साहित्य समागम के साथ श्रीनाथद्वारा के दिव्य दर्शन मेरा अपना मानना है कि जब तक आपके पुण्योदय नहीं होते, आप किसी भी तीर्थस्थल पर नहीं जा सक...
साहित्य समागम के साथ श्रीनाथद्वारा के दिव्य दर्शन
मेरा अपना मानना है कि जब तक आपके पुण्योदय नहीं होते, आप किसी भी तीर्थस्थल पर नहीं जा सकते. दूसरा यह कि जब तक उस तीर्थक्षेत्र के स्वामी का बुलावा नहीं होता, तब तक आपको उनके दिव्यदर्शन भी नहीं कर सकते. संभव है कि आप मेरे मत से सहम हों अथवा नहीं भी हों, पर मेरा अपना यह विश्वास अडिग है कि बगैर उनकी कृपा के कुछ भी नहीं हो सकता. मैं इसी विश्वास को लिए चलता हूँ.
निश्चित रूप से मैं अपने इसी विश्वास के बल पर यह कह सकता हूँ कि मेरे अन्दर कुछ पुण्य़ॊं का उदय हुआ और मुझे श्रीनाथजी के दर्शन प्राप्त करने का अहोभाग्य प्राप्त हुआ. यह श्रीनाथजी की कृपा का ही फ़ल था कि मुझे साहित्य मंडल नाथद्वारा के प्रधानमंत्री (स्व) श्री भगवतीप्रसादजी देवपुरा का आमंत्रण-पत्र प्राप्त हुआ . नाथद्वारा में पाटॊत्सव ब्रजभाषा समारोह 14-15 फ़रवरी 2012 को आयोजित किया गया था, पत्र में इस बात का उल्लेख था कि वे मेरे साहित्यिक अवदान को देखते हुए मुझे ”हिन्दी भाषा भूषण” सम्मान से सम्मानित करने जा रहे हैं. मुझे दोहरी खुशी प्राप्त हो रही थी कि मुझे जहाँ श्रीविग्रह के दर्शनों का पुण्य-लाभ मिलेगा, वहीं मुझे साहित्य शिरोमणि-श्री भगवतीप्रसादजी देवपुरा के हस्ते सम्मानित किया जाएगा.
इस खुशखबरी को मैंने अपनी पत्नि-पुत्रों और साहित्यकार मित्रों को सुनाया और जाने की तैयारी करने लगा. इस अवसर का लाभ उठाने के लिए मैंने पत्नि को साथ चलने को कहा. वे तैयार तो हो गईं लेकिन किसी कारणवश वे इस यात्रा से वंचित रह गईं. इस बीच मैं दो बार श्रीनाथजी के दर्शन कर चुका हूँ, लेकिन पत्नि इस बार भी साथ नहीं थीं. तीसरी बार भीलवाडा में आयोजित “बालवाटिका” के कार्यक्रम में जाने के लिए यह सोचते हुए हम उद्धत हुए कि लौटते में श्रीनाथजी के दर्शन जरुर करेंगे, लेकिन नहीं जा पाए.
साहित्यमंडल श्रीनाथद्वारा माह फ़रवरी में मनाए जाने वाले पाटॊत्सव ब्रजभाषा समारोह जो 11-12 फ़रवरी 2015 को मनाया जाना था, का आमंत्रण-पत्र संस्था के प्रधानमंत्री श्री श्यामप्रकाशजी देवपुरा, का प्राप्त हुआ. फ़िर कुछ ऎसा हुआ कि चाहकर भी हम नहीं जा पाए. उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए आप मेरे मत से जरूर सहमत होंगे कि जब तक उस सिद्ध क्षेत्र के स्वामी की जब तक कृपा नहीं होगी, आप वहाँ प्रवेश नहीं पा सकते.
( फ़ोटो क्रमांक (१ तथा २) सम्मानित होते हुए लेखक(३) मंच का संचालन करते (स्व) भगवतीप्रसादजी देवपुरा( बतौर स्मृतियों के लिए एकमात्र चित्र.),(४-५-६-७) हल्दीघाटी (८) श्री शिवमृदुलजी के साथ(९) राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के परिसर में अकादमी के प्रबन्ध सम्पादक डा.प्रमोद भट्टजी एवं अन्य मित्रों के साथ) (१०) उदयपुर राजमहल(११) पिछोरा झील(१२)उदयपुर के साहित्यिक मित्र श्री जगदीश तिवारी तथा नवकृति संस्था के अध्यक्ष (१३) (मित्र श्री विष्णु व्यास) (१४) डा.गर्गाजी के साथ चित्तौडगढ में) (१५) विजयस्तंभ परिसर में तैनात सुरक्षाकर्मी
अपने साहित्यिक मित्र श्री विष्णु मंगरुलकर से मैंने इस बाबत चर्चा की. हम सभी स्नेहवश उन्हें भाऊ के नाम से पुकारते हैं. जैसा कि उनका स्वभाव है कि पहले तो वे ना-नुकुर करते हैं फ़िर सहमति दे देते हैं. हमने कार्यक्रम की रूपरेखा तय की और भीलवाडा के मेरे साहित्यकार मित्र एवं बालवाटिका के संपादक डा.श्री भैंरुलाल गर्गजी को अपने कार्यक्रम से अवगत कराया. डा.साहब ने मुझे बतलाया कि वे श्री श्री विष्णु कुमार व्यास के मकान के उद्घाटन समारोह में सपरिवार गंगरार आ रहे हैं. चुंकि गंगरार भीलवाडा-चित्तौडगढ मार्ग में स्थित है और यह स्थान चित्तौडगढ के करीब है. अतः उन्होंने हमें चित्तौडगढ रुकने के सलाह दी.
सुबह के करीब सात अथवा साढे सात बजे के करीब हमारी ट्रेन चित्तौडगढ पर आकर रुकती है. स्टेशन पर हमनें मुँह-हाथ धोया और बाहर निकलकर एक गुमठी पर चाय के घूँट भर ही रहे थे कि डा.साहब अपने बडॆ सुपुत्र वेदांत प्रभाकर के साथ अपनी गाडी में आ पहुँचे. गर्मजोशी के साथ उन्होंने हमारा स्वागत किया.
चित्तौडगढ आना और वहाँ के प्रख्यात साहित्यकार श्री शिव मृदुल, डा. रमेश मयंक, राधेश्याम मेवाडी, पण्डित नंदकिशोर निर्झर आदि से न मिलना, न तो डा.साहब को गंवारा था, न हमें. हम सीधे श्री शिव मृदुलजी के यहाँ पहुँचे. इन दिनो वे अस्वस्थ चल रहे थे. कारण यह था कि वे अपने घर के बाहर खडॆ हुए थे कि किसी तेजरफ़्तार मोटरसाईकल सवार ने उन्हें टक्कर मार दी थी. सिर में गहरी चोट लगी थी. ईश्वर की कृपा और सही वक्त पर सही इलाज से वे ठीक तो हो गए थे, लेकिन सिर पर अब भी.पट्टी चढी हुई थी.
मृदुलजी ने हम सभी का उठकर आत्मीय स्वागत किया और औपचारिक चर्चाओं के साथ-साथ चाय-पानी का दौर भी चलता रहा. मृदुलजी का अनुरोध था कि हम भोजन करने के उपरान्त ही कहीं जा सकते हैं. हम उनका अनुरोध न ठुकरा सके. समय की कोई कमी हमारे पास नहीं थी. अतः यह विचार बना कि रसोई तैयार होने तक हम चित्तौडगढ का भ्रमण कर आते हैं.
चित्तौडगढ किले का भ्रमण करने के पश्चात हम सबने मिलकर सुस्वादु भोजन का आनन्द उठाया. तत्पश्चात हम गंगवार के लिए निकले.
गंगवार में मित्र विष्णुजी से भेंट हुई. यहाँ दो विष्णुओं के बीच मुलाकात हो रही थी. हमने उनके नवनिर्मित भवन का अवलोकन किया. सभी के साथ बैठकर भोजन का आनन्द उठाया. शाम के लगभग पांच बज रहे थे. पूरा गर्ग परिवार और हम अब भीलवाडा की ओर प्रस्थान कर रहे थे. भीलवाडा से ही हमें श्रीनाथद्वारा जाने के लिए बस मिलनी थी. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार डा.साहब भी हमारे साथ ही वहाँ चलने वाले थे, लेकिन किसी आवश्यक कार्य के चलते वे साथ न दे सके.
भीलवाडा पहुँचते ही हमें श्रीनाथद्वारा जाने वाली बस सुगमता से मिल गई और अब हम उस ओर बढ चले थे.
श्रीनाथद्वारा स्थित “बालासिनोर सदन”, बी विंग सब्जी मण्डी में अवस्थित है, जहाँ भारत के अन्य स्थानों से पहुँचने वाले साहित्यकारों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की गई थी.
दिनांक १४ फ़रवरी २०१२=श्रीनाथजी के बडॆ मुखिया एवं साहित्य-मण्डल श्रीनाथद्वारा के माननीय अध्यक्ष श्री नरहरि ठाकुरजी, अन्य गणमान्य नागरिकों और प्रबुद्धवर्ग की गरिमामय उपस्थिति में कार्यक्रम की शुरुआत हुई. दो दिवसीय चलने वाले इस साहित्यिक कार्यक्रम में पहले दिन “समस्या पूर्ति” कार्यक्रम आयोजित हुआ. नौ बजे सुबह से शुरु होने वाले इस प्रथम सत्र में सवैये के अन्तरगत “हलमूसल धारी” तथा कवित्त में “म्हाडॊ भ्रष्टाचार को” विषय पर श्री जमनालालजी शर्मा”जमनेश”, गिरीशजी “विद्रोही”, दुर्गाशंकर यादव “मधु” ने इस विषय पर विस्तार से अपने विचार प्रस्तुत किए. द्वितीय सत्र में श्रीनाथद्वारा के स्कुलों में अध्ययनरत विद्यार्थियों को सर्वोच्च अंक प्राप्त करने पर “विद्यार्थी रत्न” सम्मान से सम्मानित किया जाता है. इसे एक शानदार और और जानदार परम्परा का निर्वहन होना कहा जा सकता है. इस तरह सम्मानित होने वाले बच्चे न केवल प्रोत्साहित होते हैं बल्कि जीवन में उच्चपादान पर अपने आपको प्रतिष्ठित कर पाते हैं.तथा देश और समाज के लिए कुछ कर जाने की भावना से ओतप्रोत भी होते हैं. इस सत्र की जितनी भी तारीफ़ की जाए, कम ही प्रतीत होती है.
तृतीय सत्र में “ब्रज भाषा उपनिषद” के अन्तरगत ब्रज भाषा पर आधारित अनेकों विषय पर परिचर्चा होती है. जैसे भक्तिकाल में ब्रजभाषा, रीति कालीन ब्रजभाषा साहित्य आदि
चतुर्थ सत्र में “ब्रजभाषा विभूषण” सम्मान से विद्वत साहित्यकारों का सम्मान किया गया. पंचम सत्र में “हिन्दीभाषा भूषण सम्मान” से साहित्यकारों का सम्मान किया गया जिसमें मैं भी शामिल था. सत्र का संचालन बडॆ मनोयोग से करते हुए ब्रजभाषा के नामचीन साहित्यकार श्री विठ्ठल पारिख ने श्री नाथूलाल महावरजी द्वारा रचित सवैये पढते हुए साहित्यकार का परिचय देते हुए चलते हैं. मुझे सम्मानित करते हुए उन्होंने निम्नलिखित सवैया पढा, वह कुछ इस तरह से है
गोवर्धन यादव.
कथाकार हैं, श्रेष्ठ श्री लिखें बाल साहित्य सफ़ल समीक्षक सृजनरत, मगनमना श्री नित्य, “सृजन श्री” से सम्मानित पुरस्कार सम्मान, मान वर विभव विभूषित गोवर्धन श्रीमंत वाणी का गुणाकार हैं हिन्दी सेवी श्रेष्ठ, (त्रैमासिक “हरसिंगार”पृष्ठ २६ कुशल कवि कथाकार हैं.
षष्ठम सत्र में “शिक्षा साहित्य मनीषी सम्मान” तथा सप्तम सत्र में “ब्रजभाषा कवि सम्मेलन” का आयोजन किया गया. ब्रजभाषा में निहित सौंदर्यबोध की कविताओं को सुनने और सराहना करने का मेरे लिए यह प्रथम अवसर था.
एक दिन में लगातार सात सत्र चलते रहने के बावजूद न तो उनमें कहीं उबाऊपन था और न ही घुटन महसूस हो रही थी. ऎसा होना निश्चित ही आश्चर्य का विषय है. मैं बैठे-बैठे सोच रहा था- यदि किसी रथ में एक साथ सात घोडॆ जोड दिए जाएं, तो उन्हें साधते हुए सीधे मार्ग में चला पाना कितनी जोखिम भरा काम है. इसमे दुर्घट्ना की अनेकानेक संभावनाएं बन सकती है. यदि आप इसे चला पाए तो इसका सारा श्रेय उस साहसी सारथी को दिया जाना चाहिए. सात-सात कार्यक्रम को अंजाम देने का एवं कुशल संचालन का सारा श्रेय संस्था के प्रधानमंत्री श्री भगवतीप्रसादजी देवपुरा को दिया जाना चाहिए .लीक से हटकर उन्हें चलना कतई पसंद नहीं आता था. जिसके लिए वे तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर देते थे. कठोर निर्णय ही किसी काम को सही अन्जाम दे सकता है.
फ़ाल्गुन कृष्ण ८ सं.२०६८ बुधवार, १५ फ़रवरी २०१२ का दिन कार्यक्रम के समापन का दिन था. इस दिन भी दो सत्र आयोजित किए गए थे. प्रथम सत्र की शुरुआत प्रातः ८ बजे होती है, प्रथम सत्र में “अष्टछाप, काल कवलित पत्रिका, साहित्यकार, पुस्तकालय एवं प्रकाशन कक्ष” , जिसमें संस्था की गतिविधियों का अवलोकन कराना होता है. इसी सत्र में “पुरजन सम्मान” भी होता है. जो व्यक्ति किसी कारणवश पिछली साल उपस्थित नहीं हो पाए थे, के आगमन पर सम्मानित किए जाने की परम्परा विकसित की गई है. द्वितीय सत्र में “सम्पादक शिरोमणि” सम्मान “ से उन सम्पादकॊ कॊ सम्मानित किया जाता है, जिनका कार्य उल्लेखनीय होता है.
यह संस्था अपने स्थापना वर्ष १९३७ से अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों का सफ़लतापूर्क आयोजन करती आ रही है. करीब साठ हजार पुस्तकों का विशाल पुस्तकालय आप यहाँ देख सकते हैं. संस्था द्वारा संचालित ३०० छात्राओं का माध्यमिक विद्यालय, देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं के साथ बालसाहित्य भी यहाँ सहजता से उपलब्ध हैं. फ़ाल्गुन सप्तमी को “पाटोत्सव ब्रजभाषा समारोह एवं १४ सितम्बर को “हिन्दी लाओ-देश बचाओ” कार्यक्रम यहाँ सम्पादित होते हैं. देश की अनेकानेक बडी संस्थाओं से सम्बद्ध इस संस्था में विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रदत्त ११-११ हजार रुपयों के छः पुरस्कार सहित अभिनन्दन कार्यक्रम भी यहाँ प्रतिवर्ष होते हैं.
श्रीनाथजी का मन्दिर यहाँ से कुछ ही दूरी पर अवस्थित है. सुबह नौ बजे से शाम तक चलने वाले इस दो दिवसीय व्यस्तम कार्यक्रम के पश्चात हम सीधे श्रीनाथजी के दिव्य दर्शनों के लिए निकल पडते. रास्ते में पडने वाली दूकानों में श्रीजी की भव्य तस्वीरें, रंग-बिरंगे फ़ूलों में गुंथी मालाओं का विक्रय करती अनेकानेक दूकाने, श्रीजी के महाप्रसाद विकेताओं की दूकानों आदि को पार करते हुए तंग गलियों से गुजरते हुए मन्दिर तक जाना होता है. श्रीजी राजस्थान तथा गुजरात के लोगों के इष्ट देवता हैं. अलग-अलग जगहों से वहाँ इकठ्ठा हुए भक्तगणॊं की टॊली झुमती-नाचती-गाती और वाद्ययंत्रों से पूरे वातावरण को मदमस्त करती हुई श्रीजी की देवढी पर जमा हो कर इस बात का इन्तजार करती है कि कब पट खुलेंगे और हम जी भर कर उस नटवर- नागर के दिव्य दर्शन कर सकेंगे. जैसे ही पट खुलता है,हजारों-हजार भक्तगण पूरी श्रद्धा और उल्लहास के साथ अन्दर प्रवेश करता है और उनके दर्शन कर अपने को अहोभागी मानता है.
कार्यक्रम की समाप्ति पर हमनें “हल्दीघाटी” का भ्रमण किया. यह वह स्थली है जहाँ मेवाड के वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप और अकबर के बीच युद्ध हुआ था. उनकी याद को अक्षुण्य बनाने के लिए यहाँ मेवाड के किले की अनुकृति बनाई गई है, जिसमें महाराणा के वशंजों तक की पूरी जानकारी उपलब्ध है. यहाँ डाक्यूमेंटरी फ़िल्म भी दिखायी जाती है,जो उन कठिन दिनों की पृष्ठभूमि पर आधारित है.
दूसरे दिन हम झीलों की नगरी उदयपुर जा पहुँचे. मित्र जगदीश तिवारी, “नवकृति” संस्था के अध्यक्ष माननीय श्री इकबाल हुसैन “इकबाल” ने न सिर्फ़ हमारा स्वागत किया बल्कि राजस्थान साहित्य अकादमी भी साथ ले गए, तथा अकादमी के प्रबंध संपादक डा. प्रमोद भट्टजी से परिचय करवाया और शाम को एक काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन करते हुए हमारा सम्मान भी किया. मित्र द्वय की मिलनसारिता, साहित्य के प्रति गहरी आस्था.और अनुराग आज भी स्मृति-पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है.
मन तो यहीं रम गया है श्रीचरणॊं में. ऎसे सुरम्य माहौल और वातावरण को छॊड़कर भला कौन लौटकर आना चाहेगा.? लेकिन लौटना ही पडता है. भारी मन लिए हम लौट पडते हैं, इस आशा और विश्वास के साथ कि कब कृपानिधान अपनी दया का पात्र हमें बनाते हैं और अपने दिव्य-दर्शनॊं के लिए अपनी कृपा बरसाते हैं.?
सम्मानीय श्रीयुत श्रीवास्तवजी
जवाब देंहटाएंनमस्कार
आलेख प्रकाशन के लिए धन्यवाद