किश्तों-किश्तों में हत्या और आत्महत्या - डॉ. दीपक आचार्य dr.deepakaacharya@gmail.com शीर्षक भयभीत करने वाला भी है, चौंकाने वाला भी, औ...
किश्तों-किश्तों में
हत्या और आत्महत्या
- डॉ. दीपक आचार्य
शीर्षक भयभीत करने वाला भी है, चौंकाने वाला भी, और कई प्रश्न खड़े कर देने वाला भी। लेकिन पूरा का पूरा सच भी है और मौजूदा जमाने की वह सबसे बड़ी हकीकत भी, जिसे हम सभी नकार नहीं सकते।
अब वो समय चला गया जब हम पूर्ण आयु प्राप्त करते थे, स्वाभाविक मौत मरते थे और जितने दिन जीते थे उतने दिन स्वस्थ और मस्त रहकर जीते थे। अपवादों को छोड़कर सामान्य तौर पर बीमारियों पर आत्मनियंत्रण के लिए हम सक्षम हुआ करते थे और अकाल मृत्यु या आकस्मिक देहावसान जैसे शब्दों का उतना प्रचलन नहीं हुआ करता था जितना आज है।
आज रोजाना किसी न किसी आपदा, बीमारी, आकस्मिक दुर्घटना या अनहोनी से मौत का ताण्डव मचता ही रहता है। यों कहें कि अब मौत को हमारे पास आने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती, हम खुद ब खुद मौत के पंजों में जाने को उतावले हो रहे हैं और खींचते चले जा रहे हैं।
अब इसे हम हत्या या आत्महत्या कुछ भी कह लें, दोनों ही स्थितियों में हम मौत के आगोश में जा रहे हैं और वह भी आधी-अधूरी आयु के साथ। खुद तो जा ही रहे हैं, हमारे बाद पीछे रह जाने वालों के लिए दारुण दुःखों का पहाड़ छोड़ जा रहे हैं।
सेहत की बरबादी से लेकर मौत के द्वार तक पहुँचने तक की पूरी यात्रा हमारी हद दर्जे की मूर्खताओं और मर्यादाहीनता का ही परिणाम है।
एक मनुष्य के रूप में हमने अपनी जीवनचर्या और सारी मर्यादाओं को भुला दिया है। हम सारे के सारे लोग महा स्वेच्छाचारी और उन्मुक्त हो गए हैं जहाँ हमारी इंद्रियों को जो कुछ अच्छा लगता है, जिनमें स्वाद आता है उन्हीं कर्मो, कुकर्मों और भोगों में रमने लगे हैं।
हम समय के प्रति बेपरवाह हो गए हैं। जिसकी जब इच्छा होती है उठकर वह काम कर देता है, फिर सो जाता है। हममें से काफी लोगों के लिए दिन या रात का कोई पैमाना ही नहीं रहा। हम रातों के काम दिन में और दिन के काम रातों में करने के इतने आदी और तलबी हो गए हैं कि हमारा मन-मस्तिष्क और शरीर यंत्र बनकर रह गया है और प्रकृति अथवा दिन-रात के बीच संतुलन या समन्वय बिगड़ गया है।
प्रकृति कहाँ जा रही है, क्या कह रही है, क्या करना चाहिए, उन सभी बातों को तिलांजलि देकर सारी व्यवस्था हमने अपने हाथों में ले ली है जहाँ स्वेच्छाचारिता और भोग आनंद ही चरम स्वीकार्य है, शेष कुछ नहीं।
हमने जीवनपद्धति की पुरातन परंपराओं को छोड़ दिया है, सेहत के बुनियादी सूत्रों का ताना-बाना तोड़ दिया है और उन्मुक्त भोग विलास, दारिद्रय और आलस्य के जंगल में भटकते हुए वह सब कुछ करने में जुटे हुए हैं जो हमें अच्छा लगता है।
कहने को हम सामाजिक और अति बुद्धिजीवी प्राणी हैं मगर दैनिक जीवनचर्या और जीवन मर्यादाओं के लिहाज से पशु-पक्षियों और सरिसृपों तक ने हमें पीछे छोड़ दिया है।
स्वेच्छाचारी जीवन के मामले में इंसान से ज्यादा कोई प्राणी आवारा नहीं होगा। हमारा सोना, उठना-बैठना, खान-पान, लोक व्यवहार, धर्म-कर्म, संस्कृति और समाज, कला-साहित्य से लेकर इंसान की पहचान बताने वाले सारे कर्म गौण या असंतुलित हो गए हैं।
हम सारे के सारे अपनी मर्जी के मालिक बन बैठे हैं और हमें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि बिना ब्रेक की गाड़ी एक न एक दिन ऎसे खड्डे में जा गिरेगी जहाँ से बाहर निकलना तक मुश्किल होगा।
हममें से काफी लोग भारतीय संस्कृति और परंपराओं की बातें करते हैं और खूब सारे लोग अज्ञानता या वर्ण संकरता की वजह से पाश्चात्य भोग विलास को परम लक्ष्य एवं श्रेयस्कर अंगीकार कर चुके हैं। लेकिन दोनों ही वर्गों में दिखावा और इन्दि्रयजन्य स्वादों का प्रभुत्व है और यही कारण है कि हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी अनुशासनहीन हो गई है।
रात को जल्दी सोना और ब्रह्ममुहूर्त में जगना स्वास्थ्य के लिए कितना लाभकारी है यह सभी को पता है। क्या खाना-पीना चाहिए, क्या सेहत के लिए लाभकारी है और क्या हानिकारक, यह भी पता है। हमारा सब कुछ अनुशासनहीनता की भेंट चढ़ चुका है।
सूर्य आंखों की रोशनी, चेहरे की चमक और बुद्धि का देवता है लेकिन अधिकांश लोग सूर्योदय के बाद तक सेाते रहते हैं, रात को जल्दी सोना चाहिए लेकिन हम देर रात तक जगते रहते हैं। ऎसे में आंखें कमजोर हो रही हैं, चश्मों के बिना हम सारे अंधे होते जा रहे हैं, बच्चों के चश्मे लग रहे हैं, दुर्बुद्धि और व्यसनों की भरमार है।
चेहरे का ओज-तेज गायब है और ब्यूटी पार्लरों से सौन्दर्य आयात करना पड़ रहा है, वह भी कुछ घण्टे में चमक खो देता है। दिन में सोने, रात में जगने और संयमहीनता की वजह से त्रिदोष हो रहे हैं, वात, कफ और पित्त का संतुलन बिगड़ा हुआ है और जाने कितनी सारी बीमारियों का घर बना हुआ है हमारा शरीर।
हम सामान्य खान-पान तक को तरस गए हैं, आधी आयु आते-आते खूब सारी खाद्य और पेय सामग्री पर पाबंदी लग जाती है। दवाइयों का नाश्ता सामान्य बात हो गई है। यूरिया और दूसरे कीटनाशकों, प्रदूषित खान-पान सामग्री, आबोहवा में मिलावट और सब तरफ मुनाफाखोरी के धंधे ने सेहत का मटियामेट करके रख दिया है।
आज खान-पान की सैकड़ों चीजें आकर्षक पैंकिंग में उपलब्ध हैं लेकिन हमारी सेहत के लिए नुकसानदेह हैं। हम सभी लोगों ने ताजे खान-पान की बजाय जाने कितने दिन पुराने और सड़े हुए खान-पान को अपना लिया है। इस वजह से हमेशा आलस्य रहता है, शरीर भारी-भारी रहने लगा है।
हम सभी की हालत यह हो गई है कि हम किसी काम के नहीं रहे। पहले शरीर हमें चलाता था। आज हमें शरीर को चलाना पड़ रहा है जैसे कि कोई भारी भरकम बोरा ही हो। अधिकांश लोग घुटने के दर्द से परेशान हैं। बैठने के लिए कुर्सियां चाहिएं।
इन सभी स्थितियों को हम गंभीरता से सोचें तो पता चलेगा कि इंसान के रूप में भी हम पूर्ण नहीं हैं, हर इंसान किसी न किसी व्याधि से ग्रस्त है। न हम चल-फिर सकते हैं, न ढंग से बैठ सकते हैं, न खा-पी सकते हैं और न मनुष्य की मर्यादाओं का पालन कर पा रहे हैं।
हम पशुओं से भी गए बीते सिर्फ नाम मात्र के इंसान हैं जिन्हें पग-पग पर किसी उपकरण या व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है और समय पर सहयोग न मिले तो हम निःशक्त ही पड़े रहें।
ये स्थितियां साफ-साफ कह रही हैं कि हम किश्तों-किश्तों में आत्महत्या कर रहे हैं या हत्या। काल के लिए हमें दबोचना अब बिल्कुल आसान हो गया है। प्रतीक्षा करेंं अपने क्षरण में पूर्णता की, सेहत के प्रति बेपरवाहों को आखिर जल्दी ही जाना है।
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