अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त छायाकार एवं नवल जायसवाल देश के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व में गिने जाते हैं। लगभग 75 वर्षों से रचना कुशलता की प्रच...
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त छायाकार एवं नवल जायसवाल देश के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व में गिने जाते हैं। लगभग 75 वर्षों से रचना कुशलता की प्रचुर आभा बिखेरवे वाले नवल जायसवाल अपनी असाधारण शैली के धनी हैं. देश विदेश के छाया एवं कला जगत में अपनी अलग छवि स्थापित करने वाले वे एक सफल साहित्यकार भी हैं. साहित्य की सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलाई है.
प्रस्तुत है बातचीत -
साहित्य में आज हो रहा है वह शास्त्र सम्मत है या नहीं, यह विचारणीय बिंदु है
युगेश : नवल जी! छिंदवाड़ा आपका जन्म स्थान है। आप से छिंदवाड़ा के बारे में कुछ जानना चाहूँगा।
नवल : छिंदवाड़ा मध्यप्रदेश का वह नगर है जो है तो बूँद किंतु पानी के सारे गुण उसमें विद्यमान हैं। इस छोटे से नगर को सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक दृष्टि से पूर्ण होते हुए मैंने देखा है। शहर में दो तालाब हैं- बड़ा तालाब और छोटा तालाब। संपूर्ण जिला भी अनेक उपलब्धियों से भरपूर है। मैं अपने नगर को अब भी बहुत प्यार करता हूँ।
युगेश : नवल जी, ऐसा कहा जाता है कि व्यक्ति के जीवन की सृजन-यात्रा की उपलब्धियों के लक्षण उसके बचपन में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इस दृष्टि से कृपया अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, विशेषकर अपने बचपन के बारे में बताइए।
नवल : युगेश जी, यदि कोई पौधा पल्लवित होकर वृक्ष बना है, तो निश्चित है उसका बीज कहीं न कहीं से तो अवश्य आया होगा किंतु मेरे परिवार में कला का कोई स्थान नहीं था। व्यवसाय शराब बेचना और खेती रही है। कुछ समय किराने की दुकान सँभालने का अवसर भी अवश्य आया था।
मेरे दो काका प्राइमरी स्कूलों में शिक्षक थे। वे सलीके से रहना जानते थे। बात 194० की रही होगी। वे सिवनी में, जो अब एक स्वतंत्र जिला है, स्थित नार्मल स्कूल में शिक्षक की ट्रेनिंग लेने गए थे। वहाँ से जब वे लोटे तब उनके द्वारा तैयार किए गए क्लास वर्क में कुछ चार्ट आदि भी थे। वे सदैव इस प्रकार का वातावरण बनाते थे जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से कला विद्यमान रहती थी। मूल फलों को मिट्टी के फलों में कैसे रूपांतरित किया जाता है, वे बताया करते थे। अक्षरों को सुधारकर सुंदर रूप में लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे। दशहरे के दिन वे मुझे धर्म टेकड़ी ले जाया करते थे। लौटते समय एक जल प्रपात मिलता था वहाँ शंकर जी की पूजा किया करते थे। शिवजी की पिंडी बनाने का उत्तरदायित्व मेरा होता था। पूजन के बाद उस पिंडी को उसी प्रपात में विसर्जित कर दिया जाता था। लौटने के पश्चात् मोहल्ले के समस्त घरों में सोना और चाँदी देने भेजा करते थे। सोना शमीपत्र को और चाँदी कहा जाता था जुवार की पत्तियों को। मेरी माँ अपने सारे कामों में मुझे अपने साथ ले लिया करती थी।
हरतालिका के दिन शंकर जी की पिंडी बनाना, पूजा के लिए छत्र बनाना, घर एवं बाहर के सदस्यों के लिए पकवान बनाना, खासकर गुझियों को केवल हाथ से नए-नए आकार देना सिखाया करती थी। मैं आज भी लगभग दस इंच व्यास की गोल रोटी बेल और सेंक लेता हूँ। उन दिनों लकड़ी से जलने वाले चूल्हे हुआ करते थे। मेरी बुआओं के लिए यह काम होता था कि वे अपने विवाह में ले जाने के लिए चादर, तकिया, टेबल क्लाथ आदि स्वयं बनाए। मैं भी उन सामग्रियों में कसीदाकारी किया करता था।
चित्रकला और मूर्तिकला से समीप तो रहा किंतु फोटोग्राफी से अधिक निकटता छिंदवाड़ा में नहीं बन सकी। शहर में हमारे आने-जाने के रास्ते में मोहम्मद साहब का स्टूडियो पड़ता था। फोटो बन जाने के बाद उनका सहायक बरामदे में बैठकर फोटो धोया करता था। उसे देखते रहना बुझे खूब भाता। तब दूसरा विश्वयुद्ध आरंभ हो चुका था। सेना के अधिकारी-कर्मचारी अपना फोटो खिंचवाकर अपने परिवार को भेजा करते। उन दिनों हमारे पिता जी साइकिल की दुकान चलाया करते थे। इसी से और मजदूरी से घर चलता था। मोहम्मद साहब रविवार के दिन छोटे तालाब के पास स्थित बगीचे में फोटो खींचा करते थे। उनके पास जो कैमरा था उसमें फोकस तो हो जाता था किंतु दूरी को टेप से नापकर कैमरे में सेट किया जाता था। फोटोग्राफी के प्रति मेरे मन में रुचि का बीजारोपण मोहम्मद साहब के छायाकलापों को देखकर ही हुआ।
युगेश : जैसा कि अब स्पष्ट हो चुका है आपकी सर्जनात्मक प्रतिभा बहुआयामी है। आप छायाकार और चित्रकार के अलावा कविता, राजल, कहानी और लघुकथा, आलेख के क्षेत्र में भी दखल करते हैं। सर्वविदित है कि आपकी सृजन-यात्रा का अधिकांश समय फोटोग्राफी और पेटिंग में ही लगा है। कहा जा सकता है कि ये दोनों कलाएँ आपके दिल के बहुत करीब हैं। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
नवल : मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं स्वयं रचित कलाकार हूँ। मैं किसी की अँगुली पकड़कर यहाँ तक नहीं पहुंचा हूँ। प्रेरणा ली, उसे अपनाया और अले बढ़ा। लिखने का जहाँ तक प्रश्न है घर की महिलाएँ शादी के अवसर पर विभिन्न भावभूमियों पर मुझसे कविताएँ लिखवाया करती थीं। हमारे घर में एक परंपरा थी बारातियों की धोतियाँ धोने के बाद धोबी घर की किसी न किसी महिला को सौंप दिया करता था। महावर से वही महिला- काकी या बुआ-उन धोतियों पर कुछ छंद लिखवाया करती थीं। कभी-कभी वे छंद रच लेती थीं और कभी-कभी मुझसे वैसा करने को कह देती थीं। निश्चित है कि धोती खराब हो जाती थी। तब उसकी एवज में किसी अन्य के हाथ से एक नई और अच्छी कोटि की धोती उस बाराती को भेंट में दी जाती थी। बाराती गण इसे एक उत्सव की भाति मनाते थे और धोती को खोलकर पढ़ते थे। इन प्रसंगों से प्रेरित होकर स्कूल के दिनों में कविताएँ लिखना प्रारंभ कर दिया था किंतु वे कविताएँ सहेज कर नहीं रखीं।
युगेश : आपने कला के गिन में जब प्रारंभिक चहलकदमी की अर्थात् ब्रश और कैमरा सँभाला-तब उस पर आपके परिवार और संगी-साथियों की क्या प्रतिक्रिया थी और उस प्रतिक्रिया ने आपको किस सीमा तक प्रोत्साहित और हतोत्साहित किया?
नवल : समय अपना काम कर रहा था। समय को ज्ञात था कि वह क्या कर रहा है किंतु मैं उससे अनभिज्ञ था। परिवार चाहता था कि मैं शराब की दुकान सँभाल लूँ किंतु मेरे अंदर कुछ और ही पनप रहा था।
पता नहीं क्यों मैं ऐसा चलते भी परिवार की आवश्यकता की अनदेखी नहीं कर पाता था। परिवार द्वारा सौंपी जवाबदारी के बाद यदि समय मिलता तो अपनी अबूझ साधना में लग जाता था। सच कहूँ मैं तब किसी भी शास्त्र को जानता भी नहीं था। उस समय राष्ट्र गीत गाना, पीटी. में भाग लेना और पुस्तकों को अच्छी तरह से सँभाल कर रखना सदा याद रहता था। फिल्में तो बचपन से ही देखा करता था। एक दिन मँझले काका, जो सिनेमा घर में काम किया करते थे, ऑपरेटर का कक्ष दिखाने ले गए। देखा सब किंतु समझ कुछ नहीं पाया। जिज्ञासा बस जिज्ञासा ही बनी रही। सरकारी स्कूल में प्रवेश पाना उस समय गौरव की बात हुआ करती थी। यदि परिवार, संगी साथी और गुरुओं ने प्रोत्साहित न किया होता तो मैं आज यहाँ तक नहीं आ पाता। अन्यथा न लिया जाए तो यही कहूँगा मेरा जन्म कला के गिन में ही हुआ था।
युगेश : नवल जी, फोटोग्राफी और पेंटिंग ये दोनों काफी खर्चीले शौक हैं। इनमें पारंगत होने के लिए काफी मेहनत और धैर्य की आवश्यकता भी रहती है। आपने इन चुनौतियों के बीच अपनी प्रतिभा को कैसे निखारा? इस दौरान की कुछ कड़वी-मीठी यादें हों तो कृपया उनके के बारे में भी बताइए।
नवल : मेरे भीतर कला का बीज अंकुरित हो चुका था, उसने पेड़ बनने का मार्ग लिया था। मैं छिंदवाड़ा से नागपुर चला गया। कला को एक नया टर्निंग पॉइंट मिला। उन दिनों 1947 में मिली स्वतंत्रता का उत्सव मनाया जा रहा था। मैं अपनी माँ से अलग होकर काकियों के बीच पहुँच गया। सातवीं कक्षा में भारतवर्ष का विशाल नवा, जैसा भारत 1947 के पूर्व था, तैयार किया और स्कूल में दिया। इस मानचित्र पर पुरस्कार मिला जो मेरे जीवन का पहला पुरस्कार था। यह सच है कि पेंटिंग- रबर आदि सामग्री दिलवा दी। वैसे भी ड्राइंग विषय हमारे कोर्स में था। छोटे काका की शादी हो गई। उनके यहाँ पहली संतान बेटी हुई। मेरे अंदर बैठे छायाकार ने कहा कि इस नन्हीं-पुत्री बहन का फोटो खींचा जाए।
मेरे दूर के मामाजी शिल्पकला मंदिर में पेंटिंग का कोर्स कर रहे थे। उनके पास रोलीकार्ड नाम का कैमरा था किंतु उन्होंने मुझे किसी मित्र से एक बॉक्स कैमरा दिलवा दिया। फिल्म डालने का तरीका भी बता दिया। बटन आदि की भी जानकारी दे दी। यह समय था- 1948 का। मेरा काम देखने के बाद मामाजी ने मुझे अपना रोलीकार्ड कैमरा ही नहीं दिया, एक फिल्म रोल भी दिया और एक्सपोजर के साथ ही कैमरा चलाना भी सिखाया। इसी दौरान मैंने उसी बॉक्स कैमरे से अपना सेल्फ पोर्टेट खींचा था। फिल्म धोने और उससे फोटो बनवाने के लिए काकी ने पैसे दिए थे। मेरा काम और फोटोग्राफी के प्रति रुचि देखकर मामाजी ने शिल्पकला मंदिर में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया किंतु घरवालों की इच्छा थी कि सिविल का कोर्स कर इंजीनियर बनूँ। मैंने ऐसी उस्तादी दिखाई कि मेरा चयन कला संकाय में हो गया। इस कोर्स में भारतीय और यूरोपीय कला हिस्ट्री ऑफ आर्ट विषय के अंदर पढ़ना पड़ता था। हमारे कोर्स में फाइन आर्ट, कमर्शियल आर्ट और फोटोग्राफी विषय अनिवार्य थे।
संक्षेप में ये सारे आयाम हैं जो मुझे बहुआयामी बनाने में सहायक रहे। गुरुओं का कहना था कि इतना सब साधने केलिए वर्तमान प्रसंग मन-मस्तिष्क में ' चेंबर ' बनाना जरूरी होगा। इसी बीच नागपुर के सिनेमा घर लिबर्टी में पेंटर का काम मिल गया। कुछ आर्थिक राहत मिली। मैंने ऐसे भी दिन देखे हैं कि जब दिन भर भोजन नहीं मिलता था तो स्नेही सज्जन श्री चटर्जी के यहाँ या बुआजी के यहाँ चला जाता था। फूफा जी की नाराजी के कारण बुआजी के यहाँ खुले रूप में रोटी मिलना बंद हो गया था। बुआजी चोरी छिपे मेरे झोले में रोटी और सब्जी डाल दिया करती थीं। लिबर्टी सिनेमा के भी कई अनुभव हैं। इसी दौरान फिल्म आपरेटर का भी काम आया। साधना के लिए गुरुजन भी सहयोग करते थे। उनसे भी सामग्री मिल जाती थी। सिनेमा घर के मालिक ने काम से प्रभावित होकर वेतन में बढ़ोत्तरी कर दी थी। रात को सड़कों पर विज्ञापन लिखने से भी कुछ अतिरिक्त पैसा मिल जाता था। इससे जिंदगी की गाड़ी चलने लगी थी।
युगेश : पेंटिंग और फोटोग्राफी के क्षेत्र में आगे बढ़ने में आपके परिवार ने आपकी किस रूप में मदद की? इस बारे में जानने की जिज्ञासा भी है।
नवल : जब मनुष्य के पास दृढ़ संकल्प हो तो गंतव्य स्वयं सामने आ जाता है। मेरी रुचियों के मामले में पूरे परिवार के सदस्यों ने न तो विरोध किया और न ही समर्थन। हाँ सबसे छोटे काका से मुझे पूरा सहयोग मिला। नागपुर के संघर्ष के कारण मैं परेशान था क्योंकि काका का ट्रांसफर राज्य पुनर्गठन की वजह से ग्वालियर हो गया था। व्यवस्था न होने के कारण वे वहाँ अकेले थे। मुझे वहाँ बुला लिया। भू- अभिलेख कार्यालय में मेरी नौकरी लगवा दी। जो नवा लोग पंद्रह दिनों में तैयार करते थे मैं उसे पाँच दिन में पूरा कर लेता था। शेष समय उर्दू सीखने और सूचना विभाग का काम करने में लगता था।
सूचना विभाग में श्यामसुंदर शर्मा, ललिता प्रसाद पुरोहित, देवीदयाल चतुर्वेदी मस्त, नाना वाघ, सूचना विभाग से बाहर छंद राव भांड एल.एस. राजपूत, वासवानी, हाफिज अली खाँ शंकर राव पंडित, रुद्र हाजी आदि के साथ घनिष्ठता हुई। जगनाथ प्रकाश मिलिंद ऐसा नाम है जिसे मैं अपने जीवन में कभी नहीं भूल सकता। उन तक पहुँचने का रास्ता दिखाने वाले छोटे काका ही थे। फोटोग्राफर विल्सन विलियम्स से मिलने का अवसर उन्हीं के यहाँ मिला था। विलियम्स प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी के घनिष्ट मित्र भी थे।
यदि ग्वालियर न जाता तो भोपाल आना संभव ही नहीं था। ग्वालियर से भोपाल आने में सूचना विभाग के अधिकारी श्याम सुंदर शर्मा और ईश्वरसिंह परिहार का सहयोग रहा। विभाग के तत्कालीन संचालक ईश्वरसिंह परिहार एक अच्छे प्रशासक होने के साथ एक अच्छे लेखक भी थे। ' भारत हृदय ' उन्हीं की रचना थी, जिस पर विनोद चोपड़ा ने एक डांस बैले की रचना की थी। यदि काका न होते तो इन सब विभूतियों से मिलने का अवसर ही नहीं आता।
युगेश : कोई विधा कला की हो अथवा साहित्य की उसमें एक ' कमिटमेंट ' के साथ काम करने की इच्छा शक्ति के पीछे कोई न कोई प्रेरणा की शक्ति अवश्य रहती है। यदि आपको भी किसी ने प्रेरित किया हो, तो उसके बारे में जानने की उत्सुकता है।
नवल : बिना ' कमिटमेंट ' और ' प्रेरणा ' के कला की साधना हो ही नहीं सकती। मैं कहना चाहूँगा कि इस संदर्भ में मैं माँ शारदे के अलावा किसी अन्य का नाम नहीं ले सकता।... जो भी जीवन में आए केवल सहयोगी बनकर ही। विवाह के पश्चात् पत्नी को कुछ समय तक तो ठीक से समझ नहीं पाया था। बाद में समझ में आ गया कि माँ शारदे के बाद मेरे लिए कोई भी प्रेरणादायिनी है तो वह हैं मेरी पत्नी प्रमिला जी। उन्हें भी फोटोग्राफी सिखाई और वे मध्यप्रदेश की पहली महिला छायाकार बनीं। इनसे पूर्व किसी महिला ने इस बारे में कोई प्रयास नहीं किया था।
युगेश : कला का शौक आपकी नियमित शिक्षा को जारी रखने में सहायक बना अथवा किसी स्तर पर इस शौक ने आपकी नियमित शिक्षा के मार्ग में बाधाएँ खड़ी कीं। वस्तुस्थिति क्या रहीं?
नवल : मैंने कभी भी कला को शौक नहीं माना, मैंने उसे केवल पूजा माना है। रास्तों में बाधाएँ तो बहुत आईं किंतु मेरा विश्वास कभी भी नहीं डगमगाया। ऐसी कुछ बाधाओं की तो मैं पूर्व में भी चर्चा कर चुका हूँ। कलाकार के लिए भावुक होना जितना अनिवार्य है उतना ही जरूरी है- संघर्ष से दृढ़ता से लड़ने की संकल्प शक्ति। मैं यह कहना चाहूँगा कि कला की साधना कभी भी मेरी नियमित शिक्षा में बाधकनहीं बनी। उसने तो मुझे निरंतर आगे बढ़ने में कदम-कदम पर शक्ति प्रदान की है।
युगेश : आपने पेंटिंग की है तथा फोटोग्राफी भी। बताइए कि दोनों में आपकी सबसे प्रिय कला विधा कौन-सी है?
नवल : आपका प्रश्न सच कहने को प्रेरित करता है। मैं पहले पेंटिंग करता था, फोटोग्राफी तो नागपुर आने पर संपूर्णता में मिली। यह भी सच है कि 1947 के बाद के कुछ वर्षों में जब पेंटिंग को पूर्ण रूप से प्रोत्साहन नहीं था तो फोटोग्राफी के लिए कैमरे के साथ उपस्थिति अनिवार्य है जबकि पेंटिंग में अवलोकन आवश्यक है। इस प्रसंग में एक बात की चर्चा अवश्य करूँगा, पेंटिंग के लिए सघन और सतत् अभ्यास चाहिए जबकि फोटोग्राफी में अध्ययन से काम चल जाता है। इसका यह भी अर्थ नहीं कि दोनों विधाएँ सरलता से आ जाएँगी। दोनों के लिए साधना-तपस्या आवश्यक है।
युगेश : ऐसा माना जाता है कि प्रतिभा तो व्यक्ति के भीतर जन्मजात होती है। हाँ प्रतिभा को तराशा अवश्य जा सकता है। कृपया बताए कि आपके भीतर कला की जो जन्मजात प्रतिभा थी, उसे आपने किस तरह तराशा? अर्थात् मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस क्षेत्र में आपके गुरु कौन हैं और आपने पेंटिंग और फोटोग्राफी का विधिवत प्रशिक्षण किस संस्थान में प्राप्त किया है?
नवल : मैंने स्वयं को जन्मजात कलाकार माना है। मैं प्रयोगों के माध्यम से अपनी शैली विकसित करता रहा हूँ। मैंनेपेंटिंग और फोटोग्राफी दोनों में अलग-अलग शैलियों को साधा है। परंपरागत शैलियों में व्यक्त होने के पश्चात् अमूर्त को भी साधा है। मैंने एक नया प्रयोग- ' क्वीकी ' नाम से किया है, जिसका मतलब है- तत्काल पेंटिंग बन जाए और शैली का पूरी तरह निर्वहन हो। अपनी प्रतिभा को समय-समय पर तराशना आवश्यक है अन्यथा आप हाथ ही चलाना भूल जाएँगे। इसी सिद्धांत का पालन करते हुए मैं सदैव अपनी सभी विधाओं को तराशने के लिए नियमित रूप से उनका रियाज करता रहता हूँ। तराशने का एक और माध्यम है- नियमित रूप से साहित्य पढ़ना। यह किया रचनाकार को नए विषय देती है। कलाकार में आत्म प्रक्षालन और आत्म विश्वास प्रचुर मात्रा में होना चाहिए। साथ ही यह भी जरूरी है कि वह समकालीन कला सृजन से रूबरू होता रहे। जब मैंने शिल्पकला मंदिर में प्रवेश लिया था तब वहाँ गुरुओं का एक गौरवशाली समूह था। मेरे मामाजी ने वहाँ से डिप्लोमा किया था। इस कारण सारे गुरु मुझे उनके भांजे के रूप में जानने लगे थे। इसी से गुरुओं की विशेष कृपा मुझ पर रही। संस्था प्रमुख थे- जी. के जोशीराव, जिन्होंने महाराष्ट्र बोर्ड से पेंटिंग में एमए किया था। वे पी-एचडी. भी कर चुके थे। वे ही इस विभाग के संस्थापक थे। वे नाटक लिखने और निर्देशित करने में भी पारंगत थे। उनकी सृजनशीलता सभी धाराओं में शिखर पर थीं। सभी अपनी शिक्षा गुरुकुल की तरह ही दिया करते थे। श्री जोशी राव बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। डेहाडराय साहब पर्सपेक्टिव, लैंडस्केप के साथ ही साथ फोटोग्राफी भी पढ़ाते थे। डेहाडराय साहब ने फोटोग्राफी केबारे में यह सब बताया था जो आज भी मेरे काम आ रहा है।
युगेश : कला की साधना के दौरान जीवन में क्या ऐसा भी कोई समय आया जब आपका आत्मविश्वास डगमगाने लगा हो? यदि हों तो आप कैसे स्थिति से उबरे?
नवल : मेरी कला-साधना में किसी प्रकार का व्यवधान तो नहीं आया किंतु दूसरों का उत्थान सहन न करने वाले कुछ लोग बाधक अवश्य बने रहे और इनमें अब भी मुक्ति नहीं मिली है। फोटोग्राफी में कैमरा उधार लेता रहा हूँ। एक मित्र तो सदैव आर्थिक मदद करते रहे। वे कहा करते थे कि फोटोग्राफी बंद नहीं होना चाहिए। बाद में उन्होंने एक कैमरा और अन्य सामान के साथ मुझे उपलब्ध कराने का कम जारी रखा। इसी बीच आईटीसी. कंपनी द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में 5000 रुपए का नकद पुरस्कार मिला। इससे एक एन्तार्जर, गैस और कुकर खरीदा और राष्ट्रपति से पुरस्कार और सम्मान लेने परिवार के साथ दिल्ली गया।
युगेश : जीविकोपार्जन की लगी-बँधी व्यवस्था कर पाना, एक कलाकार के लिए अग्नि परीक्षा से कम नहीं होता। आपने यह अग्नि परीक्षा कैसे उत्तीर्ण की? स्पष्टत : जानना मैं यह चाहता हूँ कि जब भी परिवार को पालने की चुनौती सामने आई तो उसका सामना आपने कैसे किया?
नवल : जहाँ तक जीविकोपार्जन का प्रश्न है, सरकारी नौकरी समय पर मिल जाने के कारण लगी-बँधी व्यवस्था मुझे मिली। सेवानिवृत्ति के बाद छ : साल तक भारत सरकार की लापरवाही के कारण पेंशन नहीं मिली। यदि अटल जी प्रधानमंत्री न होते तो पेंशन नहीं मिल पाती। जब सारा परिवार दाल-रोटी के लिए परेशान था उस समय श्रीमती सुधा मलैया सामने आईं और ' ओजस्विनी ' के संपादक का दायित्व सौंप दिया। समय के साथ यह संकट भी एक दिन समाप्त हुआ।
युगेश : कला सेवी ' नवल जायसवाल ' को शासकीय सेवा काल में क्या किसी मोड़ पर भी यह अहसास हुआ कि शासकीय सेवा की छाँव में कला को पौधों की तरह पनपाना कठिन काम है?
नवल : युगेश जी, मैंने कभी भी अपनी कला- साधना को नौकरी से नहीं जोड़ा। इसी का प्रमाण है मेरी किसी भी उपलब्धि को शासन ने अपने रिकार्ड में नहीं लिया। मेरा यह निर्णय स्वयं साबित करता है कि कला को शासकीय परिधि में पनपाना कठिन है। ये तो अच्छा हुआ कि मैंने और मेरे परिवार ने दूसरों पर निर्भर रहने वाली किसी भी विधा को नहीं अपनाया वरन् बहुत बुरे दिन देखने को मिलते। वैसे शासन संगीत और साहित्य के प्रति बहुत उदार है।
युगेश : जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ आप अन्य कला साधकों को भी साथ लेकर चलने वाले व्यक्ति हैं। ' बिंब ' संस्था की स्थापना आपने इसी उद्देश्य से की बताते हैं। ' बिंब ' के उद्देश्यों और उसकी उपलब्धियों के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा है। कृपया बताएँ।
नवल : मेरी घुट्टी में आयोजन करना भी लिखा है। यह सिलसिला 1947-48 से चला आ रहा है। भोपाल आने पर लगा कि अब स्थाई रूप से रहा जाए। अत : ' बिंब ' संस्था को अस्तित्व में लाने का प्रयास किया। मुझे मालूम था कि भेल के एक फोटोग्राफर ने शटर बग के नाम से संस्था बनाई थी। वे अपने साथ उस संस्था को दिल्ली लेकर चले गए। मैंने स्थानीय मित्र खान के साथ मिलकर बीडक्यू सी. नाम की संस्था की स्थापना की, काम चल पड़ा। इंदौर के एक सहपाठी के बहकावे से आकर मैंने अपनी पुरानी संस्था को नए संगठन में विलीन कर दिया। लेकिन मुझे धोखा मिला। मित्र अफसर ओमप्रकाश मेहरा का सान्निध्य मुझे मिला था। उन्होंने कहा कि एक संस्था बना लो। काम करने के लिए किसी न किसी मंच की आवश्यकता तो पड़ती ही है। यहीं से पुरानी सारी संस्थाओं के बिंब में विलय की स्थिति बनी। मेहरा जी ने पूछा- क्या करना चाहोगे- अब? मेरा सीधा सा उत्तर था- इतिहास में नाम लिखाना। इसी के अनुरूप वे ही काम किए जो इतिहास में पहली बार किए जा रहे थे। बिंब के आयोजनों की सूची लंबी है। 35 साल से भी अधिक हो गए हैं और मन करता है 5० साल पूरे हों।
युगेश : आपकी सहधर्मिणी श्रीमती प्रमिला जायसवाल को मध्यप्रदेश की पहली महिला छायाकार होने का गौरव प्राप्त है। आपकी बेटियाँ भी कैमरा अच्छी तरह ' हैंडिल ' कर लेती हैं। क्या यह सब आप ही का चमत्कार है? परिवार के इस कलामय पर्यावरण से आप किस रूप में लाभांवित हुए हैं?
नवल : विवाह के पश्चात् मैंने पत्नी को फोटोग्राफी सिखाना आरंभ कर दिया था। उन्होंने देखते-देखते दृश्य को पहचानने की प्रतिभा विकसित कर ली। देश-विदेश के अनेक छायाकारों के लिए उन्होंने मॉडलिंग की। मेरी बेटी भावना ने परिवार के सदस्यों के साथ एक टेली फिल्म बनाई है। श्रीमती प्रमिला ने भी उसमें एक भूमिका की है। भावना महिला पोलीटेक्यिकमें विभाग प्रमुख हैं- छायाकला की। सभी बच्चियाँ फोटोग्राफी, पेंटिंग और लेखन कर लेती हैं। वे शहर में ' सेवन सिस्टर्स ' के नाम से जानी जाती हैं। सांत्वना का लेखन प्रसिद्ध है। उसकी एक कहानी पर तो फिल्म बन चुकी है। बेटी आकांक्षा कवि-गोष्ठियों में कविताएँ पढ़ती हैं। अंतरराष्ट्रीय फोटोग्राफी प्रदर्शनी इन्हीं सब के सहयोग से मैं लगाता हूँ। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भावना ने फोटोग्राफी भी पढ़ाई है। मेरा छोटा भाई उद्योग विभाग में फोटोग्राफर था। उसका एक बेटा भोपाल में स्वतंत्र रूप से फोटोग्राफी कर रहा है। दूसरा बेटा एनडीटीवी. चंडीगढ़ में एक बड़े पद पर है।
मैंने कम से कम 5० छायाकारों के लिए प्रिंट्स बनाए हैं। कह सकता हूँ- मेरा परिवार केवल मेरे घर की चारदीवारी में नहीं, सारे देश में है।
युगेश : क्या कभी परिवार में ऐसा भी कोई प्रसंग आया है- जब कैमरे ने ढाल की और कूची ने तलवार की शक्ल अख्तियार की हो अर्थात् पति-पत्नी की प्रतिभाएँ आपस में टकरायी भी हों?
नवल : हम पति-पत्नी में बर्तनों के टकराने जैसा कुछ नहीं है। जब समर्पण है तो विवाद कैसा। कैमरे और कूची ने हमको शासन और समाज की विसंगतियों से लड़ने की शक्ति प्रदान की है। मैं घर में उदार रहा हूँ। हमारी संस्था के राष्ट्रीय सचिव ने एक बार पत्नी को लिखा था-' भाभी जी आपका स्कोर तो भाईसाहब से भी अच्छा है। ' मुझे इससे जलन नहीं अधिक खुशी हुई। वास्तव में पत्नी की मेमोरी कम्प्यूटर से भी ज्यादा सक्रिय और विश्वसनीय है। ये एक बार किसी लेख को पड़ लें, सुन लें तो भूलती नहीं हैं। जब जीवन में दोनों में अहंकार नहीं है तो क्या ढाल और क्या तलवार।
युगेश : सर्वविदित है कि फोटोग्राफी एवं पेंटिंग के क्षेत्र में आपकी 77 वर्ष की सृजन-यात्रा उपलब्धियों से परिपूर्ण रही है। दोनों कला विधाओंकी प्रमुख उपलब्धियों के बारे में बताइए।
नवल : मेरे शासकीय जीवन के 26 वर्ष पेंटिंग के लिए और 11 वर्ष फोटोग्राफी में बीते। दैनिक ' भास्कर ' को दो साल फोटोग्राफी के लिए दिए हैं। अन्य पत्रिकाओं को भी सेवाएँ दी हैं। प्रतियोगिताओं की बात करें तो पेंटिंग में कम पुरस्कार और फोटोग्राफी में तो सैकड़ों पुरस्कार मिले हैं। कालिदास समारोह में स्व. मोरारजी देसाई द्वारा दिया गया प्रथम पुरस्कार प्रमुख है। यह पुरस्कार पेंटिंग के लिए था। अन्य पुरस्कार भी पेंटिंग के लिए मिले हैं। फोटोग्राफी के लिए अगला, इलेस्ट्रेड वीकली आदि ने प्रथम पुरस्कार दिए हैं। मुंबई में चार चित्रों पर पाँच पुरस्कार पाने वाला देश का एक मात्र छायाकार हूँ। प्रतियोगिता में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की ओर से एक मात्र विजेता रहा। इस प्रतियोगिता में भारत की ओर से 35 छायाकारों ने 14० प्रविष्टियाँ भेजी थीं। स्वीडन सरकार से पदक विशिष्ट छायाकार के रूप में प्राप्त हुआ है। देश के प्रथम दस छायाकारों में मेरी गणना होती है। मेरा परिवार देश का वह विरला परिवार है जिसके सारे सदस्य फोटोग्राफर, पेंटर और लेखक हैं।
युगेश : आपने पेंटिंग और फोटोग्राफी के क्षेत्र में निश्चित ही कुछ मौलिक प्रयोग भी किए होंगे। इन प्रयोगों के बारे में भी बता सकें तो बड़ी कृपा होगी।
नवल : मैं इस सिद्धांत का पालन करता हूँ कि पहले नियम जानो, उसके बाद नियम तोड़ो और उसके बाद वह प्रयोग करो रनो नियम का स्थान ले ले। स्थापित मान्यताओं में काम करने में जहाँ अपने आप को समर्थ पाता हूँ वहीं नए प्रयोग किए और आज भी कर रहा हूँ। मेरा नवीनतम और उल्लेखनीय प्रयोग है- बैले पर आधारित कार्यक्रम का छायांकन। बैले भी प्रयोगों और संरचना के हिसाब से फोटोग्राफी के लिए श्रेष्ठ होते हैं। मैंने अपने प्रयोगों से उसे छायांकित किया और प्रिंट बनाते समय कुछ प्रयोग उसमें डाले। इससे पूर्व श्वेत-श्याम तकनीक में भी प्रयोग कर चुका हूँ। उन्हें प्रकाशित भी किया था। मुंबई में मेरे एक प्रयोग को प्रदर्शनी का सर्वश्रेष्ठ चित्र माना गया- विषय भी अनोखा था-' प्रलय '। मैं साहित्य में भी गजल को मुक्त छंद में लिखकर और कविता की कहानी बनाकर, एकशब्द को लेकर कविता और कहानी लिखकर और एक चित्र को कहानी का रूप देकर नए प्रयोग कर रहा हूँ।
युगेश : इन दोनों कला- क्षेत्रों में साधना करते समय कुछ अविस्मरणीय घटनाएँ घटी हों, तो एक-दो के बारे में जानने की उत्सुकता है।
नवल : युगेश जी, कलाएँ चमत्कार ही पैदा करती हैं। मनुष्य को संवेदनशील बनाती हैं। तपस्या वरदान देती है जिसका उदाहरण है मेरा ' रिस्की रूटिन ' शीर्षक मुंबई में खींचा एक चित्र। एक ही जगह पर सात घटई खडेरहने पर खींचा गया चित्र- एक ही फ्रेम-चार टैक्सियों के बीच से सड़क पार करती एक युवती। चारों कारें चारों कोनों पर हैं और युवती नियमानुसार सबसे कम घनत्व वाले स्थान पर स्थित है। यह चित्र और इलेस्ट्रेडवीकली और पीएस. आई. द्वारा- देश-विदेश में पुरस्कृत है। दूसरा चित्र समकालीन अवश्य है किंतु शैली बिकुल भिन्न। इंदौर के पास स्थित बनेडिया ग्राम में आऊटिंग कर रहा था। एक बैलगाड़ी पर मनवांछित प्रकाश पड़ रहा था। दो बच्चियों को उचित स्थान पर खड़ा किया और अपनी जगह पर आकर उनसे जोर से कहा- ' दोनों बात करो। ' पास में खड़े व्यक्ति ने कहा-' एक लड़की गूंगी है। ' मेरी जमीन खिसक गई। विषय चर्चा का और मॉडल गूंगा। मेरी अपनी विवशता थी। किसी प्रकार चित्र खींचा। बैंगलोर में राष्ट्रीय संस्था के महासचिव डी. जी. थामस ने जब मेरा नाम सुना तो कहा- वे। दैट ऑथर ऑफ ' इव्हनिंग टॉक'। फोटोग्राफी में ऑथर माना जाना सबसे बड़ी पी-एचडी. है।
तीसरा उदाहरण और है। मैं भोपाल के तलैया क्षेत्र में रहता था। पास ही हमीदिया स्कूल का मैदान था। उस मैदान में सेमल का एक सूखा पेड़ था। मैं हर शनिवार की रात प्रिंट्स बनाता और धोने आदि के लिए श्रीमती जी को देकर- कैमरा लेकर आऊटिंग के लिए निकल पड़ता। सबसे पहले इसी मैदान पर जाता। उस सूखे वृक्ष के आसपास किसी प्रकार का ' जीवन ' न पाने पर आगे बढ़ जाता। यह सिलसिला 4-5 साल तक चलता रहा। एक दिन मोहल्ले का एक लड़का मिल गया। उसे एक जगह खड़ा किया और विशिष्ट कोण से फोटो खींचकर ले आया। फिल्म डेव्हलप की। एक 12 द्र 15 इंच का प्रिंट बनाया। मन में उत्कंठा जागी कि इसी दृश्य को रंगीन फिल्म पर खींच लिया जाए। जब तीसरे दिन मैं उस मैदान पर पहुंचा तो वह पेड़ उस स्थान पर नहीं था। सारा मैदान खाली था।
क्या मैं मान लूँ कि वह पेड़ फोटो खिंचवाने के लिए पाँच साल तक इंतजार करता रहा? क्या मैं मान लूँ कि फोटो खींचने के बाद उस पेड़ की मुक्ति हो गई? क्या मैं मान लूँ कि वह मेरा कोई सगा था? क्या मैं मान लूँ कि सूखे पेड़ भी अपनी आत्मा अपने साथ रखते हैं? क्या मैं मान लूँ कि पेड़ और मानव में कोई रिश्ता होता है? अत : कह सकता हूँ कि तपस्या वरदान देती है।
युगेश : आजकल पेंटिंग और फोटोग्राफी में कम्प्यूटर की सहायता लेकर चमत्कार पैदा करने के प्रयास भी होने लगे हैं। क्या ऐसे सहज चमत्कार के कारण नए कलाकारों की साधना पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता हुआ आपको दिखाई देता है?
नवल : यह प्रश्न बहुत प्रासंगिक है। क्या जेल पेन से लिखने से कविता सारगर्भित बन जाएगी, कदापि नहीं। नई तकनीक आने से कला का ही हास हुआ है। आज का युवा तत्काल हर फल चाहता है। कला का व्याकरण जिस पर नवल जायसवाल ने काम किया है उसे समझने के लिए आज किसी के पास समय नहीं है। वह घर में बैठकर अपनी कल्पना से अपने आगामी चित्र को अंकित नहीं कर पाता है। नकल- से बदल जाने से काव्य नहीं बदलना चाहिए। मैंने अपने समय के छायाकारों से भी व्याकरण जानने का अनुरोध किया था। वे भी मुकर गए। चित्र बन जाए और पुरस्कार मिल जाए सब यही चाहते हैं। मेरे समय में भी कुछ छायाकार थे अपनी ही शैली में काम करते थे। बस आगे इति। प्रेस में एक फोटो एडिटर होता है वह काट-छाँट कर अपने पत्र को सूचना के योग्य बना लेता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह पारंगत है। प्रेस के बड़े-बड़े छायाकार कला के क्षेत्र में धराशायी हुए हैं। नई तकनीक अपनी फास्टनेस और ड़ाई तकनीक के कारण चमत्कृत अवश्य कर देती है किंतु जैसा साहित्य में हो रहा है उसी प्रकार का छायाकला में हो रहा है। निर्णायक की हैसियत से जब मैं काम करता हूँ तो बीस प्रतिशत के नियम की पूर्ति के लिए कम गुणवत्ता वाले चित्रों को स्वीकार करना पड़ता है। बेचारा फोटोग्राफर डिजिटल कैमरे से फोटो खींचता है और पेन ड्राइव के माध्यम से लेब के सिस्टम में डाउनलोड कर देता है। जो दैनिक वेतनभोगी ऑपरेटर बैठा है वह जो कर दे बस वही अंतिम बन जाता है। परिकल्पना तैयार कर, प्लानिंग कर तथा व्याकरण जानकर चित्र खींचने का समय चला गया। आज पत्रिकाएँ अपने आप को सुशोभित करने के लिए किसी भी व्यक्ति के रेखाचित्र छाप देती हैं। स्वयं संपादक को इस बात का ज्ञान नहीं, बिना व्याकरण जाने जो व्यक्ति रेखाचित्र भेज रहा है वे रेखाचित्र गुणवत्ता पर खरे उतरेंगे या नहीं। पत्रिका में भी सिस्टम वाले ऑपरेटर को भी नहीं मालूम कि चित्र कहाँ और किस प्रकार ले आउट में शामिल करना है। सारे कुँओं में भाँग पड़ी है। हाँ कुछ अपवाद भी हो सकते हैं।
युगेश : अब पेंटिंग और फोटोग्राफी के इतर बात की जाए। निश्चित ही इन दोनों कला-विधाओं में आपने जो लंबी साधना की है, उससे आप संतुष्ट भी होंगे ही। ऐसी दशा में साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उतरने के पीछे कौन से कारण रहे हैं?
नवल : मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं होता और रचनाकार तो इससे आगे होता है अन्यथा अपना पुनर्जन्म इसी क्षेत्र में क्यों माँगता है। विधि का विधान यदि पिछला अपने साथ लाने की अनुमति दे तो कोई तपस्या या साधना नहीं करना चाहेगा। मैं भी संतुष्ट नहीं हूँ किंतु औरों से जब तुलना करता हूँ तो अपने आप को बेहतर पाता हूँ। जितनी व्यापकता और ख्याति चाहिए थी, उसमें अभी कमी है परंतु मैं अपने सृजन को औरों से बेहतर मानता हूँ। मैंने दोनों क्षेत्रों से जो सर्जनात्मकता पाई है वह शायद औरों के पास न हो। मेरी इस कथनी को घमंड के दायरे में नहीं लिया जाए क्योंकि मेरी करनी सदैव चुनौतीपूर्ण रही है। मैं यह उद्घाटित करना चाहता हूँ कि मेरी कुंडली दूसरों से भिन्न है। आप मुझे किसी भी क्षेत्र में डाल दें मैं अपनी क्षमता सिद्ध कर दूँगा। पहले भी बता चुका हूँ कि बचपन से लिखता रहा हूँ- विषय भले ही आज जैसे न रहे हों। साहित्य मेरी कला के साथ ही साथ मेरा साथी रहा है। सौ बात की एक बात यह है कि साहित्य-सृजन के क्षेत्र में मैं काफी सोच- विचार कर उतरा है और छायाकला एवं पेंटिंग से मुझे जो अभिव्यक्ति सुख नहीं मिल पा रहा था, वह मैं साहित्य- सृजन में पा रहा हूँ।
युगेश : जहाँ तक मुझे ज्ञात है आप इन दिनों उपन्यास और नाटक को छोड़ साहित्य की प्राय : अन्य सभी विधाओं में बडे उत्साह से हाथ आजमा रहे हैं। कवि-गोष्ठियों में खूब कविताएँ सुना रहे हैं, गजलें कह रहे हैं। कृपया बताएं कि साहित्य की कौन-सी विधा आपको सबसे प्रिय है?
नवल : उपन्यास तो नहीं लिखा किंतु लंबी कहानियाँ लिखी हैं। शीघ्र की कहानी संग्रह सामने आएगा। उपन्यास लिखने के लिए उलझनों से मुक्ति चाहिए। मित्र मुकेश वर्मा ने कहा कि मैं उपन्यास लिखूँ। संभव है उपन्यास लिख डालूँ। अब रही नाटक की बात तो संतोष चौबे ने एक बार पूछा था कि क्या कभी आपने नाटक लिखा है। मेरा उत्तर निश्चित ही नहीं था किंतु प्रक्रिया में अवश्य आ गया। एक दिन एक पत्रिका में रवींद्रनाथ टैगोर की एक कहानी प्रकाशित हुई थी। उसे ले आया और नाटक लिख डाला। अपनी बच्चियों के लिए स्कूलों में खेलने के लिए 2 -3 नाटिकाएँ लिखीं थीं जिनका रिकार्ड मेरे पास नहीं है। अगर होगा भी तो नहीं जानता कहाँ होगा। एक बात और। मेरी प्राथमिकता फिल्म उद्योग में जाने की थी किंतु काका ने एक बात कही-छह माह के लिए रहने खाने और आने-जाने के लिए पैसा न दे दूँ तब तक बंबई नहीं भेजूँगा। इस समय मेरे पास 2 -3 परियोजनाएँ चित्रकला को लेकर फिल्म बनाने की हैं जिसके लिए मैंने लगभग 15० पेंटिंग्स तैयार की हैं। नातिन को हर वर्ष कुछ न कुछ देने के लिए पेंटिंग पर आधारित भेंट देता हूँ। कला साधक आशी मनोहर के लिए 2 -3 फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी थीं। कुछ फिल्मों की लाइटिंग और शॉट टेकिंग पर काम किया है। मैं जिन विधाओं में काम कर रहा हूँ सभी को प्रिय मानता हूँ। हाँ आजकल शरीर अधिक साथ नहीं दे रहा है, इस कारण लेखन प्रिय है। इसमें भागदौड़ कम है। पेंटिंग और फोटोग्राफी में पैसा भी अधिक लगता है।
युगेश : यह साहित्य-सृजन कला-साधना की कीमत पर चल रहा है अथवा दोनों की जुगलबंदी चल रही है। लोगों में चर्चा है कि साहित्य-सृजन के कारण आपकी मूल विधा पीछे छूट रही है। क्या यह सच है?
नवल : यह बिकुल भी सच नहीं है। जब सारी विधाएँ साथ आईं हो तो साथ ही रहेंगी भी। यदि मध्यप्रदेश शासन ने स्वीकृति दे दी तो मेरी पेंटिंग और फोटोग्राफी की प्रदर्शनियाँ आप देख पाएँगे। रेखाचित्र तो आप पत्रिकाओं में देख ही रहे होंगे। दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, अहमदाबाद आदि बडे शहरों की पत्रिकाओं में रंगीन चित्र आवरण पृष्ठ पर छप रहे हैं। अभी हाल में ही ' साक्षात्कार ' ने दो पेंटिंग्स आवरण पृष्ठ पर छापी हैं। पत्रिका ' अक्षरा ' में बुलाया अवश्य गया था, किंतु फिलहाल बात बनी नहीं।
युगेश : यदि आप मानते हैं कि आप दोनों के साथ न्याय कर रहे हैं तो यह बताने का कष्ट करें कि पिछले दिनों पेंटिंग में आपने क्या नया किया है?
नवल : यह तो आप शीघ्र ही सब देखेंगे। यदि मर्मज्ञ जन कुछ समय निकालें तो सारे प्रयोग दिखा सकता हूँ। आज कंप्यूटर का युग है, अत: मेरा प्रयोग कंप्यूटर की भाषा में कहूँ तो दो लेयर में है। कंप्यूटर में डाउन लोड कर दोनों लेयरों को एककर दिया जाएगा औरचित्र नई तकनीक से बन जाएगा। इस प्रयोग में चित्र, रेखाचित्र और कंप्यूटर के बीच समन्वय होगा। साथ ही साथ कम से कम चार प्रकार के रेखाचित्र तैयार किए हैं जिनमें नवल और उसके व्याकरण के साथ-साथ रेखाओं का नया शिल्प मिलेगा। कैयूटर फोटोग्राफी की एक नई शाखा है अत: कह सकता हूँ कि इन प्रयोगों में फोटोग्राफी का भी सहारा होगा।
युगेश : क्या पेंटिंग और फोटोग्राफी के क्षेत्र में आपने अब तक वह सब पा लिया है, जिसकी इच्छा लेकर आपने इन क्षेत्रों में अपनी साधना प्रारंभ की थी?
नवल : साधना के सरोवर में जब मैंने पहली बार डुबकी लगाई थी तब उसकी गहराई का अंदाजा नहीं था। केवल इतना जानता था कि कला की सिद्धि ही लक्ष्य है और बस चल पड़ा। जब शाखाएँ देखीं तो पता चला कि हर शाखा पर एक सम्मान है जो फोटोग्राफर को अपने प्रयासों से हासिल करना होता है। कृतियाँ तो थीं, साधन थे, समझ थी किंतु धन नहीं था। शासन मुझे किसी भी प्रकार का सहयोग देने को तैयार कभी नहीं हुआ। दूसरों को देने की उसकी नियत थी किंतु नवल जायसवाल के लिए केवल उपेक्षा थी। मैंने जो भी किया अपने बल पर किया।
युगेश : क्या पेंटिंग अथवा फोटोग्राफी में कोई कालजयी काम करने की योजना आपके मन में है? यदि हाँ, तो वह क्या है?
नवल : जो भी काम मैंने किया है वह सब कालजयी है। उसका विस्तार हो और सारा जग जाने। सैकड़ों रेखाचित्र है जो बड़े आकारों में पेंट किए जा सकते हैं। ऐसे कई निगेटिव हैं जिन्होंने कागज का मुँह कभी नहीं देखा। बिना राज्याश्रय के कला अमर नहीं हो सकती। मैं छोटे से वेतन में कला की सेवा करूँ या बच्चों को पालूँ। यह प्रश्न मेरे हमेशा सामने रहा है। कल शायद कुछ और जागे-नई कल्पनाएँ आएँ नए प्रयोग सृजन में स्थान लें। कुछ कार्य अधूरे पड़े हैं। बच्चों को आगे बढ़ाना है देश को छायाकला का व्याकरण देना है। बहुत काम है-करने के लिए। करूँगा भी।
युगेश : ऐसी चर्चा है कि नवल जायसवाल को उनकी साधना का यथोचित प्रतिफल नहीं मिला, इस पर आपकी प्रतिक्रिया।
नवल : आपने सच कहा। सबसे बड़ी और सटीक बात यह है कि शायद शासन के पास मुझे कुछ देने की इच्छा नहीं है। अपना हक पाने के लिए मैं आज भी संघर्ष कर रहा हूँ।
युगेश : आपने ' बिंब अंश ' नाम की संस्था के बैनर तले पिछले दिनों रचनाकारों की अनूठी कार्यशालाओं का सिलसिला शुरू किया है। कृपया उस पहल की पृष्ठभूमि स्पष्ट कीजिए।
नवल : 77 साल के जीवन में यह महसूस किया है कि हर विधा का एक शास्त्र होता है किंतु साहित्य में आज हो रहा है वह शास्त्र सम्मत है या नहीं, यह विचारणीय बिंदु. है। पेंटिंग और फोटोग्राफी की बात होती तो किसी से पूछता नहीं। मैंने भोपाल के करीब 4० रचनाकारों से संपर्क साधा। न तो वे सीखने को तैयार हैं और न ही सिखाने के लिए। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो अक्सर मंच पर बैठकर उपदेश भी देते रहते हैं। ' बिंब अंश ' संस्था का मुख्य उद्देश्य है- ' सीखो और सिखाओ। '
नकारात्मक रिस्पॉन्स मिलने के बाद भी इस दिशा में प्रयास जारी रखूँगा। देखें आगे क्या होता है।
युगेश : आपने करीब चार साल पहले ' प्रेमचंद का दृश्य विधान ' नामक एक पुस्तक का संपादन किया था। इस पुस्तक को साहित्य एवं कला जगत में सराहना मिली है। क्या इस कम को अन्य लेखकों के संदर्भ में भी आप आगे बढ़ाएंगे?
नवल : संपादन तो केवल तकनीकी शब्द है। मैंने तो लगभग सभी लेखकों के सामने बैठकर प्रेमचंद की कहानियों के दृश्यों पर कई बार लंबी-लंबी चर्चाएँ की हैं। मैं नहीं चाहता था कि मैं सारा लेखन स्वयं करूँ। अन्यों को भी साथ लेकर चलना मेरी शैली है। पुस्तक के आकल्पन केलिए भी बड़ी मेहनत की थी क्योंकि आकल्पन दृश्य का प्रतिरूपण है। कुछ लेखकों ने तो उपहास भी किया। यह एक नया आयाम था, साहित्य जगत में। सराहना मिली। अन्य किसी लेखक के बारे में करने का विचार आया तो था, किंतु न तो अब पैसा है- न ही शक्ति। साथ ही न वैसे लोग हैं जो सहयोग करें। अत: अब आगे ऐसा कुछ कर पाना संभव नहीं दिखता। अब तो समय आ गया है कि सब समेट लूँ।
युगेश : एक वरिष्ठ कला साधक के रूप में नई पीढ़ी के छायाकारों और चित्रकारों से आप क्या कहना चाहेंगे?
नवल : पहला, तकनीक से कल्पना को न कुचलें और दूसरा, शास्त्र के ज्ञाता समर्थ गुरु की पहचान करें और उसके मार्गदर्शन में सृजन की अपनी साधना निरंतर जारी रखें।
०० : नवल जायसवाल प्रेमन बी-२ 7 सर्वधर्म कोलार रोड भोपाल- २६२६२ फोन नं: 07552493840
सपंर्क : युगेश शर्मा ' व्यंकटेश कीर्ति ' 71 सौम्या एन्क्लेव एक्सटेशंन् चूना भट्टी राजा भोज मार्ग, भोपाल- ४६२०७१६
(साक्षात्कार, दिसंबर 2014 अंक से साभार)
बहुत शानदार व्यक्तित्व है, नवल दादा का
जवाब देंहटाएंहमारे जिले में एक कार्यक्रम में आए थे, तो मेरे घर पर दो दिन रुके थे।
खूब सारी तस्वीरें ले गए थे हमारे गांव की, और हमारे परिवार की।
तब मै छोटा था, बहुत याद आती है उनकी, पर अब संपर्क में नहीं हैं।
💓💓