बोलने की आजादी पर खत्म हुई लगाम ? प्रमोद भार्गव आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना तकनीक कानून की धारा 66-ए समाप्त करके उपभोक्ताओं को स...
बोलने की आजादी पर खत्म हुई लगाम ?
प्रमोद भार्गव
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना तकनीक कानून की धारा 66-ए समाप्त करके उपभोक्ताओं को समाचार माध्यमों पर बोलने की छूट दे दी। दरअसल यह धारा ही बेमतलब थी,क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में पहले से ही ऐसे प्रावधान और प्रतिबंध हैं, जो अभिव्यक्ति के असीमित अधिकार और स्वतंत्रता पर लगाम लगाने का काम करते हैं। हालांकि साल 2000 में बने साइबर कानून में यह धारा नहीं थे, इसे मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने संशोधन के जरिए 27 अक्टूबर 2009 को जोड़ा था। तब से ही यह धारा सोशल मीडिया में राजनीतिकों पर की गई टिप्पणियों के परिप्रेक्ष्य में पुलिसिया दुरूपयोग का सबब बनी हुई है। इस धारा में तल्ख भाषा में कटाक्ष करने पर टिप्पणीकर्ता की गिरफ्तारी का प्रावधान था, लेकिन इसे ठीक से परिभाषित नहीं किया गया था, जिसका लाभ पुलिस उठाती थी। नतीजतन प्रतिष्ठिता और अनजाने में भी टिप्पणी करने वाले लोग इस धारा के शिकार होकर प्रताड़ित व अपमानित किए गए हैं। इसीलिए न्यायलय को अपने फैसले में कहना पड़ा है कि आइटी एक्ट की धारा 66-ए सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित कर रही है।
यह धारा कानूनी रूप में अस्तित्व में आने के समय से ही बोलने की आजादी में बाधक बनती रही है। क्योंकि धारा के तहत सोशल मीडिया पर व्यक्ति विशेष को आहत करने खौफनाक विचार, टिप्पणी, तस्वीर या चलचित्र डालने की गतिविधि को अपराध माना गया है। लेकिन इन दोनों शब्दों को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। लिहाजा किसी भी लोकप्रिय राजनीतिक हस्ती पर टिप्पणी करने पर इस धारा की व्याख्या जांच अधिकारी,पूर्व नियोजित मंशा के अनुरूप कर लिया करते थे। मसलन इसे परिभाषित करने की पूरी स्वतंत्रता पुलिस अधिकारी की इच्छा और समझ पर निर्भर थी। नतीजतन ममता बनर्जी का कार्टून फेसबुक पर पोस्ट करने वाले प्राध्यापक अंबिकेश महापात्रा को इस धारा का दंश झेलना पड़ा। उच्च स्तर के भ्रष्टाचार पर संसद का कार्टून बनाने वाले व्यंग्य चित्रकार असीम त्रिवेदी इसके लपेटे में आए।
पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंरबरम के बेटे पर टिप्पणी करने वाले पुड्डुचेरी के व्यापारी रवि श्रीनिवासन और उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले छात्र विकी खान को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था।
मुंबई पुलिस ने तब तो हद ही कर दी थी जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की मौत के बाद मुबंई बंद के विरूद्ध फेसबुक पर टिप्पणी करने वाली कक्षा 12 वीं की छात्रा शाहीन ढांडा और उसकी अभिव्यक्ति को पसंद करने वाली सहेली रिनू श्रीनिवासन को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। दरअसल यही वह घटना थी, जो 66-ए की संवैधानिकता को चुनौती देने की वजह बनी। दिल्ली की श्रेया सिंघल ने इसे न्यायालय में जनहित याचिका के मार्फत चुनौती दी। अंततः न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी विधेयक-2000 में अलग से जोड़ी गई इस धारा को असंवैधानिक ठहराते हुए विलोपित कर दिया। लेकिन अदालत ने फैसले में साफ कर दिया है कि 66-ए को खत्म करने का आशय आपत्तिजनक वेबसाइटों के प्रसारण को छूट देने के बाबत कतई नहीं है। सरकार को इन वेब-ठिकानों को प्रतिबंधित करने का पूरा अधिकार है।
बावजूद अदालत ने यह भी साफ कर दिया है कि आपत्तिजनक अभिव्यक्ति को हरेक हालात में जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यदि ऐसी टिप्पणी या विचारों से सद्भाव बिगड़ता हैं अथवा कोई व्यक्ति या समुदाय आहत होता है तो उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के तहत मानहानि का दावा करने का हक है। भले ही यह टिप्पणी सोशल साइट पर ही क्यों न की गई हो ? जाहिर है,कानून बोलने की आजादी तो देता है,लेकिन किसी की भावनाएं आहत करने का अधिकार नहीं देता। गोया सोशल मीडिया पर विर्मश करने वाले खाताधारकों को अभी भी सचेत रहने की जरूरत है। वैसे भी धाराएं 499 और 500,ऐसी धाराएं हैं,जो संविधान के अनुच्छेद 19 ;2द्ध के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए तार्किक प्रतिबंधों से कहीं आगे जाती हैं। इन धाराओं में उल्लेखित प्रावधानों के चलते उचित या तार्किक आलोचना पर भी प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा पर आंच आने अथवा भावनाओं के आहत होने के बहाने निजी इस्तगासे के माध्यम से अदालत में मुकदमा दायर कर सकता है। संविधान का भी तकाजा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संपूर्ण या असीमित नहीं है। उसकी भी अपनी सीमा है,मर्यादा है। मर्यादा का उल्लंघन होगा तो कानून के लंबे हाथ बेव ठिकानों के उपभोक्ताओं के गिरेबान तक पहुंच सकते हैं। लिहाजा बोलने की आजादी का यह अर्थ यह कतई नहीं है कि आप निहायत हल्की या बेहूदी टिप्पणियां करने लग जाएं।
इस वाबत गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 19 ;1द्ध के तहत अभिव्यक्ति के अधिकार की गारंटी दी गई है। प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया की स्वतंत्रता इसी गारंटी के अंतर्गत मानी जाती है। इन्हें अलग से परिभाषित नहीं किया गया है। लिहाजा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सरकार के नियंत्रण से बाहर रहने का अधिकार मान लिया जाता है। धारा-66-ए इस अधिकार को बाधित कर रही थी। क्योंकि इस धारा के तहत जितनी भी कानूनी कार्यवाही हुई,वे बड़ी राजनीतिक हस्तियों के विरुद्ध की गईं टिप्पणियों के क्रम में की गई थीं। जाहिर है,सरकारी स्तर पर पुलिस कानून का दुरुपयोग कर रही थी। इस वजह से सोशल मीडिया के अपभोक्ता सरकारी नियंत्रण से बाहर आने को छटपटा रहे थे।
जहां तक देश के संपूर्ण मीडिया की आजादी का सवाल है तो अन्य देशों की तुलना में भारत में स्थिति बेहतर है। दुनिया के एक तिहाई लोग ऐसे देशों में रहते है,जहां मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। ऐसे देशों में मुस्लिम देशों की संख्या सर्वाधिक है। हालांकि विश्वस्तरीय सर्वेक्षण के मुताबिक प्रेस की आजादी के परिप्रेक्ष्य में भारत का स्थान 140 वां है। जो विश्वसनीय नहीं है। यदि दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसी सरकार नियंत्रित समाचार माध्यमों को छोड़ दे तो किसी भी निजी चैनल पर सरकार का दबदबा नहीं है। इसके विपरीत केंद्र व राज्य सरकारें विज्ञापन और पुरस्कार एवं सम्मानों के प्रलोभन से मीडिया को एकपक्षीय बनाने का काम करती है।
बावजूद सोशल मीडिया की भूमिका अहम् है। दरअसल सोशल या वैकल्पिक मीडिया बहुत आसान तरीके से और बेहद सस्ती दरों पर विचारों या टिप्पणियों की अभिव्यक्ति का बड़ा और बहुभाषी माध्यम बना हुआ है। यहां विचार को काटने-छांटने या संपादित करने का कोई अंकुश नहीं है। नतीजतन फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, यू-ट्यूब और वाट्सअप के जरिए यूजर्स अपने विचार को चंद पलों में हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचा सकते हैं। क्योंकि देश में करीब 25 करोड़ लोग अंतर्जाल का प्रयोग करते हैं। करीब 12 करोड़ लोग फेसबुक और डेढ़ करोड़ लोग ट्विटर पर हाजिर-नाजिर हैं।
करीब चार करोड़ ब्राडबैंड कनेक्शन हैं और इंटरनेट का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने वाले 35 साल से कम उम्र के युवा व किशोर हैं,जो विवेक से सोचे-विचारे बिना क्रिया-प्रतिक्रिया करने में तत्पर रहते हैं। स्मार्ट और एन्डरॉयड मोबाइल फोनों ने इंटरनेट की सुविधा को उपभोक्ता की मुठ्ठी में थमा दिया है। इस वजह से वेब-ठिकानों के उपयोगकर्ता रात-दिन या हर पल ऑनलाइन रहते हैं और बिना कुछ समझे-बूझे टिप्पणी या पसंद की क्लिक दबा देते हैं। बाल ठाकरे की मौत पर मुबंई बंद पर अपनी सहेली शाहीन ढांडा की टिप्पणी पर पसंद की क्लिक दबाने वाली रिनू श्रीनिवासन इसी जल्दबाजी के चलते धारा 66-ए की गिरफ्त में आ गई थी। इसलिए मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या बोलने की आजादी को हल्के में लेने की अभी भी जरूरत नहीं है। अच्छा है उपभोक्ता सोशल मीडिया पर व्यक्ति केंद्रित बेहूदी टिप्पणियां करने से बचे रहें।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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