6 मार्च होली पर विशेष... जड़ता के त्याग का पर्व है -होली ० बैर-भाव के लिए कोई स्थान नहीं होली रास रंग का प्रतीक है। होली जीवन का उल्लास ह...
6 मार्च होली पर विशेष...
जड़ता के त्याग का पर्व है-होली
० बैर-भाव के लिए कोई स्थान नहीं
होली रास रंग का प्रतीक है। होली जीवन का उल्लास है। यही जीवन की उमंग है। हो...ली का भाव बड़ा गहरा है जिसे-जो हुआ सो हुआ, अब नये युग की बात करो, के रूप में समझा जा सकता है। अधिक स्पष्ट करे तो हमने जो किया और कहा उसे क्षमा करें, जो तुमने किया और कहा उसे हमने माफ किया। अब आओ और रंगों के इस पर्व में घुल मिल जाओ तथा मानवीय मूल्यों का सम्मान करते हुए एक ही रंग में रंग जाओ। होली का पर्व ही ऐसा पर्व है जो सभी को एक समान स्तर पर ला खड़ा करता है। न कोई उच्च होता है और न ही किसी को हेय दृष्टि से देखा जाता है। रंगों की कोई जाति नहीं होती न ही वह रंगते समझ भेदभाव का ही ध्यान रखता है। सारे रंग एक ही संदेश देते नजर आते है, कि रंग और अबीर उड़ाते हुए प्रेम के रंग में सभी को रंग ले और बैर भाव की होली अग्नि में समर्पित कर दें। होली जैसा दूसरा त्यौहार पूरी दुनिया में नहीं। भारतीय संस्कृति के रग रग में समाया रंगों का त्यौहार अपनी महत्ता गीत और फागों के माध्यम से लुटाता रहा है। जड़ता के त्याग का संदेश देने वाला यह फागुनी पर्व अलौकिक आनंद का अहसास करा जाता है।
हंसी-ठिठोली का पर्याय
सभी लोगों के बीच हंसी और उल्लास का संचार करने वाला होली का पर्व वास्तव में ठिठोली का पर्याय माना जा सकता है। खूब हंसों औरों को भी हंसाओ जैसी सोच रखने वाला यह पर्व एक दूसरे पर व्यंग्य की पवित्र धारा बहाने में भी सबसे आगे रहा है। इसकी शुरूआत भी अमोद-प्रमोद के भाव के साथ की गई प्रतीत होती है। किसी को हंसाना और दुख के सागर से बाहर खींच लाना किसी बड़ी योग क्रिया से कम नहीं माना जाना चाहिए। इसी प्रकार की विधा होली के पर्व का मुख्य संदेश है। इसीलिए इसे आनंद की पराकाष्ठा का पर्व भी कहा जाता है। मुख्यतः पांच दिन तक चलने वाले इस पर्व का सूत्र वाक्य-प्रेम, उल्लास, एकता और भाईचारा है। यह पर्व प्रतिपदा से पंचमी तक अविरल चलता रहता है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन होलिका दहन के साथ पर्व की शुरूआत होती है। होलिका दहन के पश्चात प्रतिपदा को रंगों की बरसात अर्थात धुलेन्डी को भगवान की पूजा अर्चना कर माता-पिता और बड़ों का आशीर्वाद लेकर रंग गुलाल, अबीर से सभी का स्वागत किया जाता है। द्वितीया, तृतीया और चतुर्थी तिथि पर एक दूसरे के घर पहुंचकर शुभकामनाएं देना और मिठाईयां बांटने का अवसर भी इस पर्व पर प्राप्त होता है। इसके पश्चात पुनः रंगों की मस्ती रंग पंचमी के दिन उमड़ पड़ती है। इस दिन विशेष रूप से देवर-भाभी की रंगों भरी छेड़छाड़ एक अनोखा दृश्य प्रस्तुत करती है।
कामदेव को भस्म किया भोलेनाथ ने
जिस प्रकार हंसना मनुष्य के जीवन का अहम हिस्सा है उसी तरह काम का महत्व भी कम नहीं है। कहते है होली के दिन ही भगवान शंकर ने कामदेव को भस्म कर दिया था। इसके पीछे की कहानी भी बड़ी रोचक है-भगवान शंकर अपनी समाधी में लीन थे उसी समय देवताओं को कुछ ऐसे काम की जरूरत पड़ गई जिसे भगवान भोलेनाथ ही पूरा कर सकते थे। सारे देवों ने मिलकर कामदेव को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। कामदेव ने देवताओं की बात स्वीकार कर सारी सृष्टि को कामासक्त कर दिया। ऐसा होने से शंकर जी के नेत्र भी सहसा ही खुल गया। जब उन्हें पता चला कि कामदेव ने उनकी तपस्या भंग करने का साहस किया है, तब भोले शंकर का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया और उन्होंने अपने तीसरे नेत्र को खोलकर कामदेव को भस्म कर डाला। अपने पति को भस्म हुआ देख पत्नी रति दौड़ी-दौड़ी भगवान शंकर के पहुंची और कहा कि देवताओं ने अपना स्वार्थ पूरा करने कामदेव का सहारा लिया और आपकी तपस्या भंग कराई। इसमें मेरे पति कामदेव का तनिक भी दोष नहीं है। रति के इतना कहते ही भोले भंडारी नम्र हो गए और उन्होंने काम को नेत्रों में बसा लिया। तभी से नेत्रों को काम का प्रतीक माना जाने लगा। नेत्र ही कामासक्त होते है और काम की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते है। मनुष्य के दो नेत्र ही काम की भावना को भड़काते है, जिसे भस्म करने तीसरा नेत्र खोलना होता है। यह तीसरा नेत्र ही भाव के नाम से जाना जाता है। यही भाव होली का है। पर्व के आसपास कामदेव का प्रभाव सिर चढ़कर बोलने लगता है। प्रकृति इठलाती है, यौवन की दहलीज पर प्रकृति नाच उठती है। यही पर हमें मर्यादा, शीलता और संयम का अनुशरण करने भगवान शंकर की प्रार्थना में लीन होने की जरूरत महसूस होती है।
नवविवाहिता क्यों न देखे होली की ज्वाला
हमारे बड़े बुजुर्ग कहते आए है कि नवविवाहिता होली की पहली ज्वाला न देखे। अपने ससुराल में सास की उपस्थिति में तो इस पर और कड़ा प्रतिबंध है। यही कारण है कि पहली होली के समय नवविवाहिता को उसके मायके भेज दिया जाता है। वास्तव में देखा जाए तो ससुराल और मायके दोनों ही जगहों पर नवविवाहिता को होली की पहली लौ नहीं देखनी चाहिए। इसके पीछे क्या कारण बताए गए है उसे जानना भी जरूरी है क्योंकि हमारी पीढ़ी इसे महज शंका और कुशंका से जोड़कर न देखे वरन वास्तविक शास्त्रोक्त विचारधारा से भी अवगत हो। होली का अपना इतिहास रहा है, जिस रात को होली जलाई जाती है, वह रात शुभ माना जाता है। अब सवाल यह उठता है कि जब वह रात शुभ होती है, तो फिर नवविवाहिता के लिये रोक टोक क्यों? कारण यह है कि होली जिस दिन जलाई जाती है, वह फाल्गुन मास का अंतिम दिन होता है, और संवत्सर के लिये विदाई का समय होता है। इसे अनेक अर्थों में मृत संवत्सर के रूप में जाना जाता है। जाते हुए संवत्सर का प्रतीक होने से इसे नवविवाहिता के लिये शुभ नहीं माना जाता है। यही प्रमुख कारण है कि नवविवाहिता को होली की प्रथम ज्वाला देखने से मना किया जाता है। ऋग्वेद के एक सूत्र में बताया गया है कि नये अन्न की बालियों को होली की आग में भुनने से ही होली का पर्व अस्तित्व में आया। वेदों का मुख्य अन्न जौं माना गया है। यही कारण है कि फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन जौं की बालियां भुनी जाती थी। अब चने की बालियों को भुनने की प्रथा देखने में आ रही है।
ब्रज की होली सबसे निराली
यूं तो अखंड भारत वर्ष के अलग अलग प्रांतों में रंगों की त्यौहार अपनी अलग पहचान रखता है, किंतु ब्रज की होली उन सब में निराली के रूप में मानी जा सकती है। ब्रज की होली के सबसे अलग होने के पीछे जो कारण है वह वहां की अनोखी परंपरा के रूप में सामने आ रही है। ब्रज में बसंत पंचमी से लेकर चैत्र कृष्ण पक्ष की दशमीं तिथि तक होली की खुमारी कण कण में समायी दिखाई पड़ती है। प्रतिदिन ठाकुर जी का श्रृंगार भी अलग साज सजावट के साथ किया जाता है। होली के अवसर पर गाये जाने वाले फाग गीतों की सुमधुर धून कुछ इस प्रकार सुनाई पड़ती है-
आजु बिरज में होली रे रसिया,
होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया...
ब्रज में होली की शुरूआज पूरी उमंग और उल्लास में फाल्गुन मास को एकादशी को मथुरा ग्रान्ड मार्ग पर लगभग 18 किमी दूर स्थित मानसरोवर गांव में लगने वाले राधा रानी के मेले से हो जाती है। फाल्गुन मास की नवमीं तिथि को बरसाना में नंद गांव के हुरिहारो और बरसाना की गोपिकाओं के बीच विश्व प्रसिद्ध लट्ठमार होली का दृश्य अलग ही रंग जमाता है। लट्ठमार होली का भाव हुरिहारो को कृष्ण मानकर गोपिकाओं, राधा रानी द्वारा नाराजगी व्यक्ति करते हुए लट्ठों का प्रहार करने से भरा होता है। लाठियों का प्रहार भी घुघंट की आड़ में रहते हुए किया जाता है।
रंग छुड़ाने वाले उबटन प्रयोग करें
होली का आनंद लेने के बाद बहुधा लोग रंग छुड़ाने अपनी त्वचा के साथ नाइंसाफी करते देखे जाते है। पत्थरों से रगड़कर या फिर ब्रश का उपयेाग कर त्वचा को नुकसान न पहुंचाये, बल्कि प्राकृतिक तरीके से बनाये गये उबटन से रंगों को आसानी से निकाला जा सकता है। नीबू और बेसन में दूध मिलाकर पेस्ट बनाये, पहले रंग वाले स्थान को पानी से साफ करें या हल्का साबून लगाये, फिर तैयार किये गये पेस्ट को उन स्थानों पर लगाकर 15 मिनट तक आराम करें, इसके पश्चात हल्कें गुनगुने पानी से धो ले। इसके अलावा जौं का आटा और बादाम का तेल मिलाकर रंगीन त्वचा को साफ किया जा सकता है। कच्चे पपीते को दूध में पीसकर थोड़ी सी मुल्तानी मिट्टी में बादाम का तेल मिलाकर चेहरे तथा हाथों के गहरे रंगों को आसानी से छुड़ाया जा सकता है। इसी तरह खीरे का रस, थोड़ा सा गुलाबजल और एक चम्मच सिरका मिलाकर मुंह धोने से भी रंग निकल जाता है। अगर रंग ज्यादा ही गहरा हो तो दो चम्मच जिंक ऑक्साईड और दो चम्मच कैस्टर आईल मिलाकर लेप बना ले तथा इसे चेहरे पर लगाकर 20 मिनट बाद धो डाले। होली के गहरे और नुकसान पहुंचाने वाले रंगों से बचने के लिये होली खेलने से पूर्व चेहरे तथा शरीर पर सरसो का तेल, माश्चराईजर या क्रीम लगा लेना भी उत्तम होता है।
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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