विजय वर्मा ग़ज़ल हम जो कहते हैं सच्चे दिल से कहते हैं चुभने वाली बात बड़ी मुश्किल से कहते हैं। मेहनत करो,तुम भी एक मुकाम पा...
विजय वर्मा
ग़ज़ल
हम जो कहते हैं सच्चे दिल से कहते हैं
चुभने वाली बात बड़ी मुश्किल से कहते हैं।
मेहनत करो,तुम भी एक मुकाम पा जाओगे
वक़्त न जाया करो ,हर ज़ाहिल से कहते हैं।
भंवर में फंसा हर शख्स नाकाबिल नहीं होता
एक दिन तुझे पा लेंगे,हम साहिल से कहते हैं।
अपनी ज़फ़रयाबी पर इतना भी ना गुमान करो
तेरी उम्र बड़ी छोटी है ,हर बातिल से कहते हैं।
मोहमल है अल्फ़ाज़ गर काम न आये औरों के
बड़ी अदब से यह बात हर फ़ाज़िल से कहते हैं।
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बातिल =झूठ
फ़ाज़िल= विद्वान
मोहमल=बेकार
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.lab]
vijayvermavijay560@gmail.com
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शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
आजादी एक भिन्न संदर्भ
तुम्हारी सोहबत में आने से पूर्व
मुझे भी यही लगा था-
-कि आजादी
एक दुर्लभ वस्तु है
उसे पाने के लिए
दूसरों से जूझना पड़ता है
जंगलों, पहाड़ों की खाक छाननी पड़ती है।
-कि आजादी एक माँग है,
जो माँगी जा सकती है
मगर नहीं
तुम्हारी निपट निजता में डूबकर
मैंने जाना कि
आजादी एक शान चढ़ी तलवार है
जिसपर पैर रखे जाएँ
तो रक्त के फौव्वारे फूटते हैं।
चिड़िया ने कैसे समझ लिया
वह संत्रास के हर क्षण से
निरापद ही रहेगी।
पंख के जकड़े जाने की संभावना से
उसने आँखें कैसे मूँद ली।
अगर सके पंख जकड़े भी गए
तो बँधे पंख की कुंठा
और संक्रमण-संघर्ष की उत्तुंगता
दोनों में से एक को चुनने को
वह आजाद है।
वह संक्रमण-संघर्ष को चुनने से
क्यों कतराए
आजादी तो
मेघ-संकुल अंतरिक्ष में
अस्तित्व के उन्मुक्त उड़ान की
ऐतिहासिक अंतर्धारा भी है।
इतिहास के द्वन्द्वों, अंतर्विरोधों से
लड़कर
आजाद रहने की मनोवृत्ति भी तो
आजादी का एक पहलू है।
नुक्कड़ का एक सिपाही
गालियाँ चबाता है, चबाने दें
पेट-फूली औरत
उधर ध्यान ही क्यों दे।
वह पेट फुलाने को आजाद थी
तो उसे सँजोने को भी आजाद है।
संत्रास आएँगे,
पत्थर चबाने पड़ांगे।
भिखमंगेपन के लिए
आजादी की कोई अर्थवत्ता नहीं
जो बाजार में लुकाठी लिए खड़ा है
आजादी उसकी है।
सृजन की पीड़ा कोई प्रसूति से पूछे
वह बच्चा जनने को आजाद है
पर संक्रमण-पीर के थपेड़े
उसे झेलने ही पड़ेंगे।
अब जंगल भागकर
पत्थर चबाने से काम नहीं चलेगा।
अब सरे बाजार में
प्रतिरोधों की जकड़न में
अपने अंतर्लोक में झाँकना होगा-
हम अपने अस्तित्व के कितने निकट हैं।
हमारे अस्तित्व के तट से ही
हमारी आजादी की धारा फूटती है।
हमने होना स्वीकारा है
तो होने की सर्व स्वीकृति के लिए
संघर्षों के सातत्य की दुंदुभी
फूँकनी ही पड़ेगी।
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शालिनी श्रीवास्तव
-: सासु मॉ :-
लाई थी बड़े अरमान से वो मुझको अपने घर
सोप कर ही चली गई वो मुझको अपना घर।
कहती थी कि नहीं चल पाती हॅू मैं अब बेटा अकेले कुछ दुर
पर न जाने कैसे चली गई इस दुनिया से अकेले ही इतनी दूर।
कहती थी कि सींचा था तुमने मेरे बीमार बुढापे को कभी
इस लिए अब बच्ची बनकर आउंगी तुम्हारी ही गोद में कभी
तब तक संभाल कर रखना मेरा मकान और मेरा सम्मान
और सूद सहित वापस लौटा देना मुझको मेरा वही मकान और सम्मान
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-: जानती हॅू मैं :-
जानती हॅू मैं
जानना चाहते हो
तुम मुझको
जान कर यह न कहना
कि चाहता हॅू मैं तुमको
जानती हॅू मैं
देखा है तुमने भी कभी ख्बाव
किसी को खूब प्यार करने का
मुझे देखकर यह न कहना
कि सच हो गया मेरा वो ख्बाव
जानती हॅू मैं
कि नहीं बसाई तुमने कभी
अपने अरमानों की नगरी
मेरे साथ रह कर यह न कहना
कि बस गई तुम्हारे साथ मेरे
अरमानों की नगरी
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नाम - शालिनी श्रीवास्तव
पता- चिनार सिटी, होशंगाबाद रोड, भोपाल , म0प्र0
जन्म स्थान- विदिशा , म0प्र0
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प्रतिभा अंश
कतरनों में लिखी कविताओं का
संग्रह हूँ मैं, जिसे पढ़ते ही
स्मरण होने लगता है
वो रातें जो बीत गईं
फिर भी छो़ड़ गईं स्याह निशान।
कुछ सुलझे कुछ उलझे
कविताओं की प्रश्न-सूची
मुझसे पूछा करते हैं
सारे उत्तर।
मैं क्या जवाब दूँ?
मैं स्वयं हूँ प्रश्न।
कतरनों में लिखी कविताओं का
संग्रह हूँ मैं।
उन तमाम लक्ष्मण रेखाओं का
मैं क्या करूं
जिनके भीतर मुझे रख दिया है
क्यों मिटा नहीं पाती,
लांघ नहीं पाती।
बेबस और बौखलाई
राह से भटकी
एक अनजान राही हूँ मैं
कतरनों में लिखी कविताओं का
संग्रह हूँ मैं!
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अशोक बाबू माहौर
उस
नदी की धारा में
बुलबुले को
डरते देखा है
उतरते देखा है
सूरज को
छत पर
ओढ़े कम्बल
विशाल मखमल सा !
चाँद को
छिपते देखा है
बादलों के
टुकड़ों में
ख़ामोशी लिए
गगन को भी
हमने देखा है
झुका हुआ
बूढों सा !
झुण्ड
अनगिनत देखे है
चिड़ियों के
पंख पसारे
मैदानों में
पहाड़ अडिग भी देखे हैं
डटे हुए
अंकिचन तूफानों में
किन्तु प्रबल
ख़ामोशी ह्रदय उनका
काँपता
हर राह मोड़ पर
आँगन में ,
कुदरत के
द्वार चौखट पर !
भीख माँगते
थोड़ी सी
जिंदगी की
जीने की
आगे बढ़ने की
उथल-पुथल से हटकर
अमन चैन पाने की !
(२)नहीं जानते
तुम
मुझे नहीं जानते
मैं
तुम्हें नहीं
हम दोनों किसी को नहीं
कहीं नहीं
आसपास पड़ोस में नहीं
सामने,पीछे बगल में नहीं !
हमारी परम्परा
हमारे विचार हैं
नियम हैं
ये अपने
फूल गुलाब के
खड़े बतियाते
मुस्कुराते मंद-मंद
व्योम से झाँककर
रवि
सोचता ध्यान लगाता
कभी हँसता खिलखिलाता
कभी गुस्से में
जला देता
पेड़ बबूल का
घास की नोकें !
कवि परिचय
अशोक बाबू माहौर
ग्राम-कदमन का पुरा,तहसील-अम्बाह
जिला -मुरैना (म.प्र.)476111
ईमेल-ashokbabu.mahour.@gmail.com
09584414669
साहित्य लेखन -कहानी ,कवितायेँ एवं लघुकथाएँ
प्रकाशन -हिंदी साहित्य की पत्रिकाओं में कहानी, कवितायेँ एवं लघुकथाएँ प्रकाशित
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अनुज कटारा
माँ शब्द में है वात्सल्य
माँ शब्द में है करुणा
माँ शब्द में छिपा हुआ दर्द
माँ शब्द में है खुशी का खजाना
समाधान भी छिपा है माँ के विचारों में
पथ प्रदर्शक है माँ
ममता की मूरत है माँ
रोती हूँ तो चुप कराती है माँ
अठखेलियों की सहेली है माँ
सुख दुःख की सहेली है माँ
मैं रोती हूँ तो हँसाती है माँ
लोरियाँ हमें सुनाती है माँ
गीले में सोती है वो,सूखे में सुलाती है माँ
चाँद माँगती हूँ मैं, दर्पण दिखती है माँ
चाँद है दर्पण में,कहकर चुप कराती है माँ
परियों की कहानी सुनाती है माँ
देर अगर हो जाती है आने में,तनाव में नजर आती है माँ
दुःख का आभास हो अगर,सबसे पहले घबराती है माँ
खुशियाँ आए जो आँगन में,सबसे पहले दामन फैलाती है माँ
तभी तो ईशवर का प्रतिरूप कहलाती है माँ
मेरीमाँ ||
कवि परिचय-अनुज कटारा, व्यवसाय:छात्र(राजकीय अभियांत्रिकी कॉलेज)
वर्तमान पता: H.N. 548/12 महुकलां,गंगापुर सिटी,सवाई माधोपुर,राजस्थान
Pin code-322202
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