हमें ज्वालामुखियों के बारे में कैसे पता चला? आइजिक ऐसिमोव हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता HOW DID WE FIND OUT ABOUT VOLCANOES? By: Isa...
हमें ज्वालामुखियों के बारे में कैसे पता चला?
आइजिक ऐसिमोव
हिंदी अनुवादः
अरविन्द गुप्ता
HOW DID WE FIND OUT ABOUT VOLCANOES?
By: Isaac Asimov Hindi
Translation : Arvind Gupta
1 थीरा में विस्फोट
यूरोप में सबसे पहली सभ्यता ईजीएन समुद्र में पनपी जो वर्तमान में यूनान (ग्रीस) और टर्की के बीच में बसा है। उस क्षेत्र का सबसे बड़ा द्वीप क्रीट है। उसका क्षेत्रफल 3,189 वर्ग-मील का है जो उसे रहोड्स द्वीप और डेलावेयर के संयुक्त क्षेत्रफल जितना बड़ा बनाता है। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व क्रीट में लोगों ने धातुओं का उपयोग शुरू कर दिया था और वहां एक महत्वपूर्ण सभ्यता विकसित हुई थी।
क्रीट ने अपने आसपास के इलाकों से बहुत कुछ सीखा होगा क्योंकि उनका इतिहास क्रीट से भी कहीं पुराना था। उसमें से एक द्वीप मिस्त्र था जो क्रीट से 400 मील दूर दक्षिण-पूर्व में बसा था। 600 मील पूर्व में कुछ अन्य द्वीप भी थे जिन्हें वर्तमान में हम लेबनान, सिरिया और ईराक के नामों से जानते हैं। पुरानी सभ्यताएं महाद्वीपों पर बसी थीं - जहां जमीन की कोई कमी न थी। क्रीट पहली द्वीप सभ्यता थी। क्रीट की समुद्र में गहरी रुचि थी और वो अपनी नौ-सेना विकसित करने वाला पहला देश था। क्रीट के जहाज उस देश की दुश्मनों के आक्रमण से सुरक्षा करते थे और इससे क्रीटवासी आराम और शांति का जीवन बिताते थे। उन्हांने विशाल महल बनाए जिसमें पॉइपों द्वारा पानी लाने की सुविधा थी। वे उच्च कोटि के कलाकार थे और उनकी खेलों में विशेष रुचि थी।
क्रीट के जहाज अपने पड़ोसी देशों के साथ व्यापार भी करते थे। व्यापार के साथ क्रीट की सभ्यता और जीवनशैली भी अन्य देशों के अलावा यूरोप स्थित ग्रीस (यूनान) तक पहुंची। क्रीट से सौ मील उत्तर में द्वीपों का एक समूह है जो सिकलुडीज के नाम से जाना जाता है। सिकलुडीज एक यूनानी शब्द से आता है और उसका मतलब होता है गोला क्योंकि वहां के द्वीप लगभग एक गोले में सजे थे। क्रीट की सभ्यता सिकलुडीज पहुंची और उससे वहां के लोग भी समृद्ध हुए। सिकलुडीज के दक्षिण में एक द्वीप था जिसे प्राचीन यूनानी थीरू बुलाते थे। आज उसे थीरा कहते हैं। मध्य युग में इटली का ईजीएन समुद्र पर नियंत्रण था। उन्होंने उसका नाम रखा सांतुहरिनी। इस नाम को लोग आज भी इस्तेमाल करते हैं।
थीरा, क्रीट से केवल पैंसठ माल दूर है। ईसा पूर्वी 2000 वर्ष पहले से क्रीट के तमाम जहाज थीरा आते थे। थीरा एक समृद्ध और सभ्य द्वीप बना और यह सिलसिला 500 साल तक जारी रहा। अगर आप आज थीरा को नक्शे में देखेंगे तो उसका आकार अर्ध-गोले जैसे दिखेगा और उसका मुंह पश्चिम की ओर होगा। उसका क्षेत्रफल करीब 30 वर्ग मील होगा और वो लगभग मैनहैटन द्वीप जितना बड़ा होगा। अर्ध-गोल के ऊपर और नीचे के बिंदुओं के बीच खुले भाग में दो छोटे द्वीप हैं। ऐसा लगता है कि शायद कभी थीरा पूरा गोल रहा हो, बिल्कुल शून्य के आकार का। परन्तु समुद्र ने उसका पश्चिमी भाग तोड़ दिया और इसलिए वहां अब सिर्फ गोले के अवशेष बचे हैं। टूटे गोल के केंद्र में दो द्वीप हैं जिनमें से निरन्तर धुंआ निकलता रहता है जैसे कि उनके नीचे आग लगी हो।
1966 में जब वैज्ञानिकों ने थीरा में कुछ स्थानों पर खुदाई की तो वहां उन्हें एक प्राचीन शहर के अवशेष मिले जो क्रीट के जमाने में बहुत समृद्ध और सभ्य रहा होगा। वहां उन्हें बहुत सुंदर मिट्टी के बर्तन और भित्ती-चित्र मिले। वहां उन्हें एक भयानक विस्फोट के भी प्रमाण मिले जो शायद ईसा पूर्वी 1500 में हुआ होगा। उस समय थीरा पर एक बड़ा पहाड़ था जो ईजीएन समुद के पेंदे से ऊपर उठता था। पहाड़ का ऊपरी भाग जो समुद्र की सतह से ऊपर था एकदम गोलाकर था इसलिए उस द्वीप का आकार भी गोल था।
पर यह पहाड़ कोई साधारण पहाड़ नहीं था। उस पहाड़ की गहराई में बहुत ऊष्मा छिपी थी जो कभी ऊपर को उठती और कभी नीचे की ओर डूबती थी। कभी-कभी इस प्रकार के पहाड़ों में जब गर्मी बहुत अत्यधिक हो जाती है तो पहाड़ के अंदर के पत्थर पिघल जाते हैं। जैसे-जैसे और पत्थर पिघलते हैं वो धीरे-धीरे सतह के पास आ जाते हैं। इस प्रचंड गर्मी से पहाड़ की सतह पिघल कर उसमें एक छेद बन जाता है। और अंत में इस छेद में से लाल-गर्म पिघले पत्थरों की नदी बाहर निकलती है और पहाड़ी से नीचे बहने लगती है। इन पिघले पत्थरों को लावा कहते हैं। यह एक इतालवी शब्द है जिसका मतलब होता है ‘धोना’। शुरू में इटली में नेपिल्स शहर के निवासियों ने बारिश को ‘लावा’ बुलाया - क्योंकि वर्षा से सड़कें धुलकर साफ हो जाती थीं। पिघले पत्थर की नदी पर भी ‘लावा’ शब्द बखूबी लागू हुआ क्योंकि जब यह गर्म नदी बहती तो आसपास सारी घास और पेड़ों की धुलाई हो जाती। इस गर्म लावे के बहने से खतरा भी हो सकता था। पहाड़ी के ढलान या तलहटी में बने घर पिघले पत्थर की नदी से ध्वस्त हो सकते थे और लोग भी मर सकते थे। अक्सर लावा के निकलने और बहने के अलावा भी बहुत कुछ होता है। अगर पहाड़ी की गहराई में पानी रिसकर आता है तो उस भीषण गर्मी में वो उबलने लगता है। इस स्टीम या भाप का दाब बढ़ता जाता है और अंत में उसके दबाव से पहाड़ी का एक भाग हवा में उड़ जाता है। इसे ‘इरप्शन’ कहते हैं। यह एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘विस्फोट होना’। इसमें बहुत बड़े-बड़े पत्थर हवा में ऊपर उछलते हैं। राख और गर्म गैसें बहुत ऊंचाई तक उठती हैं। आग की लपटों के साथ-साथ बड़ी तादाद में गर्म लावा भी बाहर निकलता है। इस प्रकार के कुछ पहाड़ों में से हमेशा ही धुंआ और गर्मी निकलती रहती है। पर कभी-कभी स्थिति थोड़ी खराब हो जाती है और लावा बहना शुरू हो जाता है। इस प्रकार के पहाड़ बहुत खतरनाक नहीं होते हैं। अगर उनमें से कभी-कभार लावा रिसकर बाहर निकलता है तो फिर उनमें विस्फोट होने की आशंका बहुत कम होती है। और क्योंकि पहाड़ गर्म होता है इसलिए लोग अपने आराम के लिए उससे काफी दूर पर सुरक्षित स्थानों पर रह सकते हैं। इस प्रकार के कुछ पहाड़ कई शताब्दियों तक शांत बने रहते हैं। तब लोग उन्हें किसी सामान्य पहाड़ जैसा समझने लगते हैं और भूल जाते हैं कि उनमें कभी लावा निकलता था। उनमें से जो पुराना लावा निकला था उससे भूमि बहुत ही उपजाऊ बन जाती है। उससे वहां पहाड़ी के ढलान पर बहुत से पौधे और पेड़ उग आते हैं और पहाड़ी एकदम हरीभरी दिखने लगती है। ऐसे पहाड़ों की तलहटी पर जमीन को लोगों ने बहुत उपजाऊ पाया होगा। क्योंकि वहां बहुत अच्छी फसलें उगती थीं इसलिए वहां लोगों ने खेतीबाड़ी शुरू कर दी और आसपास अपने घर भी बनाए। धीरे-धीरे ऐसे पहाड़ों के आसपास पूरे-के-पूरे शहर बसने लगे। अगर एक दिन वो पहाड़ फिर गर्म होना शुरू कर दे और उसकी गहराई में भाप बनना शुरू हो जाए तो? यह सब कुछ भारी-भरकमग पत्थरों के ऐसे पहाड़ के नीचे होगा जो शताब्दियों पहले ठंडा हो चुका था। इससे धीरे-धीरे दबाव बढ़ेगा, और बढ़ेगा, और बढ़ेगा अगर पहाड़ इतने सालों तक ठंडा न रहा होता तो शायद दबाव इतना नहीं बढ़ता। परन्तु सदियों के बाद उसका लावा ठंडा होकर जमकर अब ठोस पत्थर बन गया होगा। इसलिए अंत में उसमें एक भयानक विस्फोट होगा। ईसा पूर्वी 5000 ईसवी में थीरा के पहाड़ में विस्फोट हुआ। वो फटा और एक ऊंचे बादल के रूप में उसका मलबा - पत्थर, धूल और राख आसमान में छा गया। पहाड़ के स्थान पर अब एक बड़ा छेद था। इस छेद में तुरन्त समुद्र का पानी भर गया और पहाड़ जिसका पहले एक ठोस गोल आकार था अब एक टूटी हुई अंगूठी जैसा दिखने लगा। उस द्वीप के सभी निवासी इस विस्फोट में निश्चित ही मारे गए होंगे। विस्फोट की धूल और राख पूर्व में स्थित क्रीट तक पहुंची।
2 लावा निकलना बदं । समुद्र का पानी घुसने से विस्फोट इस विस्फोट से समुद्र का पेंदा हिला और उससे एक विशाल लहर पैदा हुई। लोगों ने उसे ज्वार-भाटे वाली लहर समझा पर असल में इस लहर का ज्वार-भाटे के कुछ भी लेना-देना नहीं था। इसका बेहतर नाम था ‘सूनामी’ जो एक जापानी शब्द है जिसका मतलब होता है ‘बंदरगाह की लहरें’। ऐसी लहर जो समुद्र में बहुत ऊंची नहीं होती। पर जब वो किसी बंदरगाह में प्रवेश करती है तो उसका समस्त पानी एक सकरी जगह में घुसता है और वो बहुत ऊंची हो जाती है। कभी-कभी इन लहरों की ऊंचाई 50-फीट से भी अधिक ऊंची होती है और समुद्र के किनारे से टकराने के बाद इन लहरों में हजारों लोग डूब सकते हैं।
क्रीट और ग्रीस के समुद्री तट इस सूनामी में बुरी तरह बरबाद हुए। क्रीट की राजधानी नौसउस को भी भारी नुकसान पहुंचा और इस हादसे में पूरे द्वीप को बहुत क्षति पहुंची। क्रीट के लोगों ने इस भयानक हादसे के बाद भी अपना जीवन जारी रखने की ठानी पर वे इस विस्फोट से कभी उबर नहीं पाए। पचास वर्ष बाद ईसा पूर्वी 1500 में ग्रीस के हमलावरों ने क्रीट पर हमला बोला, वहां के शहरों में आग लगाई और वहां की पूरा सभ्यता को नेस्तनाबूद किया। अगर थीरा पर स्थित पहाड़ में विस्फोट न हुआ होता तो शायद यह तबाही कभी नहीं हुई होती।
यूनानियों को इस विस्फोट की धूमिल याद रही। एक किंवदंती के अनुसार उनके द्वीप में एक बार भयानक बाढ़ आई थी जिसमें केवल एक ही दम्पत्ति जिन्दा बचा था। शायद यह किंवदंती उस सूनामी पर आधारित हो कभी ग्रीस में आई थी। ईसा पूर्वी 370 में यूनानी दार्शनिक प्लेटो (427-347 ईसा पूर्वी) ने एक सुंदर शहर का उल्लेख किया जो एक रात में भूकम्प में तबाह होकर समुद्र में डूब गया। उनके अनुसार वो शहर दूर पश्चिम में स्पेन से भी दूर था। उन्होंने उसका नाम एटलांटिस दिया - क्योकि प्लेटो के अनुसार वो अटलांटिक महासागर में स्थित था। दो-हजार सालों तक लोग इस किंवदंती के सच होने के बारे में अटकलें लगाते रहे। बहुत से लोगों का ऐसा भी विश्वास था कि अटलांटिक महासागर के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप है जहां कभी कोई महान सभ्यता विकसित हुई होगी।
यह सम्भव है कि प्लेटो ने एक ऐसी घटना का जिक्र किया हो जो ग्रीस के पड़ोस में ही घटी हो। शायद यह कहानी थीरा द्वीप से जन्मी हो - जो कभी एक महान सभ्यता थी पर विस्फोट के बाद वो समुद्र में डूब गई थी।
2 ज्वालामुखियों से सम्बंधित प्राचीन विचार
थीरा कोई इकलौता पहाड़ नहीं है जिसमें से धुंआ और लावा निकला हो। मेडीटेरेनियन में स्थित सिसली के उत्तर में भी ऐसे अनेकों द्वीप हैं। उनमें से एक हैं लिपूरी द्वीप जो बिल्कुल थेरा की तरह ही समुद्र की गर्त से निकले हुए लावा के ठंडे हुए पत्थरों से बने हैं। लिपूरी द्वीप के सबसे दक्षिण में स्थित वूलकैन्हो द्वीप है और वहां पर पहाड़ों में से हमेशा धुंआ और लपटें निकलती रहती हं। ऐसे अन्य पहाड़ों की तरह उसके मुहाने पर भी एक बड़ी परात जैसा गड्ढा है। इस प्रकार के गड्ढे को ‘क्रेटर’ कहते हैं जिसका लैटिन में अर्थ ‘कप’ होता है। कभी-कभी क्रेटर में लावा लबालब भर जाता है और फिर उसकी एक धार पहाड़ी के ढाल पर नीचे की ओर बहने लगती है। 1890 में आखिरी बार वूलकैन्हो पहाड़ पर लावा का सक्रिय उफान देखने को मिला। हमें इसके पीछे के कारण नहीं पता पर प्राचीन इटालवी और रोमवासी इस द्वीप से बहुत प्रभावित थे। अग्नि के देवता प्राचीन किंवदंतियों में बहुत महत्वपूर्ण थे इसलिए इटलीवासियों ने इस देवता का नाम ‘वल्कन’ रखा। किसी को यह पक्की तरह से नहीं पता कि ज्वालामुखी वाले इस द्वीप का नाम देवता के नाम पर पड़ा या फिर देवता का नाम द्वीप के ऊपर पड़ा।
लिपूरी द्वीप पर स्थित स्ट्रैम्बोली ज्वालामुखी
बाद में रोमवासियों को वल्कन बिल्कुल यूनानी देवता हुहफेसतस जैसा ही लगा। हुहफेसतस लुहारखाने का देवता था जहां वो गर्म धातुओं से अलग-अलग चीजें बनाता था। हुहफेसतस और वल्कन का चित्रण एक लुहार जैसा है जो गर्म भट्टी में से लाल-सुर्ख सोने, चांदी, तांबे, पीतल और लोहे से बेहद सुंदर औजार और जेवर बनाता है।
यह सोचना प्राकृतिक ही होगा कि ऐसे देवता का लुहारखाना किसी गर्म और धुंए से तपते पहाड़ के अंदर स्थित हो। शायद वो वल्कन द्वीप पर स्थित हो। पहाड़ी के ऊपर से निकलती गर्मी और धुंआ वल्कन के लुहारखाने की भट्टी में से निकल रहा हो। और जब वल्कन का धंधा अपने चरम पर हो तो शायद भट्टी की आग बहुत प्रचंड हो जाए। उससे पहाड़ के अंदर के पत्थर पिघल जाएं और लावा पहाड़ के मुहाने से बहने लगे। इस तरह वल्कन और इस द्वीप का नाम इस प्रकार के पहाड़ों के साथ सदा के लिए जुड़ गया। आज भी आग और धुंआ उगलते पहाड़ों को हम ‘वौल्कैनो’ या ज्वालामुखी बुलाते हैं। प्राचीन लोगों की मान्यता के अनुसार ज्वालामुखियों के अंदर अलौकिक जीव रहते थे। और इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है। इन ज्वालामुखियों में विस्फोट के बाद निकली आग, लावा और धमाके के बाद आए भयानक भूकम्प कोई दैवीय शक्ति ही पैदा कर सकती होगी। प्राचीन काल में इजरायल के निवासी भी ज्वालामुखियों से भयत्रस्त थे। धर्मग्रंथ बाइबिल में इसका वर्णन है - इजरैलाइट्स के मिस्त्र छोड़ने के बाद वे माउंट साईनाई आए जहां मोसेज ने भगवान से आदेश प्राप्त किए। बाइबिल के अनुसारः ‘तीसरे दिन सुबह ़ ़ ़ के समय बहुत जोर से बादल गरजे और बिजली चमकी और पहाड़ पर एक गहरा बादल छाया ़ ़ ़ उसके बाद माउंट साईनाई धुंए में ढंक गया ़ ़ ़ और फिर पहाड़ जोर से कांपने लगा।’ बाइबिल के वर्णन से माउंट साईनाई की सही स्थिति का पता करना मुश्किल होगा। पर हो सकता है वो एक ज्वालामुखी वाला पहाड़ हो और प्राचीन इजरैलाइट्स के अनुसार ईश्वर की कोई दैवीय शक्ति उस पहाड़ी में जरूर निवास करती होगी।
ऐसा नहीं है कि ज्वालामुखियों से जुड़े देवी-देवता हमेशा बहुत कृपालू या सृष्टि के रचने वाले बड़े तेजस्वी देवता हों। उनमें कई बेहद अमंगलकारी, हानिकारक और दुष्ट जीव भी शामिल थे। सबसे ऊंचा और सक्रिय ज्वालामुखी जिसके बारे में यूनानियों को पता था उसका नाम था माउंट ऐटना। वो सिसली के उत्तर-पूर्व में स्थित था। वो माउंट वुल्कौनों से केवल पैंतालीस मील दक्षिण में स्थित था और वो करीब दो-मील ऊंचा था। प्राचीन ग्रीस के जमाने से माउंट ऐटना करीब 140 बार फूट चुका है। आखिरी बार वो 1971 में फूटा था। प्राचीन काल में कुछ लोगों ने माउंट ऐटना की सक्रियता को राक्षसों - दैत्यकार जीवों और जीऊस के बीच होता घमासान युद्ध बताया। उन्होंने इस पर तमाम कहानियां रचीं। उसमें एक राक्षस का नाम था इनसैल्यूडस। वो दैत्यों में सबसे भीमकाय और वहशी था। देवी अथीनू ने उसपर एक बड़ा पत्थर फेंक कर उसका वध किया। वो उस पत्थर के नीचे दब गया और उस वजह से सिसली का द्वीप भी चपटा हो गया। इनसैल्यूडस उस भारी द्वीप के बोझ के नीचे सदा दबा रहा। जिस स्थान पर आज इनसैल्यूडस कैद है वो माउंट ऐटना के नीचे है। क्योंकि वो अमर था इसलिए वो जिन्दा रहा और जब वो कराहता तो पहाड़ कांपता। और जब वो भागने की तैयारी में इधर-उधर करवट लेता तो पहाड़ी के मुहाने से लावा निकलने लगता और भूकम्पों से जमीन थरथराने लगती।
यूनान में वैज्ञानिक सोच वाले चिंतकों को ज्वालामुखियों के नीचे देवी-देवताओं या राक्षसों के होने की बात बेतुकी लगी। वो उनके पीछे के तार्किक कारणों को खोजने लगे। दाशर्निक अरस्तू (384-322 ई पू) को लगा कि पृथ्वी की परत के नीचे कहीं हवा के क्षेत्र कैद हैं। वे बहुत गर्म हैं और वे हमेशा गहराई से बाहर सतह पर आने की कोशिश करते रहते हैं। कभी-कभी यह हवा एक तहखाने से दूसरे तहखाने में चली जाती है। उससे कम्पन पैदा होते हैं और भूकम्प आते हैं। उनकी गर्मी से ही लावा पैदा होता है जो पहाड़ी से नीचे बहता है।
एक यूनानी भूगोलशास्त्री स्ट्रेबोह (63 ईसा पूर्व - 19 ईसा के बाद) ने अरस्तू से इस बारे में अपनी सहमति जताई। उन्हें भी ज्वालामुखी एक ‘सेफ्टी-वाल्व’ जैसे लगे जिससे कि अंदर की ऊष्मा बाहर निकल सके और उससे पृथ्वी के अंदर की हवा शांत हो सके। इस प्रकार का मौका न मिलने से हिंसक हवा कहीं पृथ्वी को डांवाडोल न कर दे।
पृथ्वी के नीचे प्रचुर मात्रा में गर्म हवा का होने पर कुछ शक हो सकता है। पर पृथ्वी के नीचे प्रचंड मात्रा में ऊष्मा और गर्मी है इस बारे में दो राय नहीं थीं। अगर ऐसा न होता तो ज्वालामुखियों की व्याख्या करना उन्हें समझना असम्भव होता।
सच तो यह है कि ज्वामुखियों को देखकर ही लोगों को लगता कि पृथ्वी की सतह के नीचे कोई बहुत गर्म क्षेत्र है। कुछ लोग यह भी मानने लगे थे कि पृथ्वी की सतह के नीचे एक आग का क्षेत्र है और ईश्वर के सभी विद्रोहियों को वहां सजा मिलती है। प्राचीन यूनानियों का मानना था कि मृत इंसानों की आत्माएं हैयडीज नामके धुंधले राज्य में रहती हैं। हैयजीड ग्रीस से पश्चिम की ओर अटलांटिक महासागर में स्थित माना जाता था। यहां ये आत्माएं गरीबी में अपना जीवन बितातीं पर उन्हें कोई सजा नहीं भुगतनी पड़ती थी। यूनानियों का मानना था कि पृथ्वी की बहुत गहराई में एक और जगह है जिसका नाम है टारटरस जहां पापियों को उनकी गल्तियों के लिए लगातार अलग-अलग तरीकों से सताया जाता है।
प्राचीन इजरैलाइट्स का मानना था कि मृत आत्माएं जमीन के अंदर शेईओल में निवास करती थीं। शेईओल बिल्कुल यूनानियों के हैयडीज जैसी कल्पना थी। पर समय के बीतने के साथ यहूदी चिंतक यूनानी मान्यताओं से अवगत हुए और फिर शेईओल धीरे-धीरे करके टारटरस में बदल गया। आज इसे हम नरक या ‘हेल्ल’ बुलाते हैं। जब तक ईसाइयों की धर्मपुस्तक न्यू-टेस्टामेंट आई तब नरक की कल्पना एक बड़े ज्वालामुखी के अंदर की थी।
ज्वालामुखियों में से लावा की धारें निकलती हैं, जो गर्मी से दमकती हैं और ऐसा लगता है जैसे उनमें आग लगी हो। ज्वालामुखियों से गैस के बादल निकलते हैं जो पृथ्वी की बहुत गहराई में पाए पदार्थों के बने होते हैं। साथ में प्रचुर मात्रा में भाप और कार्बन-डाईऑक्साइड भी निकलती थी। पर क्योंकि उनकी कोई विशेष गंध नहीं होती है इसलिए लोग उन्हें नजरंदाज करते थे। पृथ्वी की तह में गंधक होती है और यह गंधक ऑक्सीजन से मिलकर सल्फर-डाईऑक्साइड गैस बनाती है जिसकी गंध से लोगों को बहुत घुटन होती है।
सल्फर का एक पुराना नाम है ‘ब्रिमस्टोन’ इसलिए सल्फर-डाईऑक्साइड गैस की गंध को कभी-कभी ‘ब्रिमस्टोन की गंध’ भी कहा जाता है। इसलिए भी ब्रिमस्टोन का सम्बन्ध ज्वालामुखियों के साथ जोड़ा जाता है। इसलिए बाइबिल में सोडोम और गोमोरा जैसे शैतान शहरों के विनाश का वर्णन इन शब्दों में किया गया हैः ‘और फिर ईश्वर ने सोडोम और गोमोरा पर ब्रिमस्टोन और आग की बारिश की।’
यह भी सम्भव है कि यह दोनों शहर सोडोम और गोमोरा किसी ज्वालामुखी के फटने से ध्वस्त हुए हों और इस याद को लोगों ने बाइबिल की कहानी में पिरोया हो। और क्योंकि नरक का चित्रण किसी ज्वालामुखी के अंदर होना है इसलिए नरक में ‘ब्रिमस्टोन और आग’ का होना अनिवार्य माना गया। इसलिए जब पादरी लगातार पाप करने वाले लोगों को नरक भेजने की धमकी देते हैं तो वे असल में उन्हें ‘ब्रिमस्टोन और आग’ का संदेश देते है।
3 ज्वालामुखी के बड़े विस्फोट
प्राचीन काल में यूनानी और रोमवासीे ज्वालामुखियों के खतरों से पूरी तरह अवगत नहीं थे। उन्हें इतना पता था कि माउंट ऐटना और माउंट वुल्कौनो में से हमेशा धुंआ और चिंगारियां निकलती रहती थीं और इसलिए उन पर नजर रखना जरूरी था। उन्हें यह पता नहीं था कि साधारण दिखने वाले पहाड़ में अचानक विस्फोट हो सकता है और उससे अल्पकाल में पूरे के पूरे शहर तबाह हो सकते हैं। वैसे थीरा का उदाहरण सामने था। परन्तु वो पुरानी बात अब अटलांटिस की कहानी में सिमट चुकी थी और लोग उसके बारे में लगभग भूल चुके थे। और इस कहानी में भी सिर्फ भूकम्प का उल्लेख था ज्वालामुखी का नहीं। पर रोम साम्राज्य के शुरू के काल में ज्वालामुखी के विध्वंस की दिल दहला देने वाली घटना सामने आई। दक्षिणी इटली का एक बड़ा शहर है नेपिल्स और उससे पंद्रह मील दूर स्थित है विसूवियस का पहाड़। वो करीब एक-मील ऊंचा है और प्राचीन रोमन काल में लोग उसे एक साधारण पर्वत मानते थे। रोमवासियों के पास ऐसे कोई लिखित दस्तावेज नहीं थे जिसमें विसूवियस से धुंआ और राख निकलने का कोई उल्लेख हो। पहाड़ के आसपास की जमीन उपजाऊ थी और वहां अनेकों खेत थे। पहाड़ के दक्षिणी ढलान पर दो शहर बसे थे - पौम्पे और हुरकेल्यूनियम। पौम्पे की स्थापना कोई 500 ईसा पूर्वी हुई थी और उसके सौ वर्ष बाद तक वो फलता-फूलता रहा था। रोम साम्राज्य के शुरू के काल में कई धनवान रोमवासियों के वहां बड़े घर थे।
कभी-कभार विसूवियस के आसपास भूकम्प के झटके आते थे पर ऐसी घटनाएं मेडिटेरेनियन के इलाके में अक्सर होती थीं। ऐसी एक घटना 63 (ईसा पूर्वी) में सम्राट नीरो के काल में घटी। इससे रोम के शहरों को काफी झटका लगा पर लोगों ने मकानों की मरम्मत की और जीवन चलता रहा। ईसा के बाद 79 ईसवीं में फिर कई छोटे भूकम्प आए और फिर 24 अगस्त को विसूवियस फटा। राख, धुंए, भाप और दमघोटू गैस के बादल ने पूरे पहाड़ को ढंक लिया। फिर पहाड़ से लावे की नदियां पौम्पे और हुरकेल्यूनियम की ओर बहने लगीं। शहरवासियों को ज्वालामुखी के खतरे की कुछ समझ नहीं थी इसलिए विस्फोट के पहले चरण में वे शहर में ही रहे। पर जब उन्होंने शहर से पलायन करने की सोची तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस हादसे में शायद बीस हजार लोग मारे गए। मरने वालों में एक व्यक्ति रोम के प्रसिद्ध लेखक प्लाईनी (23-79) थे। वो पास की खाड़ी में एक जहाज पर थे। माउंट विसूवियस से धुंआ निकलते देखकर प्लाईनी उसका करीबी से निरीक्षण करने के लिए समुद्र के तट पर खड़े हुए। वहां धुंए के बादलों से उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना का जिक्र प्लाईनी के भतीजे - प्लाईनी द यंगर (62-113) ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है।
माउंट विसूवियस में विस्फोट
उसके बाद से विसूवियस में कभी कोई बस्ती नहीं पनपी। कई शताब्दियों तक विसूवियस एकदम शांत रहता पर फिर वो फूटता। 1631 में उसमें एक बड़ा विस्फोट हुआ - शायद 79 ईसवीं के बाद से सबसे भयानक। उसमें करीब चार हजार लोगों की मौत हुई। उसके बाद से वो दस साल से ज्यादा कभी शांत नहीं रहा है।
1709 में लोगों ने मिट्टी और राख के मलबे को पौम्पे के अवशेषों को खोजने के लिए खोदा। (हुरकेल्यूनियम लावा की बहुत गहराई में दबा है और उसे खोदना आसान नहीं है।) पौम्पे में जो अवशेष मिले उनसे लोग शुरुआत के रोमन साम्राज्य में लोगों की जीवनशैली के बारे में काफी कुछ जान पाए। इस प्रकार की जानकारी और किसी तरीके से कभी नहीं हासिल हो पाती। पौम्पे के अवशेष धीरे-धीरे करके पर्यटकों के लिए एक लोकप्रिय केंद्र बना। 1979 में वियूवियस के फटने के 1900 साल बाद पौम्पे के कुछ अवशेषों को न्यूयार्क की एक प्रदर्शनी में लगाया गया।
यूरोप महाद्वीप पर माउंट विसूवियस ही एक सक्रिय ज्वालामुखी है। पर माउंट ऐटना उससे बड़ा है और कहीं ज्यादा खतरनाक है। माउंट ऐटना अक्सर फटता रहता है। 1669 में उसमें एक भयानक विस्फोट हुआ जिसमें 14 शहर जलकर खाक हुए और करीब बीस हजार लोगों की मौत हुई। कुछ लोगों के अनुसार अगर माउंट ऐटना ज्वालामुखी में मरे सभी लोगों की सूची बनाई जाए तो उनकी संख्या दस लाख से अधिक होगी। अब माउंट ऐटना की एक ज्वालामुखी के रूप में अच्छी पहचान बनी है। लोगों को पता है वो नुकसान पहुंचा सकता है इसलिए वे उससे दूर रहते हैं। पर विसूवियस के विस्फोट से सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए। इस नाटकीय आश्चर्य और पौम्पे और हुरकेल्यूनियम शहरों के पूरी तरह तबाह हो जाने के कारण ही विसूवियस के विस्फोट को प्राचीन काल की सबसे प्रसिद्ध ज्वालामुखी सम्बंधी घटना माना जाता है।
शताब्दियां बीतने के बाद यूरोप के नागरिकों ने दुनिया के बारे में बहुत कुछ खोजा और जाना। उन्हें यह भी पता चला कि उनके अपने महाद्वीप में भी कई खतरनाक ज्वालामुखी थे। ऑइसलैन्ड की ही मिसाल लें। वो स्कॉटलैन्ड से पांच सौ मील दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है और उसका क्षेत्रफल केन्टकी से बड़ा है। वो उत्तर में बसा एक ठंडा स्थान है और उसका अधिकांश क्षेत्र बर्फ से ढंका है। उसके बावजूद वहां ज्वालामुखियों की कमी नहीं है। ऐसा लगता है वहां जमीन के नीचे बहुत सारी संचित ऊष्मा है। दक्षिणी ऑइसलैन्ड में एक ज्वालामुखी है जिसका नाम है लाहकी। 1783 में वो फटने लगा। दो साल तक उसके क्रेटर में से लावा निकलता रहा, कभी तेजी से, कभी हल्के से। धीरे-धीरे करके यह लावा 220 वर्ग-मील के इलाके में फैल गया। वैसे लावा से कोई खास नुकसान नहीं हुआ क्योंकि उस इलाके में बहुत कम लोग ही रहते थे। परन्तु लाहकी हवा में लगातार सल्फर-डाईऑक्साइड और राख फेंकता रहा। उसकी राख पूरे द्वीप में फैली और उसमें से कुछ तो स्कॉटलैन्ड तक पहुंची।
ऑइसलैन्ड में ज्वालामुखी
हवा मं राख के होने से आसमान काला हो जाता है। फसल को धूप नहीं मिलने से फसल नष्ट हो जाती है। सल्फर-डाईऑक्साइड के कारण द्वीप के तीन-चौथाई घरेलू जानवर मर गए। फसलों और जानवरों के खात्मे के बाद ऑइसलैन्ड के इस द्वीप की बीस प्रतिशत आबादी - करीब दस हजार लोग भुखमरी और बीमारियों से मारे गए।
ज्वालामुखी के इससे भी भीषण हादसे इंडोनेशिया में हुए। यह द्वीपों का एक समूह है जो दक्षिण-पूर्वी एशिया में स्थित है। सूमबाहवा का छोटा द्वीप, जावा के बड़े द्वीप के पूर्व में स्थित है। सूमबाहवा में एक पहाड़ है - माउंट टमबूरा। यह तेरह हजार फीट ऊंचा ज्वालामुखी, 7 अप्रैल 1815 को फटा। पृथ्वी पर थेरा के बाद इसे सबसे भीषण ज्वालामुखी का विस्फोट माना जाता है। पहाड़ के ऊपर का चार हजार फीट ऊंचा भाग हवा में उड़ गए। इससे कोई छत्तीस घन मील मलबा - पत्थर और धूल हवा में बिखरे। पत्थरों और धूल की बारिश से करीब बारह हजार लोगों की मृत्यु हुई। जानवरों और फसलों के नष्ट होने से सूमबाहवा और पश्चिम में बसे लोबुक द्वीप पर लगभग अस्सी हजार लोग भुखमरी के शिकार हुए। हवा में फेंके गए पत्थर और धूल के कण हवा में कई मील की ऊंचाई तक गए और वे वायुमंडल के ऊपरी भाग में कई महीनों तक तैरते रहे। वहां पर धूल के कण सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते रहे जिससे धरती पर बहुत कम धूप पड़ी। इस वजह से करीब एक साल तक नीचे जमीन पर तापमान सामान्य से नीचे रहा। उदाहरण के लिए 1816 में न्यू इंग्लैन्ड में बहुत गहरी ठंड पड़ी और उस साल हर महीने में - खासकर जुलाई और अगस्त में चिलचिलाती ठंड पड़ी। उस साल गर्मी का मौसम ही गायब हो गया। उस समय न्यू इंग्लैन्ड के लोगों को यह नहीं पता था कि उनकी मुसीबत का कारण पृथ्वी के दूसरे छोर पर एक ज्वालामुखी का फटना था। अड़सठ साल बाद इससे भी एक भयानक विस्फोट क्रैकुटोहू द्वीप में हुआ। यह द्वीप मैनहैटन के बराबर का है और जावा और सुमात्रा के बीच स्थित है।
थीरा की तरह यह पूरा द्वीप ही एक ज्वालामुखी है। परन्तु माउंट क्रैकुटोहू देखने में बहुत खतरनाक नहीं था। 1680 में उसमें एक छोटा विस्फोट जरूर हुआ था पर उसके बाद दो सौ साल तक वो शांत था। फिर 27 अगस्त 1883 को सुबह 10 बजे तक पहाड़ के अंदर धीरे-धीरे ऊष्मा और दाब इतना अधिक बढ़ गया कि पहाड़ का ठोस लावा भी उस पर काबू कर पाने में असफल था। और फिर माउंट क्रैकुटोहू में एक भयानक विस्फोट हुआ। विस्फोट में माउंट टैम्बोरा जितना पत्थर और धूल तो नहीं निकला। पर जो निकला वो एकदम बुलन्दी के साथ निकला। उस विस्फोट की आवाज कान दहलाने वाली थी। विस्फोट की आवाज सभी दिशाओं में हजारों मील दूर तक सुनाई पड़ी। अगर क्रैकुटोहू का विस्फोट कैन्सस में हुआ होता तो समस्त अमरीकी नागरिक उसकी गूंज को सुन पाते। और साथ-साथ कॉनाडा और मेक्सिको में बहुत से लोग भी उसकी आवाज को सुन पाते।
ज्वालामुखी से निकले पत्थर और धूल 3 लाख वर्ग-मील के क्षेत्र में फैले। यह टेक्सस के क्षेत्रफल से अधिक है। विस्फोट से इस द्वीप के चारों ओर समुद्र के पानी में कम्पन पैदा हुए जिससे कि सूनामी पैदा हुई और जावा और सुमात्रा के तटों पर 120 फीट ऊंची लहरों ने तबाही मचाई। इस हादसे में 163 गांव तबाह हुए और लगभग चालीस हजार लोगों की जानें गयीं। इस विस्फोट में वायुमंडल के उच्च स्तर पर टैम्बोरा विस्फोट जितनी राख तो नहीं फैली। उससे पृथ्वी भी इतनी ठंडी नहीं हुई पर हवा में राख को धरती पर आते-आते तीन साल का वक्त लगा। उन तीन सालों में हवा में राख की मौजूदगी के कारण पूरी दुनिया में सूर्यास्त की लालिमा बहुत सुंदर दिखती थी। वर्तमान काल में दक्षिणी अर्धगोल में सबसे भयानक ज्चालामुखी का विस्फोट कैरिबियन समुद्र में स्थित मारटिनीक द्वीप में हुआ। इस द्वीप के उत्तर-पश्चिम में माउंट पुहले नाम का एक ज्वालामुखी पहाड़ है। अतीत में इस पहाड़ ने कुछ खास नुकसान नहीं पहुंचाया था परन्तु फिर अचानक अप्रैल 1902 में उसमें से धुंआ, राख और गैसें निकलनी शुरू हुइ।
क्योंकि हालत कोई बहुत खराब नहीं थी इसलिए लोगों ने सैन पैयरे से पलायन नहीं किया। सैन पियरे उस द्वीप की राजधानी थी और वो माउंट पुहले की तलहटी में बसी थी। लोगों को लगा कि अगर माउंट पुहले से लावा निकलेगा भी तो पहाड़ के आकार के कारण वो सैन पियरे की ओर नहीं बहेगा। इस वजह से आसपास के गांवों के लोग अपनी सुरक्षा के लिए राजधानी सैन पियरे में आ गए। पर 7 मई को एक धमाका हुआ - माउंट पुहले में नहीं परन्तु माउंट सूफ्रीयर में। यह ज्वालामुखी एक द्वीप सैन विनसेंट पर स्थित था जो मारटिनीक द्वीप से सौ मील दक्षिण की ओर था। माउंट सूफ्रीयर के विस्फोट में करीब दो हजार लोगों की मौत हुई। अब मारटिनीक द्वीप के लोगों ने कुछ राहत की सांस ली। उन्हें लगा कि जो दबाव माउंट पुहले को परेशान कर रहा था वो माउंट सूफ्रीयर के फटने से कम हुआ होगा। उन्हें लगा कि जल्द ही माउंट पुहले पूर्णतः शांत हो जाएगा और फिर अन्य लोग भी सैन पियरे में आराम से जी सकेंगे। परन्तु माउंट पुहले ने सबको धोखा दिया। 8 मई 1902 को सुबह सात बजकर पचास मिनट पर - माउंट सूफ्रीयर के फटने से चौबिस घंटों के अंदर माउंट पुहले में भी विस्फोट हुआ। लावा की एक धार पहाड़ के ढाल से नीचे बहने लगी।
माउंट पुहले में विस्फोट
सैन पियरे के लोग इस लावा से बच गए। परन्तु इस धमाके मे लाल-गर्म गैसों और धुंए का एक गहरा बादल भी पैदा किया। यह सारी विषैली गैसें पहाड़ी के ढाल से उतरकर सीधे सैन पियरे पहुंचीं। तीन मिनटों में अड़तीस हजार लोगों की गर्म और विषैली गैसे से मृत्यु हुई। पूरे शहर में एक कैदी के अलावा कोई भी जिन्दा नहीं बचा। यह कैदी एक तहखाने में बंद था और वो बाल-बाल बचा। अगले दिन उसे फांसी पर चढ़ाया जाना था। पर वो ही एकमात्र इंसान जिन्दा बचा और बाकी सारे शहरी मारे गए। जहां तक अमरीका की बात है वहां हवाई और अलाक्सा के क्षेत्रों में ज्वालामुखी हैं।
माउंट पुहले में विस्फोट
हवाई द्वीप का क्षेत्रफल लगभग कनेक्टीकट जितना है। हवाई द्वीप असल में एक बड़ा पहाड़ है - दुनिया का सबसे बड़ा पहाड़, पर ऊंचाई में नहीं। उसकी सबसे ऊंची चोटी मौना लौहू करीब ढ़ाई मील ऊंची है। यह दुनिया का सबसे ऊंचा ज्वालामुखी है। मौना लौहू के पूर्वी ढलान पर एक क्रेटर है जिसका नाम है कीलोएहू। वो दो मील चौड़ा है और दुनिया का सबसे बड़ा और सक्रिय ज्वालामुखी है। वो कमोबेश हमेशा सक्रिय रहता है और कभी-कभी उसमें से लावा निकलता है पर वहां कभी विस्फोट नहीं हुआ है।
स्ट्रैटो-ज्वालामुखी - जो लावा और मलबे की तहों के बने होते हैं। मौना लौहू का शील्ड (कवच) ज्वालामुखी - जो लावा की तहों का बना है।
मौना लोआ में विस्फोट के बाद लावा की तहें
वर्तमान काल में अमरीका में सबसे बड़ा ज्वालामुखी का विस्फोट जून 1912 में माउंट काटमाई, अलास्का में हुआ। ज्वालामुखी के आसपास 5000 वर्ग-मील का इलाका राख और धूल से भर गया। कुछ धूल और राख तो 100 मील दूर स्थित कोडियैक शहर तक पहुंची। उस शहर को खाली कराया गया। पर उस समय अलास्का की आबादी इतनी विरल थी कि जान-माल का बहुत कम ही नुकसान हुआ। अमरीका के 48 राज्यों में हवाई और अलाक्सा को छोड़कर और कहीं ज्वालामुखी नहीं हैं। कुछ सक्रिय ज्वालामुखी कास्केड पर्वत श्रृंखला में पाए जाते हैं। यह पर्वत श्रृंख्ला औरेगान से वाशिंगटन तक उत्तर से पश्चिम की ओर जाती है।
कास्केड पर्वत श्रृंखला की पंद्रह चोटियों पर ज्वालामुखी हैं। पर हाल के सालों में वे बहुत अधिक सक्रिय नहीं रहे हैं। कास्केड रेंज की सबसे ऊंची चोटी माउंट रुहनीर है जो वाशिंगटन के ताकोमा शहर से 50 मील दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह पर्वत पौने-तीन मील ऊंचा है। वैसे तो यह पर्वत एक ज्वालामुखी है परन्तु पिछले दो हजार सालों में उसमें कोई विस्फोट नहीं हुआ है। माउंट रुहनीर से सौ मील की दूरी पर माउंट हुड है जो दो मील से कुछ अधिक ऊंचा है। औरेगान राज्य में यह सबसे ऊंचा पर्वत है। यह पर्वत भी एक ज्वालामुखी है परन्तु वो भी एक लम्बे अर्से से ठंडा पड़ा है। 1975 में कास्केड रेंज की चोटियों में पिछले साठ सालों से कोई ज्वालामुखी सक्रियता नहीं दिखाई पड़ी है। माउंट रुहनीर के उत्तर में 135 मील की दूरी पर माउंट बेकर स्थित है। वो कैनेडियन सीमा के समीप है और दो मील ऊंचा है। मार्च 1975 में माउंट बेकर की चोटी से सफेद धुंआ निकलना शुरू हुआ। उसे देख लोगों को वो पहले तो ऐसा लाग जैसे जंगल में आग लगी हो। पर बाद में जब उसमें से राख और गैसें निकलीं तो लोगों को ज्वालामुखी के सक्रिय होने की पुष्टि हुई।
उसके बाद माउंट बेकर में कुछ खास नहीं हुआ परन्तु इसी प्रकार की सक्रियता माउंट सैन हेलेन्स में देखी गई। माउंट सैन हेलेन्स वाशिंगटन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है और वो पोर्टलैन्ड, औरेगॉन से कोई पैंतालीस मील दूर ह।ै दो-मील ऊंचे माउंट सैन हेलेन्स ने 1831 से लेकर 1854 तक काफी सक्रियता दिखाई। उस समय उस इलाके में बहुत लोग नहीं रहते थे इसलिए वहां क्या हुआ इसका हमारे पास कोई विस्तृत वर्णन नहीं है। पर उस इलाके में कोई खास नुकसान भी नहीं हुआ।
उसके बाद माउंट सैन हेलेन्स 125 सालों तक शांत रहा। वो बर्फ से ढंका एक सुंदर पर्वत था और कोई भी उसे खतरनाक नहीं समझता था। पर 1980 में माउंट सैन हेलेन्स के आसपास के क्षेत्र में भूकम्प आने लगे। पहले तो वहां कई हल्के-हल्के भूकम्प आए परन्तु फिर मार्च 27 को पर्वत की चोटी से कुछ भाप और राख निकली।
छह हफ्तों तक कुछ खास नहीं हुआ और ऐसा लगा कि यह सक्रियता भी खत्म हो जाएगी जैसा कि 1975 में माउंट बेकर में हुआ था। पर फिर 18 मई 1980 को सुबह के समय दो तीव्र भूकम्प आए और माउंट सैन हेलेन्स में विस्फोट हुआ। धमाका क्रैकुटोहू जैसा बहुत भीषण नहीं था पर फिर भी वो अमरीकी इतिहास में उसके 48 राज्यों में होने वाला सबसे प्रबल विस्फोट था। लाखों-करोड़ों टन राख और पत्थर हवा में बारह मील ऊंचाई तक फेंके गए। धीरे-धीरे यह राख ज्वालामुखी से 500 मील दूर पूर्व तक फैली। कहीं-कहीं पर तीन-चार फीट गहरी राख और धूल की परत फैली। माउंट सैन हेलेन्स की बर्फ पिघल कर मिट्टी और राख के साथ मिली और उससे जबरदस्त भूस्खलन हुआ जिसमें तमाम घर, कारें और पुल बह गए। भाग्यवश हल्के भूकम्प के झटकों के बाद वहां के सभी निवासी पलायन कर गए थे। उसके बावजूद कोई बीस लोग मरे और सौ का कोई अतापता नहीं चला। गौरतलब बात यह है कि माउंट सैन हेलेन्स अभी भी सक्रिय है और उसमें अभी भी विस्फोट होते रहते हैं। और उसकी यह गतिविधि सालों तक जारी रह सकती है।
ऐसे स्थानों पर भी ज्वालामुखी फट सकते हैं जहां कोई पहाड़ न हो। मेक्सिको की राजधानी मेक्सिको-सिटी से पश्चिम में 200 मील दूर एक गांव है जिसका नाम है पुहरीकुटीन। 20 फरवरी 1943 को गांव से तीन मील दूरी पर किसान मक्का के एक सपाट खेत में काम कर रहे थे। शाम को चार बजे उन्हें जमीन में एक दरार दिखाई पड़ी। धीरे-धीरे दरार बढ़ती गई। किसानों के पैरों के नीचे की धरती कांपने लगी। फिर एक दरार में से धुंआ और लपटें निकलने लगीं। किसान वहां से जल्दी भाग कर अपने गांव और घरों में गए। अगली सुबह तक जहां पहले मक्का का खेत था वहां अब सौ फीट ऊंचा राख का ढेर था। धीरे-धीरे यह छोटा टीला बढ़ता गया और अधिक ऊंचा होता गया। यह एक ज्वालामुखी था जो फूट रहा था और बढ़ रहा था। इस ज्वालामुखी का नाम माउंट पारीक्यूटिन पड़ा।
एक साल के अंदर ही इस ज्वालामुखी की ऊंचाई पंद्रह-सौ फीट की हो गई थी और वो पूरे पारीक्यूटिन गांव को निगल गया। पौम्पे जैसे ही पारीक्यूटिन गांव भी ज्वालामुखी की चपेट में आ गया। पर यहां यह प्रक्रिया धीमी गति से हुई और इसमें कोई जान नहीं गई। दो साल के अंदर माउंट पारीक्यूटिन ने एक और बड़े गांव को अपनी आगोश में ले लिया। और इस गांव के लोगों ने भी बिना किसी नुकसान के वहां से सुरक्षित पलायन किया। शुरू होने के बाद 1952 में ज्वालामुखी का फूटना बंद हुआ। तब तक माउंट पारीक्यूटिन एक-चौथाई मील से अधिक ऊंचा हो चुका था और आसपास सभी दिशाओं में सात मील तक सारी वनस्पितियां नष्ट हो चुकी थीं।
कुछ महीनों पुराना पारीक्यूटिन
अफ्रीका में साने की खदान में जमीन से दो मील नीचे
4 हमारे पैरों के नीचे की ऊष्मा
ज्वालामुखियों के बारे में हमें एक लम्बा अनुभव है, परन्तु ज्वालामुखी कैसे पैदा होते हैं इस बारे में क्या हम जानते हैं? हां, एक पुरानी मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे बहुत ऊष्मा संचित है। ज्वालामुखियों को समझने का अभी भी यह सबसे अच्छा तरीका है। हम बहुत प्राचीन काल से एक बात जानते हैं कि पृथ्वी के नीचे बहुत गर्मी है और इसे हम आसानी से महसूस कर सकते हैं। दुनिया में अलग-अलग स्थानों पर लोग सोना, हीरे और अन्य मूल्यवान धातुएं निकालने के लिए गहरी खदानें खोदते हैं। खदान जितनी अधिक गहरी होती है वहां उतना ही ज्यादा तापमान होता है। और यह तथ्य, चाहें वो दुनिया के किसी भी कोने में हरेक खदान के बारे में सच है। दुनिया की सबसे गहरी खदान दक्षिणी अफ्रीका में है। यह खदान दो मील गहरी है और इस गहराई पर वहां के पत्थरों का तापमान 126-डिग्री फैरिनहाइट होता है। जब तक ऊपर से ठंडी हवा नीचे फेंकी न जाए तब तक वहां लोगों के लिए काम करना असम्भव है।
वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गहराई के साथ-साथ पृथ्वी की गर्मी बढ़ती जाती है। जमीन की सतह से 100-मील की गहराई पर वहां के पत्थरों का तापमान 2000-डिग्री फैरिनहाइट होगा। पृथ्वी की सतह पर इतने अधिक तापमान पर पत्थर पिघल कर लावा बन जाते। परन्तु इतनी गहराई में ऊपर के पत्थरों के अत्यधिक दबाव के कारण नीचे के पत्थर एकदम दबे रहते हैं। वे ठोस रहते हैं और पिघलते नहीं हैं। पृथ्वी की पपड़ी (क्रस्ट) के नीचे गर्म और लाल पत्थरों की परत को ‘मैन्टिल’ कहते हैं। इस मैन्टिल के नीचे पृथ्वी का अन्तर्भाग (कोर) होती है। इस कोर में मुख्यतः लोहा होता है और वो इतना गर्म होता है कि वो एक सफेद-तरल जैसा दिखता है। पृथ्वी के केंद्र में तापमान 5000 से 6000-डिग्री फैरिनहाइट होता है। दरअसल यह तापमान सूर्य की सतह के तापमान जितना होता है। पृथ्वी के अंदर बहुत ऊष्मा संचित है जिनसे ज्वालामुखियों को समझा जा सकता है। परन्तु यह सारी ऊष्मा वहां आई कैसे? इसका उत्तर पृथ्वी की निर्माण प्रक्रिया में निहित है। आज से पचास साल पहले बहुत से खगोलशास्त्रियों का मानना था कि पृथ्वी किसी जमाने में सूर्य का हिस्सा रही होगी। उनके अनुसार खरबों साल पहले सूर्य के पास से गुजरते किसी तारे के गुरुत्वाकर्षण बल ने सूर्य का एक भाग अपनी ओर खींचा होगा और उसी से पृथ्वी समेत हमारे सौर-मंडल के अन्य ग्रह भी बने होंगे।
ऐसा घटने पर पृथ्वी के केंद्र का तापमान और सूर्य की सतह के तापमान का एक-समान होना समझ में आता है। भाग्यवश, पृथ्वी की बाहर की सतह धीरे-धीरे करके ठंडी हुई और उसी वजह से आज हमारे साथ-साथ वहां अन्य जीवन भी फल-फूल रहा है। परन्तु जब खगोलशास्त्रियों ने गम्भीरता से विचार किया तो पृथ्वी के कभी सूर्य का हिस्सा होने की कल्पना गलत साबित हुई। इस अवधारणा में कई खोट हैं और खगोलशास्त्री इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारी पृथ्वी कभी भी सूर्य का भाग नहीं थी।
1944 में एक जर्मन खगोलशास्त्री कार्ल फ्रेडरिक फन वाइटसेकर (1912-) एक पुरानी अवधारणा पर लौटे जिसे लोगों ने गलत समझा था। उन्होंने इस पुरानी अवधारणा को सुधारा और फिर बाकी खगोलशास्त्री उसे सही मानने लग।े इस सुधरी अवधारणा के अनुसार सूर्य और उसके तमाम ग्रह एक विशाल धूल और गैस के बादल से एक-समय ही जन्मे थे। धूल और गैस के कणों ने आपस में मिलकर बड़े कण बनाए, जिनसे और बड़े टुकड़े बने, और फिर उनसे भी बड़े। अंत में पदार्थ के बड़े टुकड़े आपस में टकराए और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से बाद में सारे ग्रह बने।
पदार्थ के सबसे अधिक टुकड़े बादल के केंद्र में थे जिनके आपस में मिलने से सूर्य बना जिसका आकार बाकी ग्रहों को मिलाकर भी बड़ा है। परन्तु बादल की परिधि पर फिर भी बहुत सा पदार्थ बचा और उससे ही सब ग्रह बने। आपस में मिलने वाले सभी टुकड़े ठंडे थे। फिर हमारी पृथ्वी इतनी गर्म क्यों है? जब दो टुकड़े गुरुत्वाकर्षण के बल के कारण टकराते हैं तो गतिज-ऊर्जा ऊष्मा में बदल जाती है। जैसे-जैसे और टुकड़े टकराकर एक बड़ा पिन्ड बनाते हैं वैसे-वैसे और अधिक ऊष्मा पैदा होती है। और अंत में जब पृथ्वी जैसा बड़ा पिन्ड बनता है तब तक इतना ऊर्जा पैदा हो चुकी होती है कि जिससे वो पिन्ड एकदम सफेद गर्म हो जाए।
यह स्वाभाविक है कि जितने ज्यादा टुकड़े आपस में मिलेंगे उतना ही अधिक पिन्ड गर्म होगा। बृहस्पति ग्रह, पृथ्वी की तुलना में बहुत बड़ा है और उसका केंद्र पृथ्वी की अपेक्षा बहुत ज्यादा गर्म भी है। सूर्य जो सौर-मंडल में सबसे बड़ा है, सबसे अधिक गर्म भी है। अगर हमारी पृथ्वी शुरू मे बहुत गर्म थी तो लाखों-करोड़ों सालों में उसकी बाहरी सतह धीरे-धीरे करके ठंडी हुई है। पर उसका आंतरिक भाग क्यों नहीं ठंडा हुआ है? पृथ्वी सम्पूर्ण रूप से क्यों नहीं ठंडी हो रही है? इसका उत्तर है कि पत्थरों की मोटी तहों से ऊष्मा बहुत धीमी गति से ही बाहर आती है। पत्थर एक प्रकार का कुचालक ‘इंस्यूलेटर’ होता है और वो ऊष्मा को निकलने से रोकता है। पृथ्वी की सतह के ठंडे पत्थर एक कम्बल जैसे निचली तहों को गर्म रखने का काम करते हैं। पृथ्वी की क्रस्ट के पत्थरों से ऊष्मा निकलती जरूर है पर उसकी गति बहुत धीमी होती है। भविष्य में लाखों-करोड़ों वर्ष बाद एक दिन हमारी पृथ्वी भी पूरी-की-पूरी ठंडी हो जाएगी। 1900 के आसपास अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना था कि हमारी पृथ्वी की आयु कोई 20 करोड़ वर्ष की होगी। और इतनी कम अवधि में पृथ्वी का पूरी तरह ठंडा होना सम्भव नहीं होगा। पर 1905 में एक अमरीकी वैज्ञानिक बरट्रैम बी बोल्टवुड (1870-1927) ने पत्थरों की आयु जानने की एक तकनीक इजाद की जो यूरेनियम के विघटन पर आधारित थी। यूरेनियम धातु धीरे-धीरे विघटित होकर सीसा (लेड) बनती है। इस प्रक्रिया को रेडियोधर्मिता (रेडियोऍक्टिविटी) कहते हैं। अगर पत्थर में कुछ मात्रा में यूरेनियम और कुछ मात्रा में सीसा होता है तो दोनों को मापा जा सकता है। वैज्ञानिक, गणना से पता लगा सकते हैं कि यूरेनियम की कितनी मात्रा कितने सालों बाद कितना सीसा बनाएगी। इससे वो पत्थरों की आयु पता कर सकते हैं। इस तकनीक से पहली बार पृथ्वी की सही आयु का पता चला कि वो सैंकड़ो करोड़ वर्ष पुरानी है। बाद में वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की सही आयु को 400-करोड़ वर्ष आंका। यानी उनके पूर्वानुमान से पृथ्वी की आयु 20-गुना अधिक निकली। यह एक बहुत लम्बा काल है और इस लम्बे अंतराल में पृथ्वी काफी कुछ ठंडी हो जानी चाहिए थी। इसके मतलब पृथ्वी का अन्तर्भाग इतना ठंडा हो गया होगा कि अब उसमें से ज्वालामुखी बाहर नहीं निकलेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ।
ज्वालामुखी अभी भी नियमित रूप से फटते हैं। इसका उत्तर फिर यूरेनियम में मिला। जब यूरेनियम के अणु सीसे में बदलते हैं तो इस प्रक्रिया में कुछ मात्रा में ऊष्मा भी पैदा होती है। पर यूरेनियम इतना धीरे-धीरे सीसे में परिवर्तित होता है कि हम एक किलो यूरेनियम द्वारा उत्पन्न उष्मा को महसूस नहीं करते हैं। परन्तु अगर आप पृथ्वी पर सैंकड़ो-करोड़ो टन यूरेनियम द्वारा उत्पन्न ऊष्मा की गणना करेंगे तो उसकी मात्रा बहुत अधिक होगी। पृथ्वी की गर्त में यूरेनियम के अलावा भी अन्य कई रेडियोधर्मी पदार्थ हैं। अगर रेडियोधर्मी पदार्थों द्वारा पैदा ऊष्मा की गणना कर उसे जोड़ा जाए तो वो कितनी होगी? वो मात्रा लगभग उतनी होगी जितनी ऊष्मा पृथ्वी की सतह बाहरी वायुमंडल में फेंकती है। इसका मतलब है कि हमारी पृथ्वी बिल्कुल ठंडी नहीं हो रही है।
रेडियोधर्मी प्रक्रिया पृथ्वी के अन्तर्भाग को लगातर गर्म करती है। इतना जरूर है कि धीरे-धीरे करके जैसे-जैसे यूरेनियम जैसे पदार्थ सीसे में बदल रहे हैं वैसे-वैसे रेडियोधर्मी पदार्थों की मात्रा कम हो रही है। पर इन रेडियोधर्मी पदार्थों की मात्रा कम होने में अभी करोड़ों वर्ष लगेंगे। तब तक उनके द्वारा पैदा ऊष्मा की मात्रा काफी अहम होगी। इसका मतलब है कि हमारी पृथ्वी को अभी ठंडा होने में और सैकड़ों-करोड़ों वर्ष लगेंगे। फिर जब धरती ठंडी होगी तब उसके पेट में से ज्वालामुखी निकलना बन्द होंगे। अगर पृथ्वी का अन्तर्भाग हर दिशा में गर्म है तो फिर कुछ विशिष्ट स्थानों पर ही ज्वालामुखी क्यों फटते हैं? यह सम्भव है कि पृथ्वी की क्रस्ट हर जगह एक-जैसे मजबूत और ठोस न हो। ऐसे भी स्थान हैं जहां क्रस्ट में ‘कमजोर बिन्दु’ हों, या दरारे हों जिनमें से ऊष्मा आसानी से बाहर निकलकर आ सकती है। कुछ स्थानों पर यह ऊष्मा पृथ्वी की सतह के बहुत करीब आकर वहां मिट्टी में मिले पानी को गर्म करती है। इससे गर्म झरने बनते हैं। कभी-कभी यह पानी ऊष्मा की अधिक मात्रा से उबलने लगता है और उससे जो भाप बनती है वो पानी को जमीन की सतह के ऊपर हवा में धकेलती है और उससे ‘गीजर’ बनते हैं।
और अगर बहुत अत्यधिक मात्रा में ऊष्मा धरती की सतह तक आती है तो उनसे ज्वालामुखी भी बनते हैं। पृथ्वी की क्रस्ट पर कमजोर स्थान कुछ निश्चित स्थानों पर हैं। पृथ्वी पर आज पाए जाने वाले 500 सक्रिय ज्वालामुखियों में से लगभग 300 प्रशांत महासागर में एक विशेष वक्र में पाए जाते हैं। और करीब 80 ज्वालामुखी इंडोनेशिया के द्वीपों में पाए जाते हैं। ज्वालामुखियों के इस वक्र को अक्सर ‘आग का घेरा’ कहा जाता है।
1800 में वैज्ञानिक इस तथ्य पर गम्भीरता से विचार करते रहे। कुछ को लगा कि कभी चंद्रमा भी पृथ्वी का भाग रहा होगा और उसके अलग होने से पृथ्वी में एक बड़ा गड्ढा पैदा हुआ होगा जिसे प्रशांत महासागर ने भरा होगा। इससे उन्हें लगा कि प्रशांत महासागर की किनार पर कुछ कमजोर स्थान पैदा हुए जहां से अब ज्वालामुखी फटते हैं। वैज्ञानिकों की यह धारणा बिलकुल गलत निकली। अब वैज्ञानिकों का मानना है कि चंद्रमा कभी भी पृथ्वी का हिस्सा नहीं था। अगर हम पृथ्वी पर सभी ज्वालामुखियों और भूकम्प के केंद्रों का एक नक्शा बनाएं तो हम पाएंगे कि नक्शे में ‘आग के घेरे’ के अलावा और भी कई वक्र होंगे। इस पृथ्वी के नक्शे पर हमें बड़े-बड़े टुकड़े दिखेंगे जिनकी किनारों पर यह ज्वालामुखी और भूकम्प के केंद्र स्थित होंगे।
टेक्टानिक प्लेट्स और ‘आग का घेरा’
1950 के आसपास वैज्ञानिकों को इस बात के प्रमाण मिले कि पृथ्वी की क्रस्ट में कई बड़ी-बड़ी प्लेटें हैं जो आपस में मजबूती से जुड़ी हैं। यह प्लेटें धीरे-धीरे खिसकती हैं। वैसे पृथ्वी की मैन्टिल (अंतर्भाग) में पत्थर ठोस हैं, पर वो इतने अधिक गर्म हैं कि वहां पत्थर हल्के-हल्के पिघले मोम जैसे बहते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के अंतर्भाग में पत्थर धीरे-धीरे एक गोल धारा में बहते हैं। क्रस्ट के पेंदे में बहने वाली धाराएं इन प्लेटों को इधर-उधर खिसकाती हैं। कुछ प्लेटें एक-दूसरे से दूर खिंचती हैं जबकि अन्य एक-दूसरे के पास आती हैं।
इस गति के कारण प्लेटों के जोड़ों पर कमजोर बिन्दु पैदा होते हैं जिनमें से ऊष्मा ऊपर बहकर ज्वालामुखी पैदा कर सकती है। कोई ज्वालामुखी कब सक्रिय होगा क्या हम इसका सही अनुमान लगा सकते हैं? अभी तो नहीं। पर जैसे-जैसे हम प्लेटों के खिसकने को बेहतर समझेंगे वैसे-वैसे हम ज्वालामुखी कब फटेंगे उनका भी सही अनुमान लगा पाएंगे।
समुद्र की तलहटी का फैलाव और ज्वालामुखियों की पैदाइश
क्या हम किसी ज्वालामुखी को फटने से रोक सकते है? और इससे पहले कि ज्वालामुखी में एक बड़ा विस्फोट हो क्या हम कुछ करके उसमें एक छोटा विस्फोट कर उसकी ऊर्जा को क्षय कर सकते हैं?
ऐसा करने की आज हमारे पास ऐसी कोइ तकनीक उपलब्ध नहीं है। परन्तु हमारे ज्ञान में लगातार इजाफा हो रहा है। और जैसे-जैसे हम पृथ्वी को बेहतर तरीके से समझेंगे वैसे-वैसे इन जटिल प्रश्नों के हमें उत्तर मिलेंगे।
5 अन्य ग्रहों पर ज्वालामुखी
क्या अन्य ग्रहों पर ज्वालामुखी होते हैं? शायद ऐसा सोचना तार्किक हो। सौर-मंडल बनने के समय उसके बड़े आकार के पिंड बहुत गर्म होंगे। सतह के धीरे-धीरे ठंडे होने के साथ-साथ उसकी ठंडी पतली पपड़ी में से अंदर की ऊष्मा बाहर आकर ज्वालामुखियां पैदा करती होगी। कुछ छोटे पिंड खासकर इतनी जल्दी ठंडे हुए होंगे कि वहां ज्वालामुखी फटने का कोई मौका ही नहीं मिला होगा। हो सकता है कि उन पिंडों के अंदर का तापमान बहुत ऊंचा होने के बावजूद उनकी पपड़ी इतनी सख्त और मजबूत हो गई हो कि वहां ज्वालामुखियों के फटने के लिए कोई कमजोर स्थान ही न हो। हमारे चंद्रमा पर ऐसे बहुत से इलाके हैं जहां हजारों मील तक लावा फैला हुआ है। यह सब चंद्रमा के शुरुआती इतिहास के दौरान हुए होंगे। अब वहां पर ज्वालामुखियों के सक्रिय होने के कोई प्रमाण नहीं हैं।
1971 में मैरिनर-9 नाम के रॉकेट ने मंगल ग्रह की परिक्रमा लगाई। उसने मंगल की सतह के अनेकों चित्र लिए और उनसे फिर मंगल ग्रह का सम्पूर्ण नक्शा बनाया गया। मंगल पर अनेकों क्रेटर्स, पहाड़ और घाटियां हैं। एक क्षेत्र में बड़े पहाड़ और क्रेटर्स थे जो दिखने में बिल्कुल ज्वालामुखियों जैसे थे। इसमें से सबसे बड़े का नाम ओलम्पस-मोन्स है।
ओलम्पस-मोन्स पृथ्वी पर पाए गए किसी भी ज्वालामुखी से बड़ा है। उसकी चोटी मंगल ग्रह की औसत सतह से कोई 15 मील ऊंची है और उसका आधार 250-मील चौड़ा है। पृथ्वी पर सबसे बड़ा ज्वालामुखी हवाई में है। ओलम्पस-मोन्स हवाई ज्वालामुखी से दो-गुना ऊंचा और तीन-गुना चौड़ा है। इससे भी ज्यादा ओलम्पस-मोन्स का क्रेटर 40-मील चौड़ा है जो पृथ्वी पर पाए किसी भी ज्वालामुखी के क्रेटर से बड़ा है।
मंगल का निष्क्रिय ज्वालामुखी ओलम्पस-मोन्स
जहां तक हमें पता है अब ओलम्पस-मोन्स और मंगल पर अन्य ज्वालामुखी अब निष्क्रिय हो चुके हैं। बहुत अर्से में उनमें कोई सक्रियता नहीं देखी गई है। 1978 में पॉयोनियर-वीनस नाम के रॉकेट को शुक्र की परिधि की परिक्रमा करने भेजा गया। शुक्र के चारों ओर मोटे बादलों की परत के कारण उसकी सतह को देख पाना बहुत मुश्किल होता है। परन्तु रॉडार की किरणें बादलों को भेद कर सतह से किरणों को परावर्तित करती हैं। रॉडार द्वारा परावर्तन और पॉयोनियर-वीनस के उपकरणों से शुक्र की सतह का लगभग पूरा नक्शा बनाया है। रॉडार द्वारा जो शुक्र पर पहाड़ दिखे उनमें से कुछ ज्वालामुखी भी थे।
उनमें से एक पहाड़ रीहू मोन्स के आधार का क्षेत्रफल लगभग न्यू मेक्सिको जितना होगा। अगर वो सच में ज्वालामुखी निकला तो उसका क्षेत्रफल मंगल स्थित ओलम्पस-मोन्स से भी बड़ा होगा। परन्तु शुक्र पर स्थित ज्वालामुखियों में भी जीवन होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। पृथ्वी के अलावा अन्य किसी ग्रह पर अभी तक सक्रिय ज्वालामुखी होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। पर फिर 5 मार्च 1979 को वौएजर-1 ने बृहस्पति ग्रह की परिक्रमा की और उसके उपग्रहों का अध्ययन किया। बृहस्पति के चार बड़े उपग्रह हैं जिनका आकार हमारे चंद्रमा या उससे कुछ बड़ा है। बृहस्पति के सबसे नजदीक जो उपग्रह है उसका नाम आईओ है। उसका आकार हमारे चंद्रमा के बराबर का है और उसकी बृहस्पति से दूरी भी चंद्रमा की पृथ्वी की दूरी जितनी है। बृहस्पति का गुरुत्वाकर्षण बल उसके उपग्रहों पर ज्वार-भाटा (टाईड्स) उत्पन्न करता है। इन ज्वार-भाटों से उपग्रहों के आंतरिक पत्थर दबते और खिंचते हैं और उससे वे गर्म होते हैं। आईओ क्योंकि बृहस्पति के सबसे नजदीक है इसलिए अन्य उपग्रहों की तुलना में वो ज्यादा गर्म होता है। वौएजर-1 के बृहस्पति की परिक्रमा करने से पहले कुछ खगोलशास्त्रियों ने मत था कि बृहस्पति के ज्वार-भाटे के कारण आईओ का तापमान ज्वालामुखी पैदा करने जितना ऊंचा हो सकता है। और जब वौएजर-1 ने बृहस्पति की परिक्रमा लगाते समय आईओ के चित्र लिए तो वहां वाकई में ज्वालामुखी दिखाई पड़े!
आईओ पर सक्रिय और फटते हुए आठ ज्वालामुखी दिखाई दिए। चार महीने बाद वौएजर-2 नाम के एक अन्य रॉकेट जब वहां से गुजरा तो उस समय भी छह ज्वालामुखी सक्रिय थे।
आईओ के सक्रिय ज्वालामुखियों में से निकलने वाले मलबे में ज्यादातर राख और गंधक की वाष्प थी। और गंधक की परत के कारण आईओ की पूरी सतह लाल, नारंगी और पीली दिखती थी। और सल्फर-डाईऑक्साइड के अंश होने की वजह से यह गैस उपग्रह के लिए एक विरल वायुमंडल का काम करती थी। इसलिए हम कम-से-कम दो ऐसे खगोलीय पिंडों के बारे में जानते हैं जहां ज्वालामुखी वाकई में फटते हैं - पृथ्वी और आईओ। पृथ्वी पर ज्वालामुखियों में हमारी विशेष रुचि है क्योंकि विज्ञान में अपार प्रगति के बावजूद आज भी ज्वालामुखियों में लोग मारे जाते हैं और जब ज्वालामुखी फटते हैं तो हम बेबसी की हालात में वहां से पलायन करने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते हैं।
बृहस्पति की परिक्रमा करते हुए आइओ
समाप्त
COMMENTS