भाग्य से ही मिल रहा है वरना भीख तक न मिले - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com खूब सारे लोगों को जो कुछ मिल रहा है...
भाग्य से ही मिल रहा है
वरना भीख तक न मिले
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
खूब सारे लोगों को जो कुछ मिल रहा है उसे भाग्य की कृपा ही समझना चाहिए वरना जिस हिसाब से ये लोग काम कर रहे हैं उस हिसाब से तो इनको कुछ भी पाने का हक तक नहीं है।
अपने पूर्वजों के किसी संचित पुण्य या भाग्य से जो कुछ मिल गया है वह भगवान की कृपा ही कही जानी चाहिए। आजकल जिस किस्म के लोगों से हमारा पाला पड़ता है, जिस प्रजाति के लोग हमारे आस-पास रहते या काम करते हैं, मिलते-जुलते हैं उन सभी में से बहुत सारे लोग ऎसे जरूर मिल जाया करते हैं जिन्हें देख कर हमें यह अहसास होता है कि ये लोग उन कामों, पदों या बाड़ों-गलियारों, कुर्सियों के काबिल जरा भी नहीं हैं फिर भी साठ साला मौज उड़ाने का पक्का लाइसेंस साथ लेकर आए हैं।
इस मामले में पढ़े-लिखों या अनपढ़ों में कोई भेद नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों ही किस्मों में ऎसे लोगों की भरमार है। इसलिए यह कहना कि शिक्षा से दायित्व बोध में कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बिल्कुल गलत होगा। एक अनपढ़ और आम आदमी तो मजदूरी के नाम पर कुछ भी कर सकता है, उसे किसी भी प्रकार की कोई शर्म नहीं आती। और आए भी क्यों, काम करने में कैसी शरम।
कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लेकिन दूसरी ओर जो लोग कुछ पोथियां ही पढ़ गए हों, डिग्रियां पा ली हों तथा खूब सारे ज्ञान का विस्फोट अपने जेहन में जमा कर प्रबुद्ध होने और अपने आपके बड़े या महान होने का दंभ भरते हैं वे ही काम करने में शरमाते हैं।
पढ़ा-लिखा आदमी मेहनत से जी चुराता है और थोड़ी-बहुत मेहनत भी नहीं कर सकता। इसके लिए किसी उदाहरण को ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है बल्कि इस किस्म के लोग सर्वव्यापक हैं। आज की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम उदघोष तो करते रहे हैं - श्रमेव जयते। लेकिन हकीकत में हम सभी लोग श्रम से दूर भागने के आदी हो गए हैं। यहां तक कि जिन कामों को हमें खुद करना चाहिए उसके लिए भी हमेशा हमें नौकर-चाकरों की तलाश बनी रहती है।
हम सभी की यह मानसिकता होती जा रही है कि हमें कुछ न करना पड़े, हमारे जो जो भी काम हैं वे भी दूसरे लोग ही बिना कुछ ना नुकर किए, बिना कोई अपेक्षा रखे अपने आप करते रहें और हमें उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी दर्शाने की जरूरत नहीं पड़े।
हम सभी को यह भ्रम होता जा रहा है कि हम सेवा लेने के लिए ही पैदा हुए हैं और दूसरे लोग हमारी सेवा करने के लिए ही। हम चाहे जो कुछ करें, करते रहें, हमें न कोई रोकने वाला हो, न कोई टोकने वाला ही। हमारी इच्छा हो वही काम करते रहें।
हमें न अपने कर्तव्य कर्म की परवाह है, न किसी के उलाहने की। हमारे लिए अपनी मुक्ति, आनंद और भोग-विलास, खान-पान की कोई कमी न रहे, चाहे हमारे काम हों न हों।
अपने जीवन के सारे आनंद और उन्मुक्त मनोरंजन पहले और काम बाद में, इसी मानसिकता ने सब तरफ हरामखोरी की प्रवृत्ति को इतना अधिक बढ़ावा दे डाला है कि कार्य संस्कृति का सब तरफ कबाड़ा ही होकर रह गया है।
जो काम हमें करने चाहिएं उनकी तरफ भी मुँह मोड़े हुए हैं और उन कामों की तरफ भी उदासीन हैं जो काम हमें खुद को ही करने हैं। जो बिचारे काम कर रहे हैं, अपने कत्र्तव्यों को पूरी ईमानदारी के साथ निभा रहे हैं, उन सभी को हम अपनी दृष्टि में मूर्ख और भोंदू मानकर चल रहे हैं।
हम चाहते हैं हम मौज उड़ाते रहें और हमारे काम भी दूसरे कर दिया करें ताकि अपने आनंद और मनोरंजन में कोई फर्क नहीं पड़े। जो लोग हमारी दिनचर्या या कार्यों से वाकिफ हैं वे सारे के सारे इस बात को हृदय से महसूस करते हैं कि हम जो कुछ पा रहे हैं उसके हकदार हम नहीं हैं।
हम उतना काम भी नहीं करते हैं जितनी हमसे अपेक्षा है । बल्कि दशांश काम भी करने में हमें मौत आती है। हर काम को टालने के हम आदी हो गए हैं और कोई काम समय पर पूरा न हो पाए, इसके लिए प्रयासरत रहने लगे हैं।
हम सभी लोग अपने आप का मूल्यांकन करें तो हमारी आत्मा बिना किसी हिचक या शर्म के साफ-साफ कह देगी कि हम अव्वल दर्जे के कामचोर, कामटालू और काम ढालू हैं तथा जो कुछ पा रहे हैं वह बिना मेहनत का ही है। जो लोग बिना मेहनत के एक पैसा भी कहीं से प्राप्त करते हैं उन्हें एक-एक पाईका हिसाब चुकाना होता है।
यह हिसाब या तो शरीर चुकाएगा या फिर दवाइयां, जाँचें या और किस्मों का कोई सा नुकसान। हराम का पैसा जमा होना सुकूनदायी लगता है, मिठास देता है लेकिन जब यह बाहर निकलने की यात्रा शुरू कर देता है तब पीछे मुड़कर नहीं देखता।
हममें से काफी सारे लोग ऎसे हैं जो बिना मेहनत के मेहनताना पा रहे हैं। यह न मिले तो हमारी हालत भिखारियों से भी बदतर हो जाए। हमसे परिश्रम होना या भीख मांगना संभव नहीं है क्योंकि लाज-शरम आती है। और दूसरे हम इस काबिल भी नहीं हैं कि हमें भीख में कुछ प्राप्त हो जाए।
अपने आपको तौलने का प्रयास करें तो स्पष्ट भान हो ही जाएगा कि न तो हम कोई काम-धाम करने की स्थिति में हैं, न हम भीख मांगने की कुव्वत रखते हैं।
भगवान और भाग्य का शुक्रिया मानें कि बिना किए-धराए मिल रहा है वरना हम बंधी-बंधायी खर्ची छूट जाए तो क्या कर सकते हैं, इस बारे में सोचना भी भयावह हो सकता है।
अपने आपको जानें, सत्य और तथ्य को स्वीकारें और मेहनत करें, सेवा और परोपकार के अवसरों का भरपूर उपयोग करें वरना यह अवसर भी निकल जाएगा तो कहीं के नहीं रहने वाले, क्योंकि फिर शायद ही कभी हम इंसान बन पाएं। जिन लोगों में सोचने की क्षमता शेष है, वे सोचें और बदलाव लाएं, अपना स्वभाव बदलें और पुरुषार्थ को अपनाएं।
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