हमें अपनी मानवीय जड़ों का कैसे पता चला? आइसक एसिमोव हिन्दी अनुवाद : अरविन्द गुप्ता 1. पत्थर युग हमारे पूर्वज कौन थे? बाईबिल के अनुसा...
हमें अपनी मानवीय जड़ों का कैसे पता चला?
आइसक एसिमोव
हिन्दी अनुवाद :
अरविन्द गुप्ता
1. पत्थर युग
हमारे पूर्वज कौन थे? बाईबिल के अनुसार पहले मानव ऐडम और ईव थे और वे देखने में बिल्कुल आज के लोगों जैसे लगते थे। बहुत सालों तक यहूदी) इसाई और मुसलमान लोगों का इसमें यकीन था।
ऐडम और ईव कब पैदा हुए? बाईबिल में इसका कोई उल्लेख नहीं है परन्तु जिन लोगों ने बाईबिल का गहन अध्ययन किया है उन्होंने इस अनुमान को लगाने की कोशिश की है। उन्हें बाईबिल में घटी कुछ बाद की घटनाओं की तारीखें मालूम थीं। उदाहरण के लिए उन्हें पता था कि बैबिलोनियन्स ने ई पू 586 में येरूशलम पर कब्जा कर वहां के मंदिर को ध्वस्त किया था।
इससे शुरू कर वे पीछे गए। उन्होंने बाईबिल में जिक्र किए भिन्न राजाओं के काल का अनुमान लगाया। फिर उन्होंने प्राचीन राजाओं नोआ और पलास की आयु और उनके जन्म के समय उनके पिता की आयु आदि का भी अंदाज लगाया।
163० में आयरिश विद्वान जेम्स उशर ( 1581 - 1656) ने इन सब के आधार पर उत्पत्ति कब हुई इसका अनुमान लगाया। उनके अनुसार उत्पत्ति ई पू 4००4 में हुई।
बहुत से लोगों ने इसे सही माना। पर अगर यह सच होता तो पृथ्वी की आयु मात्र 6000 वर्ष होती।
बाईबिल के बाहर उस समय इतिहास की क्या स्थिति थी? क्या उससे कुछ मदद मिलेगी?
उशर के काल में किसी को इतने प्राचीन इतिहास का ज्ञान नहीं था। हां) रोम के इतिहास के बारे में लोगों को पता था। पर रोम की स्थापना ई पू 753 में हुई थी।
प्राचीन यूनानी इतिहास में इससे पहले के उल्लेख हैं। मिसाल के लिए पहला ओलम्पिक खेल ई पू 776 में हुआ और ट्रोजन युद्ध ई पू 1200 से कुछ पहले लड़ा गया था।
यह बाईबिल की उत्पत्ति से बहुत बाद की बात है। क्या यूनानियों से पहले भी कोई इतिहास था?
प्राचीन यूनानी इतिहाकारों के अनुसार मिस्त्र का इतिहास उनसे कहीं पुराना था।
प्राचीन मिस्त्र के अनेक शैल्यचित्र और लेख बचे थे पर उन्हें कोई भी पढ नहीं सकता था। मिस्त्र के इतिहास को जानने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था।
पर फिर 1799 में नेपोलियन बोनापार्ट की फ्रेंच फौज ने मिस्त्र पर हमला किया। फौज के एक अफसर को नील नदी के किनारे रोजैटा शहर में एक खुदा हुआ शिलालेख मिला। ' रोजैटा पत्थर ' पर तीन भाषाओं में खुदाई थी - दो मिस्त्र की भाषाओं में और एक यूनानी लिपि में। इतिहासकार यूनानी लिपि को पढ़ना जानते थे। अगर तीनों लिपियों में आलेख एक ही था तो यूनानी लिपि से मिस्त्र लिपि का अनुवाद सम्भाव था। यूनानी आलेख को पढ़ने के बाद इतिहासकार मिस्त्र लिपि को पढ़ना सीख पाए। यूनानी गाइड पास होने के बावजूद यह काम आसान न था क्योंकि यह कहना कठिन था कि कौन सा मिस्त्र शब्द, यूनानी शब्द का अनुवाद था। पर धीरे-धीरे यह काम सम्पन्न हुआ। 1818 में अंग्रेज डाक्टर थॉमस यंग १७७४-१८२९ ने इस कार्य में महत्वपूर्ण प्रगति की। फिर 1821 में फ्रेंच विद्वान ज्या फ्रैंकोइज शैम्पोलिन १७९०-१६३२ ने इस कार्य को सम्पूर्ण किया।
मिस्त्र की भाषा जानने के बाद इतिहासकार मिस्त्र के इतिहास का अध्ययन करने लगे। मिस्त्र की सबसे बड़ी पिरामिड ई पू 2500 में बनी थी। और मिस्त्री साम्रज्य ई पू 2850 में स्थापित हुआ था।
फिर 1846 में ईरान में एक बहुभाषी शिलालेख मिला। उसमें एक भाषा बहुत प्राचीन थी और उसे कभी ईराक की प्राचीन सभ्यता उपयोग करती थी। यह क्षेत्र टिगरिस और म्फ्रेटस नदियों पर स्थित था।
इस क्षेत्र का इतिहास मिस्त्र से भी प्राचीन पाया गया। ईराक में सुमेरियन लोगों ने ई पू 3200 में लिखाई का आविष्कार किया था।
यह सब बाईबिल में लिखी बातों से मेल खाता था। बाईबिल के अनुसार अगर उत्पत्ति ई पू 4००4 में हुई थी तो उसमें सबसे प्राचीन सुमेरियन लोगों से लेकर बाकी सभी सभ्यताओं के लिए भी स्थान था।
इस बीच विज्ञान में विशेषकर भूविज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति हो रही थी।
भूविज्ञान में पृथ्वी के पत्थरों का अध्ययन किया जाता है।
स्काटिश भूवैज्ञानिक जेम्स हटन ( 1726 - 1797) ने पत्थर कैसे बनते हैं इस विषय का अध्ययन किया। कुछ पत्थर गीली मिट्टी से शुरू होते हैं। पानी निचुड़ने के बाद वे ठोस और सख्त बन जाते हैं। यह पत्थर ' सेडिमेट्री पत्थर ' कहलाते हैं। लैटिन भाषा में सेडिमेंट का अर्थ होता है ' नीचे ठहरना '।
कुछ अन्य पत्थर ज्वालामुखियों से निकले गर्म लावा से बनते हैं। सभी पत्थर हवा और पानी के प्रभाव से धीरे- धीरे करके घिसते हैं।
पत्थर बनने या उसके घिसने की हरेक प्रक्रिया बहुत ही धीमी गति से होती है। पत्थर बनने में करोडों-खरबों साल लगते हैं। 1785 में हटन ने अपने शोधकार्य के बारे में लिखा। उनके अनुसार पृथ्वी बहुत प्राचीन थी।
बहुत समय तक लोगों ने हटन की बात नहीं मानी क्योंकि उनका कथन बाईबिल के खिलाफ जाता था। 1833 में स्काटिश भूवैज्ञानिक चार्ल्स लायल ( 1797 - 1875) ने तीन-खंडों की किताब लिखी जिसमें उन्होंने हटन की बात को सही माना। हटन के बाद अन्य तमाम सबूत मिले। उनसे यह पता चला कि पृथ्वी के पत्थर ' कस्ट ' - परतों में बंटे हैं और इन परतों का बहुत दूरी तक अध्ययन किया जा सकता था। पृथ्वी के प्राचीन इतिहास को इन परतों से) और उनमें मिले पत्थरों से समझा जा सकता था।
लायल ने इन सब बातों को बहुत अच्छी तरह से समझाया था। उसके बाद वैज्ञानिकों ने को बहुत प्राचीन माना। और बाईबिल में लिखी उत्पत्ति की तारीख पृथ्वी को गलत माना।
इसका अर्थ था कि मानव पृथ्वी पर ई पू 4००4 से कहीं अधिक पहले से थे। मिसाल के लिए इतिहासकारों को उस काल का पता था जब इंसान लोहा बनाना नहीं जानते थे। ई पू 1000 से कुछ पहले ही उन्होंने लोहा पत्थर को गलाकर लोहा बनाना सीखा था। उससे पहले हथियार बनाने के लिए वे पीतल या कांसा उपयोग करते थे। उदाहरण के 'इलियाड' के वर्णन में यूनानी और ट्रोजन फौजी कांसे के हथियारों से लडे थे।
पर कांसे का उपयोग ई पू 3200 के आसपास ही शुरू हुआ था। उसी समय लिखाई का भी इजाद हुआ था। उससे पहले मनुष्यों को धातुओं के बारे में बिल्कुल ज्ञान नहीं था और वे पत्थर के औजार और हथियार बनाते थे।
एक डच वैज्ञानिक क्रिश्चियन जार्जसन टौमसन १७६८-१८५ ने 1834 में इस बात को बहुत स्पष्टता से लिखा, ' अब हम लौह-युग में जी रहे हैं,' उन्होंने लिखा, 'उससे पहले हम कांसे के युग में थे। और उससे पहले पाषाण-युग में थे। '
इतिहास का निर्माण लिखाई के आविष्कार के बाद ही सम्भव हुआ। लिखाई से पहले के इतिहास को हम लोगों के घरों) मंदिरों और उनके औजारों के अध्ययन से ही समझ सकते हैं। इससे हमें कुछ जानकारी तो अवश्य मिलती है। पर इससे हमें घटनाओं का कम नहीं समझ सकते जो इतिहास के लिए जरूरी है।
इसीलिए लिखाई से पहले के इतिहास को ' प्री-हिस्ट्री ' या प्रैगएतिहासिक कहा जाता है। इसलिए पाषाण-युग प्रैगएतिहासिक है और उस समय के लोग भी लिखाई नहीं जानते थे।
मिस्त्र और सुमेरिया में प्राचोन काल के पत्थर के औजार पाए गए थे। और वे सभी बहुत ऊंचे दर्जे के थे। इससे लगता था कि लोग बहुत लम्बे अर्से से पत्थर के औजार बना रहे थे और अब वे इस कला में बहुत दक्ष हो गए थे। पत्थर के खराब औजार मिस्त्र और सुमेरिया के लोग हजारों वर्ष पहले से बनाते होंगे।
1797 में अंग्रेज भूवैज्ञानिक जान फइर ( 174० - 18०7) को दक्षिणी इंग्लैण्ड में उत्खनन के दौरान ऐसे अनेकों प्राचीन पत्थर के औजार मिले। प्रैगएतिहासिक लोगों ने उन औजारों को वहां फेंका होगा अथवा छोड़ा होगा और फिर वे धीरे- धीरे पत्थर की तहों तले दब गए होंगे। औजारों के ऊपर की मोटी परतें इस बात का प्रमाण थीं कि वे हजारों सालों से वहां पडे होंगे।
पत्थर के औजारों के साथ जानवरों की हड्डियां भी थीं। यह हड्डियां आज मिलने वाले जानवरों की नहीं थीं। इन प्राचीन हड्डियों को हम ' फासिल ' या जीवाश्म बुलाते हैं। ' फासिल ' का अर्थ होता है ' खोद कर निकालना '।
बहुत समय पहले ही यह जानवर लुप्त हो गए थे। इसलिए वहां मिले पत्थर के औजार तो उनसे भी पुराने होंगे।
भौंडे दिखने वाले कुछ पत्थर के औजार अन्य स्थानों पर भी मिले। जिन लोगों ने उन्हें बनाया होगा वो उससे भी प्राचीन होंगे।
1860 में फ्रेंच जीवाश्म-वैज्ञानिक एडुआर्ड आरमंड लैहरटे १८०-१८७ को एक गुफा में 'मैमथ' का एक भीमकाय दांत मिला। 'मैमथ' लुप्त जीव थे और वे वर्तमान हाथियों के रिश्तेदार थे। 'मैमथ' हजारों साल पहले हो लुप्त हो चुके थे।
इस ममँथ' के दांत पर ममँथ' का खरोंचकर बनाया हुआ एक चित्र भी था। उसके बाद मँमय' के तमाम कंकाल भी मिले और वो चित्र उनसे मेल भी खाता था। चित्र में विस्तृत जानकारी थी और उसे देखकर ऐसा लगता था कि जैसे चित्रकार ने जीवित 'मैमथ' को वाकई में देखा हो।
वैज्ञानिक तब तक इस निर्णय पर पहुंच गए थे कि प्रैगएतिहासिक लोग बहुत पहले से पृथ्वी पर मौजूद थे। तब उन्होंने पाषाण-युग को ' प्राचीन पाषाण-युग ' ' मध्य पाषाण-युग ' और ' नवीन पाषाण-युग ' की श्रेणियों में बांटा। वैज्ञानिकों को लगा कि
सबसे पुराने पत्थर के औजारों को लोगों ने एक-लाख वर्ष पहले बनाया होगा और उसके बाद से उन्होंने उनमें लगातार सुधार किया होगा।
में स्पैनिश भूवैज्ञानिक मारसिलिनो सोओ (मृत्यु 1888) ने कुछ नई 1879 एक डू गुफाओं का अध्ययन किया। प्रैगएतिहासिक लोगों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए गुफाएं बहुत अच्छा स्थान थीं क्योंकि अतीत में लोग उन्हें घर जैसे उपयोग करते थे। प्राचीन काल के लोगों को तभी तो गुफा-निवासी भी कहा जाता है। गुफाओं में सेडिमेंटरी पत्थरों के साथ-साथ पत्थर के औजार मिलने की सम्भावना बहुत ज्यादा होती है।
मारसिलिनो जब गुफा में लालटेन की रोशनी में खुदाई कर रहा था तो उसके साथ उसकी पांच साल की बेटी थी। लड़की ने ऊपर की ओर देखा और चिल्लाई ' बैल! बैल!' पिता ने जब ऊपर देखा तो उन्होंने पाया कि वहां तमाम जानवरों के चटकीले रंगों में चित्र बने थे।
उसके बाद से अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार के भीतिचित्र पाए गए हैं। प्राचीन लोग शायद हमारे जितना नहीं जानते थे परन्तु उनका मस्तिष्क हमारे जितनी ही कुशलता से चित्र बना सकता था।
2. नियनडरथल मैन
प्रैगएतिहासिक लोग देखने में कैसे थे? पुराने जीवाश्म और कंकालों से हम उनका कछ अनुमान लगा सकते हैं। इसमें एक मुश्किल है। अधिकांश जीवाश्म तब बनते हैं जब जानवर पानी में फंस कर मरते हैं और फिर उनके मृत देह पर मिट्टी की परते चढ़ती हैं। और जब यह मिट्टी की परतें दबाव के कारण पत्थर बनती हैं तब जानवरों के शरीर खासकर उनके दांत जीवाश्म (फासिल) में बदलते हैं।
1868 में, गुफा-चित्र की खोज से 11 वर्ष पहले दक्षिण-पूर्वी फ्रांस में रेल लाईन बिछाने के लिए खुदाई चल रही थी। खुदाई में एक गुफा मिली जिसमें पांच लोगों के कंकाल मिले। इन्हें क्रोमैनयॉन-मैन' कहते हैं।
लारटेट जिसने ' मैमथ ' के दांत की खोज की थी को इन कंकालों के अध्ययन के लिए भेजा गया। कंकाल जिन पत्थरों में पाए गए थे उसने उनकी जांच की और पाया कि वे पत्थर 35०० साल पुराने थे। (इस प्रकार के अन्य कंकाल 5००० वर्ष पुराने भी हो सकते हैं)।
कंकालों को देखने से लगा कि ' क्रोमैनयॉन-मैन ' लोग बिल्कुल हम जैसे ही रहे होंगे। शायद वर्तमान लोगों से वो थोड़े ऊंचे हों और उनके मस्तिष्क भी कुछ बडे हों। 1735 में स्वीडिश वनस्पति-शास्त्री कैरोलस लिनियस ( 17०7 - 1788) ने उस समय तक खोजे गए सभी पौधों और जीवों का वर्गीकरण किया और उन्हें दो लैटिन शब्दों के नाम दिए। पहला शब्द उस जीव का समूह या ' जीनस ' निर्धारित करता था। और दूसरा शब्द उस जीव का समूह में विशेष या ' स्पेसिफिक ' नाम निर्धारित करता था।
लिनियस ने मनुष्यों को ' होमो-सेपियन ' नाम दिया। ' होमो ' लैटिन शब्द है और मनुष्य जिस ' जीनस ' से आते हैं उसका द्योतक है। इस ' जीनस ' में केवल अब मनुष्य ही बचे हैं। प्रजाति का नाम ' सेपियन्स ' है जिसका मतलब होता है होशियार।
' होमो-सेपियन ' का अर्थ होता है ' होशियार मनुष्य '।
' क्रोमैनयॉन-मैन ' के कंकाल वर्तमान के मनुष्यों से इतने मिलते-जुलते थे इसलिए वे भी ' होमो-सेपियन ' ही होंगे।
तो क्या सम्भव है कि बाईबिल द्वारा सुझाए अनुसार लोगों की उत्पत्ति मनुष्य जैसे दिखने वाले जीवों से न हुई हो? यह भी सम्भव है कि तारीख में कुछ गलती हो? हो सकता है ऐडम और ईव 6०० साल पहले नहीं बल्कि 5००० वर्ष पहले पैदा हुए हों? और हो सकता है कि उससे पहले मनुष्य हों ही नहीं?
एक इंसान का इससे भिन्न मत था। चार्ल्स रॉबर्ट डारविन ( 18०9 - 1882) एक अंग्रेज प्रकृतिशास्त्री थे। 24 वर्ष की आयु म डारविन एक खोजी जहाज पर पांच साल की यात्रा और अन्वेषण के लिए निकले। इससे डारविन को दुनिया के कई भागों में पौधों और जानवरों के अध्ययन का मौका मिला। जैसे-जैसे उसका जहाज दक्षिणी अमरीका के तटवर्ती इलाके में आगे गया वैसे-वैसे उन्हें जीवों की समान प्रजातियों में थोड़ा- थोड़ा अंतर दिखने लगा। प्रशांत महासागर में अलग- थलग पडे गैलापतोज द्वीप में उन्हें 14 अलग- अलग प्रकार के ' फिंच ' पक्षी दिखे। यह फिंच पक्षी दक्षिणी अमरीका के महाद्वीप के अलावा दुनिया में और कहीं नहीं मिलते हैं। यह कैसे हुआ?
डारविन का लगा कि समय के साथ फिंच की प्रजातियों में भी परिवर्तन आया होगा। नई प्रजातियां धीरे- धीरे करके पुरानी प्रजातियों से विकसित हुई होंगी। वो अपने मत की पुष्टि के लिए सबूत जमा करने लगे। उन्हें मालूम था कि उनके मत से तमाम लोगों को धक्का लगेगा क्योंकि वे बाईबिल के कथन के विरुद्ध जाते थे।
1859 में डारविन ने ' आरिजिन ऑफ स्पीशीज ' नामक पुस्तक प्रकाशित की।
पुस्तक ने काफी तहलका मचाया। बरसों तक पुस्तक पर चर्चा होती रही पर धीरे- धीरे करके वैज्ञानिकों ने डारविन के सिद्धांत को स्वीकार किया।
अगर सभी प्राणी और पौधे अन्य प्रजातियों से विकसित हुए हैं तो फिर मनुष्य का क्या? क्या मनुष्य ऐसी प्रजातियों से विकसित हुए हैं जो मनुष्य जैसी नहीं थीं? और या फिर वे प्रजातियां उनसे भी भिन्न प्रजातियों से विकसित हुई थीं?
डारविन की पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं है) पर अन्य वज्ञानिक इस पर शोध करने लगे। भूवैज्ञानिक लायल ने 1863 में एक पुस्तक लिखी। उनके अनुसार मनुष्य भी इसी प्रकार विकसित हुए थे। 1871 में डारविन ने एक और पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने अपनी इस धारणा के पक्ष में सभी प्रमाण भी दिए।
मनुष्य के शरीर का ढांचा अफोका में पाए जाने वाले बनमानुषों ऐप्स और गुरिल्लों से मिलता-जुलता है। शायद तीनों किसी एक बहुत पुराने पूर्वज से उपजे हों? शायद वे पुराने पूर्वज देखने में बनमानुष ज्यादा और मनुष्य कम लगते हों?
डारविन के सिद्धांत से बाईबिल में विश्वास रखने वाले को गहरा धक्का लगा। वो यह मानने का तैयार नहीं थे कि ऐडम और ईव के पूर्वज बनमानुष थे।
अगर डारविन का सिद्धांत सही था तो बनमानुष और मनुष्य के बीच की प्रजातियों के कंकाल) जीवाश्मों के रूप में बतौर सबूत मिलने चाहिए थे। डारविन के समय में यह प्रमाण नहीं मिले थे और इन जीवों को ' मिसिंग-लिंक ' या लापता-कड़ी के नाम से जाना जाता था।
पर ' क्रोमैनयॉन-मैन ' के कंकाल मिलने और डारविन की पुस्तक से 11 साल पहले कुछ रोचक हड्डियां मिलीं थीं।
पश्चिमी जमर्नी में राईन नदी के पास नियनडरथल नाम की घाटी है। 1857 में वहां खुदाई के समय कुछ कंकाल मिले जो देखने में काफी-कुछ मनुष्यों जैसे थे पर एकदम मनुष्यों से मेल नहीं खाते थे।
उनका माथा थोड़ा चौड़ा था और भौंहों के स्थान पर उभरी हुई हड्डियां थीं।
उनके दांत सामान्य मनुष्य के दांतों से बडे थे। उनका जबड़ा आगे को था और ठोडी कछ पीछे को। वो बनमानुष जैसे अधिक और मनुष्यों से कम मिलते-जुलते थे।
वैसे वैज्ञानिकों की इन अवशेषों में गहरी रुचि थी पर उन्होंने इस खोज को किसी विशेष महत्व का नहीं माना। जर्मन चिकित्स फौल्फ फिरखुव ( 1821 - 19०2) का डारविन के सिद्धांत में कोई यकीन नहीं था। उनके अनुसार यह साधारण मनुष्यों के कंकाल थे। फर्क यह था कि उन मनुष्यों को हड्डियों की बीमारी थी।
कई वैज्ञानिक इस मत से सहमत भी थे। परन्तु एक फ्रेंच वैज्ञानिक पियरे पॉल बोका ( 1861 - 1942) के अनुसार उन कंकाल का ढाचा एकदम सामान्य था और वो किसी रोग से विकृत नहीं हुआ था।
बाद के सालों में अन्य कई स्थानों पर भी उसी प्रकार के कंकाल मिले जिनके दौत बडे थे और ठोडी पीछे को थी। वे सभी हड्डियों के रोगी तो नहीं हो सकते थे? अंत में बोका की बात ठीक निकली और फिरखुव की बात गलत।
उसके बाद से वैज्ञानिक नियनडरथल-मैन की बात करने लगे। उसे एक लैटिन नाम दिया गया ' होमो-नियनडरथलिस '। वे भी मनुष्य समूह के सदस्य थे। बस उनकी प्रजाति अलग थी।
फिर 1911 में फ्रेंच जीवाश्म-वैज्ञानिक पियरे मारसिलन बूल ( 1861 - 1942) को अचानक नियनडरथल-मैन का एक सम्पूर्ण कंकाल मिला।
पूरे कंकाल से नियनडरथल-मैन जीवित स्थिति में कैसा दिखता था उसका चित्र बना पाना सम्भव हुआ। उसकी ऊंचाई ' क्रोमैनयॉन-मैन ' से कुछ छोटी थी। मर्द करीब पांच फीट ऊंचे थे और महिलाएं उनसे कुछ छोटी थीं।
कछ लोगों को वे बनमानुष जैसे लगे - क्योंकि उनका चित्र कछ-कछ वैसे ही बनाया गया था। जब कभी ' क्रोमैनयॉन-मैन ' का पुतला या चित्र बनाया जाता तो वो हमेशा देखने में सुंदर) दादी बिना और सोच-विचार की स्थिति में होता। जबकि नियनडरथल-मैन को हमेशा झुका हुआ और दादी के साथ दर्शाया जाता था। वो बुद्ध दिखता और उसके चेहरे पर एक क्रूर भाव होता था।
दरअसल यह गलत था। नियनडरथल-मैन के तमाम कंकालों के मुआयने से पता चला कि बूल का कंकाल असल में एक बूढे व्यक्ति का था जो गठिया से पीड़ित था। सामान्य कंकालों की जांच से पता चला कि नियनडरथल-मैन भी हमारे समान ही आसानी से सीधा खड़ा हो सकता था। उसका चेहरा हम से कुछ बदसूरत जरूर था परन्तु उसका मस्तिष्क हमारे जितना ही बड़ा था। और उसके कंकाल के अध्ययन से लगता है कि नियनडरथल-मैन एक सम्पूर्ण मानव था।
धीरे-धीरे नियनडरथल-मैन के अवशेष यूरोप में ही नहीं, अफ्रीका और एशिया में भी मिलने लगे। अभी तक 4० स्थानों से 100 ऐसे कंकाल मिले हैं।
नियनडरथल-मैन के सबसे नए कंकाल केवल 3० ०० वर्ष पुराने हैं। इसका अर्थ है कि क्रोमैनयॉन-मैन और नियनडरथल-मैन दोनों पृ थ्वी पर 2० ०० साल तक टुकड़े रहे होंगे। कुछ नमूने बीच के हैं जिनमें क्रोमैनयॉन-मैन और नियनडरथल-मैन दोनों के लक्षण दिखते हैं। इससे लगता है कि वे परस्पर सम्भोग भी करते होंगे।
वैज्ञानिकों को अब स्पष्ट लगता है कि नियनडरथल-मैन भी होमो-सेपियन्स ही हैं। इसलिए अब होमो-नियनडरथैलिस के समूह को हटा दिया गया है।
वैसे नियनडरथल-मैन होमो-सेपियन्स में सबसे प्राचीन है। नियनडरथल-मैन में कछ ऐसे लक्षण हैं जो एक से डेढ लाख वर्ष पुराने हैं। वे क्रोमैनयॉन-मैन के पूर्वज होंगे और वे पृ थ्वी पर उनसे एक लाख वर्ष पहले आए होंगे।
उसक पश्चात नियनडरथल-मैन लुप्त हो गए। क्या उन्हें क्रोमैनयॉन-मैन ने मार डाला? इसकी सच्चाई हमें नहीं पता।
क्या क्रोमैनयॉन मानवों की उत्पत्ति नियनडरथल मानवों से हुई? सम्भवत : नहीं। शायद दोनों की उत्पत्ति किसी अन्य प्राचीन जीव से हुई हो।n
3. जावा-मैन और पीकिंग-मैन
यह स्पष्ट है कि अगर नियनडरथल-मैन भी होमो-सेपियन्स हैं तो वे लापता-कड़ी नहीं हो सकते। नियनडरथल-मैन हमसे बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं और इसलिए उनका ' मिसिंग-लिंक ' ( लापता-कड़ी) होने की बात ठीक नहीं लगती।
पर डारविन के सिद्धांतों में विश्वास करने वालों को लगता था कि ऐसी लापता-कड़ी होनी ही चाहिए। जर्मन जीवशास्त्री अरनेस्ट हेनरिक हेकुल ( 1834 - 1919) ने इस लापता-कड़ी को एक नाम तक दे डाला था ' पिभिनकैनथोपस ' जिसका यूनानी में अर्थ होता है ' बनमानुष '। उन्हें लगता था कि यह प्रजाति मनुष्य और बनमानुष के बीच की कोई प्रजाति होगी।
डच चिकित्सक यूजीन डयूबौह ( 1858 - 1941) की ' पिथिनकैनथोपस ' की हड्डियां खोजने में बहुत रुचि थी और उन्हें इस काम को कैसे किया जाए यह भी पता था। मानव के पूर्वजों के अवशेषों को खोजने के लिए उन्हें वहां जाना पड़ेगा जहां अभी भी बनमानुष रहते थे। चार बनमानुषों में से दो - गुरिल्ले और चिंपांजी अफ्रीका में) और दो - गिबन और औरंगउटान दक्षिण-पूर्वी एशिया और इंडोनेशिया में पाए जाते हैं।
' पिथिनकैनथोपस ' भी एक प्रकार का बनमानुष ही होगा। इसलिए वो या तो अफ्रीका में) या फिर दक्षिण-पूर्वी एशिया और इंडोनेशिया में रहता होगा।
उस समय तक हेकुल इस निर्णय पर पहुंच चुका था कि गिबन) मनुष्यों से सबसे करीबी से मिलते-जुलते हैं। (यह समझ गलत थी क्योंकि वास्तविकता में गिबन और मनुष्य एक-दूसरे से सबसे कम मिलते-जुलते हैं) परन्तु डयूबौह को इसका पता नहीं था)। इसलिए डयूबौह ने अपनी खोजबीन एशिया से शुरू की।
उस समय इंडोनेशिया के द्वीप पर नेद्रलैण्ड का राज था और वो डच ईस्ट इंडीज के आधीन था। क्योंकि डयूबौह खुद डच थे इसलिए उन्होंने इंडोनेशिया जाकर' पिथिनकैनथोपस ' की खोजबीन करने की ठानी।
डयूबौह ने यूनिवर्सिटी की नौकरी छोड़ दी और फौज में भर्ती हो गए। उनके मित्र इससे बहुत नाखुश हुए। 1887 में वो मिलटिमरी चिकित्स के रूप मे ईस्ट इंडीज जाने में सफल भी हुए। वहां पहुंचने के तुरन्त बाद उन्होंने प्राचीन मानव के अवशेषों को खोजने के लिए गुफाओं की खुदाई शुरू कर दी।
फिर तीन साल उत्खनन के बाद 1891 में) जावा के नजदीक ट्रिनिल नाम के गांव कछ से उन्हें? हड्डियां और खोपडिया बरामद हुईं। खोपडी का माथा और भौंहें बिल्कुल नियनडरथल-मैन जैसी थीं। परन्तु खोपडी के अंदर का भाग बहुत छोटा था।
मनुष्य के मस्तिष्क का भार औसतन 3 -पाउंड का होता है। परन्तु डयूबौह को जो खोपडी मिली उसका मस्तिष्क अधिक-से- अधिक 2 -पाउंड का होगा। वो कंकाल किसी बच्चे का भी नहीं था क्योंकि उसकी भौंहें किसी व्यस्क व्यक्ति जैसी पूरी तरह विकसित थीं।
उस खोपडी के अंदर का मस्तिष्क फिर भी किसी भी गुरिल्ले के मस्तिष्क से दोगुना बड़ा था। यानि कि इस नमूने का मस्तिष्क) बनमानुष और मनुष्य के बीच का था। नमूने के दांत भी बनमानुष से अधिक मिलते-जुलते थे।
डयूबौह को पक्का लगा जैसे उसने ' पिथिनकैनथोपस ' खोज लिया हो। उसने अन्य सबूत खोजने के लिए गुफाओं को अच्छी तरह खोजा। एक साल बाद खोपडी मिलने के स्थान से सिर्फ 45 -फीट दूर) उसी पत्थर की परत में उसे एक जांघ की हड्डी भी मिली। वो हड्डी खोपडी जिनती ही पुरानी और किसी मनुष्य की दिखती थी। उसके आकार से लगता था कि जिस किसी जीव की वो हड्डी रही होगी वो आसानी से मनुष्य जैसे ही खड़ा हो सकता होगा।
डयूबौह ने अपने कंकाल को नाम दिया ' पिभिनकैनथोपस-इरेक्टस ' या फिर ' सीधा खड़ा रहने वाला बनमानुष '। परन्तु आज उसे एक साधारण नाम ' जावा-मैन ' के नाम से जाना जाता है।
1894 में डयूबौह ने अपने अध्ययन को प्रकाशित किया। अगले वर्ष नेदरलैन्ड वापस लौटने पर उसके खुद को लड़ाई के मध्य पाया।
यह शायद पहला सबूत था लापता-कड़ी का। डारविन के सिद्धांत से असहमत लोगों ने इसे बनमानुष की खोपडी बताया। औरों के अनुसार वो खोपडी एक ऐसे मूर्ख मनुष्य की थी जिसका मस्तिष्क कभी विकसित ही नहीं हुआ था। अन्य लोगों ने कहा डयूबौह को मिले दोनों नमूने एक जीव के नहीं थे - खोपडी बनमानुष की थी और जांघ की हड्डी मनुष्य की थी।
डयूबौह लोगों के चीखने-चिल्लाने से बहुत तंग आ गया। अब वो अपने शोधकार्य पर ही दुख व्यक्त करने लगा। वो इतना झल्ला गया कि उसने सारी हड्डियों को संदूक में बंद कर दिया जिससे सालों तक उन्हें कोई नहीं देख पाया।
इसका सबसे सरल हल था - दुबारा जावा वापस जाकर वहां ' जावा-मैन ' की और हड्डियों को खोजना। इस काम को जर्मन जीवाश्म-वैज्ञानिक गुस्ताव कौयनिगवाल्ड ने किया।
193० में वो जावा गया और उसने कई बरसों तक शोधकार्य किया। इसमें उसने स्थानीय लोगों की मदद ली। उसने उन्हें शोधकार्य की ट्रनिंग दी और छोटी हड्डी खोजकर लाने के लिए 1० -सेंट का इनाम देने का वादा किया। कुछ लोगों को खोपडिया परन्तु ज्यादा इनाम मिलीं भी लेने के लिए उन्होंने उनके टुकड़े-टुकड़े किए।
फिर भी कौयनिगवाल्ड को तीन खोपडिया और दांत समेत कुछ जबड़े मिले। छोटे मस्तिष्क का एक मूर्ख मानव हो सकता है) चार नहीं हो सकते। ' जावा-मैन ' मनुष्य जैसा जीव था पर वो होमो-सेपियन नहीं था।
आजकल होमो-सेपियन और कुछ जीव जो होमो-सेपियन जैसे नहीं हैं पर जो मनुष्य से ज्यादा मिलते-जुलते हैं और बनमानुषों से कम) ऐसे प्राणियों को ' होमोनौइड्स ' कहा जाता है। ' जावा-मैन ' पहला ' होमोनौइड ' था जो होमो-सेपियन नहीं था।
कौयनिगवाल्ड की खोज के समय डयूबौह जीवित था। उसकी आयु 8० वर्ष से ज्यादा थी और वो बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। उसका ' जावा-मैन ' से विश्वास उठ गया था और वो अपने कंकाल को एक बनमानुष बताने लगा था। कौयनिगवाल्ड द्वारा समझाने के बावजूद भी डयूबौह ने उसकी बात नहीं मानी। और फिर कुछ समय पश्चात डयूबौह का देहांत हो गया।
उसके बाद से ध्यान का केंद्र चीन बना। चीनी डाक्टरों को पुराने हड्डियों के जीवाश्मों की पीसकर उनसे दवाई बनाने की बात सूझी। इस वजह से हड्डियों के जीवाश्म चीन में दवा दुकानों में बिकने लगे। 1900 में वहां एक मनुष्य दौत का जीवाश्म मिला। उसके बाद से लोग चीन में भी प्रैगएतिहासिक लोगों को तलाशने लगे। पीकिंग अब चीन की राजधानी है। पीकिंग से 27 -मील दक्षिण-पश्चिम में एक गांव है चौकोटीन जहां बहुत सी गुफाएं हैं जो अब ठोस मिट्टी से भरी हैं। प्राचीन ' होमोनौइड्स ' के अवशेषों को खोजने के लिए वो एक अच्छा स्थान होगा।
वहां एक गुफा में उन्हें ' क्वार्टज ' नाम के पत्थर मिले। वहां प्राकृतिक रूप में ' क्वार्टज ' पाने को सम्भावना बहुत कम थी। शायद प्राचीन ' होमोनौइड्स ' उन्हें वहां पत्थर के औजार बनाने के लिए लाए हों? एक कैनेडियन जीवाश्म-वैज्ञानिक डेविडसन ब्लैक ( 1884 - 1934) ने शोधकार्य को करने की ठानी।
1923 में उसे वहां एक दांत मिला) 1926 में दूसरा और 1927 में तीसरा। दांतों की जांच-परख से पता चला कि वो न तो मनुष्य के थे और न ही बनमानुषों के।
निर्णय लिया गया कि वे दांत एक ' होमोनौइड ' के थे। उन्हें एक नाम दिया गया ' सिनैनथोपस-पीकिनसिस ' यानि ' चीन का पीकिंग-मैन '। कुछ लोगों ने संक्षिप्त में उसे ' पीकिंग-मैन ' बुलाया।
1929 में चीन के जीवाश्म-शास्त्री पाई को खुदाई के समय खोपडी के वक्र जैसी वस्तु मिली। उसके बाद अनेकों खोपडिया जबड़े और दांत भी मिले। 1934 में ब्लैक के देहांत के बाद उसके कार्य को जर्मन जीवाश्म-शास्त्री फ्रैंज वाइडनरिखे ( 1873 - 1948) ने जारी रखा। अंत म वहां 4० ' होमोनौइड्स ' के अवशेष मिले।
इस बार कोई विवाद नहीं उठा। सबने ' पीकिंग-मैन ' को ' होमोनौइड ' माना।
दुर्भाग्यवश) उसी समय जापान ने चीन पर हमला किया और 1937 में उस इलाके पर कब्जा किया। जापानियों ने उत्खनन जारी रखने की अनुमति दी परन्तु धीरे- धीरे स्थिति बिगड़ती गई और जापान और अमरीका के बीच युद्ध की सम्भावना बढ़ने लगी। अंत में जीवाश्म-शास्त्रियों ने हड्डियों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें अमरीका भेजने का निर्णय लिया। यह काम 5 दिसम्बर 1941 को ही सम्पन्न हो पाया। पर उसके दो दिन बाद ही जापान ने पर्ल-हार्बर पर हमला कर दिया।
उसके बाद की गड़बड़ी में किसी को भी नहीं पता कि उन हड्डियों का क्या हुआ। उसके बाद से उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा। शायद वो सदा के लिए खो गईं। पर उससे पहले उन हड्डियों का जो कुछ भी अध्ययन हुआ उससे इतना सुनिश्चित हुआ कि ' पीक्गिं-मैन ' और ' जावा-मैन ' दोनों में बहुत समानता थी। बस ' पीकिंग-मैन ' का मस्तिष्क ' जावा-मैन ' से थोड़ा बड़ा था। वर्तमान में जीवाश्म-शास्त्री ' पीकिंग-मैन ' और ' जावा-मैन ' को दो अलग- अलग ' होमोनौइड्स ' नहीं मानते हैं। वो एक ही प्रजाति की दो अलग किस्म. हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे ' नियनडरथैल-मैन ' और ' क्रोमैनयॉन-मैन ' भी एक ही प्रजाति की दो अलग किस्में थीं।
वैसे ' पीकिंग-मैन ' और ' जावा-मैन ' होमो-सेपियन्स नहीं हैं फिर भी वो उसके बहुत करीब हैं और उसी जीनस के सदस्य हैं। इसलिए ' पिथिनकैनथोपस ' और ' सिनैनथोपस ' नामों को अब त्याग दिया गया है। उनके स्थान पर ' पीक्गिं-मैन ' और ' जावा-मैन ' अब होमो-इरेक्टस के उदाहरण हैं - जो बडे मस्तिष्क के मनुष्यों से पहले छोट मस्तिष्क के लोग थे।
द्वितीय महायुद्ध के बाद होमो-इरेक्टस की हड्डियां अफ्रीका में भी पाई गईं और उनके यूरोप में पाए जाने की भी सम्भावना है। होमो-सेपियन्स के आने से पूर्व कोई भी होमोनौइड्स अमरीका या आस्टेरलिया या अन्य किसी द्वीप में नहीं पहुंचे)।
होमो-इरेक्टस का मस्तिष्क होमो-सेपियन्स का दो-तिहाई होगा। पर वे मनुष्यों जैसे चलते थे और औजार बनाते थे। और लगता था कि चौकोटीन में ' पीकिंग-मैन ' ने आग का उपयोग भी किया था। होमो-इरेक्टस की उत्पत्ति 15 -लाख वर्ष पहले हुई होगी और वे 5 -लाख वर्ष पहले लुप्त हो गए होंगे।
क्या होमो-इरेक्टस वाकई में लुप्त हुए? या फिर मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ वे होमो-सेपियन्स में परिवर्तित हो गए?
तार्किक स्तर पर यह ठीक लगता है पर एक अंग्रेज इस मत से असहमत थे। वे थे लुई एस बी लीकी ( 19०3 - 1972)।
लीकी के माता-पिता धर्मप्रचारक थे और लीकी ने अपना बचपन पूर्वी अफ्रीका में बिताया था। केम्बिज में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे दुवार अफ्रीका गए और फिर उन्होंने अपना सारा जीवन वहीं बिताया।
1931 में उन्होंने तनजानिया स्थित औल्डुवाई गौर्ज ( पर्वत के बीच के संकुचित मार्ग) में खुदाई शुरू की। वहां के सेडिमेंट्री ( तलछटी) पत्थर 2० -लाख वर्ष पुराने थे। लीकी वहां होमोनौइड्स के अवशेष खोजने गए थे।
196० में उन्हें वहां तीन खोपडिया मिलीं जो देखने में होमो - इरेक्टस जैसे थीं। पर उनके मस्तिष्क बहुत छोटे थे - होमो - सेपियन्स के आ धे। उनकी हड्डियां भी होमो - सेपियन्स से कहीं ज्यादा नाजुक थीं।
यह खोपडिया शायद 18 -लाख साल पुरानी होंगी और लीकी ने उन्हें ' होमो-हिबैलिस ' यानि ' कुशल-मनुष्य ' का नाम दिया। लीकी ने यह नाम इसलिए दिया क्योंकि इन खोपडियों के पास पत्थर के औजार मिले थे। इससे यह लगता था कि छोटा मस्तिष्क होने के बावजूद यह लोग औजार बनाने में कुशल थे।
' होमो-हिबैलिस ' ' होमो ' जीनस में शामिल किए जाने वाले सबसे प्राचीन होमोनौइडम्स थे।
लीकी के अनुसार ' होमो-हिबैलिस ' का दो दिशाओं में विकास हुआ। एक दिशा कछ बड़ा में मस्तिष्क? हुआ परन्तु खोपडी की हड्डियां मोटी हुईं और उससे भौं: विकसित हुईं और दांतों में बदलाव आया। और इस प्रकार ' होमो-इरेक्टस ' बना।
दूसरी दिशा में मस्तिष्क बढ़ा और वहां की हड्डियां मुलायम रहीं - और उससे' होमो-सेपियन्स ' बने।
शायद यह समझना ज्यादा आसान होगा कि मस्तिष्क के विकास से साथ' होमो-हिबैलिस ' धीरे- धीरे ' होमो-इरेक्टस ' बना। कै ' होमो-इरेक्टस ' धीरे- धीरे करके ' होमो-सेपियन्स ' बने।
कुछ अन्य होमोनौइड्स की खोजों के पश्चात ही हमैं क्रमागत उन्नति एवोल्युशन के बारे में सही पता चलेगा।
4. छोटे बनमानुष
अभी तक हमने तीन होमोनौइड्स का वर्णन किया है, जो सभी होमों जीनस के सदस्य हैं। यह हैं होमो-सेपियन्स' (यानि हम लोग, क्रोमैनयॉन-मैन' और नियनडरथल-मैन) और होमो-इरेक्टस' (यानि 'पीकिंग-मैन' और 'जावा-मैन') और होमो-हिबैलिस'।
क्या कोई ऐसे होमोनौइड्स हैं जो वर्तमान मानव से इतने भिन्न हैं कि उन्हें होमों जीनस में नहीं रखा जा सकता है?
इस प्रकार के होमोनौइड्स की खोज का श्रेय आस्टेरलियन चिकित्सक रेमंड आर्थर डार्ट (जन्म 1893) को जाता है। 1923 में वे जौहानसबर्ग, दक्षिणी अफ्रीका के एक मेडिकल कालेज में शरीर-रचना एनाटामी) पड़ाने गए।
1924 में उन्हें किसी के घर में एक बबून की खोपडी का जीवाश्म दिखा जो सजावट के लिए वहां रखी गई थी। पूछने पर मालूम पड़ा कि वो टुआग नाम की जगह पर मिली थी और वहां चूना पत्थर की पहाड़ियों की ब्लास्टिंग का काम चल रहा था।
डार्ट ने खबर भेजी कि अगर वहां कोई अन्य जीवाश्म मिलें तो वो उन्हें जरूर देखना चाहेंगे। और जल्द ही उनके पास चूने पत्थर से भरा) जीवाश्मों का एक संदूक आ गया।
फिर जीवाश्म के टुकड़ों को एक-दूसरे के साथ जोड़ा गया। दांत) जबड़े और चेहरे की हड्डियों को जोड़ने पर वो एक युवा बनमानुष जैसा दिखा। मस्तिष्क का खोखला भाग युवा बनमानुष के लिए बहुत बड़ा था। भौंहों का कोई नामोनिशां न था और चेहरे देखने में एक बनमानुष जैसा नहीं लगता था।
डार्ट ने उसे ' आस्ट्रेलोपिथीकायस एफ्रीकास्ल ' का नाम दिया यानि ' अफ्रीका का दक्षिणी बनमानुष '। 1925 में उन्होंने इसका विस्तृत वर्णन छापा और उसे बनमानुष और मनुष्य के बीच की कड़ी बताया।
उस समय लोग ' जावा-मैन ' के ऊपर लड-झगडु रहे थे अरि डयूबौह ने अपनी खोजी हड्डियों को किसी को दिखाने से मना कर दिया था। तब तक ' पीकिंग-मैन ' का सिर्फ दांत मिला था। उस समय लोग डार्ट के कथन को मानने को तैयार नहीं थे।
डार्ट का वर्णन पढ़ने के बाद तमाम विशेषज्ञों को वो एक युवा बनमानुष लगा - जो मनुष्य की अपेक्षा गोरिल्ला या चिंपाजी से ज्यादा मिलता-जुलता था।
फिर दस साल तक और कुछ प्रगति नहों हुई। किसी अन्य होमोनौइड के अवशेष नहीं मिले।
पर एक व्यक्ति ने डार्ट के कथन को स्वीकार किया। वो थे स्काटिश जीवाश्म-शास्त्री रार्बट लूम ( 1866 - 1951)। 1934 में डार्ट द्वारा खोजे जीव की अन्य हड्डियों को ढूंढने के लिए लूम खुद दक्षिणी अफ्रीका गए।
जोहैनसका के पास ही चूना पत्थर की गुफाएं थीं और उनमें एक बबून की हड्डियों के जीवाश्म अवशेष भी मिले। 1936 में लूम खुद गुफाओं में गए और वहां उन्हें एक व्यस्क ' आस्टेरलोपिथीकायस ' की खोपडी का एक जीवाश्म मिला। दो बरस तक वो चूना पत्थर की ब्लास्टिंग पर नजर रखे रहे। हर कुछ दिनों में कोई रोचक जीवाश्म निकल कर आता - जैसे जांघ की हड्डी का जीवाश्म। फिर उन्हें एक स्कूल का छात्र मिला जिसे एक दूसरे स्थान पर जीवाश्म मिले थे। वहां जाने पर उन्हें एक बड़ा जबड़ा और खोपडी मिली।
यह नया जीवाश्म जिस जीव का था वो डाट के जीव से बड़ा था। लूम ने उसका नाम ' पैराथोपस ' दिया। उसका अर्थ होता है ' मनुष्य से मिलता-जुलता '। लूम को यह जीव मनुष्यों से अधिक और बनमानुषों से कम मिलता-जुलता दिखा। तब तक ' जावा-मैन ' को स्वीकारा जा चुका था और ' पीकिंग-मैन ' की खोज हो चुकी यो इसलिए वैज्ञानिक कुछ अन्य पूर्व होमोनौइड्स को स्वीकार ने के लिए भी तैयार थे। द्वितीय महायुद्ध की वजह से काम कुछ रुका। पर युद्ध के बाद लूम फिर काम पर लग गए और अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने कई और जीवाश्म खोजे। उनमें से कई ' पैराथोपस ' जैसे बडे और कुछ ' आस्टेरलोपिथीकायस ' जैसे छोटे थे।
आज उन्हें एक ही जीनस का सदस्य माना जाता है। पर वे ' होमो ' जीनस के
नहीं हैं।
' पैराथोपस ' और ' आस्ट्रेलोपिथीकांथस ' ' होमो ' जीनस के न होने के बावजूद फिर भी होमोनौइड्स तो हैं। उनके दांत) बनमानुषों की अपेक्षा मनुष्य से कहीं ज्यादा मिलते हैं। और उनके कूल्हे की हड्डी से साफ लगता है कि वे भी मनुष्यों जैसे सीधे खडे होकर चल पाते होंगे।
उनका आकार कुछ छोटा था। ' पैराथोपस ' शायद ' होमो-इरेक्टस ' जितने ऊंचे हों पर ' आस्ट्रेलोपिथीकांथस ' केवल चार-फीट ऊंच थे और उनका मस्तिष्क वर्तमान मनुष्य के मस्तिष्क का सिर्फ आधा था। असल में ' आस्ट्रेलोपिथीकांथस ' का मस्तिष्क आज के गुरिल्लों से बड़ा नहीं था।
पर फिर भी ' आस्ट्रेलोपिथीकांथस ' पत्थर के सरल औजार निर्माण कर पाता था जो गुरिल्ले नहीं कर पाते। ' आस्ट्रेलोपिथीकांथस ' का मस्तिष्क एक बहुत छोटे शरीर को नियंत्रित करता था जबकि उसकी तुलना में गुरिल्लों का शरीर बहुत बड़ा होता है। यह सम्भव है कि ' आस्ट्रेलोपिथीकांथस ' के मस्तिष्क में सोच-विचार के लिए अधिक स्थान हो क्योंकि उसे शरीर के नियंत्रण के लिए कम दिमाग की जरूरत पड़ती।
' आस्टेरलोपिथीकायस ' ' पैराथोपस ' की अपेक्षा देखने में अधिक मनुष्य जैसा लगता था। यह भी सम्भव है कि ' होमो-हिबैलिस ' ' आस्टेरलोपिथीकायस ' से विकसित हुए हों और ' पैराथोपस ' उनकी कोई कड़ी हो जो बिना कोई संतान छोड़े लुप्त हो गई हो।
' आस्टेरलोपिथीकायस ' का उद्गम आज से 4० -लाख साल पहले हुआ। वो 5 -लाख वर्ष पहले तक जीवित रहे और तब उन्हीं की कुछ प्रजातियों से ' होमो-हिबैलिस ' कै ' होमो-इरेक्टस ' का उद्गम हुआ।
मनुष्य के पूवर्जों को खोजने का काम एकदम आसान न था। कई बार गलत रास्तों पर भटकना भी पड़ता था।
1935 में कौयनिगवाल्ड ( जो ' जावा-मैन ' के अवशेषों को खोजने दुबारा जावा वापस गए थे) को हांगकांग में एक दवा दुकान में चार रोचक दांत दिखे। देखने में वे बिल्कुल मनुष्य के दांत लगते थे पर उनका आकार बड़ा था।
उससे पहले सभी होमोनौइड्स ' होमो-सेपियन्स ' से छोटे थे। शायद ' होमो-सेपियन्स ' से बडे होमोनौइड्स भी रहे हों? वैसे बाईबिल के साथ-साथ सभी मिथकों में दानवों और दैत्यों का उल्लेख है। दैत्यों को हमेशा बेवकूफ और बुद्ध समझा जाता है। इसलिए यह सम्भव है कि उनके शरीर बडे हों और मस्तिष्क छोटे।
कौयनिगवाल्ड ने उस प्राणी का नाम ' जायजैंटोपियस ' यानि ' बड़ा बनमानुष ' रखा। बीस साल तक लोग ' जायजैंटोपियस ' के बारे में अचरज करते रहे फिर चीनी वैज्ञानिकों ने सभी दवाई की दुकानों में उसकी अन्य हड्डियों की खोज की। इसमें उन्हें कई अन्य दांत और निचले जबड़े मिले।
दरअसल ' जायजैंटोपियस ' के नाम का अर्थ बिल्कुल सटीक था। वो होमोनौइड नहीं था बल्कि बहुत विशाल 9 -फीट ऊंचा बनमानुष ( ऐप था। ' जायजैंटोपियस ' के दांत मनुष्यों जैसे थे परन्तु उसका जबड़ा बिल्कुल बनमानुष ऐप जैसा था।
शायद ' जायजैंटोपियस ' कोई एक-लाख साल पहले लुप्त हुए हों और उसी समय होमो-सेपियन्य का उद्गम हुआ हो। शायद ' जायजैंटोपियस ' के कारण ही दैत्यों के बेवकूफ होने की बात ने इस मिथक को जन्म दिया हो।
परन्तु ' जायजैंटोपियस ' होमोनौइड नहीं थे। आज तक पाए जाने वाले सबसे ऊंचे होमोनौइड्स होमो-सेपियन्स ही हैं।
' जायजैंटोपियस ' से भी ज्यादा रोचक खोज 1911 में पिल्टडाउन इंग्लैण्ड में एक वकील चार्ल्स डौसन ( 1864 - 1916) ने की। उन्हें एक खोपडी और निचला जबड़ा मिला। खोपडी मनुष्य की लगती थी और दांत बनमानुष ऐप के। उसे ' ईऐनश्रोपस ' या फिर ' पिल्टडाउन-मैन ' बुलाया गया।
चालीस साल तक जीवाश्म-वैज्ञानिक उसके बारे में मनन-चिंतन करते रहे। पूर्वजों के पेड की किस शाख पर उसे टांगे इस पर वो सोच-विचार करते रहे। बाकी होमोनौइड्स में जैसे-जैसे खोपडी मनुष्य जैसे होती गई वैसे-वैसे जबड़ा भी मनुष्य जैसा होता गया। मनुष्य की खोपडी और बनमानुष के जबड़े वाला होमोनौइड एक अपवाद था।
और 1953 में वो गलत और झूठ साबित हुआ। जांच के बाद वो नकली निकला। खोपडी जरूर मनुष्य की थी पर बनमानुष के बडे दांतों को रेती से घिस कर खोपडी में फिट किया गया था।
शायद 1911 में सही और गलत के बीच अंतर करना मुश्किल होता। क्योंकि तब तक वैज्ञानिक होमोनौइड्स के बारे में बहुत कम ही जानते थे।
5. कैसे शुरुआत हुई
अभी तक हमनें कोई महत्वपूर्ण लापता-कड़ी का जिक्र नहीं किया है। सबसे पहले पाए जाने वाले होमोनौइड्स ' आस्टेरलोपिथीकायस एफ्रीकास्ल ') ' होमो-सेपियन्स ' से ज्यादा मिलते-जुलते थे और बनमानुषों से कम। जहां तक ' जायजैंटोपियस ' की बात है वे बनमानुषों से ज्यादा मिलते थे और ' होमो-सेपियन्स ' से कम। और
' पिल्टडाउन-मैन ' शायद कभी था ही नहीं।
' आस्टेरलोपिथीकायस ' जब अफ्रीका के जंगलों में होगा उस समय वहां पर गोरिल्ले और चिंपैंजी भी अवश्य होंगे। क्या इससे भी पहल कोई प्राणी होगा जो इन सबका पूवर्ज हो। अगर हां) तो वही असली लापता-कड़ी होगी जो गोरिल्ले चिंपैंजी और होमोनौइड्स का पूर्वज होगा।
1934 में अमरीकी जीवाश्म-वैज्ञानिक जी एडवर्ड लूइस) उत्तर भारत की प्राचीन शिवालिक पहाड़ियों में खोजबीन कर रहे थे। वहां उन्हें कुछ दांत और एक जबड़ा मिला। यह जीवाश्म उन पत्थरों में धंसे थे जो ' आस्टेरलोपिथीकायस ' से भी बहुत प्राचीन थे। वो जिस भी प्राणी के दांत थे वो कम-से-कम 7० -लाख और अधिक-से- अधिक 14० -लाख साल पुराना था।
लूइस ने उसका नाम ' रामापिथिकस ' यानि ' राम का बनमानुष ' रखा। भारत में राम हिंदुओं के प्रमुख भगवान हैं। क्योंकि जीवाश्म भारत में मिला इसलिए यह नाम उपयुक्त भी था।
लूइस को लगा कि दांत छोटे होने के कारण वे किसो बनमानुष के नहीं होंगे। वैसे ' रामापिथिकस ' भोजन को अपने हाथों से पकड़ता था। इसलिए उसे लगा कि ' रामापिथिकस ' को एक होमोनौइड मानना चाहिए। परन्तु उस समय के अन्य जीवाश्म-वैज्ञानिक उसके मत से सहमत नहीं थे।
पर 1961 में लीकी को ' रामापिथिकस ' जैसे दांत कनया) अफ्रीका में मिले। कुछ अन्य दांत और जबड़े भी मिले परन्तु शरीर की कोई हड्डी नहीं मिली।
जो भी सबूत और प्रमाण आजतक मिले हैं उनसे जीवाश्म-वैज्ञानिकों को लगता है कि लूइस की बात ठीक थी। ' रामापिथिकस ' एक छोटा होमोनौइड था और वो ' आस्टेरलोपिथीकायस ' से भी प्राचीन था और वो सीधा चल पाता था। वो शायद सबसे प्राचीन होमोनौइड था और शायद सबसे पहला भी।
और बनमानुषों ऐप्स के पूर्वजों का क्या? मैंने ' जायजैंटोपियस ' का उल्लेख किया है - वैसे वो कब का लुप्त हो चुका है पर वो बनमानुषों का पूर्वज नहीं है।
पूर्वजों को खोजने के लिए हमें उससे भी पीछे जाना होगा।
लूइस लीकी और उसकी पत्नी जब पूर्वी अफ्रीका के लेक विक्टोरिया के पास खुदाई कर रहे थे तब उन्हें कुछ हड्डियां मिलीं जो निश्चित ही लुप्त बनमानुषों की थीं।
उसमें कोई विवाद की बात नहीं थी क्योंकि उनके जबड़े और दांत बिल्कुल बनमानुष जैसे थे।
लंदन के चिड़ियाघर में एक बहुत लोकप्रिय चिंपैंजी था उसका नाम था ' काऊंसिल '। इसलिए लीकी ने अपनी खोज को ' प्रोकाऊंसिल ' नाम दिया। उसका अर्थ हुआ ' काऊंसिल से पहले '। ' प्रोकाऊंसिल ' की बहुत सारो हड्डियां मिलीं और फिर लगभग पूरा कंकाल मिला जिससे जीवाश्म-वैज्ञानिक अच्छी प्रकार देख सके कि वो वर्तमान के बनमानुषों से कितना अधिक पुराना था।
' प्रोकाऊंसिल ' प्राचीन बनमानुषों के एक जीनस का सदस्य हैं जिन्हें ' ड्राईओपिथिकस ' यानि ' ओक ट्री ऐप ' कहते हैं। यह नाम इस लिए दिया गया क्योंकि उनके जीवाश्म) ओक पेड के जीवाश्मों के साथ मिले थे।
' ड्राईओपिथिकस ' शायद तभी भी पेडों पर रह रहा था और उसने सीधे चलना नहीं सीखा था। 1856 में ' ड्राईओपिथिकस ' की पहली हड्डियां फ्रांस में मिलीं थी। पर अब उनके काफो जीवाश्म पूर्वी अफ्रीका में मिले हैं।
' ड्राईओपिथिकस ' की कई प्रजातियां थीं - कुछ बहुत छोटी और कछ गोरिल्लों जितनी बड़ी। उनकी सबसे पुरानी प्रजातियां कोई 25० -लाख साल पहले उपजी होंगी।
' ड्राईओपिथिकस ' आज के चिंपैंजी और गोरिल्लों का पूर्वज लगता है। पर अभी भी प्रश्न है कि क्या उससे ही ' रामापिथिकस ' उपजा) और क्या ' रामापिथिकस ' वो लापता-कड़ी है जो बनमानुषों और मनुष्यों को आपस में जोड़ती है।
जीवाश्म-वैज्ञानिक इसके बारे में पक्की तौर पर कुछ नहीं कह सकते हैं। इसके लिए ' रामापिथिकस ' के पूरे शरीर क जीवाश्म चाहिए होंगे। तभी यह बात निश्चित तौर पर पक्की होगी।
मिस्त्र में भी 400 -लाख पहले के जीवाश्म मिले हैं जिनसे लगता है कि उस काल में भी बनमानुष जैसे जीव थे। उनमें से एक है ' इजिप्टोपियिकस ' या ' ईजिप्ट का ऐप '। अगर ' ड्राईओपिथिकस ' होमोनौइड्स और अफ्रीकी बनमानुष का सांझा पूर्वज नहीं था तो ' इजिप्टोपियिकस ' या और कोई प्राणो जरूर रहा होगा।
मनुष्य का जीवन कैसे शुरू हुआ उसे संक्षिप्त में हम इस प्रकार लिख सकते हैं। 700 -लाख वर्ष पूर्व डायनोसौर के लुप्त होने के बाद बंदर जैसे जीव कछ प्राचीन प्राणियों से विकसित हुए। वो देखने में आज के ' लेमर ' जैसे होंगे।
400 -लाख वर्ष पूर्व इन बंदर जैसे जीवों की पूंछ लुप्त हुई होगी) उनका मस्तिष्क विकसित हुआ होगा और उन्होंने हाथ से काम करना सीखा होगा जिससे उन्होंने बनमानुष ऐप का रूप लिया होगा।
इनमें से धीरे- धीरे कुछ बनमानुष दक्षिणी और पूर्वी-एशिया में गए होंगे और वहां पर गोरिल्लों और चिंपैंजियों के रूप में विकसित हुए होंगे।
आज से 200 -लाख वर्ष पूर्व ' ड्राईओपिथिकस ' प्रजाति ने विकास की एक नई दिशा ली होगी। उनके दांत और जबड़े छोटे और उनकी हड्डियां पतली बनी होंगी।
क्योंकि उनके दांत और जबड़े छोटे थे इसलिए ' ड्राईओपिथिकस ' प्रजाति के प्राणियों को भोजन हाथ से पकड़कर मुंह तक लाना पड़ता होगा।
जब सूखे मौसम के कारण जंगल नष्ट हो गए होंगे तो उन्हें मजबूरन पेड से नीचे उतरना पड़ा। उनके कूल्हे की हड्डी इस प्रकार विकसित हुई होगी कि अब वो घास पर सीधा खडे हो सकते होंगे और वो हर समय अपने हाथों का उपयोग कर सकते होंगे।
क्योंकि वो हर समय अपने हाथों से चीजें छूते) उन्हें उठाते और इधर-उधर ले जाते थे) उन्हें तोड़कर जोड़ सकते थे। तो इन क्रियाओं से उनका मस्तिष्क उत्तेजित हुआ होगा और धीरे- धीरे उसका आकार बढ़ा होगा।
हाथ का उपयोग करने वाले और सीधे खडे होने वाले सबसे पहले होमोनौइड्स थे। उनका उद्गम 200 -लाख वर्ष पहले हुआ होगा।
हमारी खोज के हिसाब से ' रामापिथिकस ' शायद पहले होमोनौइड थे जिनका उद्गम पूर्वी अफ्रीका में हुआ। फिर करीब 1०० -लाख वर्ष पहले वे एशिया में फैल गए। अफ्रीका में ' रामापिथिकस ' का मस्तिष्क और उसका आकार दोनों बडे हुए और करीब 4० -लाख वर्ष पूर्व ' आस्टेरलोपिथीकायस ' विकसित हुआ।
इसके बाद से शरीर और मस्तिष्क के विकास की प्रक्रिया सतत जारी रही। इससे करीब 2० -लाख वर्ष पहले सबसे पथम होमोनौइड्स का उद्गम हुआ। उनका ढांचा मनुष्यों से बहुत कुछ मेल खाता था और उन्हें ' होमो ' जीनस में रखा गया। इस प्रकार सर्वप्रथम ' होमो-हैबैलिस ' की उत्पत्ति हुई। अब तक होमोनौइड्स का मस्तिष्क काफी बड़ा हो गया था। किसी भी काल के बनमानुषों का मस्तिष्क इतना बड़ा कभी नहीं था। वैसे आज के मनुष्य की तुलना में यह मस्तिष्क छोटा था।
15 -लाख वर्ष पूर्व ' होमो-इरेक्टस ' का उद्गम हो चुका था। वे एशिया) चीन और इंडोनेशिया में भटके और वहां पर ' जावा-मैन ' और ' पीकिंग-मैन ' के नमूने मिले।
1० -लाख सालों तक होमो-इरेक्टस के मस्तिष्क का लगातार विस्तार होता रहा और उसने आग का उपयोग करना सीखा। डेढ़-लाख वर्ष पहले मस्तिष्क का आकार इतना बड़ा हो गया था कि अब हम उसे ' होमो-सेपियन ' मान सकते थे।
सबसे पुराना ' होमो-सेपियन ' नियनडरथल-मैन था। पर करीब 5० ,0० ० वर्ष पहले ' क्रोमैनयॉन-मैन ' का उद्गम हुआ और उसके बाद से विकास की प्रगति काफी तेजी से हुई।
आज से 1००० साल पहले ' होमो-सेपियन ' ने फसलें उगाना) जानवर पालना और शहर बसाना सीखा और तबसे सभ्यता की शुरुआत हुई। आज से 5०० साल पहले लिखाई का आविष्कार हुआ और उसके बाद से इतिहास की रचना शुरू हुई। 400 वर्ष पहले आधुनिक विज्ञान का पर्दापण हुआ और 200 साल पहले औद्योगिक क्रांति का आगमन हुआ।
वैसे हम अभी भी अपनी जड़ों को तलाश रहे हैं!
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