'सरल' मन से रचा गया 'अटल' व्यक्तित्व डॉ.चन्द्रकुमार जैन पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से अलंकृत...
'सरल' मन से रचा गया 'अटल' व्यक्तित्व
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से अलंकृत किया गया।
प्रसंगवश आज उनकी कविताओं के प्रेरक संसार से एक बार फिर गुजरने का मन किया।
कहते हैं कि कवि, रचयिता और दृष्टा भी अगर हो तो उसकी रचना प्रक्रिया में वह खुद भी रचा जाता है। कहना न होगा कि देश में राजनेता तो अनेक हुए और हैं, आगे भी होंगे किन्तु कौन नहीं मानेगा कि अटल जी की ओजस्वी वक्तृता और कवि रूप में उनकी संवेदनशीलता ने उन्हें औरों से अलग पहचान दी है।
मैं यह मानता हूँ कि अटल जी की कविताओं में उनकी गहन अनुभूति के अलावा जीवन संघर्ष को हर्ष में बदलने के अचूक सूत्र छुपे हुए हैं। यही कारण है कि महज़ राजनीति के लिए राजनीति उन्हें कभी रास नहीं आई। अक्सर वे कभी बेचैन तो कभी बदलाव के लिए बेबस दिखाई पड़ते रहते रहे तो कभी हालात को न समझने की लोगों घोर की लापरवाही से खिन्न भी हुए।
बहरहाल, आइये, अदम्य जीवट,ज़ज़्बे और जीवंतता को समर्पित अटल जी के सरल और निर्मल मन के साथ-साथ उनके निश्चल मस्तिष्क से निकली काव्यधारा की कुछ तरंगों में उनकी अपराजेय जिजीविषा को हम एकबारगी फिर जी कर देखें। मन की गांठें खोलें। दूरियों के दर्द से दूर करें। मन-मुटाव के भटकाव को अलविदा कहें। अंध प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता के द्वंद्व से किनारा करके देखें। ज़िंदगी के लिए कोई नया नज़रिया तलाश करें।
तो ये रहे भारत रत्न अटल जी के सफल जीवन के प्रमाण बने कुछ अनमोल काव्य मोती -
सत्ता
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मासूम बच्चों,
बूढ़ी औरतों,
जवान मर्दों की लाशों के ढेर पर चढ़कर
जो सत्ता के सिंहासन तक पहुंचना चाहते हैं
उनसे मेरा एक सवाल है :
क्या मरने वालों के साथ
उनका कोई रिश्ता न था?
न सही धर्म का नाता,
क्या धरती का भी संबंध नहीं था?
पृथिवी मां और हम उसके पुत्र हैं।
अथर्ववेद का यह मंत्र
क्या सिर्फ जपने के लिए है,
जीने के लिए नहीं?
आग में जले बच्चे,
वासना की शिकार औरतें,
राख में बदले घर
न सभ्यता का प्रमाण पत्र हैं,
न देश-भक्ति का तमगा,
वे यदि घोषणा-पत्र हैं तो पशुता का,
प्रमाश हैं तो पतितावस्था का,
ऐसे कपूतों से
मां का निपूती रहना ही अच्छा था,
निर्दोष रक्त से सनी राजगद्दी,
श्मशान की धूल से गिरी है,
सत्ता की अनियंत्रित भूख
रक्त-पिपासा से भी बुरी है।
पांच हजार साल की संस्कृति :
गर्व करें या रोएं?
स्वार्थ की दौड़ में
कहीं आजादी फिर से न खोएं।
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मरेंगे तो इसके लिए
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भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
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आओ फिर से दिया जलाएँ
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आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
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ऊँचाई
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ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
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प्राध्यापक,हिन्दी विभाग, शासकीय दिग्विजय
स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
राजनांदगांव। मो.09301054300
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