आठ नम्बर का जूता मैं रेल्वे स्टेशन पर उसका इंतजार कर रहा था। ट्रेन के आने में अब कम समय ही बचा था। मैं मुसाफिरों की भीड़ मैं उसका चेहरा खो...
आठ नम्बर का जूता
मैं रेल्वे स्टेशन पर उसका इंतजार कर रहा था। ट्रेन के आने में अब कम समय ही बचा था। मैं मुसाफिरों की भीड़ मैं उसका चेहरा खोज रहा था। दिल में सोच रहा था, वो आयेगा जरूर। डिपार्टमेंट की तरफ से मद्रास में ट्रेनिंग थी, और उसके लिये हम दोनों ने ही जाने की इच्छा प्रकट की थी। ट्रेनिंग पर जाने के लिये सरकारी लेटर, टूर एडवांस सभी ले लिया था और आज उसने मेरे साथ टिकिट भी कन्फर्म करा ली थी, और वक्त पर स्टेशन पर मिलने का वादा किया था। मैंने पहले कुछ देर स्टेशन के बाहर उसका इंतजार किया और अब प्लेटफार्म पर आ गया था और उसका चेहरा तलाश कर रहा था।
उसने मुझसे कहा था - भोपाल में अब जिन्दगी बोझिल लगती है। कहीं दिल नहीं लगता। न काम में, न आफिस में और न ही घर में। घर पर तो जॉन की माँ की हालत देखी नहीं जाती। सारा दिन, सारी रात या तो नींद की गोलियाँ खा कर बेहोश पड़ी रहती है, या जागते हुये रोती रहती है। जॉन की बहन जूली अपनी माँ के पीछे चिपकी हुई बैठी रहती है। खामोश छत की ओर ताकती रहती है, या आँसू बहाती ही रहती है। जॉन की माँ की हालत का अन्दाज़ा लगाना बहुत मुश्किल होता हैं। घर के दरवाज़े पर पहुंचते ही पाँव दो - दो मन के हो जाते हैं, जैसे किसी ने उनमें पत्थर बाँध दिये हों। लेकिन घर तो जाना ही पड़ता है। घर पहुँच कर जॉन की माँ से क्या बात करूं, समझ में नहीं आता। वो भी मुझसे कुछ नहीं कह पाती, बस टेबल पर रखे जॉन के फोटो को देखती, फिर कातर नज़रें फोटो से हटा कर मेरे चेहरे पर चिपका देती। और उसकी इस हालत को मैं सहन नहीं कर पाता। जॉन को इस दुनिया से गये तीन महिने गुज़र गये हैं, लेकिन उसकी जुदाई के ग़म में जरा कमी नहीं आई है। लोग कहते हैं वक्त सबसे बड़ा मरहम है, पर हमारा घाव कभी भरेगा भी? कौन जाने। क्या जॉन की जुदाई की आग में हमेशा जलता रहूँगा? वो सवालिया नजरों से मुझे देखता। जार्ज ने मुझसे कहा - घर पर मेरी मदर-इन-ला उनके बेटे के साथ भोपाल आई है। वो लाली को और जूली को सभ्भाल लेंगे। सुना है माँ की गोद में बड़ा सुकून मिलता है, शायद लाली कुछ संभल जायें और उसकी माँ की मौजूदगी में जॉन की मौत का ग़म कुछ कम हो जाये। बार - बार मुझे देख कर उसे अपने बेटे की याद बेचैन कर जाती। जैसे हर बार मेरे घर पहुँचने पर वो सोचती कि मैं अब की बार जॉन को साथ लेकर आऊँगा। फिर उसके चेहरे पर दर्द का दरिया उमड़ आता, और आँसूओं की बरसात उसकी आँखों से जारी हो जाती। इसीलिये दो हफ्ते ट्रेनिंग पर जाने का सोच लिया, फिर तुम्हारा साथ भी मिल गया, दिल कुछ राहत पा जाये शायद।
जार्ज और मैं एक ही डिपार्टमेंट में काम करते हैं, इसलिये हम कुलिग भी हैं, और दोस्त भी। उसका परिवार खशुमिजा़ज था। और सबसे प्रेम रखने वाला। उनके घर कोई चला जाय तो वह खुश हो जाते। किसी को बोझ नहीं समझते और दिल से आवभगत करते। जब जॉर्ज उज्जैन में था और मेरी नई-नई शादी हुई थी, तो मैं अपनी नई पत्नी के साथ उज्जैन में जार्ज के घर पर ही ठहरा था। उसने और उसकी पत्नी लाली ने हमें चार दिन बहुत प्यार से रखा। उस समय जॉन और जूली बहुत छोटे थे। जार्ज की पत्नी सारा दिन किचन में लगी रहती। अपने बच्चों का नाश्ता बनाना, उन्हें खिलाना फिर उनका स्कूल के लिये टिफिन तैयार करना और स्कूल भेजना। उसकी सुबह काम से शुरू होती और रात तक व्यस्त रहती। हमारे लिये कितनी ही तरह की नई डिशें तैयार करती, मेरी पत्नी भी उससे साऊथ इंडियन डिश बनाना सीखती।
एक समय गुज़र गया, बहुत शहरों में रहने के बाद जार्ज भी भोपाल ही आ गया। उसने यहाँ अपना घर भी ले लिया। अब दोनों बच्चे भी बड़े हो गये। बड़े लड़के जॉन को इंजिनियरिंग पढ़ने बैंगलोर भेजा और जूली अभी कालेज में भोपाल ही में पढ़ रही थी। जीवन अपनी रफ्तार से मजे में चल रहा था, कि अचानक उनके जीवन में काली दिवाली आयी। जी हाँ दीवाली के दिन ही उन्हें ये खबर मिली कि जॉन एज्युकेशनल दूर पर गोवा गया था, और नहाते वक्त समन्दर की गोद में चला गया फिर वापस नहीं आया।
जार्ज की पत्नी तो जैसे पागल ही हो गई। जार्ज जिसका एक ही लड़का था, जड़ हो गया जैसे काठ मार गया। न रोता न कुछ कहता। सारा ज्वालामुखी उसने अन्दर ही अन्दर पी लिया था और लावा उसे अन्दर जलाये जा रहा था। उसका दर्द उसके चेहरे से पढ़ा जा सकता था। पुरूष होने और अपने परिवार का ख्याल करके वो खुलकर रोया भी नहीं। अपने वतन केरल से इतनी दूर रोजी-रोटी के लिये, इतनी दूर, अपनो से, और ये भारी ग़म। कोई आँसू पोछने वाला भी नहीं। वो अपने आँसू-खुद ही पोंछता, और सीने पर पत्थर रखकर अपनी पत्नी और बच्ची को सभ्भालता।
एक भारी आग जिसमें वे जला, जिसकी लफ्टें अब शायद धीमी हो गई हों, लेकिन लाल सुर्ख अंगारे की सुर्खी शायद नज़र न आती हो, पर जरा सा कुरेदने पर शोले फिर भड़क उठेंगे ये मैं अच्छी तरह जानता था।
वे अब तक प्लेटफार्म पर आ चुका था, और लोग ट्रेन में चढ़ गये थे और आमने सामने की सीटों पर बैठ चुके थे और ट्रेन चल दी थी। उसने अपना सामान ठीक तरह से रखा और बताने लगा कि उसे पहुँचने में कैसे देर हुई। उसकी पत्नी का भाई स्कूटर से उसे स्टेशन छोड़ गया था।
जब वो सामने की सीट पर बैठा था, मैं सोंच रहा था ये इंसान जो सामने बैठा है कितनी भारी आग अपने अंदर समेटे हुये है, जिसकी गर्मी मैं महसूस कर रहा था। वो अंगारे जो राख की सफेद चादर ताने हुये थे अंदर से सुलग रहे थे। लकड़ियाँ जो आधी जलकर थक गई थी, और उनमें से अब लपटें नहीं निकल रहीं थी, अपने अंगारों के साथ सुस्त पड़ी थीं। मानों थोड़ा कुरेदने पर फिर भड़क उठेगी। मैंने सोच लिया था पूरे सफर में, और साथ में, उसके इस दर्द को कमी नहीं कुरेदूँगा। क्योंकि वो तो राहत पाने मेरे साथ आया था।
मद्रास पहुँच कर हम दोनों होटल के एक ही कमरे में ठहरे। दिन भर मन लगा कर ट्रेनिंग लेते, साथ खाना खाने जाते, कमरे पर आकर मैं उसे इधर उधर की बातों में लगाये रखता। शाम को हम लोग घूमने निकल जाते। दो हफ्ते के मद्रास मुकाम में मैंने उसके दुःख दर्द की कोई बात ज़बान पर नहीं आने दी। न उसे इस बारे में बात करने का मौका ही दिया। वो मेरी बातों पर हँसता भी, और बातचीत में हिस्सा भी लेता। और खुश भी रहता। उसका व्यवहार सामान्य होने लगा। मैंने उसे उसके दर्द से काफी हद तक उबार लिया है ऐसा मैं महसूस करता। उसके अंदर अंगारों की तपिश कम हो गयी है ऐसा जान पड़ता। दहकती लकड़ियाँ सुस्त पड़ी है, और उनके सिरों के अंगारे अब सफेद कफन में लिफ्टे मात्र कोयले रह गये है, और अब शायद कोई चिन्गारी इनमें बाकी नहीं।
आज ट्रेनिंग का आखरी दिन है। दिन में मैंने उससे कहा शाम को चायना बाजार चलेंगे, घर के लिये कुछ खरीदारी कर लेगें। उसने भी चलने में रूचि दिखाई। मैंने अपनी पत्नि और बेटी के लिये कुछ सामान खरीदा। उसने मुझे सामान खरीदने में सहयोग किया। वो एक सामान्य व्यक्ति की तरह मेरे साथ-साथ था। और उसकी इस हालत को देख कर मैं बड़ा खुश था।
हम एक जूते की दुकान के सामने से गुजरे। जहाँ अच्छे नये डिजाईन के स्पोर्ट शू बाहर शो केस में रखे थे। उन्हें देखकर उसकी आँखों में एक चमक सी आ गई। उसने उत्साह से कहा-यहाँ आओ। हम दोनों दुकान में पहुँच कर बैठ गये। उसने सेल्समेन से शोकेस में रखे जूते की तरफ इशारा किया-वो दिखाओ। सेल्समेन ने शोकेस से जूता निकाल कर दिखाया। उसने उलट पलट कर देखा फिर मेरी तरफ बढ़ा कर बोला-देखो अच्छा है न ................। उसके चेहरे पर बहुत खुशी देखी। उसने जूते के अंदर पड़ा नम्बर देखा और कहा अरे ये तो सात नम्बर है, आठ नम्बर का दो।
सेल्समेन ने उसके पैरों की तरफ नज़र डाल कर, जूते का नम्बर नापने वाली तिपाई आगे बढ़ाते हुये कहा-आपको आठ नम्बर आता है, जरा इस पर अपना पैर रखिये।
उसने अपना पैर न बढ़ाया। एक जोर का झटका उसे लगा, जो वो अंदर ही अंदर झेल गया। उसका चेहरा एक दम काला पड़ गया। वो फौरन उठा और कहा चलो चहाँ से...। हम दोनों तीर की तरह दुकान से बाहर हो गये। सेल्समेन की आवाज हमारे कानों से दूर होती सुनाई दी - क्या हो गया साहब मैं आठ नम्बर दिखाता हूं न...।
सेल्समेन ने अनजाने में ही, सुस्त पड़ी लकड़ियों को फिर हिला दिया था। अंगारों ने सफेद राख की चादर उतार फेंकी थी, अंगारे अट्टहास कर रहे थे। चिन्गारियाँ फट-फट की आवाज के साथ ज्वाला में बदल गई थी और वो उसमे फिर जलने लगा था।
24 जनवरी 2005
मोहम्मद इस्माईल खान
एफ-1 दिव्या होम्स् सी 4/30 सिविल लाईन
श्यामला हिल्स् भोपाल 462002
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