ज्ञान विज्ञान : हमें ऊर्जा के बारे में कैसे पता चला?

SHARE:

हमें ऊर्जा के बारे में कैसे पता चला? आइजिक एसिमोव अनुवाद : अरविन्द गुप्ता HOW WE FOND OUT ABOUT ENERGY By: Isaac Asimov Hindi Translation...

हमें ऊर्जा के बारे में कैसे पता चला?

आइजिक एसिमोव

अनुवाद :

अरविन्द गुप्ता

clip_image002

HOW WE FOND OUT ABOUT ENERGY

By: Isaac Asimov

Hindi Translation : Arvind Gupta

clip_image004

1 ऊर्जा

clip_image006

क्योंकि आजकल ऊर्जा एक बहुत चर्चित विषय है शायद उससे ऐसा लग सकता है कि प्राचीन काल में भी यह शब्द खूब प्रचलित होगा। पर वास्तव में ऐसा नहीं था। ‘ऊर्जा’ शब्द का आविष्कार आज से 200 वर्ष पूर्व एक ब्रिटिश वैज्ञानिक थॉमस यंग ने किया। उसने इस शब्द का पहली बार 1807 में उपयोग किया। ऊर्जा वो चीज है जिसके द्वारा हम कोई कार्य कर पाते हैं। किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमें श्रम करना पड़ता है। किसी भारी वस्तु को उठाने के लिए हमें काम करना पड़ता है। किसी हल्की वस्तु को उठाने के लिए भी हमें कार्य करना पड़ता है। परन्तु इस बार कार्य की मात्रा कम होती है। किसी वस्तु को अधिक दूरी तक ले जाने के लिए ज्यादा और कम दूरी तक ले जाने के लिए कम कार्य करना पड़ता है। जितनी भारी वस्तु को आप जितनी अधिक खींच के खिलाफ, जितनी अधिक दूरी तक खींचेंगे आपको उतना ही अधिक कार्य करना होगा। ऊर्जा का कार्य से सीधा सम्बंध है। अधिक कार्य करने के लिए आपको ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी। और आपके पास जितनी अधिक ऊर्जा होगी आप उतना ही ज्यादा काम कर पाएंगे।

थॉमस यंग ने ‘ऊर्जा’ शब्द एक यूनानी वाक्य ‘अंदर कार्य’ से प्रेरित होकर इजाद किया। ऊर्जा एक ऐसी चीज है जिसके अंदर ‘कार्य छिपा’ है। आप उस ऊर्जा के उपयोग से कार्य कर सकते हैं। प्राचीन काल में लोगों ने ऊर्जा शब्द का शायद उपयोग न किया हो परन्तु उन्हें निश्चित रूप से थकान होती होगी। उन्हें यह भी पता था कि वे जितना ज्यादा कार्य करेंगे, उतनी अधिक मेहनत करनी पड़ेगी और उतनी ही ज्यादा थकान होगी।

clip_image008

 

अगर उन्हें ऊर्जा शब्द का पता होता तो वे निश्चित रूप से यह कहतेः ‘आपके शरीर में एक निश्चित मात्रा में ऊर्जा है। आप जितना अधिक कार्य करेंगे, उतनी ही ज्यादा ऊर्जा खर्च होगी और आपको उतनी ही ज्यादा थकान महसूस होगी।’ पर प्राचीन लोगों को एक बात नहीं पता थी - कि ऊर्जा के इस्तेमाल द्वारा ही कोई भी कार्य सम्पन्न होता है। उन्हें लगता था कि दैवीय शक्तियों द्वारा कार्य सम्पन्न होता है जिसमें न तो कोई श्रम करना पड़ता है और ही कोई थकान होती है। प्राचीन यूनानी ऐसे संगीतज्ञों की कहानियां सुनाते हैं जिनके अलौकिक संगीत से पत्थर नाचने लगते थे और दीवारें खुद-ब-खुद खड़ी हो जातीं।

अरेबियन नाईट्स पुस्तक में अल्लादीन की कथा है जो अपने जादुई चिराग से जो चाहें पा सकता था। चिराग के अंदर का जिन्न अल्लादीन के लिए पलक झपकते ही एक महल तैयार कर सकता था। पर उससे जिन्न बिल्कुल थकता नहीं था क्योंकि वो ऊर्जा की बजाए जादू इस्तेमाल करता था। लोगों द्वारा इस प्रकार की कहानियां गढ़ने में वास्तव में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। काम करना कठिन था और हरेक इंसान बिना थके काम करने की कोशिश करता था। पर किसी ने न तो जादू-टोने द्वारा किसी काम को सम्पन्न होते देखा था और न किसी ने जादू-टोने से कोई काम किया था। उस समय जो भी कार्य सम्पन्न हुआ उसमें ऊर्जा खर्च हुई और अगर उसे लोगों ने मिलकर किया तो उसमें श्रम लगा जिससे लोगों को थकान हुई। पर ज्यादातर बार हम कार्य शब्द का सम्बंध जीवित मनुष्यों के साथ जोड़ते हैं। अगर मनुष्य काम करते हैं तो घोड़े, गधे और बैल जैसे जानवर भी काम करते हैं। पर कभी-कभी निर्जीव वस्तुएं भी काम करती हैं। हवा पानी में जहाजों को ढकेलती है। नदी का बहाव पेड़ों के तनों को आगे ले जाता है। ज्वार-भाटा (टाईड्स) भारी जहाजों को ऊपर उठाता है। गुलेल द्वारा पत्थर हवा में तेजी से फेंका जा सकता है। अगर पत्थर भारी हो तो वो किसी दीवार से टकराकर उसे तोड़ सकता है। जब कभी कोई निर्जीव वस्तु काम करती है तो निश्चित ही वो गतिशील होती है। स्थिर हवा, स्थिर पानी या स्थिर पत्थर में किसी चीज को हिलाने, बहाने या तोड़ने की क्षमता नहीं होती है। बहती हवा और पानी और गतिशील पत्थरों में कार्य करने की क्षमता होती है।

क्योंकि गतिशील चीजें काम करती हैं इसलिए गति में निश्चित एक प्रकार की ऊर्जा होगी। हम इसे गतिशील ऊर्जा बुला सकते हैं। पर 1856 में एक ब्रिटिश वैज्ञानिक लार्ड केल्विन ने उसे ‘काईनेटिक इनर्जी’ या ‘गतिज-उर्जा’ का नाम दिया। ‘काईनेटिक’ एक यूनानी शब्द है जिसका मतलब होता है ‘गति’। जितनी तेजी से वस्तु आगे बढ़ती है वो उतना ही अधिक कार्य कर सकती है और उसमें उतनी ही अधिक ऊर्जा होती है। अगर आप हल्के से हथौड़ी को कील पर मारें तो उससे कील लकड़ी में थोड़ी ही गहराई तक जाएगी। पर अगर आप हथौड़ी को तेजी से कील पर मारेंगे तो वो उसके मत्थे पर जोर से टकराएगी और कील लकड़ी में अधिक गहराई तक जाएगी। अगर भारी और हल्की दो वस्तुएं एक-समान गति से जा रही हों तो भारी वस्तु में हल्की की अपेक्षा ज्यादा ‘गतिज ऊर्जा’ होगी। इसलिए एक बड़ा, भारी हथौड़ा किसी हल्के छोटे हथौड़े की तुलना में कील को हरेक वार में अधिक गहराई तक ठोकेगा। कभी-कभी एक स्थिर वस्तु भी कार्य कर सकती है। कल्पना करें एक पत्थर की जो पहाड़ी के सिरे की एक किनार पर स्थित है। हवा का एक तेज झोंका उसे हिला सकता है और वो गिर सकता है। वो जैसे-जैसे ढलान पर नीचे लुढ़कता है उसमें ‘गतिज ऊर्जा’ आ जाती है। जब कोई वस्तु गिरती है तो उसकी गति तेज और फिर और तेज होती जाती है और इस प्रकार उसकी ‘गतिज ऊर्जा’ भी बढ़ती जाती है। अंत में तेज गति का पत्थर जब जमीन से टकराता है तो वो कुछ काम करता है - उदाहरण के लिए वो किसी अन्य वस्तु को चकनाचूर कर सकता है। जब वो पत्थर पहाड़ी की कगार पर टिका था तो वो निर्जीव और ऊर्जाविहीन लगता था। परन्तु पहाड़ी से गिरने के बाद उसकी ऊर्जा बढ़ जाती है। हम यह कह सकते हैं कि पहाड़ी की कगार पर टिके पत्थर में ऊर्जा होती है और वो सही परिस्थितियों का इंतजार कर रहा होता है।

1853 में एक स्कॅाटिश इंजीनियर विलियम जे रैंकिन ने ऐसी वस्तु जो गिरने की स्थिति में हो की ऊर्जा को ‘पोटेंशियल इनर्जी’ या ‘स्थितिज ऊर्जा’ बलु ाया। वस्तु जमीन से जितनी अधिक ऊंचाई पर होगी वो उतनी ही अधिक दूरी तक गिर पाएगी और उसकी उनती ही अधिक ‘स्थितिज ऊर्जा’ होगी। जो वस्तु कम ऊंचाई से गिरती है उसे अपनी गति बढ़ाने का बहुत कम मौका मिलता है और उसकी ‘गतिज ऊर्जा’ बहुत ज्यादा नहीं बढ़ पाती है। वो एक हल्के धमाके के साथ गिरती है और बहुत कम कार्य कर पाती है। शुरुआत में उस वस्तु की बहुत कम ‘स्थितिज ऊर्जा’ थी। बहुत ऊंचाई से गिरने वाली वस्तु को अपनी गति बढ़ाने का भरपूर समय मिलता है और इसलिए उसकी ‘गतिज ऊर्जा’ भी बहुत अधिक होती है। इसलिए वो जमीन से टकराने पर बहुत अधिक कार्य कर सकता है। शुरुआत में उसकी ‘स्थितिज ऊर्जा’ बहुत अधिक थी। आपको अपने अनुभव से पता होगा कि ऊंची दीवार से गिरने के बाद ज्यादा चोट आती है और निचली दीवार से गिरने के बाद कम। ऊंची दीवार से गिरने पर आप अधिक जोर से जमीन से टकराते हैं।clip_image012

प्राचीन काल में अगर कोई लोगों से ‘गतिज ऊर्जा’ या ‘स्थितिज ऊर्जा’ की बात करता तो लोग थोड़ी उलझन में पड़ते और परेशान होते। उन्होंने इन शब्दों को पहले कभी नहीं सुना होता। परन्तु फिर भी वे इस धारणा से अवगत थे। उस समय लोग पानी के जहाज बनाते और हवा के बहाव का उपयोग करते थे। वो नदी के बहते पानी से पहिए चलाते और फिर उनसे उपयोगी काम करते थे। उन्हें पता था कि ऊंचाई से गिरता पत्थर बहुत हानिकारक हो सकता है। और बहुत ऊंचाई से गिरने वाले व्यक्ति की न केवल हड्डी-पसली टूट सकती है, वो मर भी सकता है। परन्तु किसी धारणा से अवगत होना पर्याप्त नहीं होता है। अगर आप ऊर्जा को अच्छी तरह समझना चाहते हैं तो आपको उसका गहरा अध्ययन करना पड़ेगा। आपको बारीकी से नापना-तोलना पड़ेगा और फिर उन आंकड़ों के मतलब को खोजना पड़ेगा। प्राचीन काल में लोग उस बारीकी से नाप-तोल नहीं कर पाए जिससे ऊर्जा की सही समझ बनती। वो आधुनिक काल में ही सम्भव हो पाया।

2 यांत्रिक ऊर्जा

क्योंकि गति एक प्रकार की ऊर्जा है इसलिए गति का अच्छी तरह अध्ययन करने बाद हम ऊर्जा के बारे में और गहराई से समझ सकते हैं। इटली के वैज्ञानिक गेलिलियो गैलिली दुनिया के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गति का गम्भीरता से अध्ययन किया। अक्सर उन्हें उनके पहले नाम गेलिलियो से ही सम्बोधित किया जाता है।

1590 में गेलिलियो ने ढलान पर बनी नालियों में गेंदे लुढ़काईं और एक निश्चित समय में उनके द्वारा तय की दूरी को नापा। तब समय को बारीकी और शुद्धता से नापने वाली घड़ियों का इजाद नहीं हुआ था। गैलिलियो ने एक टीन के बर्तन के पेंदे में छेद कर उससे निकलती बूंदों को गिन कर समय मापा। उन्होंने पहली बार दिखाया कि किसी ढलान पर अगर गेंदों को लुढ़काया जाए तो नीचे आते-आते उनकी गति लगातार बढ़ती रहती है। उन्होंने एक सरल गणितीय सूत्र इजाद किया जिससे एक निश्चित समय के बाद किसी वस्तु की गति की गणना की जा सकती थी। इस सूत्र से वस्तु कितनी दूरी चली है इसकी भी गणना लगाई जा सकती थी।

हम जानते हैं कि हवा में गिरती गेंद की गति लगातार बढ़ती जाती है और उसकी ‘गतिज-ऊर्जा’ भी लगातार बढ़ती जाती है। गेलिलियो के काल में लोगों की ‘गतिज-ऊर्जा’ के बारे में कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। बाद में उन्हें ‘गतिज-ऊर्जा’ के बारे में पता चला और फिर वे गेलिलियो के सूत्र का उपयोग कर पाए।

clip_image014

 

गिरती और लुढ़कती गेंदों के साथ प्रयोग करने से पहले गैलिलियो ने एक अन्य खोज की थी। 1581 में जब गैलिलियो मात्र सत्रह वर्ष का था तब उसने गिरजाघर में एक बड़े झाड़-फानूस को हवा के बहाव में झूलते देखा था। हवा के तेज और हल्के बहाव में कभी झाड़-फानूस अधिक दूरी और कभी कम दूरी तक झूलता। परन्तु ज्यादा-कम दूरी तक झूलने के बावजूद उसे झूलने में हर बार उतना ही समय लगता। (गेलिलियो ने समय अपनी नाड़ी (प्लस) से मापा। वो नाड़ी गिनने में इतने व्यस्त थे कि उन्होंने पादरी का संदेश सुनाई ही नहीं दिया।) इस प्रकार गेलिलियो ने लोलक (पेंडुलम) कैसे काम करता उसकी खोज की। लोलक अपने दोलन को इतनी सूक्ष्मता से कायम रखते हैं कि सत्तर साल बाद उनका उपयोग ‘ग्रैन्डफादर क्लॉक्स’ बनाने के लिए उपयोग हुआ। यह पहली घड़ियां थीं जो शुद्धता से समय बताती थीं। अगर आप लोलक की कार्यपद्धति को समझना चाहते हैं तो आप खुद एक लोलक बना सकते हैं। डोरे के एक सिरे को छत पर किसी खूंटे या कील से बांधें। फिर डोर के दूसरे सिरे पर कोई भारी वस्तु बांधें - जैसे कोई ताला या चाकू। फिर उसे झोंका दें।

गेलिलियो के ढलान पर लुढ़कती गेंदों के साथ प्रयोग

clip_image018

 

झोंके के दौरान वो पहले एक ओर और फिर दूसरी ओर जाएगा। और यह सिलसिला बहुत देर तक जारी रहेगा। एक ओर ऊपर जाते समय लोलक की गति धीमी और धीमी होती जाती है। और अंत में वो एक क्षण के लिए रुकेगा। फिर वो उल्टी दिशा में तेज और तेज गति से चलेगा। जब वो झोंके के सबसे निचले हिस्से पर होगा तो उसकी गति काफी तेज हागी। फिर वो दूसरी ओर जाएगा और अब उसकी गति धीमी और धीमी होती जाएगी। जैसे-जैसे लोलक एक ओर जाता है और उसकी गति धीमी और अधिक धीमी होती है वैसे-वैसे उसकी गतिज-ऊर्जा भी कम होती जाती है। पर इस बीच क्योंकि वो ऊपर उठता है इससे उसकी स्थितिज ऊर्जा लगातार बढ़ती है। जब झोंका अपने शीर्ष पर होता है उस समय तब उसकी गतिज-ऊर्जा शून्य होती है क्योंकि वो एक क्षण के लिए रुकता है। परन्तु इस शीर्ष बिन्दु पर लोलक की स्थितिज-ऊर्जा सबसे ज्यादा होती है क्योंकि यहां वो सबसे ऊंचे स्थान पर होता है। जब लोलक नीचे आता है तो उसकी गतिज-ऊर्जा बढ़ना शुरू होती है और वो तेजी, और तेजी से बढ़ता है। पर उस दौरान उसकी स्थितिज-ऊर्जा कम होती जाती है क्योंकि उसकी ऊंचाई लगातार कम, और कम होती जाती है। झोंके के सबसे निचले बिन्दु पर उसकी गतिज-ऊर्जा सबसे अधिक होती है और स्थितिज-ऊर्जा सबसे कम होती है।

clip_image022

गैलिलियो गिरजाघर में झाड़-फानूस के झोंके निहारता हुआ

जैसे-जैसे लोलक झोंका लेता है वैसे-वैसे उसकी गतिज-ऊर्जा कम होती है और स्थितिज-ऊर्जा बढ़ती है। फिर बाद में उसकी गतिज-ऊर्जा बढ़ती है और स्थितिज-ऊर्जा कम होती है। यह प्रक्रिया लगातार, बार-बार होती है। दोनों प्रकार की ऊर्जाओं में लगातार अदला-बदली होती रहती है। लोलक की कार्य पद्धति से पहली बार वैज्ञानिकों को यह धारणा समझ में आई कि भिन्न प्रकार की ऊर्जाओं को आपस में आसानी से अदला-बदला जा सकता है। और जब एक ऊर्जा दूसरी ऊर्जा में बदलती है उस दौरान कुल ऊर्जा की मात्रा में कोई इजाफा नहीं होता है। हर बार लोलक झोंके के दोनों ओर एक ही ऊंचाई तक ऊपर उठता है।

अंत में वैज्ञानिकों ने लोलक के झोंके के दौरान हरेक बिन्दु पर कितनी गतिज-ऊर्जा और कितनी स्थितिज-ऊर्जा है इसकी गणना की। उन्होंने पाया कि हर स्थिति में गतिज-ऊर्जा और स्थितिज-ऊर्जा का योग एक-समान होता था। दोलन के दौरान दोनों प्रकार की ऊर्जाएं लगातार बदल रही थीं परन्तु कुल ऊर्जा की मात्रा निश्चित रहती थी। गतिज-ऊर्जा और स्थितिज-ऊर्जा को मिलाकर यांत्रिक-ऊर्जा कहा जाता है। इसका कारण? मशीनों में हमेशा तेज या धीमे, ऊपर या नीचे चलने वाले पुर्जे होते हैं। मशीनों में अक्सर गतिज-ऊर्जा का परिवर्तन स्थितिज-ऊर्जा में होता है। कई बार इसका उल्टा भी होता है। इसलिए लोलक के बारे में हम कह सकते हैं कि उसमें गतिज-ऊर्जा और स्थितिज-ऊर्जा की मात्रा लगातार बदलती रहती है। परन्तु उसमें कुल यांत्रिक-ऊर्जा की मात्रा हमेशा एक-जैसी रहती है। जब चीजों के गतिशील होने के बावजूद किसी तंत्र की कुल मात्रा नहीं बदलती तो उस तंत्र को संरक्षित या ‘कंजर्वड’ कहते हैं। लोलक में यांत्रिक-ऊर्जा संरक्षित रहती है।

शायद लोलक के अलावा अन्य चीजों के साथ भी ऐसा ही होता हो? ऐसी कई वस्तुएं होती हैं जिनकी गतिज और स्थितिज-ऊर्जा बदलती रहने के बावजूद उनकी यांत्रिक-ऊर्जा की मात्रा एक-समान रहती है। तब हम इसे एक प्राकृतिक नियम का दर्जा दे सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि लोलक का इस प्रकार का बर्ताव ‘यांत्रिक-ऊर्जा के संरक्षण’ के अनुकूल है। इस नियम का यहां आम जिन्दगी से एक और उदाहरण पेश है। कांच के कंचे को एक चिकने फर्श पर ऊपर से छोड़ें। गिरते समय उसकी गतिज-ऊर्जा बढ़ेगी और स्थितिज-ऊर्जा कम होगी। परन्तु फर्श से टकराकर वो फिर ऊपर आएगा। ऊपर आते समय उसकी गतिज-ऊर्जा घटेगी पर स्थितिज-ऊर्जा बढ़ेगी। अगर वो उतनी ही ऊंचाई तक उठता है जहां से आपने उसे फेंका था तब उसकी यांत्रिक-ऊर्जा में कोई बदल नहीं आएगी। हम यह भी कह सकते हैं कि कंचे के गिरने और पुनः उठने के दौरान हरेक बिन्दु पर उसकी कुल यांत्रिक-ऊर्जा की मात्रा एक-समान रही है। कंचे का गिरने और फिर वापस उठना हमें संरक्षण और यांत्रिक-ऊर्जा के नियमों से अवगत कराता है।

3 ऊष्मा

1600 और 1700 के दौरान वैज्ञानिकों में आपस में गति और ऊर्जा के विषयों पर तमाम चर्चाएं होती रहीं पर फिर भी वे संरक्षण और यांत्रिक-ऊर्जा के नियमों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाए। एक मुश्किल यह थी कि यांत्रिक-ऊर्जा के संरक्षण के नियम असलियत में काम नहीं करते थे। वो एक सच्चा प्राकृतिक नियम नहीं था। अगर आप एक लोलक को देर तक झोंके लेने दें तो धीरे-धीरे झोंके छोटे, और छोटे होते जाएंगे और अंत में लोलक रुक जाएगा। ऊपर से गिरा कंचा भी कम, और कम ऊंचाई तक उठेगा और अंत में वो फर्श पर लुढ़क जाएगा। अन्य शब्दों में कुल यांत्रिक-ऊर्जा कम होती जाएगी। कभी-कभी यह बहुत धीमी गति से कम होती है और कभी बहुत तेजी से पर हर स्थिति में कुल यांत्रिक-ऊर्जा कम होती है। मिसाल के लिए आप किसी लकड़ी की वस्तु को एक मोम से चिकने किए फर्श पर फेकें। वस्तु फर्श के स्तर पर फिसलगी परन्तु वो कभी ऊंची नहीं उठेगी। इसलिए उसकी स्थितिज-ऊर्जा नहीं बढ़ेगी। अगर यांत्रिक-ऊर्जा के संरक्षण के नियम सही होता तो इस वस्तु की गतिज-ऊर्जा कभी भी कम नहीं होती और वो लगातार उसी गति से हमेशा आगे बढ़ती रहती। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। लकड़ी की वस्तु की गति फिसलते हुए धीमी होती है और अंत में वो रुक जाती है। हम चाहें कुछ करें यहां यांत्रिक-ऊर्जा संरक्षित नहीं होती है। वो हमेशा बदलती रहती है, परन्तु वो हमेशा एक ही दिशा में बदलती है। उसकी मात्रा हमेशा कम होती है।

यांत्रिक-ऊर्जा के कम होने का प्रमुख कारण है ‘घर्षण’ - एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ रगड़ना। कोई लकड़ी की वस्तु खुरदुरे लकड़ी के फर्श पर कुछ दूर ही जाकर रुक जाती है। खुरदुरे फर्श पर बहुत अधिक घर्षण होता है और फिसलने वाली वस्तु की ज्यादातर गतिज-ऊर्जा इस घर्षण पर काबू पाने में खर्च हो जाती है। अगर फर्श चिकना होता तो लकड़ी की वस्तु रुकने से पहले ज्यादा दूरी तय करती। अगर वस्तु बर्फ पर फिसल रही होती तो वो और भी अधिक दूर जाती।

जब लोलक झोंके लेता है तो वो हवा से रगड़ खाता है। यह रगड़ ‘हवा का प्रतिरोध’ और एक प्रकार का घर्षण है। फिर लोलक की डोरी और उससे लटके भार के बीच भी कुछ घर्षण होता है। अगर हम बिना घर्षण की दुनिया की कल्पना करें तो वहां यांत्रिक-ऊर्जा का संरक्षण होगा। कल्पना करें कि आपका लोलक बिना हवा के वातावरण में - एक निर्वात में झोंके ले रहा है। अगर डोरी के सिरों पर कोई घर्षण नहीं होगा तो लोलक हमेशा के लिए झोंके लेता रहेगा। इसी प्रकार निर्वात में अगर फर्श पर किसी कंचे को बिना रगड़े फेंका जाएगा तो वो फर्श पर लगातार टप्पे खाता रहेगा। निर्वात में एकदम चिकने फर्श पर अगर किसी वस्तु को फेंका जाए तो वो लगातार फिसलती और आगे बढ़ती रहेगी। परन्तु असली जिन्दगी में घर्षण होता है। उसके कारण यांत्रिक-ऊर्जा धीरे-धीरे कम होती है। पर असल में वो जाती कहां है? वो क्या शून्य में लुप्त हो जाती है? या फिर वो ऊर्जा के किसी अन्य रूप में बदल जाती है, शायद?

एक चीज घर्षण से जरूर पैदा होती है और वो है ऊष्मा। जब आप अपने दोनों हाथों को रगड़ते हैं तो वे गर्म हो जाते हैं। अगर आप दो लकड़ी की डंडियों को सही तरह से एक-दूसरे से रगड़ें तो वे इतनी गर्म हो जाएंगी कि आप उनसे आग जला सकते हैं। क्या ऊष्मा का ऊर्जा से कुछ सम्बन्ध है?

clip_image024

 

1700 में कई वैज्ञानिक ऊष्मा को एक प्रकार का पदार्थ मानते थे और उसे लैटिन के शब्द ‘ऊष्मा’ के नाम पर ‘कैलोरिक’ कहते थे। उन्हें लगता था कि कैलोरिक एक चीज से दूसरी में आसानी से बह सकती थी। उनका मानना था कि गर्म वस्तु में बहुत अधिक कैलोरिक होती है और अगर उसे किसी ठंडी वस्तु के पास लाया जाए तो कैलोरिक गर्म वस्तु से ठंडी वस्तु में बहेगी। इससे गर्म वस्तु ठंडी होगी और ठंडी वस्तु गर्म होगी। वैसे तो यह मान्यता ठीक लगती थी। प्रयोग के लिए आप दो ठंडी चीजों से शुरू करें। दोनों में

clip_image028

काउंट रमफोर्ड

कैलोरिक की मात्रा कम होगी। परन्तु उन दोनों चीजों को आपस में रगड़ने से वे गर्म हो जाएंगी और उनमें कैलोरिक की मात्रा बढ़ जाएगी। आखिर यह कैलोरिक कहां से आई? बेंजामिन थॉमसन नाम के एक अमरीकी ने इस प्रश्न पर बहुत माथापच्ची की। अमरीकी क्रांति के समय उसने इंग्लैन्ड के सम्राट का पक्ष लिया। उसने अमरीका छोड़ दिया और फिर वहां कभी वापस नहीं आया। यूरोप में उसे एक उच्च वर्ग के ‘नोबेलमैन’ का दर्जा दिया गया और अब हम उसे काउंट रमफोर्ड के नाम से जानते हैं।

1798 में काउंट रमफोर्ड जर्मनी में तोपों के निर्माण कार्य के देखरेख कर रहा था। तोप बनाने के लिए धातु के टुकड़े में एक लम्बा छेद करना पड़ता है। इस छेद को किसी अन्य सख्त धातु के औजार से काटना पड़ता है।

छेद काटने समय धातु के घूमते टुकड़े और औजार में बहुत घर्षण होता है। इससे धातु का टुकड़ा और औजार दोनों बहुत गर्म हो जाते हैं और ठंडा रखने के लिए उन पर लगातार पानी डालना पड़ता है।

इतनी ऊष्मा कहां से आती है? इस पर रमफोर्ड को अचरज हुआ।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि जैसे औजार धातु के टुकड़े को काटता है वैसे-वैसे धातु की कैलोरिक, ऊष्मा के रूप में बाहर निकलती है। पर उसमें कुल कितनी कैलोरिक होगी? दोनों धातुएं शुरू में ठंडी थीं परन्तु जैसे-जैसे धातु कटना शुरू हुई वैसे-वैसे ढेर मात्रा में ऊष्मा पैदा हुई। इतनी ऊष्मा पैदा हुई कि उससे ढेर सारे पानी को उबाला जा सकता था। रमफोर्ड ने एक गुठ्ठल औजार से धातु के टुकड़े में छेद करने की कोशिश की। उससे क्योंकि धातु नहीं कटी तो कैलोरिक भी बाहर नहीं निकली। क्या ऐसा करने से ऊष्मा पैदा होना बंद हो जाएगी? नहीं! इस बार भी ऊष्मा पैदा हुई और अधिक तेजी से। जब तक औजार धातु से रगड़ता रहा तब तक ऊष्मा पैदा होती रही। रमफोर्ड को ऊष्मा एक प्रकार की गति लगी। धातु के टुकड़े का गोल घूमना - यानी उसकी सामान्य गतिज-ऊर्जा एक अन्य प्रकार की गति यानी ऊष्मा में बदल रही थी। रमफोर्ड को लगा कि ऊष्मा पूर्ण वस्तु की गति से नहीं पैदा हुई। उसे लगा कि ऊष्मा उन सारे छोटे टुकड़ों से उत्पन्न हुई जिनसे वस्तु बनी थी। ये छोटे-छोटे टुकड़े इतने सूक्ष्म थे कि वो आंख से नहीं दिखते थे और उनकी गति इतनी कम थी कि वो भी नहीं दिखती थी। और वे छोटे टुकड़े हर दिशा में गतिशील थे। और क्योंकि अलग-अलग दिशाओं की गतियां एक दूसरे को रद्द कर देतीं इसलिए पूरी वस्तु स्थिर नजर आती थी। रमफोर्ड की धारणा के अनुसार जब घर्षण से कोई वस्तु फिसलना, हिलना-डुलना बंद कर देती है उसकी गतिज-ऊर्जा कहीं लुप्त नहीं होती। उसकी गतिज-ऊर्जा समस्त वस्तु से उसके छोटे टुकड़ों में चली जाती है और साथ में रगड़ने वाली वस्तु के छोटे टुकड़ों में भी। जब रमफोर्ड ने सबसे पहले इस धारणा को पेश किया तो बहुत कम वैज्ञानिकों ने उस पर यकीन किया। किसी वस्तु के कैसे इतने छोटे कण हो सकते हैं कि वे आंख से दिखाई न पड़ें और उनकी सूक्ष्म गतियां भी न दिखें? यह सब बकवास था।

1803 में, रमफोर्ड के प्रयोगों के सिर्फ पांच साल बाद एक ब्रिटिश रासायनशास्त्री ने एक अन्य सुझाव पेश किया। उन्होंने दिखाया कि वैज्ञानिकों द्वारा की गई कई नई खोजों को बहुत आसानी से समझाया जा सकता था अगर यह मान लिया जाए कि सभी पदार्थ छोटे-छोटे टुकड़ों के बने हैं। डाल्टन ने इन सूक्ष्म टुकड़ों को अणु बुलाया।

अणु इतने छोटे थे कि उन्हें आंखों से देख पाना असम्भव था। परन्तु अणुओं की अवधारणा वैज्ञानिकों को इतनी उपयोगी प्रतीत हुई कि धीरे-धीरे बहुत से वैज्ञानिक अणुओं की वास्तविकता में विश्वास करने लगे। वैज्ञानिकों ने अणुओं को खोजने के लिए बहुत सोच-समझ कर कई प्रयोग रचे। और समय बीतने के साथ-साथ उन्होंने सूक्ष्म अणुओं के बारे में बहुत कुछ जाना। ऊष्मा इन अणुओं की गतिशीलता के कारण उत्पन्न होती है इस अवधारणा को मानने में ही अब समझदारी थी। किसी भी पदार्थ के अणु जितना अधिक तेजी से किसी भी दिशा में गतिशील होते वो पदार्थ उतना ही अधिक गर्म होता। कोई पदार्थ कितना गर्म है इसे आप थर्मामीटर (तापमापी) से उसका तापमान माप कर मालूम कर सकते हैं। 1800 तक उच्च गुणवत्ता के तापमापियों की खोज हो चुकी थी। इससे ऊर्जा का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को बहुत फायदा हुआ।

clip_image030

 

अब जब ऊष्मा को गतिज-ऊर्जा का एक प्रकार समझा जाने लगा तो फिर वैज्ञानिक यांत्रिक-ऊर्जा के संरक्षण के नियमों को अब नए नजरिए से देख सकते थे। परन्तु इससे काम नहीं बना क्योंकि कुछ यांत्रिक-ऊर्जा लगातार ऊष्मा में बदल रही थी - जो ऊर्जा का एक प्रकार है। यह कहने की बजाए कि गतिज-ऊर्जा, स्थितिज-ऊर्जा में बदल सकती है हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार की ऊर्जा किसी भी दूसरी तरह की ऊर्जा में बदल सकती है। उदाहरण के लिए साधारण गतिज-ऊर्जा, ऊष्मा में बदल सकती है। पर जब केतली का ढक्कन भाप के कारण ऊपर-नीचे होता है तो वहां ऊष्मा सीधे गतिज-ऊर्जा में बदलती है। ऊर्जा के कई अन्य प्रकार हैं। प्रकाश, ध्वनि, विद्युत, चुम्बक आदि सभी से हम कुछ-न-कुछ काम कर सकते हैं। ये सभी ऊर्जा के भिन्न रूप हैं। उन्हें एक-दूसरे में अदला-बदला जा सकता है। विद्युत द्वारा हम या तो बल्ब में प्रकाश पैदा कर सकते हैं या फिर उससे घंटी बजा सकते हैं। विद्युत से चुम्बकत्व भी पैदा किया जा सकता है और चुम्बकत्व से विद्युत। ऊष्मा, प्रकाश और गति तीनों से विद्युत पैदा की जा सकती है। रासायनों के विस्फोट से ध्वनि और गतिज-ऊर्जा पैदा हो सकती है, और उनके जलने से प्रकाश और ऊष्मा पैदा हो सकती है। इसलिए ‘रासायनिक-ऊर्जा’ भी एक वास्तविकता है। इसी प्रकार प्रकाश, ऊष्मा और गतिज-ऊर्जा द्वारा रासायनिक परिवर्तन करना सम्भव है, जिससे यह अलग ऊर्जाएं अब रासायनिक ऊर्जा बन जाती हैं।

clip_image034

 

4 ऊर्जा का संरक्षण

clip_image038

 

जूलियस राबर्ट मेयर

एक बड़ा प्रश्न अभी भी है। अगर हम दुनिया में जितनी भी प्रकार की ऊर्जाएं हैं उनकी मात्रा को आपस में जोड़ें तो क्या उनका योग हमेशा एक-समान रहेगा? ऊर्जा के एक रूप को दूसरे में बदलते समय क्या कुछ ऊर्जा लुप्त हो जाती है? क्या कुछ ऊर्जा अपने आप पैदा होती है?

एक जर्मन वैज्ञानिक जूलियस राबर्ट मेयर ने सबसे पहले इस प्रश्न का अध्ययन किया। वो एक जहाज पर डाक्टर थे और लम्बी यात्राएं करते थे। इन यात्राओं के दौरान उन्हें इस विषय पर चिंतन करने का भरपूर समय मिला। उन्हें लगा कि अगर लोग गतिज-ऊर्जा और स्थितिज-ऊर्जा के आपस में बदलने की मात्रा को माप सकें तो फिर वे यांत्रिक-ऊर्जा और ऊष्मा के आपस में बदलने की मात्रा को भी माप सकेंगे। 1840 में उन्होंने एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने घोड़े द्वारा एक मशीन को चलाया। मशीन में एक गाढ़े मिश्रण को मिलाया गया। मेयर ने घोड़े द्वारा खर्च ऊर्जा और मिश्रण में आई ऊष्मा की गणना की।

यांत्रिक-ऊर्जा द्वारा ऊष्मा पैदा करते समय मेयर ने ‘मिकैनिकल इक्यूवेलेन्ट ऑफ हीट’ की खोज की। 1842 में उन्होंने इस विषय पर एक निबन्ध लिखा और उसे विस्तार से समझाया। मेयर को लगा कि किसी भी प्रकार की ऊर्जा को किसी भी अन्य प्रकार की ऊर्जा में बदलना सम्भव होगा, पर हर बार कुल ऊर्जा की मात्रा हमेशा एक-जैसी रहेगी। उन्हें लगा कि यह बात जीवित चीजों पर भी लागू होगी। मेयर के अनुसार सूर्य से मिली प्रकाश की ऊर्जा को पौधों के अंदर हरे भोजन के रूप में बदलना सम्भव होगा। और जब जानवर पौधों का हरा भोजन करेंगे तो पौधों की रासायनिक ऊर्जा जानवरों की रासायनिक ऊर्जा में बदल जाएगी। मेयर को लगा कि सूर्य की ऊर्जा से ही समुद्र के पानी की भाप बनती है और अंततः यह भाप बारिश के रूप में जमीन पर गिरती है और नदियों में इकट्ठी होती है। इस प्रकार सूर्य की ऊर्जा बहते पानी की ऊर्जा में परिवर्तित होती थी। सूर्य की ऊर्जा से महासागरों और हवा के कुछ भाग अन्य की अपेक्षा अधिक गर्म होते हैं। गर्म भाग ऊपर उठते हैं और उनका स्थान ठंडे भाग ग्रहण करते हैं। इस प्रकार सूर्य की ऊर्जा पवन-उर्जा और महासागरों की धाराओं में परिवर्तित होती थी। कुछ पौधे सूर्य की उर्जा सोखते और फिर लाखों-करोड़ों सालों में सड़कर कोयला बनते। प्राचीन काल में बने इस कोयले को आज हम खोदकर निकाल सकते हैं। उस कोयले की रासायनिक ऊर्जा उस समय की धूप से प्राप्त हुई होगी। जब हम उस कोयले को जलाते हैं तो उसकी रासायनिक ऊर्जा प्रकाश और ऊष्मा में बदल जाती है। सूक्ष्म समुद्री जीवों की मृत्यु के एक लम्बे अर्से के बाद पेट्रोल बनता है। पेट्रोल की ऊर्जा उन पौधों से आती है जिन्हें इन सूक्ष्म समुद्री जीवों ने खाया था। क्योंकि पौधों की ऊर्जा सूर्य से आई थी इसलिए पेट्रोल की ऊर्जा का स्रोत्र भी सूर्य ही है। मान लें कि कुल ऊर्जा की मात्रा के बिना बदले उसे एक रूप से दूसरे में बदला जा सकता है। तब निश्चित ही ऊर्जा संरक्षित रहेगी। अपने निबन्ध में मेयर ने ‘ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत’ पर विशेष बल दिया था। दूसरे लोगों को अपनी अवधारणाएं मनवाने में मेयर को काफी मुश्किलें आइ। लोग उनके निबन्ध को पढ़कर उसे ताक पर रख कर भूल गए। भला किसी को क्या पता कि सूर्य की ऊर्जा की कितनी मात्रा हवा और कोयले में खर्च हुई? लोगों ने इतना जरूर माना कि मेयर की कल्पनाशक्ति बहुत प्रखर रही होगी।

clip_image042

कोयले के भण्डार इस प्राचीन जंगल से पैदा हुए थे।

लोगों द्वारा अपने वैज्ञानिक सिद्धांतों की अवहेलना और तिरस्कार से मेयर इतने दुखी और हतोत्साहित हुए कि उन्हांने तीसरी मंजिल की खिड़की से कूदकर खुदकशी की। इससे उनके पैरों में चोट आई और उन्हें कुछ समय के लिए एक मानसिक अस्पताल में भर्ती किया गया। अंत में अस्पताल से वो रिहा हुए परन्तु उसके बाद उन्होंने वैज्ञानिक शोध करना बंद कर दिया।

1860 में वैज्ञानिकों को मेयर के शोधकार्य के महत्व का सही अंदाज हुआ और फिर हर कोई मेयर की प्रशंसा करने लगा। 1871 में मेयर को कोपले मेडल से नवाजा गया। उस समय विज्ञान पर शोध के लिए यह सबसे उत्कृष्ट और सम्मानित पुरुस्कार था। मेयर की अवधारणों की अवहेलना के पीछे एक कारण था कि मेयर ने कुछ भी वैज्ञानिक प्रयोग नहीं किए थे। उन्होंने सिर्फ एक प्रयोग किया था जिसमें घोड़ा एक मिश्रण को मिलाता है।

एक ब्रिटिश वैज्ञानिक जेम्स प्राउस्ट जूल ने इस समस्या को दूसरे कोण से देखा।

जूल बचपन में काफी बीमार रहते थे। उनके पिता का एक शराब का कारखाना था जिसकी बीयर बेंचकर उन्हें अच्छी कमाई होती थी। बीमारी के कारण जूल की शिक्षा घर पर ही हुई और उन्हें अपने घर में ही एक प्रयोगशाला लगाने दी गई। जूल की चीजों को मापने में बहुत रुचि थी। 1840 में जूल ने अलग-अलग प्रकार के ऊर्जा स्रोत्रों से पैदा हुई ऊष्मा की गणना की। इसके लिए उन्होंने ऊर्जा के उपलब्ध सभी स्रोत्रों का उपयोग किया।

clip_image044

जेम्स प्राउस्ट जूल

मिसाल के लिए उन्होंने पानी को चप्पुओं से चलाया। फिर पारे को चप्पुओं से चलाया। उन्होंने पानी को गर्म करने के लिए उसे बारीक छिद्रों में बल द्वारा बहाया। उन्होंने गैसों को पहले फैलने दिया और बाद में उन्हें दुबारा दबाया। उन्होंने तमाम चीजों में विद्युत धारा बहाई और उन्हें गर्म किया। जूल को प्रयोग करने में इतना आनंद आता था कि वो अपनी सुहागरात वाले दिन भी प्रयोगों में व्यस्त थे। शादी के बाद वो अपनी पत्नी के साथ एक नए जल-प्रपात को देखने गए। वहां उन्होंने अपने नए इजाद किए थर्मामीटर से झरने के ऊपर और नीचे के पानी का तापमान मापा। वो जानना चाहते थे कि नीचे गिरते समय जल-प्रपात की ऊर्जा कहीं ऊष्मा में तो नहीं बदल गई थी। और अगर यह सच था तो उस ऊष्मा की मात्रा कितनी थी।

1847 में, मेयर के निबन्ध के पांच साल के अंदर जूल ने इस बात को साबित कर दिया था कि हर प्रकार की ऊर्जा की समान-मात्रा से हर बार उतनी ही मात्रा में ऊष्मा पैदा होगी। जूल ने मेयर की अपेक्षा कहीं अधिक शुद्धता से ‘मिकैनिकल इक्यूवेलेन्ट ऑफ हीट’ ज्ञात किया। और क्योंकि ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप में बिना किसी क्षय के बदली जा सकती थी इसलिए यह अवधारणा ‘ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत’ पर भी फिट होती थी।

जूल ने अपने सारे शोधकार्य पर एक निबन्ध लिखा और उसे प्रकाशित करने की कोशिश की। पर वो एक पेशेवर वैज्ञानिक तो थे नहीं। वो एक रईस पूंजीपति थे और पिता की मृत्यु के बाद बीयर के कारोबार को सफलतापूर्वक चला रहे थे। वैज्ञानिकों ने जूल की अवधारणों को गम्भीरता से नहीं लिया और उन्हांने जूल के निबन्ध को छापने से इनकार किया।

भाग्यवश जूल का भाई एक अखबार के लिए काम करता था। जूल ने अपने भाई की सिफारिश द्वारा अपने पूरे वैज्ञानिक निबन्ध को उस अखबार में छपवा दिया। उससे कई लोग जूल के विचारां से अवगत हो सके। उसके बाद जब जूल ने एक भाषण दिया तो कई वैज्ञानिकों ने उनके विचारों में रुचि दिखाई। कुछ सालों के अंदर ही हर कोई जूल के विचारों को गम्भीरता से ले रहा था।

clip_image046

 

जब जूल अपना निबन्ध छपवाने की कोशिश में थे उसी समय एक जर्मन वैज्ञानिक हरमन एल एफ फान हेल्महुल्टज इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ऊर्जा हमेशा संरक्षित रहती है। 1847 में एक वैज्ञानिक निबन्ध में अपने विचारों को प्रस्तुत किया। वैसे तो हेल्महुल्टज एक प्रोफेसर थे परन्तु फिर भी उन्हें अपने निबन्ध को छपवाने में दिक्कत हुई। अंत में उनका निबन्ध छपा। उनकी स्पष्ट व्याख्या और जूल के उत्कृष्ठ माप कला की अंततः विजय हुई। 1840 के आसपास मेयर, जूल और हेल्महुल्टज ने ऊर्जा-संरक्षण का सिद्धांत स्थापित किया। इस नियम के अनुसार ऊर्जा एक रूप से दूसरे में बदल सकती है परन्तु उस दौरान ऊर्जा की कुल मात्रा हमेशा एक-समान रहती है। विज्ञान की एक विशेष शाखा है जो ऊर्जा को एक रूप से दूसरे में बदलने, और हर प्रकार की ऊर्जा को ऊष्मा में बदलने और इस ऊष्मा के इधर-उधर बहने पर शोध करती है। इस शाखा को ‘थर्मोडायनामिक्स’ कहते हैं। इसका उद्गम एक यूनानी शब्द से है जिसका मतलब होता है ‘ऊष्मा का बहाव’। इस वैज्ञानिक शाखा का पूरा कारोबार ऊर्जा-संरक्षण के नियम पर आधारित है। इसलिए अक्सर ऊर्जा-संरक्षण के नियम को ‘थर्मोडायनामिक्स के पहले नियम’ के नाम से जाना जाता है।

यह नियम बेहद महत्व का है। हमारा विश्व कैसे काम करता है उसे समझने के लिए ऊर्जा-संरक्षण के नियम को वैज्ञानिक सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत मानते हैं। ऊर्जा-संरक्षण के सिद्धांत को अच्छी प्रकार समझने के बाद लोगों का जादू-टोने में विश्वास खत्म हुआ। भला, पत्थर नाचकर किस तरह दीवार बन सकते हैं? हवा में जादुई कालीन कैसे कैसे उड़ सकता है? और भला कैसे तिलिस्म से हवा में महल खड़ा हो सकता है? इस सब के लिए ऊर्जा कहां से आएगी?

5 एन्ट्रोपी

मान लें कि आपके पास ऊर्जा का एक स्रोत्र है। क्या आप उससे जितना चाहें उतना काम कर पाएंगे? क्योंकि ऊर्जा-संरक्षण के नियम के अनुसार ऊर्जा कभी क्षय नहीं होती। इस तरह आप ऊर्जा को एक रूप से दूसरे, फिर तीसरे और अंत में फिर पहले रूप में लगातार बदल पाएंगे। और ऊर्जा के हरेक परिवर्तन में आप उससे लगातार कुछ-न-कुछ काम ले पाएंगे। क्या ऐसा सम्भव होगा? वास्तविकता में ऐसा सम्भव नहीं होगा। ऊर्जा कभी लुप्त नहीं होती है, परन्तु सभी-की-सभी ऊर्जा को काम में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। इसको सबसे पहले समझा एक फ्रेंच वैज्ञानिक निकोलस एल एस कारनो ने। उन्हांने अपना काम ऊर्जा-संरक्षण के नियम के प्रतिपादन से बहुत पहले 1824 में शुरू किया। कारनो की ऊर्जा-संरक्षण के नियम को सिद्ध करने में कोई रुचि नहीं थी। उनकी एक अन्य छोटी समस्या में रुचि थी।

1824 में भाप के इंजनों द्वारा अनकों कार्य किए जा रहे थे। भाप के इंजन में पहले पानी को उबाला जाता है और फिर उस भाप को एक टंकी में एकत्रित किया जाता है। जैसे-जैसे टंकी में भाप जमा होती है उससे टंकी का दाब बढ़ता जाता है। जब इस उच्च दाब की भाप टंकी में से निकलती है तो उससे लोहे की छड़ें आगे-पीछे चलती है और पहिए घूमते हैं और इस तरह से उपयोगी कार्य सम्पन्न होते हैं। वैसे तो स्टीम-इंजन का इजाद कारनो से 50 साल पहले ही हो चुका था। उनमें कई सुधार भी हुए थे परन्तु उसके बावजूद उनकी कार्यक्षमता काफी घटिया थी। कोयले और लकड़ी के जलने से ऊर्जा मिलती और उससे भाप बनती और उपयोगी कार्य होता। परन्तु कोयले और लकड़ी की केवल 5 प्रतिशत ऊर्जा ही अंत में उपयोगी कार्य में परिवर्तित होती। बाकी 95 प्रतिशत ऊर्जा से आसपास का परिवेश गर्म होता परन्तु उससे कोई उपयोगी कार्य नहीं होता। कारनो की रुचि स्टीम-इंजनों की गुणवत्ता को बेहतर करने में थी।

कारनो ने एक अव्वल किस्म के स्टीम-इंजन की कल्पना की जो कोई भी ऊष्मा का क्षय न करे। ऐसा करने के बावजूद कारनो ने जब उसकी गणितीय गणना की तो उन्हें पाया कि ऐसा आदर्श इंजन भी अपनी समस्त ऊष्मा को कभी भी उपयोगी कार्य में परिवर्तित नहीं कर पाएगा।

स्टीम इंजन के बॉयलर में उच्च तापमान पर भाप होती है और ‘कूलिंग चेम्बर’ में कम तापमान पर पानी होता है। पहले इधन जलाकर पानी गर्म करके भाप बनाई जाती है और फिर बाद में उसी भाप को ठंडा करके उसे ‘कूलिंग चेम्बर’ में पानी में वापिस बदला जाता है।

clip_image050

 

ठंडा करने का कमरा

कारनो ने दिखाया कि कुल ऊर्जा की मात्रा जिससे उपयोगी कार्य में बदला जा सकता था वो इन दोनों तापमानों के अंतर पर निर्भर करती थी। तापमानों में जितना अधिक अंतर होगा उतनी ही अधिक ऊर्जा उपयोगी कार्य में बदलेगी। पर किसी भी हालत में सम्पूर्ण ऊर्जा उपयोगी कार्य में नहीं बदलेगी। दोनों तापमानों में जितना कम अंतर होगा उतनी की कम ऊर्जा कार्य में परिवर्तित होगी। अगर स्टीम-इंजन का तापमान एक-समान होगा, यानी ऊंचे और निचले तापमान मे कोई अंतर नहीं होगा तो फिर चाहें स्टीम-इंजन कितने भी उच्च तापमाप पर क्यों न हो, उसकी कुछ भी ऊर्जा उपयोगी कार्य में नहीं बदलेगी।

आप चाहें तो इसका प्रयोग द्वारा परीक्षण कर सकते हैं और आप इसे सच पाएंगे। दुर्भाग्यवश कारनो का युवावस्था में ही देहान्त हो गया। और उसके बाद कुछ समय तक उनके शोधकार्य पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। पर 1850 में कारनो के कार्य में लोगो की रुचि जागी। एक जर्मन वैज्ञानिक रुडौल्फ जे ई क्लौजियस, कारनो के शोधकार्य पर गम्भीरता से विचार करने लगे। उन्होंने न केवल स्टीम-इंजनों और उनके तापमान के अंतरों को गौर से देखा परन्तु साथ-साथ उन्होंने सभी प्रकार की ऊर्जाओं और उनके द्वारा किए उपयोगी कार्य का अध्ययन किया। क्लौजियस ने पहली बार ‘कार्य’ शब्द को बहुत समझ-बूझ कर परिभाषित किया जिससे कि उसे गणितीय सूत्रों में उपयोग किया जा सके।

क्लौजियस के अनुसार ऊर्जा से तभी उपयोगी कार्य होता है जब ऊर्जा असमान रूप से फैली हो। अगर आपके पास कोई उपकरण हो जिसमें एक प्रकार की बहुत सारी ऊर्जा एक भाग में, और उसी प्रकार की बहुत कम ऊर्जा दूसरे भाग में हो तो वो उपकरण उपयोगी काम कर पाएगा। जैसे-जैसे यह उपकरण उपयोगी कार्य करेगा उसके दोनों भागों में ऊर्जा की मात्रा समान होती चली जाएगी। अंत में जब दोनों हिस्सों में ऊर्जा एक-समान हो जाएगी तो उपकरण उपयोगी कार्य करना बंद कर देगा। अगर आप इस उपकरण से लगातार उपयोगी कार्य करवाना चाहते हैं तो आपको उसके एक भाग में बल द्वारा और ऊर्जा ठूंसनी पड़ेगी जिससे दूसरे भाग में कम ऊर्जा रहे।

clip_image054

 

मिसाल के लिए स्प्रिंग वाली दीवार घड़ियों की स्प्रिंगों में बहुत सारी ऊर्जा संचित होती है। ऊर्जा से भरी स्प्रिंग घड़ी के कांटों को घुमाकर समय दिखाती है। ऐसा करते वक्त स्प्रिंग धीरे-धीरे खुलती है। अंत में स्प्रिंग की ऊर्जा भी घड़ी के अन्य पुर्जों जैसी एक-समान हो जाती है और तब घड़ी रुक जाती है। चाभी भरने के बाद ही वो दुबारा वापिस चलती है।

क्लौजियस ने एक गणित का सूत्र लिखा जो ऊर्जा के क्षय को दर्शाता था। उसने उसे ‘एन्ट्रोपी’ नाम दिया। किसी उपकरण में ऊर्जा जितनी अधिक एक-समान होती है उसकी उतनी ही अधिक एन्ट्रोपी होती है। जब उपकरण के सभी हिस्सों में एक-समान ऊर्जा हो जाती है तब उसकी एन्ट्रोपी अधिकतम होती है।

1852 में क्लौजियस ने दिखाया कि एन्ट्रोपी हमेशा बढ़ती रहती है और ऊर्जा हमेशा फैलकर एक-समान होती रहती है। अगर आप इस प्रक्रिया को उल्टा करना चाहें जिससे कि ऊर्जा असमान हो तो ऐसा करने के लिए और ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी। उदाहरण के लिए घड़ी में चाभी भरने के लिए ऊर्जा का उपयोग करना पड़ेगा।

clip_image058

पृथ्वी पर सूर्य ही समस्त ऊर्जा का स्रोत्र है

अगर हम किसी एक स्थान पर ऊर्जा केंद्रित करके वहां एन्ट्रोपी घटाते हैं तो उससे हम किसी अन्य स्थान पर एन्ट्रोपी अवश्य बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए घड़ी में चाभी भरते समय आपके शरीर की एन्ट्रोपी बढ़ती है। एक जगह बढ़ी एन्ट्रोपी दूसरी जगह पर घटी एन्ट्रोपी से हमेशा ज्यादा होती है। अगर आप हर चीज को मद्देनजर रखें तो एन्ट्रोपी हमेशा बढ़ती ही रहती है। तो क्या पृथ्वी पर हर चीज घड़ी की स्प्रिंग जैसे धीरे-धीरे खुल रही है? पृथ्वी की एन्ट्रोपी लगातार बढ़ रही है। तब पृथ्वी पर हर चीज ने अब तक काम करना बंद क्यों नहीं किया है? इसका उत्तर है जैसे घड़ी में चाभी भरी जाती है वैसे ही पृथ्वी में सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा लाखों-करोड़ों सालों से चाभी भरती रही है। इससे पृथ्वी में ऊर्जा की असमानता है और उसे उपयोगी कार्य के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

पर क्या सूर्य धीरे-धीरे ढल रहा है? क्लौजियस को ऐसा लगा। सूर्य और अन्य सभी तारे धीरे-धीरे ढल रहे हैं, और अब से बहुत समय बाद भविष्य में कभी हमारा सम्पूर्ण बृहमांड ढल जाएगा। तब बृहमांड में एन्ट्रोपी अपनी चरम सीमा पर होगी और कोई कार्य करना सम्भव न होगा। ऊर्जा किस प्रकार असमान हो रही है और उससे कम कार्य हो पा रहा है, थर्मोडायनामिक्स का एक महत्वपूर्ण नियम है। वो ऊर्जा संरक्षण जितना नहीं पर फिर भी बहुत महत्वपूर्ण है। अगर ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत थर्मोडायनामिक्स का पहला नियम है

तो फिर एन्ट्रोपी, ऊर्जा की असमानता के साथ लगातार बढ़ रही है थर्मोडायनामिक्स का दूसरा नियम होगा।

clip_image060

 

ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत की स्थापना के बाद अब पृथ्वी की ऊर्जा समस्यओं को आसानी से समझा जा सकता था। ऊर्जा के अलग-अलग स्रोत्र कहां थे और सभी ऊर्जाओं को आपस में कैसे अदला-बदला जा सकता था यह बात भी स्पष्ट हुई।

ज्वालामुखियों और भूकम्पों की ऊर्जा का स्रोत्र पृथ्वी के अंदर गहराई में छिपी ऊष्मा थी। महासागरों के ज्वार-भाटे की ऊर्जा पृथ्वी के घूमने से पैदा होती थी।

परन्तु पृथ्वी पर अलग-अलग तरह की सभी ऊर्जाओं का एक मात्र स्रोत्र है - और वो है सूर्य की ऊर्जा। पृथ्वी पर मानव जीवन के विकास के हजारों-लाखों सालों से सूर्य लगातार उसी प्रखरता के साथ चमक रहा है। और पृथ्वी पर मानव के आगमन से पूर्व भी वो उसी प्रखरता से लाखों-करोड़ों सालों से चमकता रहा होगा। वो सब ऊर्जा कहां से आई?

क्या ऊर्जा संरक्षण का नियम केवल पृथ्वी पर ही लागू होता होगा? क्या सूर्य की ऊर्जा कहीं और से आती होगी?

clip_image064

 

सूर्य का कटान

जिन तीन लोगों ने ऊर्जा संरक्षण नियम खोजा था उनमें से एक थे हेल्महुल्टज। 1854 में वो इस समस्या पर गम्भीरता से सोचने लगे। उन्हें लगा कि सूर्य की ऊर्जा कहीं से तो आती होगी। ऊर्जा के स्रोत्र के बिना सूर्य करोड़ों-खरबों सालों तक कैसे जलता रहेगा। साधारण रासायनिक ऊर्जा से वो ज्यादा-से-ज्यादा 1500 साल जीवित रहता।

क्या उल्काएं सूर्य में लगातार आकर गिरती रहती हैं? अगर ऐसा हो तो उल्काओं की गतिज-ऊर्जा सूर्य की ऊर्जा का राज हो सकती है। पर यह कल्पना सच नहीं निकली। अगर ऐसा होता तो सूर्य और अधिक भीमकाय होता जाता और वो पृथ्वी को और अधिक बल से खींचता। इससे पृथ्वी, सूर्य का और तेजी से चक्कर लगाती। परन्तु असलियत में ऐसा नहीं हुआ। फिर हेल्महुल्टज ने सूर्य के सिकुड़ने की सम्भावना के बारे में सोचा।

सूर्य के सभी भाग उसके केंद्र की ओर गिर रहे होंगे। और उनके गिरने की गतिज-ऊर्जा सूर्य की ऊर्जा का स्रोत्र हो सकती है। अगर ऐसा होता तो सूर्य का भार नहीं बदलता।

1800 के आखिरी सालों में वैज्ञानिक सूर्य के सिकुड़ने को ही उसकी ऊर्जा का स्रोत्र मानने लगे। परन्तु कुछ वैज्ञानिकों को यह धारणा सही नहीं लगी। मान लें कि सूर्य की ऊर्जा का स्रोत्र उसका सिकुड़ना है। तो फिर दस करोड़ वर्ष पहले सूर्य का आकार इतना बड़ा होगा कि पृथ्वी की परिक्रमा सूर्य के अंदर स्थित होती। और पृथ्वी तब तक नहीं बनती जब तक सूर्य छोटा न हो गया होता और पृथ्वी उससे बाहर नहीं आ गई होती। इसका मतलब साफ था - पृथ्वी की उम्र दस करोड़ वर्ष से कम ही होनी चाहिए। पर जिन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के ढांचे का अध्ययन किया था उन्हें यह बात एकदम गलत लगी। उनके मुताबिक पृथ्वी दस करोड़ साल से कहीं ज्यादा पुरानी थी।

1896 में फ्रेंच वैज्ञानिक अंतोन हेनरी बेकक्यूरिल को एक अनूठी धातु मिली - यूरेनियम जो कि रेडियोधर्मी थी। यूरेनियम में से लगातार तेज गति के अणुओं से भी छोटे कण लगातार निकलते रहते थे। इन कणों की गतिज-ऊर्जा बहुत अधिक थी। उनसे प्रकाश जैसी भी कुछ ऊर्जा बाहर निकलती थी।

1900 में न्यूजीलैंड में जन्मे ब्रिटिश वैज्ञानिक अरनेस्ट रदरफोर्ड ने इन कणों से बाहर निकलती ऊर्जा का हिसाब लगाया। उन्होंने एक विशेष रेडियोधर्मी धातु रेडियम से निकलने वाली ऊर्जा की गणना की। उस समय सभी धातुओं में रेडियम से निकलनी वाली ऊर्जा सबसे अधिक थी। उन्होंने दिखाया कि एक ग्राम रेडियम से हर घंटे निकलने वाली ऊर्जा की मात्रा इतनी थी कि उससे एक ग्राम बर्फीले पानी को उबाला जा सकता था। अगले घंटे रेडियम फिर उतनी ही ऊर्जा पैदा करता और वो ऐसा सैकड़ों सालों तक करता रहता।

यह ऊर्जा कहां से आई? क्या ऊर्जा संरक्षण का नियम गलत था?

रदरफोर्ड को ऐसा नहीं लगा। उन्हें रेडियम के अणुओं में एक नई ऊर्जा दिखाई दी जिसके बारे में वैज्ञानिकों को पहले पता नहीं था। रदरफोर्ड ने रेडियोधर्मी अणुओं से निकलने वाले तेज गति के कणों के साथ प्रयोग किए। उसने उन्हें साधारण अणुओं में से गुजरने दिया और वे बेहिचक उनमें से निकल गए। पर कभी-कभी वो अणुओं के अंदर किसी चीज से टकराकर उसी पथ से बाहर आए।

1911 में रदरफोर्ड ने अपनी खोज की घोषणा की। उसके अनुसार अणुओं के अंदर मुख्यतः खाली स्थान होता है। अणुओं के ढांचे में मुख्यतः बहुत हल्के भार के कण - इलेक्ट्रांस होते हैं। परन्तु अणुओं के केंद्र में एक बहुत बड़ा क्षेत्र होता है जिसे रदरफोर्ड ने ‘आणविक नाभि’ का नाम दिया। वैज्ञानिकों ने बाद में आणविक नाभि का अध्ययन किया और उसमें उन्होंने प्रोटोन और न्यूट्रांस पाए।

अणुओं के बाहरी भाग में इलेक्ट्रांस घूमते हैं। जब अणु टूटते हैं और दुबारा जुड़ते हैं तो उस दौरान ऊर्जा बाहर निकलती है। इलेक्ट्रांस से सम्बंधित यह ऊर्जा ‘रासायनिक ऊर्जा’ होती है। जब आणविक नाभि के प्रोटोन्स और न्यूट्रान्स दुबारा सजते हैं तो भी ऊर्जा बाहर निकलती है। नाभि से बाहर निकली इस ऊर्जा को ‘आणविक ऊर्जा’ कहते हैं। रासायनिक ऊर्जा की तुलना में आणविक ऊर्जा की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। अणुओं की नाभि में कण गतिशील होने से बहुत अधिक ऊर्जा पैदा होगी - अगर बाहर के इलेक्ट्रांस गतिशील होंगे तो बहुत कम ऊर्जा पैदा होगी। अब आखिर वैज्ञानिकों के पास सूर्य के शाश्वत ऊर्जा स्रोत्र को समझने की एक नई दिशा मिली।

clip_image068

 

1924 में ब्रिटिश खगोलशास्त्री आर्थर स्टैनली एडिंगटन ने सूर्य के केंद्र में क्या पदार्थ है उसकी गणना की। शोध से पता चला कि सूर्य का केंद्र अत्यधि क गर्म होगा और उसका तापमान करोड़ों डिग्री सेंटीग्रेड होगा।

1929 में अमरीकी खगोलशास्त्री हेनरी नौरिस रसिल ने सूर्य की प्रकाश का विश्लेषण किया और यह स्थापित किया कि सूर्य मुख्यतः हाईडोजन नामक गैस का बना है। इस जानकारी का इस्तेमाल कर जर्मन-अमरीकी वैज्ञानिक हैन्स बेथे ने सूर्य के केंद्र में हो रहे नाभकीय परिवर्तनों को समझने का प्रयास किया। 1938 में उन्होंने स्थापित किया कि सूर्य में दो हाईडोजन के अणु मिलकर एक हीलियम का अणु बनाते हैं। इस प्रक्रिया को ‘न्यूक्लियर फ्यूजन’ कहते हैं और यही सूर्य की शाश्वत ऊर्जा का स्रोत्र है। अब सभी वैज्ञानिक इस बात को मानते हैं कि सूर्य में हाईडोजन के अणु लगातार हीलियम के अणुओं में बदल रहे हैं। और सूर्य में हाईडोजन की इतनी अधिक मात्रा मौजूद है कि वो 500 करोड़ साल से लगातार चमक रहा है।

यह निश्चित है कि एक दिन सूर्य की समस्त हाईडोजन खत्म हो जाएगी। पर ऐसा होने में कम-से-कम 800 करोड़ वर्ष और लगेंगे। जिस ‘न्यूक्लियर फ्यूजन’ की प्रक्रिया से सूर्य की ऊर्जा पैदा होती है उसी से अन्य सभी तारों की ऊर्जा भी पैदा होती है। और ऊर्जा-संरक्षण का सिद्धांत न केवल पृथ्वी पर लागू होता है वरन वो समस्त बृहमाण्ड पर लागू होता है।

clip_image072

 

क्या कोई अन्य ऊर्जा है जो आणविक ऊर्जा से भी अधिक शक्तिशाली है? उसके बारे में दृढ़ता से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। परन्तु 1900 के बाद से अभी तक वैज्ञानिकों को अभी तक कोई ऐसी नई प्रकार की ऊर्जा नहीं मिली है जिसे वो पहले से ही न जानते हों।

7 मनुष्य और ऊर्जा

प्राचीन काल में जब इंसान गुफाओं में रहते थे तो वो प्रमुखतः अपने शरीर की रासायनिक ऊर्जा का उपयोग करते थे। फिर लोगों ने नया ज्ञान प्राप्त किया और चीजों को नए तरीके से करना सीखा और पालतू जानवरों की ऊर्जा का उपयोग सीखा। उन्होंने नदी और पानी के बहाव से जहाज चलाना सीखा। बहुत लम्बे अर्से पहले उन्होंने लकड़ी और वसा को इधन जैसे इस्तेमाल करके आग की ऊर्जा का उपयोग करना सीखा। धीरे-धीरे लोग आग को अन्य कामों के लिए भी इस्तेमाल करने लगे। आग लोगों को सर्दी में गर्मी प्रदान करती। आग से रात को प्रकाश भी मिलता। आग से खाना पकता और वो धातुओं, कांच और मिट्टी के बर्तन बनाने में भी काम आती।

1700 तक पेड़ बहुत तेजी से कट रहे थे। पेड़ों की खपत उनकी बढ़ौत्तरी से कहीं कम थी।

clip_image076

गुफा में लोग आग का इस्तेमाल करते हुए

ब्रिटेन में लकड़ी की भयंकर किल्लत थी इसलिए वहां पर ऊर्जा के नए स्रोत्र खोजने की सबसे सख्त जरूरत महसूस हुई। 1700 में स्टीम इंजन का आविष्कार हुआ। पहली बार इधन की रासायनिक ऊर्जा को गतिशील पहियों की ऊर्जा में बदल पाना सम्भव हुआ। भिन्न-भिन्न प्रकार के स्टीम-इंजन बनाए गए। कुछ कारखानों में मशीनों को चलाते, कुछ समुद्र में जहाजों को चलाते और कुछ जमीन पर रेलगाड़ियों के इंजनों को खींचते। इससे लोगों के जीवन में तेजी से बदल आई।

यह काल औद्योगिक-क्रांति के नाम से जाना गया। दुनिया के सभी स्टीम-इंजनों की ऊर्जा के लिए विश्व में लकड़ी नहीं थी। 1700 में ब्रिटेन के लकड़ी की बजाए कोयले का उपयोग करना शुरू किया क्योंकि इंग्लैंड में प्रचुर मात्रा में कोयला उपलब्ध था।

clip_image078

 

1800 के दौरान कोयले की खपत लगातार बढ़ती रही। क्योंकि नए कोयले का निर्माण तो हो नहीं रहा है इसलिए जमीन के नीचे का कोयला खत्म होने के बाद उसके भण्डार लुप्त हो जाते। पर आज सारे विश्व के अनेकों भागों में जमीन के नीचे लाखों-करोड़ों टन कोयले के भण्डार छिपे पड़े हैं। इस भण्डार को समाप्त होने में हजारों साल लगेंगे। फिर लोगों ने ऊर्जा का नया उपयोग सीखा। 1800 में जलाऊ इधन की रासायनिक ऊर्जा से दो चुम्बकों के ध्रुवों के बीच में तार के पहिए चलाए गए। इससे चुम्बक की गतिशील ऊर्जा से विद्युत धारा पैदा हुई। विद्युत करंट को टेलिग्राफ और टेलीफोन के लिए उपयोग किया गया। विद्युत ऊर्जा से ही दुनिया के सारे मोटर चलते हैं जो लोगों के लिए अनेकों काम करते हैं। विद्युत ऊर्जा का निर्माण कोयले के भण्डारों को जलाकर ही सम्भव हुआ। परन्तु कोयले को जमीन के नीचे से खोद कर ऊपर लाना और फिर

उसे कारखानों तक पहुंचाना एक मुश्किल काम है। 1800 के आसपास लोगों ने तेल के कुंए खोदना सीखे। तेल तरल होता है, कोयले जैसा ठोस नहीं। कोयले की अपेक्षा तेल को जमीन से निकालना ज्यादा आसान होता है। तेल को काफी आसानी से पाईपों द्वारा एक जगह से दूसरे स्थान पर भेजा जा सकता है। कोयले की तुलना में तेल को जलाना भी ज्यादा आसान होता है।

1800 के अंत में पेट्रोल से चलने वाले इंजन बनने लगे। इन इंजनों को ‘इंटरनल कम्बशचन इंजन’ बुलाया जाता है और इनका उपयोग कारों, ट्रकों, बसों, जहाजों और हवाईजहाजों को चलाने के लिए उपयोग होता है। और पेट्रोल जमीन से निकाले तेल से ही बनता है।

1900 के पहले अर्धशतक में ऐसे लाखों इंजन बने और उनमें बहुत तेल फूंका। अब तेल घरों को गर्म करने और विद्युत पैदा करने के लिए भी इस्तेमाल होने लगा। 1950 में कोयले से ज्यादा तेल जलाया जाने लगा। मुश्किल यह है कि जमीन के अंदर कोयले की मात्रा तेल से कहीं ज्यादा है। एक और विशेष बात है। अधिकांश तेल के भण्डार दुनिया के छोटे भाग परशियन गल्फ (फरास की खाड़ी) में पाए जाते हैं।

clip_image082

 

अब धीरे-धीरे करके तेल खत्म हो रहा है और साथ-साथ लोग उसका ज्यादा, और ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। तेल की कीमतें भी लगातार बढ़ रही हैं और उसकी सप्लाई की किल्लत है। शायद तीस से पचास सालों के अंदर तेल पूरी तरह खत्म हो जाए। जब ऐसा होगा तब लोग अपनी ऊर्जा की जरूरतों को कैसे पूरा करेंगे? लोग फिर दुबारा कोयला इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे। पर कोयले को जमीन के अंदर से निकालना और उसे एक जगह से दूसरे स्थान तक ले जाना एक कठिन काम है। कोयले और कुछ अन्य पत्थरों से तेल बनाया जा सकता है, पर तब वो बहुत मंहगा पड़ेगा। उसके अलावा कोयला और तेल के जलने से धुंआ और हानिकारक रासायन पैदा होते हैं। उनसे हवा प्रदूषित होती है जो मनुष्यों के लिए बहुत हानिकारक है। कोयले और तेल की रासायनिक ऊर्जा के अलावा भी क्या हम किसी अन्य ऊर्जा स्रोत्रों का उपयोग कर सकते हैं? आणविक ऊर्जा कैसी रहेगी?

1939 में ऑटो हैन ने यूरेनियम की नाभि को दो भागों में तोड़ने की विधि खोजी। उससे साधारण रेडियोधर्मी तरीके के मुकाबले ज्यादा आणविक ऊर्जा निकली।

clip_image086

 

अमरीका में वैज्ञानिक न्यूक्लियर फिशन पर शोध करने लगे क्योंकि उससे बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा मिलने की सम्भावना थी। 1942 के अंत में इटैलियन-अमरीकी वैज्ञानिक इरनीको फर्मी के नेतृत्व में इस समस्या का हल निकल आया। उसके परिणामस्वरूप ‘फिशन-बम्ब’ या ऍटामिक-बम्ब बने। आणविक ऊर्जा के इन बम्बों ने साधारण रासायनिक बम्बों की अपेक्षा कहीं अधिक विध्वंस किया।

clip_image090

 

द्वितीय महायुद्ध के बाद से आणविक विखंडन से चलने वाले बिजलीघर लगाए गए जो बिना किसी विस्फोट के विद्युत पैदा कर सकते थे। इस प्रकार आणविक ऊर्जा शांति के लिए उपयोग की गई। आज दुनिया के बहुत से भागों में आणविक विद्युत प्लांट हैं। पर ऊर्जा संकट से निपटने के लिए आणविक ऊर्जा ही सबसे अच्छा विकल्प नहीं है। एक तो आणविक ऊर्जा के उत्पादन के लिए यूरेनियम जैसी अन्य धातुएं लगती हैं जो बहुत कम स्थानों पर ही पाई जाती हैं। दूसरा यूरेनियम अणु विभक्त होता है तो वो दो बहुत हानिकारक रेडियोधर्मी अणु छोड़ता है।

वैज्ञानिक अभी तक इन हानिकारक अणुओं से छुटकारा पाने की विधि नहीं खोज पाए हैं। इसलिए वैज्ञानिक अभी भी वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत्रों की तलाश में हैं। लोग पानी और हवा के बहाव की धाराओं का उपयोग कर सकते हैं।

वो समुद्र में ज्वार-भाटे द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का इस्तेमाल कर सकते हैं। वो पृथ्वी के भीतर छिपी अपार ऊष्मा का उपयोग कर सकते हैं। वो रेगिस्तान के इलाके में पड़ रही सूर्य की ऊर्जा का दोहन कर सकते हैं। नहीं तो इस बीहड़ इलाके में यह सूर्य ऊर्जा बिल्कुल बेकार जाएगी। अगर वैज्ञानिक इन वैकल्पिक ऊर्जाओं का दोहन कर पाए और उन पर आधारित बिजलीघर लगा पाए तो ऊर्जा के यह स्रोत्र हजारों-लाखों सालों तक चलेंगे।

एक और विकल्प है न्यूक्लियर फिशन का इस्तेमाल करने का। यह वही ऊर्जा है जिसकी बदौलत हमारा सूर्य और सारे तारे चमकते हैं। हमारी पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में हाईडोजन है। अगर वैज्ञानिक हाईडोजन अणुओं से हीलियम अणु बनाने में सफल हुए - जैसा कि हमारे सूर्य में होता है तो उससे पृथ्वी पर शाश्वत ऊर्जा मिलेगी।

clip_image094

सोलर बैटरियां स्पेस-लैब की विद्युत आपूर्ती करती हुई

वैज्ञानिक पिछले पच्चीस सालों से न्यूक्लियर फिशन पर तमाम शोध कार्य कर रहे हैं और बहुत लोग मानते हैं कि उन्हं इसमें जल्दी ही सफलता मिलेगी। इसलिए यह बहुत सम्भव है कि वास्तव में हमें कोई स्थाई ऊर्जा संकट का सामना न करना पड़े। शायद इसमें अभी कुछ और वक्त लगे पर इस बात की बहुत सम्भावना है कि वैज्ञानिक ऊर्जा के नए स्रोत्र खोजेंगे जिससे कि पृथ्वीवासी आराम से जिंदगी जी सकें। इसके लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम सब मिलजुल कर शांति से जिएं और आणविक-बम्बों से पृथ्वी को तबाह न करें।

समाप्त

[अनुमति से साभार प्रकाशित]

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: ज्ञान विज्ञान : हमें ऊर्जा के बारे में कैसे पता चला?
ज्ञान विज्ञान : हमें ऊर्जा के बारे में कैसे पता चला?
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiPR6oo5dUN8Wp-XjjWjA8eZqk19qze4yWvTOG9Y0R5E2ZahruJsbjnFSaWMrYDyshiuEuXVi2I70zI1z8qUfTbZX6PPERn5d6d_m2aEWgDBFP5kuTM6ngg9B_WL6AqmWUHlQP/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiPR6oo5dUN8Wp-XjjWjA8eZqk19qze4yWvTOG9Y0R5E2ZahruJsbjnFSaWMrYDyshiuEuXVi2I70zI1z8qUfTbZX6PPERn5d6d_m2aEWgDBFP5kuTM6ngg9B_WL6AqmWUHlQP/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2015/03/blog-post_399.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2015/03/blog-post_399.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content