सप्ताह की कविताएँ

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होलियाना कविताएँ                         सावित्री काला                "  होली का  हुड़दंग होली के हुड़दंग पर डाले हमने सभी रंग | पर ह...

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होलियाना कविताएँ          

            

सावित्री काला      

        
"  होली का  हुड़दंग


होली के हुड़दंग पर डाले हमने सभी रंग |
पर हो न सकी मेरे विश्वामित्र की तपस्या भंग |
वे तो डोलने लगे मेरी ही पड़ोसिन के संग |
जब पी उन्होंने घोंट घोंट कर लोटा भर के भंग |
एक दिन छत पर खड़ी थी वह नाइन |
हमने पूछा कौन है ?
वे मुस्करा कर बोले मेरी वैलंटाइन |
हमने उस दिन खूब श्रृंगार किया |
उसी पड़ोसिन को साथ लिया |
ये तो थे नशे में चूर |
पड़ोसिन को खिलाते रहे लड्डू मोतीचूर |
वैसे तो मोहल्ले में इनकी इश्क बाजी की चर्चा थी |
हम ही नहीं समझ पाये इनकी क्या इच्छा थी |
हमें लोगों ने बहुत समझाया |
विश्वामित्र की इश्क बाजी से आगाह कराया |
सभी पूछने लगे आये गए |
तुम्हारे पति तुम्हारी ही पड़ोसिन के साथ किधर गए |
तीन दिन के बाद विश्वामित्र जी घर जब लौटे |
तो हाथ में था एक मोटा सा सोटा
तथा एक हाथ में था ताम्बे का लोटा |
साथ में था उसी पड़ोसिन का
बेटा जो था माँ की तरह ही खोटा |
उनको देख कर मेरा कुत्ता गुर्र्या |
उन्हें काटने को दौड़ा दौड़ा आया |
मैंने बड़े प्यार से उसे समझया |
मेरा बेटा उसे जंजीर से बांध आया |
ऐसी होली हमने उस वर्ष मनाई |
विश्वामित्र को दारू न पीने की कसम खिलवाई |
कुछ दिनपास के डाक्टर से  दवाई भी दिलवाई|
तब ही किसी तरह बचा पाई मैं अपना हलवाई |
ऐसा ही होता है होली में हुड़दंग  |
सभी हो जाते हैं इसमें बदरंग |
रंगो को भी कर देते हैं बैरंग |
नाचते हैं पड़ोसियों की औरतों के संग |
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प्रमोद यादव


             होली में.../ 
                 
              बीबी बोली क्या करोगे इस होली में
              उसने कहा भांग पियेंगे बस होली में

              बोली वो करते हो तुम ये हर होली में
              क्या कुछ नया नहीं करोगे इस होली में

              क्या  नया  और  क्या पुराना  होली  में
              जब तुम हसीं और मैं जवां हर होली में 

              पहले  करते थे प्यार बहुत  होली में
              शादी हुई कंजूस हो गए अब होली में

              तब प्रियतम होती थी तुम हर होली में
              अब लगती थानेदार तुम सब होली में

              डरते हो तो मानो बात तुम होली में
              पहले जैसे अंग लगा लो इस होली में
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संजय परसाईं ‘सरल’


रिश्तों के धागे

रिश्तों के धागे
होते हैं मजबूत
लेकिन
जब लगती है
जरा-सी ठेस
तो
देर नहीं लगती
चटखने में
तब होता है
अहसास
कि
आस्तीन में ही
नहीं पलते सांप
रिश्तों में भी
पलती है दीमक
जो ऊपर से/तो
आवरण को
बनाए रखती है सपाट
लेकिन
जब लगती है ठेस
तो चटख जाते है
रिश्तों के धागे
ढह जाती है
विश्वास पर खड़ी
ईमानदारी व
नेकनीयती की दीवारें
और
शेष रह जाता है
केदार के मलबे
सा ढेर...।

 

संजय परसाईं ‘सरल’
118, शक्ति नगर, गली नं. 2, रतलाम
मो.नं. 9827047920

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अमित कुमार सिंह


रंगबिरंगी-होली
रंगबिरंगी जिंदगी नादान था,

अपने ही रंग से

अपने ही कूचे से

तुझे उकेरने की विफल

कोशिश करता रहा,

कुछ रंगों से रास रचाता,
कुछ रंगों से
रंज करता,

कुछ रंग,

रंग जमा जाते,

कुछ रंग,

रंग उतार जाते,

कुछ रंग,

रंगारंग कर जाते,

कुछ रंग,

बेरंग कर जाते,
जब जाना,
जब माना,

जब पहचाना,

सारे रंग तेरे ही थे,

तब हर दिन
होली होती है-2


AMIT KUMAR SINGH
ASSISTANT PROFESSOR
R.S.M. (P.G.)  COLLEGE
DHAMPUR (BIJNOR)-246761
U.P.


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विजय वर्मा


फिर से
 
 
फिर से
महुआ के पेड़ों पर
फूल खिलेंगे ।
धरती-आकाश में
चारों तरफ
मीठी -मीठी  सौंधी-सी
खुशबू तैरेगी ।
महुआ खाकर
गईया बौराएगी ,
लेकिन इस साल
'महुआ ' नहीं आएगी।
 
इस साल
महुआ चुनने
'महुआ' नहीं आएगी।
 
पिछले बरस
ठेकेदार बाबू ने
उसे रात में बुलाया था ,
उसके बाद उसे
उसके माँ-बाप को
नहीं लौटाया था।
 
बाप की चमड़ी
झूल गयी है.
 
माँ की आँखें रोते -रोते
फूल गयी है।
 
लोग कहते है
जैसे  महुआ के पेड़ों पर
फूल आते है,
वैसे ही
महुआ की गोद में
'एक फूल ' आएगा ।
 
कुछ दिनों तक बस्तीवाले
हाय-तौबा मचाएंगे,
फिर धीरे-धीरे इन बातों को
लगभग  भूल जाएँगे ।
 
सरल-सहज जीवन इनका
हमसब को प्यारा  कब होगा ?
राम जाने इस बस्ती में
उजियारा कब होगा  ?
 
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   दिनेश चौहान

            
मां सरस्वती वन्दना
हंस पे सवार होके आजा हंसा वालिए
सोए हुए बुद्धि जगा जा हंसा वालिए-1
हंस पे सवार होके आजा हंसा वालिए
हंसा वालिए मां वीणा वालिए

श्वेत कमल में मात विराजे
श्वेत वसन में तू ही साजे
हे सरस्वती शारदा मइया
कर में सुमधुर वीणा बाजे
वीणा की तान सुना जा हंसा वालिए। हंस पे...

तू भक्तों की बुद्धि संवारे
अज्ञानी को तू ही तारे
तेरी कृपा जो मिल जाए मइया
छंट जाए सारे अंधियारे।
रोशनी अंधेरे में दिखा जा हंसा वालिए। हंस पे...

सारे जग में प्रीत जगा दे
बैर भाव को जड़ से मिटा दे
तू चाहे तो पल में मइया
इस धरती में स्वर्ग सजा दे
धरती को स्वर्ग बना जा हंसा वालिए। हंस पे...

                            दिनेश चौहान
                        छत्तीसगढ़ी ठिहा, नवापारा-राजिम
                        dinesh_k_anjor@yahoo.com

 

 
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नन्द लाल भारती


बदनसीब कल का महान  /

 
अपनी जहां में नसीब क्या है
दैवीय चमत्कार में रंगा
एक आतंक
रूढ़िवादिता के यौवन में
मौंका,कर-श्रमफल ठगने का उपाय
बुध्दिहीन मानकर,कुबुध्दि का प्रदर्शन
नसीब तो कर्म-श्रम से सजती है ………
अपनी जहां में नसीब के रूप निराले
विषधर जैसे फुफकारते गोर-गोरे
पसीना बहाते आंसू से रोटी गीली करते
माथे पर चिंता के पहाड़ थामे
पेट पीठ से चिपकाए
लवाही जैसे सूखे काले काले  ………
अपनी जहां में
कर्म-श्रमफल ठगा गया
हक़ पर डांका  डाला गया
आदमी को अछूत तक बनाया गया
ठगी का इल्जाम
नसीब के  माथे मढ़ा गया
नसीब का क्यों और कैसा दोष
दोषी तो वह नरपिशाच
जो जीते हुए को सर्वहारा बना दिया
नसीब को बदनसीब बना दिया
काश बदनसीबों को
समानता का मौंका मिल गया होता
उजड़ी नसीब का सूर्योदय हो गया होता
अरे अपनी जहां वालो
आज का बदनसीब कल का महान है
वही इस जहां कि  पहचान है.

..................

 

 

 

अभ्युदय
अपनी जहां स्वर्ग की कोई बस्ती होती
गर अपनी जहां,
मुर्दाखोरों की हस्ती ना बनी होती।
आदमी को बदनसीब बनाने के लिए
मुर्दाखोर किस्म के लोग
अमानुषता जातिवाद-धर्मवाद जैसे
धारदार औजारों का करते उपयोग ।
मुर्दाखोर आदमियत के  दुश्मन
हर तरकीबें
अपनाते बदनसीब बनाने के लिए
हर हाल में स्वंय जीत पक्की  लिए ।
अपनी जहां का
श्रमवीर-कर्मवीर बदनसीब ना होता
अपनी जहां में
गर भेदभाव का धारदार औजार  होता। 
अपनी जहां की  बदनसीबी का तंज
छुआछूत जातिवाद का सिसकता रंज   ।
काश अपनी जहां के लोगो ने
बदनसीबी के कारणों को ,
नकार दिया होता
अरे  अपनी जहां वालों ,
अपनी जहां की नसीब का
अभ्युदय युगों पहले हो गया होता ………
डॉ  नन्द लाल भारती
03.03.2015   

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       प्रदीप तिवारी


       ये न पूछो कि क्यों परेशां हूँ मैं
      ये क्या कम है कि इक इन्शा हूँ मैं।

    जाल है माना मगर है दाना भी
    बाप हूँ पहले फिर परिंदा हूँ मैं।

    वो ही पूछेंगे मेरे मरने की वजा
      वो जो कहते हैं कि बेवज़ा हूँ मैं।

    साथ होता नहीं कभी तो खुद का भी
    क्या बताऊँ किस कदर तन्हा हूँ मैं।

    अपनी बनती नहीं झूठ से दिखावे से
    कोई मैकप नहीं हूँ आइना हूँ मैं।

    सूखता ही नहीं आँखों का पानी कभी
    मैं समंदर हूँ झरना हूँ कि दरिया हूँ मैं।

    वही बेरूखी वही गिले वही शिकवे
    मुझको लगता है अब भी जिन्दा हूँ मैं।

      खुद को छाँटेगा तो खुद को खो देगा
    उसमें शामिल कुछ इस तरहा हूँ मैं।

    एक हुनर है गुरूर है गुनहगारी अब
    शर्म आती है कहते बेगुना हूँ मैं

      शौक-ए-बाजार और ये बेकारी
    चीजें महंगी हैं कि सस्ता हूँ मैं।

 

 

नाम                -        प्रदीप तिवारी
जन्म     -    10.08.1988
जन्म स्थान    -    दमोह (म.प्र.)
शिक्षा    -    बी.ई (सिविल), एम.टेक
भाषा    -    हिन्ही, उर्दू, अंग्रेजी, बुन्देलखण्डी
लेखन    -    गजल, कहानी, कविता ;स्वतंत्र लेखनद्ध
                                                                                        pradeept_2007@yahoo.co.in

 

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अंजलि अग्रवाल


मुरझाये फूल हैं हम...
इस दुनिया में सबसे अकेले हैं हम..
याद नहीं की कब हँसे थे हम...
बस आँखों में नमी लिये चल रहे हैं हम...
पूरी जिन्दगी लगा दिया अपना घर बनाने में...
और आज अपने ही घर में किरायेदार बन गये हैं हम....
मानो जैसे कटघरे मे खड़े हो हम...
आज पता चला कि अपने लिये तो जीना ही भूल गये हम...
अजनबी सा लगता हैं अब ये जमाना...
किस्से कहें अपना ये फसाना....
अब तो हर पल इंतजार करती हैं ये बूढ़ी आँखें ,मौत का...
जैसे पंछी इंतजार करते है बसंत ऋतु का..
बस हर पल यही सोचता है दिल...
मेरे बच्चों की जिन्दगी में कभी न आये ये दिन...
लड़खड़ाती जिन्दगी कहीं गुम हो रही है...
जिन्दगी में आज साथी की कमी महसूस हो रही है...
बुढ़ापा जिन्दगी का सबसे बड़ा संघर्ष है...
और  साथी न हो तो ये अभिशाप है
खामोशी से दोस्ती हो गयी हैं...
जिन्दगी तो यादों में सिमट गयी हैं..
आज अपनों की कमी हो गयी हैं..
बुढापे की काली चादर ओढ़े बैठे हैं हम..
बारिश की बून्दों का इंतजार करते हैं हम...
मुरझाये हुए फूल हैं हम...


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रामजी मिश्र 'मित्र'


(स्वतंत्र पत्रकार, आर. टी. आई. कार्यकर्ता)
(यह कविता सत्यावलोकित घटना पर आधारित है। इसमें मासूम बच्चे का वह दृश्य है जिसमें उसे अपने पिता के खोने का दर्द है। वह मात्र 6 वर्ष की बालिका है उसका एक भाई जो चार वर्ष का। वह दोनों अपने माँ के दुःख को देख के भी आहत होते रहते हैं। वह अपना दुःख टूटी फूटी भाषा में डायरियों के पन्नों में लिखती है। शायद वह अपने दुख को उन पन्नो मे ही साझा करना चाहती है, संभव यह भी है की उसके मनोवेगों को और कोई इतनी कोमलता से सहेज न पाये अतः औरों पे उसे विश्वास न हो। उनकी वेदना प्रकटीकरण का शायद यह सर्वोत्तम माध्यम बन गया है। हालांकि मैं कविता लिखने में रुचि नहीं रखता पर विवश हो गया एक ऐसे मासूम की डायरी पढ़ कर। मेरा उद्देश्य है अगर आपके आस पास ऐसे कोई बच्चे हो तो उन्हें आप समझ सकें। इस कविता में मैंने बच्चे के यत्र तत्र उन्हीं वाक्यों का प्रयोग किया है ....)

पापा मेरे कहाँ गए तुम..........................
पापा मेरे कहाँ गए तुम, माँ देखो रहती है गुमसुम।
आता याद मुझे वह मंजर, तुम शांत से थे पड़े भूमि पर।
एक फ्रेंड थी मुझे जानती, वह थी मुझे बहुत मानती।
पापा मेरे सुई लगते, मुर्दे भी जिंदा हो जाते।
ऐसा वह कहा करती थी, मुझसे थोड़ा डरा करती थी।
यह बात बताई मैंने सबको, पर पापा की थी चिंता किसको?
पापा मेरे कहाँ गए तुम। माँ देखो रहती.........
मेरे घर में भीड़ लगी थी, पर पापा की वह नहीं सगी थी।
माँ तो केवल चीख रही थी, वह तो सुनती सीख नहीं थी।
मैं बार बार दोहराता था, कान में उनके कह आता था।
माँ ! लेकर भाग चलो पापा को, बिलकुल फिकर नहीं बाबा को।
माँ ! हम सब कानों सुन आए है, यह लोग जलाने आए है........यह लोग जलाने आए है ....
माँ सुनती फिर रोती... फिर ले गोदी... फिर फिर रो देती ।
पापा मेरे कहाँ गए तुम , माँ देखो रहती है गुमसुम।
तुम रोज स्कूल में आते थे, छुट्टी में ले जाते थे।
अब कौन वहाँ पर आएगा? अब कौन लंच दे जाएगा?
पर मुझको अपनी फिकर नहीं है, माँ की चिंता कसक रही है।
चुपके से रोती है दिन भर, नहीं शांत वह रहती छन भर।
पापा मेरे कहाँ गए............................................
जब जब होती बारिश दिनभर, सोचूं पापा आएंगे भीगकर।
पर सबके पापा आ जाते हैं, अपने बच्चो को दुलारते है।
खिड़की से ध्यान लगाती हूँ, पापा अब तो भीगते होंगे सोच सोच डर जाती हूँ।
पापा मेरे...................
अब टाफी कौन लिवाएगा, अब कौन हमें दुलराएगा।
भूख नहीं लगती है मुझको,इन हाथों दूध नहीं पी पाऊँगा।
पापा बस जल्दी आ जाओ ,और नहीं जी पाऊँगा।
    --                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   
 
नरवस भगवान

अरे तुम कौन जो लोगों को मारकर धर्म निभा रहे हो,
ओह! अब समझा,
हे भगवान! मैं तुम्हे वैसे ही पूजता,
ठेकेदार भेजने की जरुरत क्या थी?
मैं सब दुःख उठा लूँ ,
मेरी पीढ़ी बचा ले,
लेकिन तुम तो नरवस हो
अब मामला ठेकेदारों के हाथ में है।
तुमने ये ठेकेदारी इंसान को क्यों नहीं दी,
ऐसा तो नहीं ये हक़ तुमसे उसने छीन लिया हो।
ए ठेकेदार,
तुम्हे मुझे मारकर जन्नत मिलेगी,
थोड़ा सा रुक के मार देना मुझे,
अभी मारकर मेरे बचपन की जन्नत तो न छीनो।
ऊचे ओहदे के हे ठेकेदार!
तुम्हे सब माफ़ है,
गरीबी के लिए लड़ो या न लड़ो,
परहित के लिए मरो या न मरो,
दस बीस भगवानों के कुनबे के चार चार आदमी जरूर मारना,
तुम्हारी इस वीरता से वो काँप जायेगा,
ठीक वैसे ही जैसे इंसानियत काँपी है।
वो जो ऊपर बैठा इंसानो का नाम का मसीहा है,
तुम्हारी इस ठेकेदारी से डरकर,
इंसानो और असहायों का खून बहाने पर,
विवश होगा स्वर्ग का सुख देने के लिए।
पत्राचार का पता- रामजी मिश्र 'मित्र' (स्वतंत्र पत्रकार) ग्राम व पोस्ट- ब्रम्हावली ब्लाक-महोली जिला-सीतापुर पिन-261141
योग्यता- हिंदी में एम् ए,बी.एड., उर्दू में अदीब व माहिर, आई टी।
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देवेन्द्र सुथार


आया फागुन

आया फागुन बज उठे ढोलक ढोल मृदंग
मन जैसे सागर हुआ धड़कन हुई तरंग।
रस की इस बौछार मेँ घुले न कपट कुढंग
रिश्तोँ को निगले नहीँ कहीँ जलन की जंग।
इठलायेँ अठखेलियाँ मचलेँ मौन उमंग
साँसोँ मेँ सजते रहे अरमानोँ के रंग ।
टूटी कडियाँ जोड लेँ और बढे सब संग
बेगानोँ को भी चलेँ आज लगा ले अंग।
बाहोँ के घेरे अगर हुए न अब भी तंग
फिर कैसा किसके लिए होली का हुडदंग

--
आज बिछुड़ गया मुझसे मेरा स्कूल

जिँदगी का स्वर्णिम पल कहे गया विदा
आज मुझसे हुआ मेरा स्कूल जुदा
ये कैसी सजा दी मुझे मेरे खुदा
मुझे कहना पडा आज स्कूल को अलविदा

अब कौन डांटेगा गलतियोँ पर
अब कौन शाबाशी देगा उपलब्धियाँ पर
अब कौन डंडे का डर दिखायेगा
अब हमेँ कौन प्यार से समझायेँगा
अब कौन जीवन की दलदल के बारे बतायेगा
अब कौन हमेँ तालीम की रोशनी मेँ नहलायेगा

गुरु की डांट और मार मेँ भी मजा
अब नहीँ मिलेगा उनसे यह सजा
दर्द से दिल दहल उठा था
रुई से आत्मा कांप उठी थी
जब वह विदाई की घडी थी
माला और तिलक से किया जा रहा था सत्कार
तालियोँ की घडघडाहट अभिवादन और नमस्कार

धीरे धीरे गुजर गया समय
समय की करवट मेँ गुम हो गये हम
हे! ईश्वर दे दे दूसरा जन्म
मुझे फिर से बना दे तीन चार साल का बालक
दे दे मुझे वह स्लेट और सेलखडी
हे! ईश्वर लौटा दे मुझे मेरी वह मासूमियत
झूठ के बाजार से आ गया हूँ तंग
लौटा दे मेरी जिँदगी मेँ आज फिर उमंग
दे दे मुझे स्कूल के वे दिन
बना दे फिर से मुझे विद्यार्थी
--
फागुन आया
हवा फगुनाई सी
सिहरे मन।

फागुन रंग
रंगे तन ओ मन
पिया का संग।

ली अंगडाई
मधुमास ने आज
रंग बरसा।

मली गुलाल
तूने गुलाबी गाल
मचा बवाल।

मचला मन
सांसे गई थिरक
आया फागुन।

-बालकवि देवेन्द्र सुथार
गांधी चौक,आतमणावास,बागरा, जिला-जालोर (राज)
devendrasuthar196@gmail.com


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अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र''

वोट सोचि  समझि के दहे!
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कहत-कहत थक गएन
वोट सोचि  समझि के दहे
पुन ककउ  बात न मानय
तुनिकि खटिया छोड़ि  खड़े होइ जाय

बाह सकेलि हाथ झटकि के कहा
हमार नेतय पीएम बनी,
दुनिया नमो नमो के जाप करी 

मुठ्ठी बाँधि नकुआ सकेली
बीगा कस  मुह कय कहा
ओखर किस्मति अच्छी है
एहसे मँहगाई घटी
पाकिस्तान के बात न करा
जल्दिन ओखर आयु घटी

दाना पानी छोड़ि  ककऊ  
दिन भर पर्चा लीहे बागा
जब साझि चौपाल लागय
सब आपण आपन बात सुनवाय

बजट पेश होतेय
आइसन लगा जोर के झटका
जइसन साल भर से
गाव की बत्ती भय होइ गुल

ककऊ अब चिंतित मन कहत हा
सोच समझि के वोट दहे
कहत-कहत थक गएन
वोट सोचि  समझि के दहे!!


अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र''

ग्राम-रामगढ न-२,तहशील-गोपद बनास ;
जिला-सीधी,मध्यप्रदेश ,४८६६६१ 

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: सप्ताह की कविताएँ
सप्ताह की कविताएँ
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