होली के पैसे दो - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com ये पर्व और त्योहार न होते तो खूब सारे लोग भूखे ही मर जाते। गनी...
होली के पैसे दो
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
ये पर्व और त्योहार न होते तो खूब सारे लोग भूखे ही मर जाते। गनीमत है कि अपने यहाँ साल भर कोई न कोई त्योहार बना ही रहता है जिसके नाम पर लोग किसी न किसी तरह का स्वाँग रचकर या चतुराई से कहीं न कहीं से पैसों का जुगाड़ कर ही लिया करते हैं और पराये पैसों पर मौज उड़ाने का धंधा तब तक चलता रहता है जब तक ये जीते रहते हैं।
हर तरफ खूब सारे लोग ऎसे हो गए हैं जो न कमाना चाहते हैं, न परिश्रम करना चाहते हैं। इनके लिए साल भर बने रहने वाले पर्व और त्योहार ही ऎसा जरिया होते हैं जिनकी बदौलत वे पेट पूजा से से लेकर पीने-पिलाने तक का पूरा का पूरा इंतजाम कर डालते हैं।
यों देखा जाए तो पराये पैसों से खान-पान और मौज उड़ाने का चलन केवल भिखारियों और मांगने वालों में ही नहीं है। बहुत बड़े-बड़े लोग हैं जिन्हें अभिजात्य, नौकरीपेशा, धंधेबाज और समृद्ध कहा जाता है लेकिन खाने-पीने और भोग-विलासिता के मामलों में वे दूसरों पर निर्भर रहा करते हैंं।
कई सारे तो ऎसे हैं जो अपनी तनख्वाह और मेहनताना पूरा का पूरा बचा कर संचित रखते हैं और दैनंदिन खर्च के मामले में दूसरों पर ही निर्भर रहा करते हैं।
कई लोग दबावों में दूसरों का इस्तेमाल करने की कला सीखे हुए हैं, कई लोग प्रेम के मायाजाल मेंं औरों को वशीभूत कर सारे के सारे खर्च निकालने के जतन करने में माहिर हैं और काफी कुछ ऎसे हैं जिन्हें अपना माल नहीं पचता बल्कि परायों से मिलने वाला ही हजम होता है चाहे वह खाना-पीना हो या और कुछ।
यह तो बात साल भर बनी रहने वाली मानसिकता की हुई। इंसानों की एक किस्म ऎसी है जिसे औरों की जेब खाली करवाने का कोई न कोई बहाना चाहिए होता है और इसके लिए सबसे अधिक आसान हैं हमारे पर्व और त्योहार, धार्मिक कार्यक्रम और समाजसेवी गतिविधियां या दूसरे अवसर।
इनमें भी सबसे अधिक प्रभावी है त्योहारों के नाम पर पैसों की उगाही। फिर होली तो ऎसा त्योहार हो गया है कि खूब सारे लोगों के लिए धंधा बन गया है। होली के नाम पर पैसों की उगाही का धंधा आजकल सभी तरफ चल निकला है।
फिर होली पर्व ही ऎसा बना डाला है कि जिसमें मर्यादाओं और अनुशासन को कोई स्थान नहीं रहा। हर कोई फ्री स्टाईल में होता है। जिसकी चाहे जो मर्जी कर लो, कोई पूछने वाला नहीं होता क्योंकि बात होली की जो है।
होली के नाम पर अपने यहाँ कोई कुछ भी कर सकता है। कहीं कोई वर्जना नहीं। होली की गोठ एक परंपरागत संस्कारित शब्द है जिसमें प्रसन्नता से मौज-आनंद के लिए रुपया-पैसा देने की परंपरा रही है। लेकिन आज कितने लोग खुशी से गोठ देते हैं, इस पर चिंतन किया जाए तो बात हैरानी पैदा करने वाली ही सामने आएगी।
होली के नाम पर पराये पैसों से त्योहार मनाने वालों की तादाद इतनी अधिक बढ़ रही है कि हर कोई किसी न किसी प्रकार से अवरोध पैदा कर, ढोल-ढमाकों के साथ गालियां बकता हुआ, दारु की खुमारी में अश्लील और अभद्र हरकतें करता हुआ होली के नाम पर पैसों की जुगाड़ में लगा हुआ है जैसे कि होली के दिनों में त्योहारी का लाईसेंस मिल गया हो, जिसमें कि होली के नाम पर चाहे कुछ भी करते हुए लोगों की जेब से पैसे निकालने का जतन कर लो, कोई कहने सुनने वाला नहीं है।
सुने भी कौन, जबकि समाज की निगाह में शालीनता और मर्यादाओं का चौला ओढ़े रखने वाले खूब सारे लोग होली के दिनों में अपनी असली औकात में आ जाते हैं।
फिर कितने ही ऎसे भी मिल जाएंगे जो दिन में कई बार भंग छानते फिरते हैं। और कई सारे ऎसे भी दिख जाते हैं जिनके लिए दारू-भंग, अफीम, चरस से लेकर इन सभी का कॉकटेल भी चल जाता है।
भिखारियों की जनगणना करनी हो तो होली के दिनों में करनी चाहिए ताकि देश के सभी दर्जे के भिखारियों की सही-सही संख्या सामने आ सके। त्योहार और पर्व कोई सा हो, खुशी का कोई सा मौका हो, इन भिखारियों को पैसा चाहिए। इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। न कोई लाज-शरम है, न कोई मर्यादा या अनुशासन।
ये साल भर यही काम करते हैं। हमेशा अवसर तलाशते रहते हैं जिसमें पराये पैसों पर मौज कर सकें। और मौज भी कैसा। शराब पीकर लड़खड़ाते रहते हैं, सड़कों और नालियों के किनारे बेसुध पड़े रहते हैं और दिन-रात खुमारी में बकवास करते हैं या अश्लील गालियों की बौछारों से अपने आपको आनंदित रखते हैं।
पराये पैसों पर मौज उड़ाने का यह सारा शगल इसी बात को इंगित करता है कि हम लोग न मेहनत-मजूरी करना चाहते हैं, न हमारे भीतर पुरुषार्थ बचा है और न हममें कोई शर्म बची है। हमें हमारे मौज-शौक से मतलब है और चाहते हैं कि उसका इंतजाम भी पराये पैसों से ही हो।
हम खूब सारे ऎसे लोगों के बारे में जानते हैं जिन्हें हम बड़े मानते हैं और कभी यह शक नहीं कर सकते कि ये लोग हरामखोरी कर सकते हैं। ऎसे लोग भी अपना सब कुछ बचाए और संचित रख कर रोजाना कोई न कोई मुर्गा ढूँढ़ते रहते हैं जो उनके खाने-पीने और दूसरे भोगों का इंतजाम कर दे। क्या पता ये लोग अपना जमीर कहाँ बेच डालते हैं।
कई लोगों ने तो इसी मार्ग को अपना कर अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी। और खूब सारे आज भी किसी न किसी प्रकार से मुर्गों को फंसाकर अपने सारे इंतजाम करते हुए मद-मस्त हो रहे हैं।
पूरी जनंसख्या में अब उन लोगों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है जो कि पराये पैसों पर मटरगश्ती करने के आदी हो गए हैं और इंसानों में नाम पर कलंक ही हैं।
जो आदमी पुरुषार्थ किए बिना किसी भी प्रकार से किसी दूसरे से कुछ भी रुपयों-पैसों, साधनों-संसाधनों और भोग-विलास के उपकरणों की अपेक्षा रखता है, रिश्वत या गिफ्ट चाहता है, अनुचित सुविधाओं की मांग करता है, प्रेम या दबाव से किसी से कुछ पाने की अपेक्षा रखता है वह हर इंसान भिखारी है और इन सभी प्रकार के भिखारियों के लिए होली का त्योहार कुछ न कुछ कहता है।
इन दिनों हर तरफ शोर मचा हुआ है - होली के पैसे दो। यानि कि कुछ भी पर्व या त्योहार आ जाए, इन लोगों को मौज उड़ाने के लिए पैसे दो, क्योंकि इन भिखारियों को देना पुण्य का काम है। इन पर दया करें, ये स्वाभिमान शून्य लोग ऎसे हैं जो कुछ करना या तो जानते नहीं या करना चाहते नहीं।
मानसिक और शारीरिक रूप से निःशक्त इन सभी किस्मों के भिखारियों के प्रति दया भाव रखें। ये पैदा ही हुए हैं परायों के धन पर मौज उड़ाने भर के लिए। जिन्दा भी हैं तो इसीलिए वरना मर जाएंगे। और तब पाप हमें ही लगेगा।
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