दिसम्बर का महीना, ठिठुरती सुबह| सुबह के छ: बज चुके थे लेकिन सड़क पर सिवाए मेरे कहीं भी कोई नहीं दिख रहा था| कोहरे की वजह से कुछ भी साफ-सा...
दिसम्बर का महीना, ठिठुरती सुबह| सुबह के छ: बज चुके थे लेकिन सड़क पर सिवाए मेरे कहीं भी कोई नहीं दिख रहा था| कोहरे की वजह से कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखाई दे रहा था| मैं मार्निंग वाक से वापस घर की ओर लौट रही थी, दूर से मुझे ऐसा लगा मानो पुलिए पर कोई गठरी रखी हुई है| लेकिन जैसे- जैसे मैं गठरी के नजदीक आती गई, उसके हिलने-डुलने से मैं समझ गई कि वह गठरी नहीं बल्कि पुलिए पर कोई बैठा है, कुछ और नजदीक जाने पर मैंने देखा साडी में लिपटी गठरी की तरह उस पुलिए पर एक किशोरी बाला बैठी हुई है और वह इतनी डरी हुई है कि मारे डर के इस ठंड में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदे उतर आई हैं| उसे देख मैंने जाने-अनजाने आखों ही आखों में उससे कई सवाल कर दिए और आगे घर की ओर बढ़ने लगी| कुछ दूर चलने पर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पीछे-पीछे कोई आ रहा है, मैंने मुड़कर देखा तो वही किशोरी मेरे पीछे-पीछे चली आ रही थी, ऐसा लगा उसने मेरी आँखों की भाषा पढ़ ली हो और मुझसे कुछ कहना चाह रही हो| घर आकर मैंने अभी अपने जूते उतारे ही थे कि डोर-बेल की आवाज सुनकर चौंक पड़ी, मेरे भीतर से आवाज आई .... कहीं वही लड़की तो नहीं... और जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो उस किशोरी को देख मैं अवाक् रह गई, वह उसी तरह भयभीत सहमी सी मेरे सामने खड़ी थी| उसे उस तरह सामने खड़ी देख मैं समझ गई कि यह किसी मुश्किल में है और मुझसे मदद चाह रही है, फिर भी मैंने पूछा----
“ क्या है? यहाँ क्यों आई हो?”
उसने बंगाली में कहा—‘ आमाके आपनार बाड़ीए रोखे नाव’ मतलब आप मुझे अपने घर में रख लीजिए|
‘अरे ऐसे कैसे तुझे मैं अपने घर में रख लूँ, तुझे मैं जानती तक नहीं, तू कौन है?’
कहाँ रहती है?
उसने फिर बंगाली में कहना शुरू किया--- मैं आपके घर के सारे काम कर दूंगी, झाड़ू, पोंछा--- मुझे बचा लीजिए, अपने घर में रख लीजिए|
मैं सोच रही थी कि इसे क्या जवाब दूँ, इससे क्या कहूँ कि मैंने देखा एक अधेड़ उम्र की महिला उसे खोजती – खोजती मेरे दरवाजे तक आ पहुँची| मुझे देखते ही उसने बड़े सलीके से हाथ जोड़ प्रणाम किया और उस किशोरी का हाथ पकड़कर खींचते हुए बोली चल, इससे पहले कि मैं कुछ पूछु उसने मुझे देखकर कहा--- ‘बहू है मेरी, पता नहीं क्यों यह यहाँ चली आई और उसे लेकर चली गई| मुझे दाल में कुछ काला लग रहा था लेकिन किसी तरह के झमेले में मैं पड़ना नहीं चाहती थी और मैंने कुछ नहीं कहा| इस घटना को हुए करीब दस दिन हो चुके थे और मैं इसे भूल चुकी थी कि अचानक एक दिन रात के ग्यारह बजे अपने डोर-बेल की आवाज सुन मैं फिर चौंक पड़ी| मैंने हिचकते हुए दरवाजा खोला तो देखा वही किशोरी खड़ी है, बेहद घबराई हुई थी और बंगाली में बोलते-बोलते कि मुझे बचा लो--- मुझे बचा लो, बिना मेरी इजाजत के मेरे घर में घुस आई| मैं भी उसे हत-प्रभ देखती रही, बोली कुछ भी नहीं और दरवाजा बंद कर लिया| वह किसी मुश्किल में थी इतना तो साफ जाहिर था लिहाजा रात भर मैंने उसे अपने घर में शरण दे दी| मैंने उससे पूछा
“ क्या नाम है तुम्हारा”?
“काकुली”
“कहाँ रहती हो?” उसने अपनी हाथ से इशारा कर बताते हुए कहा---
‘यहीं इस बस्ती में’
और फिर बिना रुके बंगाली में उसने अपनी सारी मुश्किलें बतानी शुरू कर दी|
उस सहमी, घबराई किशोरी को मैं गौर से देखने लगी| काला रंग, लंबा चेहरा, देखने में ठीक-ठाक, कच्ची उम्र की मासूमियत उस घबराए चेहरे पे साफ दिख रही थी| वह सहमी हुई बंगाली में कहे जा रही थी..
‘ वह औरत जो मुझे लेने आई थी, वह मेरी सास नहीं है| वह मेरी कुछ भी नहीं है| मैं बहरागोड़ा में अपनी मौसी के पास रहती थी| यह औरत और एक बूढ़ा आदमी एक दिन मेरी मौसी के घर आए थे और मौसी ने मुझे इन लोगों के हाथ यह कहकर बेच दिया कि ये लोग तुम्हे शहर ले जाकर किसी अच्छे लड़के से तुम्हारी शादी कर देंगे| लेकिन मुझे वहाँ से लाकर इन्होने मुझे एक कमरे में बंद कर दिया, उस कमरे में पहले से ही एक और मेरी तरह लड़की बंद थी| दिन भर में थोड़ी सी मुढ़ी खाने को दे देते हैं बस| दिन भर में कई पुरुष आते हैं हमारे पास..... और यह कहते-कहते उसका गला भर आया, आँखें भर आईं| फिर उसने मेरी तरफ देख बड़े ही कातर स्वर में कहा---‘ बचा लो मेमसाहब, मुझे किसी तरह बचा लो|
और तुम्हारे माँ-बाप? मैंने कौतूहल वश पूछा
उसने फिर बंगाली में जवाब दिया—‘ माँ को तो मैंने देखा नहीं, लोग बताते हैं कि मुझे जन्म देने के दौरान ही वह चल बसी, बाप चार साल हुए मर गया|’
अगली सुबह मेरी नींद खुलने से पहले ही वह अधेड़ औरत फिर से मेरे घर आ धमकी| मुझे देखते ही उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मुस्कुराते हुए बंगाली में बोली—‘काकुली है क्या’? मेरी बहू! मैं जानती थी कि वह यहीं आई होगी क्योंकि यहाँ वह और किसी को तो जानती नहीं| फिर बोली--- ‘मेमसाहब इसके किसी बात पर विश्वास मत कीजिएगा, यह बहुत झूट बोलती है|’और फिर काकुली को वह अपने साथ ले वहाँ से चली गई| मैंने कुछ कहना उचित नहीं समझा| यह जानते हुए भी कि काकुली पर जुल्म हो रहे हैं, मैं चाहती तो उसे उस कमरे से आजाद करवा सकती थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया क्योंकि अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय काकुली के लिए निकाल पाना मुझे फिजूल लग रहा था| मैंने अपने आप को यह कहकर समझा लिया कि इस तरह के जुल्म तो आज हर गली में हो रहे हैं एक और काकुली सही, मुझे क्या फर्क पड़ता है| वह चली गई, मैंने फिर एक क्षण भी काकुली पर सोचना व्यर्थ समझा और अपने आप में व्यस्त हो गई| लेकिन अभी दो ही दिन बीते थे कि मैं सुबह मार्निग वाक के लिए निकल रही थी, दरवाजा खुला ही था, अचानक दौड़ी-दौड़ी काकुली हमारे घर में घुस आई, बेहद घबराई हुई, गला सूख गया था, उसका दाहिना हाथ खून से भींगा हुआ था, उसके चेहरे पर भी खून के छींटे थे, साडी पर भी खून लगे हुए थे, वह आकार धम्म से मेरे बरामदे में बैठ गई और कुछ बुदबुदाए जा रही थी ...... मेरे दिए छे .... मेरे दिए छे .... मतलब मार डाला मैंने.... मार डाला मैंने....
उसे इस हालत में देख मैं काफी घबरा गई, मैंने उससे पूछा---‘ किसे मार डाला तुमने’?
उसने अजीब सी आवाज में कहा--- उसी बूढ़े को जो मुझे खरीदकर यहाँ ले आया था और मुझसे....
तब तक मेरी डोर बेल बजी, मैंने आई होल से देखा पुलिस मेरे दरवाजे पर खड़ी थी| मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ फिर मैंने पीछे का दरवाजा काकुली के लिए खोल दिया| पुलिस को मेरे घर से काकुली नहीं मिली| काकुली कहाँ गई, पुलिस उसे पकड़ पाई या नहीं और वह अब कहाँ है, मुझे कुछ नहीं पता| मेरी नजर में काकुली हत्यारिन नहीं है| यदि कोई दोषी है तो वो मैं हूँ| काकुली मेरे पास आई, वह बेबस थी, मुझसे उसने अपने पर हो रहे जुल्म को साफ-साफ बताया, मदद भी माँगी लेकिन मैंने उसकी किसी भी तरह से मदद नहीं की जबकि मैं चाहती तो उसे उस गंदगी से निकाल सकती थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया| मैंने अपनी व्यस्त लेकिन एक लए में चली आ रही जिंदगी में किसी तरह का जंजाल लेना उचित नहीं समझा इसलिए उस बूढ़े व्यक्ति की हत्यारिन काकुली नहीं बल्कि मैं हूँ, मैं हूँ उसकी हत्यारिन|
गीता दुबे, जमशेदपुर
झारखण्ड
COMMENTS