंग एक्स्ट्रा। गीता का अर्थ बताने के लिए किसी को नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया है। फिर भी लोग इसका अपने मन का अर्थ बनाकर चंद अपने जैसे लोगों के साथ आनंदित होते रहते हैं। ईश्वर में दोष देखने वाले लोगों की गोट बहुत तगड़ी है सब उसी में मिलेगा मेरी क्या औकात....... काश बच्चों की हत्या कर देने वाले लोगों ने गीता पढ़ी होती।
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रामजी मिश्र 'मित्र'
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