सुर-असुर व देवासुर संग्राम (डॉ. श्याम गुप्त) वेद और महाभारत के अनुसार आदिकाल में पृथ्वी पर - देव , दैत्य , दानव , राक्षस , यक्ष , गंधर्व...
सुर-असुर व देवासुर संग्राम
(डॉ. श्याम गुप्त)
वेद और महाभारत के अनुसार आदिकाल में पृथ्वी पर - देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि प्रमुख जातियां थीं । देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। ऋषि कश्यप की विभिन्न पत्नियों -- देवताओं की अदिति से, दैत्यों की दिति से, दानवों की दनु से, राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई। इसी तरह अन्य पत्नियों से यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है। सृष्टि के विकास की नींव में ऋषि कश्यप एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने कुल का विस्तार किया था| ब्रह्माजी के मानस पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र ऋषि कश्यप जिन्हें अनिष्टनेमी के नाम से भी जाना जाता है, इनकी माता का नाम 'कला' था जो कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थी पुराणों अनुसार सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर स्थित था जहाँ वे परब्रह्म परमात्मा कि तपस्या में लीन रहते थे | कश्यप सागर ..केस्पियन सी.... कश्यप मेरु प्रदेश ..कश्मीर प्रदेश उन्हीं के नाम पर कहे जाते हैं| देव, दानव एवं मानव सभी ऋषि कश्यप को बहुत आदरणीय मानते एवं उनकी आज्ञा का पालन करते थे ऋषि कश्यप ने अनेकों स्मृति-ग्रंथों की रचना की थी
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प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक से जुड़े हुए थे। इस दूसरे धरती को प्राचीन काल में सात द्वीपों में बांटा गया था – जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित था। जम्बू द्वीप के 9 खंड थे : इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी क्षेत्र में सुर और असुरों का साम्राज्य था। चित्र
चित्र-१ .रामायण कालीन भारत
असुर देवताओं के सबसे प्रबल शत्रुओं में गिने जाते थे। पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भी असुरों और देवों में सदा युद्ध होता रहा। एक ही पितामह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा एवं एक ही पिता कश्यप मुनि की विभिन्न पत्नियों से संतान- देव ‘अदिति’ के पुत्र, दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव 'दनु' के पुत्र अर्थात भाई भाई होने पर भी बड़े भाइयों दैत्य व दानवों ने देवों के विरुद्ध दुश्मनी / प्रतियोगिता के कारण श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु पहले तो अति- साहसतापूर्ण व वीरतापूर्ण कार्यों हेतु स्वयम को प्रतिबद्ध किया, तत्पश्चात भौतिक उन्नति व सुखलिप्तता हेतु अतिचारी कर्म प्रारम्भ किये, गुरु भृगु के पुत्र शुक्राचार्य के नेतृत्व में शक्तिशाली होने पर देवों के विरुद्ध कर्म प्रारम्भ कर दिए जो अति-भौतिकतापूर्ण एवं मानवीयता व धर्म-विरुद्ध अनाचारितापूर्ण भी होने लगे अतः वे सुर विरोधी अर्थात असुर कहलाये जाने लगे, इसी के साथ वैचारिकता एवं संस्कृति-भिन्नता के कारण स्व-संस्कृति स्थापना एवं वर्चस्व के हेतु संघर्ष होने लगे |
कुछ लोग मानते हैं कि ब्रह्मा और उनके कुल के लोग धरती के नहीं थे। उन्होंने धरती पर आक्रमण करके मधु और कैटभ नाम के दैत्यों का वध कर धरती पर अपने कुल का विस्तार किया था। बस, यहीं से धरती के दैत्यों और स्वर्ग के देवताओं के बीच लड़ाई शुरू हो गई।
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देवताओं से संघर्ष
देवता और असुरों की यह लड़ाई चलती रही। जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षेत्र ( रशिया=रूस) में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। असुरों ने वर्चस्व के लिए लगातार देवों के साथ युद्ध किया और इनमें से कई युद्धों में वे प्राय: विजयी भी होते रहे। असुरों में भी बड़े बड़े प्रसिद्द राज्याध्यक्ष, बलवान-शक्तिशाली, वीर, भक्त, धार्मिक, विद्वान् हुए | उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों, मूलतः इंद्र व विष्णु के शत्रु होने के कारण ही उन्हें असुर, दुष्ट, दैत्य कहा गया है, किंतु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भृगु के पुत्र शुक्राचार्य थे, जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे। महादेव शिव सुर–असुर दोनों के प्रति समभाव रखते थे यद्यपि वे दैत्यों के अति-भौतिकता की संस्कृति एवं देवों की सुखलिप्ततापूर्ण जीवनचर्या की अपेक्षा वनान्चली प्राकृतिक जीवन शैली के समर्थक थे| असुर भी प्रायः प्रकृति-पूजक थे। देव गुरु बृहस्पति के भाई दैत्य गुरु शुक्राचार्य स्वयँ शिव के शिष्य, भक्त व उपासक थे | वे उशना नाम से प्रसिद्द कवि-विद्वान् एवं मृतक को पुनः जीवित कर देने वाली मृतसंजीवनी विद्या के ज्ञाता थे जो भगवान शिव ने उन्हें देवों को अमृत द्वारा अमरता प्राप्त होने पर दोनों वर्गों के समानुपातिक समन्वय व शक्तिसंतुलन के स्वरुप प्रदान की थी | इस प्रकार ब्रहस्पति के शिष्य व समर्थक देव, सुर तथा शुक्राचार्य के शिष्य व समर्थक दैत्य आदि असुर कहे जाने लगे | यद्यपि दोनों संस्कृतियों में प्रेम व विवाह आदि अंतर्संबंध प्रतिबंधित नहीं थे | यथा उशना अर्थात शुक्राचार्य ने इंद्र के लिए बज्र निर्मित किया, भक्त प्रहलाद, शंखचूर्ण असुर की पत्नी विष्णु भक्त तुलसी , मथुरा का धार्मिक न्यायप्रिय शासक मधु दैत्य जिसका पुत्र लवण बड़ा होने पर अत्याचारी राजा व लवणासुर कहा गया ।
दैत्यराज हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद के विष्णु भक्त होने के बाद असुर भी मानवीयता एवं भक्तिभावयुत होने लगे एवं विद्याधरों की कोटि में आने लगे एवं असुरों में भी देवताओं के समर्थक होने लगे | वर्चस्व के युद्धों में अंतिम बार प्रहलाद के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य जो आज का समस्त एशिया व यूरोप है
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---– देव केवल स्वर्ग, देवलोक, भरत-खंड ( मध्य एशिया, उत्तरापथ, उत्तराखंड, भारतवर्ष, ब्रह्मावर्त ) तक सिमट गए | तत्पश्चात अमृत-मंथन – समुद्र मंथन की गाथा इन दो संप्रदायों में समन्वय की कहानी है|
समुद्र मंथन में निकली हुई वारुणी को असुरों ने ले लिया। असुरों ने अमृत कलश को भी छीन लिया। उनमें आपस में झगड़ा होने लगा कि पहले कौन पिए। कुछ दुर्बल दैत्य ही बलवान दैत्यों का ईर्ष्यावश विरोध करने तथा न्याय की दुहाई देने लगे कि ‘देवताओं ने हमारे बराबर परिश्रम किया, इसलिए उनको यज्ञभाग समान रूप से मिलना चाहिए। नशा उतरने पर असुरों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ। उन्होंने देवताओं पर धावा बोल दिया। पुनः देवासुर संग्राम हुआ। इस बार असुरराज बेहोश हो गए पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उन्हें फिर ठीक कर दिया। नारदजी के आग्रह पर कि देवताओं को अभीष्ट प्राप्त हो चुका है, युद्ध बंद हुआ। देवता और असुर अपने-अपने लोक को पधारे।
परस्पर सहयोग तथा एकजुट प्रयत्न से एक राष्ट्रीय जीवन की खोज हुई। पशुपालन भी समाज ने सीखा और खेती व्यापक बनी। इस प्रकार एक ओर जहॉं सामाजिकता के सर्वश्रेष्ठ भावों का निर्माण हुआ दूसरी ओर वहॉं लौकिक उन्नति भी हुई। यह सभ्यता के दोहरे कार्य की ओर पहला प्रयत्नपूर्वक उठाया गया कदम था। सबका समन्वय करता हुआ, सहिष्णु,एकरस सामाजिक जीवन के निर्माण से समाज मे स्थायित्व एवं अमरत्व आया।
इस मंथन से एश्वर्य तथा संपदा के साथ मानव को वारूणी भी प्राप्त हुई। असुर व असुरों के उपासक, जो प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान में आगे थे, पर रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान थे, वारूणी पीकर मदहोश हो गए। इसलिए उनके पल्ले अमृत नहीं पड़ा। वे एकरस सांस्कृतिक जीवन के अंग न बन बसे। फिर भी एक विशाल प्रयत्न सभी प्रकार के लोगों को मिलाकर साथ चलने का अध्यवसाय हुआ और इसी से प्रारंभिक समृद्धि, सामर्थ्य और लौकिक संपदा एकरस सामाजिक जीवन की खोज में मिलीं।
तदुपरांत ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु ने वामन-अवतार संधि द्वारा बलि को एवं उसके समर्थक असुरों को पाताल - अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि-- भेज दिया गया एवं देव व उनके समर्थक - मानव, असुर, दैत्य व नाग आदि अन्य मानवेतर जातियां समस्त यूरेशिया, अफ्रीका में फ़ैल गए| इस काल तक असुरों व अन्य देवेतर जातियों के समर्थ, वीर, योद्धा, भक्त एवं महान व्यक्तित्वों को अर्ध-देव व देव श्रेणी में आने का सम्मान मिलना प्रारम्भ होचुका था | यथा इंद्र का मित्र वृषाकपि, बलि को इंद्र पद प्राप्त होना, हनुमान का पूज्य देवों में सम्मिलित होना |
सुर-असुर का अर्थ एवं ग्रंथों में उनका उल्लेख
प्रारंभिक ऋग्वेदिक मंडलों में सृष्टि उत्पत्ति सूक्तों में सुर का अर्थ तात्विक अर्थ पदार्थ रचना के सृजनशील मूल प्राकृतिक सृष्टि कणों (शक्तियों) को कहा गया है एवं असृजनशील व सृजन में बंधता बाधा उत्पन्न करने वाले कठोर रासायनिक बंधनों को बनाने वाले कणों को ( शक्तियों को ) असुर कहा गया है |
–-ऋग्वेद १/२२/२२६ में मन्त्र है..तद्विष्णो परमं पदं सदा पश्यति सूरय: दिबीव चक्षुराततम |---अर्थात ..सूरयः (सुर) = विद्वान्, ज्ञानी जन अपने सामान्य नेत्रों ( ज्ञान चक्षुओं ) से अदृष्ट देव ईश्वर विष्णु को देखते हैं| तथा “ ---मद्देवानाम सुरत्वेकम || ( ऋक.3/५५) ..सभी महान देवों का सुरत्व, अर्थात अच्छे कार्य हेतु बल संयुक्त है, एक ही है | अदिति के सबसे ज्येष्ठ व प्रतापी पुत्र सूर्यदेव के कारण सभी देवों को सुर कहा गया |
असुर शब्द 'असु' अर्थात 'प्राण', और 'र' अर्थात 'वाला' (प्राणवान् अथवा शक्तिमान) से मिलकर बना है। बाद के समय में धीरे-धीरे असुर भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुणतथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिसमें उनके रहस्यमय गुणों का पता लगाता है। असुर देवों के बड़े भ्राता हैं एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं।
आर्यों के मूल धर्म में सर्वशक्तिमान भगवान के अंशस्वरूप प्राकृतिक शक्तियों की उपासना होती थी। ऋग्वेद में सूर्य, वायु, अग्नि, आकाश और इंद्र से ऋद्धि-सिद्धियां मांगी जाती थीं। यही देवता हैं। उक्त देवताओं के ऊपर विष्णु और विष्णु से ऊपर ब्रह्म ही सत्य माना जाता था।
बाद में अमूर्त देवताओं की कल्पना हुई जिन्हें ‘असुर’ कहा गया। जो प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन भी कर सकते थे, मानवता एवं सांसारिक हित एवं भौतिक प्राप्ति हेतु | ‘देव’ तथा ‘असुर’ ये दोनों शब्द पहले देवताओं के अर्थ में प्रयोग होते थे। ऋग्वेद के प्राचीनतम अंशों में ‘असुर’ इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वेदों में ‘वरुण’ को ‘असुर’ कहा गया और सबके जीवनदाता ‘सूर्य’ की गणना ‘सुर’ तथा ‘असुर’ दोनों में है। कृष्ण को भी ऋग्वेद में कृष्णासुर कहा गया है | ऋग्वेद ८/९६/७५८४ में इंद्र का कथन है..द्रप्सम पश्यंविषुयोचरस्तमुपह्वरे नद्यो अन्शुमत्या: |
भो त कृष्णमवत स्थिवांस मिस्यामि वो वृषणो ||
----हमने अंशुमती तट ( यमुना तट ) पर गुफाओं में घूमते हुए कृष्णासुर को सूर्य के सदृश्य देख लिया है | हे मरुतो! संग्राम में हम आपके सहयोग की अपेक्षा रखते हैं|
जोरोस्त्रोनिज़्म
(अफगान शासक द्वारा विष्णु पूजा)
बाद में कर्म के नियमानुशासन की प्रतिबद्धता से संयुक्त होने पर अति-भौतिकता पर चलने वालों को असुर एवं संस्कारित मानवीय व उच्चकोटि के सदाचरण के गुणों को सुर कहा गया | ‘देव’ शब्द के लिए सुर का प्रयुक्त करने लगे और ‘असुर’ का अर्थ ‘राक्षस’ करने लगे। ऋग्वेद में यम अपनी बहन यमी से उसकी कामेच्छा जनित मांग के अनुचित कार्य हेतु किसी असुर से संपर्क के लिए कहता है | ऋग्वेद १०/१०/८८६७ में यम का कथन है कथन है---
न ते सखा सख्यं वष्टये वत्सलक्ष्यामद्वि पुरुषा भवति|
महष्पुमान्सो असुरस्य वीरा दिवोध्वरि उर्विया परिख्यानि ||
--हे सखी! आपका यह सहयोगी आपके साथ इस प्रकार के संपर्क का इच्छुक नहीं है क्योंकि आप सहोदरा बहन हैं| हमें यह अभीष्ट नहीं है | आप असुरों के वीर पुत्रों, जो सर्वत्र विचरण करते हैं की संगति करें |
परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया।
असुर के अन्य अर्थ
- वैदिक काल में वह जो सुर या देवता न हो, बल्कि उनसे भिन्न और उनका विरोधी हो। ईशोपनिषद में असुर्यानाम ते लोका अन्धें तमावृता ...अन्धकार के अज्ञान में रहने वाले लोग असुर | ऋग्वेद १०/१०८ सरमा प्रकरण में केवल प्राण रक्षा में लिप्त प्राणियों को असुर कहा गया है |
- प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्य या राक्षस।
- इतिहास और पुरातत्त्व से आधुनिक असीरिया देश के उन प्राचीन निवासियों की संज्ञा जिन्हें उन दिनों असुर कहते थे और जिनके देश का नाम पहले असुरिय आधुनिक असीरिया था। वे ही ईरान के अहुर कहलाये|
- नीच वृत्ति वाला और असंस्कृत पुरूष।
भारत में रामायण काल तक दो तरह के लोग हो गए। एक वे जो सुरों को मानते थे और दूसरे वे जो असुरों को मानते थे। अर्थात एक वे जो ऋग्वेद को मानते थे और दूसरे वे जो अथर्ववेद को मानते थे।
महाभारत एवं अन्य प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं। वस्तुतः रामायण काल तक असुरों व अन्य देवेतर जातियों के समर्थ व्यक्तियों, वीर, योद्धा, एवं महान व्यक्तित्वों व देवों के सहायकों, मित्रों, भक्त आदि को अर्ध-देव व देव श्रेणी में सम्मिलित किये जाने का सम्मान मिलना प्रारम्भ होचुका था | उदाहरण स्वरुप वैदिक वृषाकपि जो इंद्र का मित्र है ( जिसे कुछ लोग परवर्ती काल में हनुमान के रूप में देव कोटि ग्रहण करना मानते हैं)
पुराणों में आये उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण के उदय से पूर्व कंस ने यादव गणतंत्र के प्रमुख अपने पिता और मथुरा के राजा उग्रसेन को बंदी बनाकर निरंकुश एकतंत्र की स्थापना करके अपने को सम्राट घोषित किया था। उसने यादव व आभीरों को दबाने के लिए इस क्षेत्र में असुरों को भारी मात्रा में ससम्मान बसाया था, जो प्रजा का अनेक प्रकार से उत्पीड़न करते थे। श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में ही आभीर युवकों को संगठित करके इनसे टक्कर ली थी। ब्रज के विभिन्न भागों में इन असुरों को जागीरें देकर कंस ने सम्मानित किया। मथुरा के समीप दहिता क्षेत्र में दंतवक्र की छावनी थी, पूतना खेंचरी में, अरिष्ठासुर अरोठ में तथा व्योमासुर कामवन में बसे हुए थे। परंतु कंस वध के फलस्वरूप यह असुर समूह या तो मार दिया गया या फिर ये इस क्षेत्र से भाग गये।
'कथासरित्सागर' में एक प्रेम पूर्ण कथा में किसी असुर का वर्णन नायक के साथ हुआ है। संस्कृत के धार्मिक ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अंतर नहीं दिखाया गया है, किंतु प्रारम्भिक अवस्था में दैत्य एवं दानव, असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे।
परवर्ती काल में ‘देव’ तथा ‘असुर’ -आर्यों की ही दो शाखाऍं थीं। बाद के काल में सुर–असुर को ही आर्य-अनार्य कहा जाने लगा | प्राचीन ग्रंथों में आर्यों के कहीं बाहर से आने का उल्लेख या किंवदंती नहीं मिलती। आर्यों–अनार्यों के युद्ध का वर्णन उक्त ग्रंथों में नहीं है। संघर्ष की कोई झलक हमें ऐतिहासिक सामग्री में नहीं मिलती।
केवल प्राचीन काल में ही देवासुर संग्राम का वर्णन आता है, जिसे कुछ पुरातत्वज्ञ प्रतीकात्मक मानते हैं। इसके विरूद्ध महाभारत में भारत को मानव का आदि देश कहा गया है। सभी दंतकथाओं, पौराणिक आख्यानों, परंपराओं एवं मान्यताओं में यह अंतर्निहित है कि आर्यों का आदि देश भारत है।
किसी समुदाय की प्रारंभिक त्रुटियाँ होती हैं मस्तीभरा जीवन, उपभोग्या नारी का स्वरूप, अनेक स्त्रियों के साथ अवैध संबंध आदि अतिशय भोगपूर्ण व विलासी जीवन | इस उन्नत सभ्यता व संस्कृति देव-असुर संस्कृति में भी यही त्रुटियाँ आयीं | सोमरस का देवों द्वारा और सुरा का असुरों द्वारा पान, उन्मुक्त जीवन आदि | इन्हीं त्रुटियों का निराकरण करते हुए महान् चिंतक एवं सिद्धांतनिष्ठ व्यक्तित्व के धनी परमश्रद्धेय वैवस्वत मनु ने जल प्रलयोपरांत मन-मानव संस्कृति की स्थापना की जो मानव त्रुटियों की संस्कृति, विनष्ट देव-संस्कृति का ही संस्कारित रूप था | मानव रक्त में विद्रोह करने की क्षमता पुराकाल से ही चली आ रही है। देव व असुरों के आपसी विद्रोह के पश्चात जब महर्षि अत्रि ने वैवस्वत मनु एवं अपने शिष्य ऋषि उतथ्य के साथ इस मानव स्थापना की संस्कृति की इसकी जड़ों को शक्तिशाली और बलवती बनाने का अदम्य प्रयास किया तब भी इसके विरोध के लिये विरोध हुआ। पुलस्त्य और विश्रवा ने अपनी पूर्ण शक्ति से इसकी स्थापना का विरोध किया तथा रक्ष संस्कृति की स्थापना की | यही रक्ष संस्कृति आगे चलकर आर्य संस्कृति के लिए अत्यन्त बाधक सिद्ध हुई।
क्या देवासुर संग्राम...नियंडरथल व होमोसेपियंस मानवों के द्वंद्व नहीं थे ?
प्रारम्भिक शैव - शिव-पशुपतिनाथ के अनुयायी, कैलाशवासी-हिम-स्थानी, वनवासी, चीनी प्रकार के चित्र-विचित्र, बोने, भूत-प्रेत की प्रकार के अर्ध-विकसित, आदि-मानव, प्रोटो-आस्ट्रेलॉईड, नियंडर्थल आदि...असुर एवं
प्रारम्भिक वैष्णव – विष्णु के अनुयायी –मैदान व गर्म प्रदेश वासी विक्सित नगरीय सभ्यता के उन्नत निवासी –होमो सेपियंस ...देव – इनके मध्य चलने वाला वर्ग भेद, विभाजन एवं संघर्ष ही शायद प्रारम्भिक देवासुर संग्राम थे | जो शिव एवं सती प्रकरण एवं दक्ष शिरोच्छेद, त्रिपुर विनाश व गंगावतरण आदि के उपरांत शिव को देवाधिदेव एवं अन्य को देवों की कोटि में आने के बाद धीरे धीरे समाप्त होगये |
समस्त सुमेरु या जम्बू द्वीप देव-सभ्यता का प्रदेश था | यहीं स्वर्ग में गंगा आदि नदियाँ बहती थीं,यहीं ब्रह्मा-विष्णु व शिव, इंद्र आदि के देवलोक थे...शिव का कैलाश, कश्यप का केश्पियन सागर, स्वर्ग, इन्द्रलोक आदि ..यहीं थे जो अति उन्नत सभ्यता थी –-- जीव सृष्टि के सृजनकर्ता प्रथम मनु स्वयंभाव मनु व कश्यप की सभी संतानें ..भाई-भाई होने पर भी स्वभाव व आचरण में भिन्न थे | विविध मानव एवं असुर आदि मानवेतर जातियां साथ साथ ही निवास करती थीं | विकासवाद के विचार से नियंडरथल मानव ....देव संस्कृति की स्थापना से प्रथम उन्नत आदि-मानव थे जो हिमालय उद्भव एवं महाजलप्रलय से पूर्व समस्त पुरानी दुनिया—जम्बू द्वीप....में फैले हुए थे साथ ही साथ अधिक उन्नत नवीन मानव क्रोमेग्नन-मानव व होमो सेपियंस भी थे | यही असुर व सुर कहलाये| सह अस्तित्व के साथ साथ संघर्ष भी रहते थे शायद यही संघर्ष देवासुर संग्राम कहलाये | भारतीय भूखंड में स्थित उन्नत मानव..... स्वर्ग – शिवलोक कैलाश अदि आया जाया करते थे ...देवों से सहस्थिति थी ...जबकि अमेरिकी भूखंड (पाताल लोक) व अन्य सुदूर एशिया –अफ्रीका के असुर आदि मानवेतर जातियों को अपने क्रूर कृत्यों के कारण अधर्मी माना जाता था |....अंतिम हिमयुग में टेथिस सागर के विलुप्तीकरण की जलप्रलय में वे अधिकांशतः विनष्ट होगये एवं इधर-उधर फ़ैल गए ..हिमालय के उद्भव एवं वैवस्वत मनु द्वारा पुनः नवीन मानववंश (होमो सेपियंस ) की स्थापना एवं समस्त विश्व में विस्तार के साथ नियंडर्थल मानव धीरे-धीरे विलीन होते गए | यद्यपि उनकी वंश परम्परा वैवस्वत मनु की जलप्रलय एवं नौकायन की घटना के पश्चात धरती पर मानवों को पुनः बसाने के युगों बाद तक भी चलती रही |
कालांतर में देवों और देव समर्थक असुरों में पुनः धार्मिक एवं सांस्कृतिक मतभेद उत्पन्न हुए| अति-भौतिकता एवं आचरण हीनता के अधिकाधिक प्रचलन के कारण नए नए असुर वर्ग एवं आसुरी प्रवृत्ति के असुर समर्थक उत्पन्न हुए और नए संघर्ष का रूप धारण किया। प्राचीन व मध्यकाल तक असुरों ने भारत में अनेकों वर्ष तक शासन किया था। इन देव समर्थक असुर संप्रदाय के कुछ लोग प्रमुखतया ईरान में बसे। उन्होंने ईरान के निकटवर्ती राज्यों पर विजय प्राप्त की और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया। ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक बाईबल मे भी असुर राजाओं का उल्लेख यहुदियों को क़ैद कर उन्हें दास बनाने के रूप में हुआ है। भारत में भी जाति प्रथा को आरम्भ करने वाले असुर थे। असुर लोग आर्य धर्म के विरोधी और निरंकुश व्यवस्था को अपनाने वाले थे।
असुर जनजाति प्रोटो-आस्ट्रेलाइड समूह के अंतर्गत आती है, ऋग्वेद तथा ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रन्थों में असुर शब्द का अनेकानेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। विभिन्न स्थानों पर असुरों की वीरता का वर्णन किया गया है है कि वे पूर्ववैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यन्त शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे। शायद असुर साम्राज्य का अन्त आर्यों के साथ संघर्ष में हो गया।
प्रागैतिहासिक संदर्भ में असुरों को असीरिया नगर के निवासियों के रूप में वर्णन किया है, जिन्होंने मिस्र और बेबीलोन की संस्कृति अपना ली थी और बाद में उसे भारत और इरान तक फैलाया,जहां उन्हें अहुर कहा गया | भारत में सिन्धु सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में असुर ही माने जाते हैं। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से भी असुरों को संबंधित बताया है। लौह युग तक उनकी सशक्त उपस्थिति मानी जाती है।
ईरान या फारस में असुरों को अहुर कहा गया --- ईरान के अहुर, पारसी एक ईश्वर को मानते हैं, जिसे अहुरा मज्दा (संस्कृत असुर मेधा) कहते हैं। उनका वर्णन वैदिक देवता वरुण से काफ़ी मेल खाता है। 'अहुरा' शब्द संस्कृत 'असुर' से सम्बन्धित है और 'मज़्दा' शब्द संस्कृत 'मेधा' से। ऋग्वेद में वरुण और कई देवताओं को 'असुर' की उपाधि दी गयी है (वैसे भी अहुरा मज़्दा के कई नामों में से एक है 'वरुन्')। प्राचीन ईरानी लोग 'असुरों' की पूजा करते थे (जिनमें शायद कुछेक देव भी शामिल थे) और हिन्दुस्तानी आर्य लोग देवों की पूजा करते थे (जिनमें कुछेक असुर भी शामिल थे)। पारसी धर्म ज़न्द-अवेस्ता नाम के धर्मग्रंथ पर आधारित है। इसके प्रस्थापक महात्मा ज़रथ्रुष्ट हैं, इसलिये इस धर्म को ज़रथ्रुष्ट धर्म (Zoroastrianism) भी कहते हैं। अवेस्ता के अब कुछ ही अंश मिलते हैं। इसके सबसे पुराने भाग ऋग्वेद के तुरन्त बाद के काल के हो सकते हैं। इसकी भाषा अवेस्तन, वैदिक संस्कृत से बहुत मेल खाती है। अतः अहुर वे असुर ही हैं जिनमें वैदिक धर्म के ही कुछ सिद्धांतों पर विपरीत वैचारिक तत्व है, जो सुरों व
असुरों में मूल भिन्नता थी | जो बलि-वामन संधि के उपरांत देवों के साथ सह-अस्तित्व में भारतीय क्षेत्र में रह गए एवं बाद में पुनः मत-भिन्नता होने पर ईरान में बस गए|
चित्र २, हुविश्क ( कुषाण पूर्व मथुरा शासक ?) –बाह्लीक या बेक्त्रिया या बलख ( मध्य-एशिया ) उत्तरापथ, चक्षु नदी या ओक्सस के आस-पास ..कश्मीर...स्वर्ग मथुरा तक के शासक (? त्रिमूर्ति- ब्रह्मा,विष्णु, शिव का चित्र –चक्र,त्रिशूल,कमंडल सहित )....चित्र -३.हुविश्क एवं स्कन्द ( शिवपुत्र-....स्केंडीनेविया –कृत्तिकाओं के देश के शासक )......चित्र-४. इंद्र ( इन्द्रलोक...इलावर्त ...उज्बेकिस्तान का शासक ..स्कन्द को अपनी पुत्री देवसेना को देते हुए ...गूगल साभार ..
जरथुस्त्र के अनुसार ईश्वर एक ही है (उस समय फारस में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी ...सुर या देव, प्रकृति पूजकों का वर्चस्व था )। इस ईश्वर को जरथुस्त्र ने 'अहुरा मजदा' कहा अर्थात 'महान जीवन दाता'। जरथुस्त्र चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर तुल्य बने, जीवनदायी ऊर्जा को अपनाए तथा निर्माण, संवर्द्धन एवं प्रगति का वाहक बने। मठवाद, ब्रह्मचर्य, व्रत-उपवास, आत्म दमन आदि की मनाही है। इनसे मनुष्य कमजोर होता है और बुराई से लड़ने की उसकी ताकत कम हो जाती है। मानव इस विश्व का पूरा आनंद उठाए, खुश रहे। वह जो भी करे बस एक बात का ख्याल अवश्य रखे और वह यह कि सदाचार के मार्ग से कभी विचलित न हो। भौतिक सुख-सुविधाओं से संपन्न जीवन की मनाही नहीं है, किसी का हक मारकर या शोषण करके कुछ पाना दुराचार है। जो हमसे कम सम्पन्न हैं, उनकी सदैव मदद करना चाहिए। दैहिक मृत्यु को बुराई की अस्थायी जीत माना गया है। विश्व का अंतिम उद्देश्य अच्छाई की जीत को मानता है, बुराई की सजा को नहीं। अतः यह मान्यता है आत्माओं का अंतिम फैसला होगा। इसके बाद भौतिक शरीर का पुनरोत्थान होगा|
चित्र५ – जरथुस्त्र – गूगल से..
शुद्ध अद्वैतवाद के प्रचारक जोरोस्ट्रीय धर्म ने यहूदी धर्म को प्रभावित किया और उसके द्वारा ईसाई और इस्लाम धर्म को। इस धर्म ने एक बार हिमालय पार के प्रदेशों तथा ग्रीक और रोमन विचार एवं दर्शन को प्रभावित किया था किंतु 600 वर्ष AD के लगभग इस्लाम ने इसका स्थान ले लिया।
सनातन वैदिक धर्म से प्रकारंतारिता द्वारा धर्मों का क्रमिक विकृतीकरण-----सनातन वैदिक धर्म ,ब्रह्म ईश्वर सुर से àपारसी, जरथुस्त्र, अहुरा-मज़्दा, अहुर àयहोवा, यहूदी à बाइबल ईसा ईसाई à मोहम्मद इस्लाम मुस्लिम...... अहुरा मज्दा के सिद्धांत प्राचीन असुरों के भौतिकवाद एवं मनुष्य की केन्द्रीय भूमिका पर आधारित हैं, जो वेद व देव-सभ्यता या आर्य मतों से मूलरूप में समान होते हुए भी भिन्नता एवं अपभ्रष्ट रूप है \ इसी पारसी या फारसी धर्म के सिद्धांत बाद में कुछ सामान्य फेरबदल एवं क्रमिक अपभ्रष्टता के साथ यहूदी à ईसाई à व मुस्लिम धर्मों के मूल बने |
आधुनिक काल में असुर-
विश्वभर में कबीलाई, जनजाति एवं वनवासी जातियों को अपितु सभी विदेशियों को उनके आचरण, व्यवहार व सभ्यता-संस्कृति के कारण अनार्य या असुर समझा जा सकता है | ईरान के असुर या अहुर, या पारसी एक ईश्वर को मानते हैं, जिसे अहुरा मज़्दा (संस्कृत: असुर मेधा) कहते हैं। उनका वर्णन वैदिक देवता वरुण से काफ़ी मेल खाता है। एक ज़माने में पारसी धर्म ईरान का राजधर्म हुआ करता था। अपने धर्म को बचाने के लिए बारह
शताब्दियों से अधिक पूर्व भारत भाग आए थे, उन्होंने यहाँ शरण ली। तबसे आज तक पारसियों ने भारत के उदय मे बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनमें उस महान प्रभु की वाणी अब भी जीवित है और आज तक उनके घरों और चित्र ६ - अफगान शासक –विष्णु की पूजा करते हुए | चित्र गूगल साभार
उपासनागृहों में सुनी जाती है। गीतों के रूप में गाथा नाम से उनके उपदेश सुरक्षित हैं जिनका सांराश है अच्छे विचार, अच्छी वाणी, अच्छे कार्य।
भारतवर्ष में असुर कहलाई जाने वाली जातियां यूं तो सारे देश में फ़ैली हुई हैं| प्रायः जनजातियों, आदिवासियों, वन वासियों, वनांचल के निवासियों, गोंड, भील आदि को असुर कह दिया जाता है| आजकल वे संगठित होकर स्वयं को असुर व अनार्य मानने भी लगे हैं एवं अगदी जाती या आर्य विरोधी स्वर भी उठाने लगे हैं| झारखंड में असुर लोग हज़ारों साल से रहते आए है। मुंडा जनजाति समुदाय के लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में असुरों का उल्लेख मिलता है जब मुण्डालोग 600 ई.पू. झारखण्ड आए थे।
आदिम जनजाति असुर की भाषा मुण्डारी वर्ग की है जो आग्नेय (आस्ट्रो एशियाटिक) भाषा परिवार से सम्बद्ध है। परन्तु असुर जनजाति ने अपनी भाषा की आसुरी भाषा की संज्ञा दी है। अपनी भाषा के अलावे ये नागपुरी व हिन्दी का भी प्रयोग करते हैं। असुर जनजाति में पारम्परिक शिक्षा हेतु युवागृह की परम्परा थी जिसे ‘गिति ओड़ा’ कहा जाता था। असुर बच्चे अपनी प्रथम शिक्षा परिवार से शुरू करते थे और 8 से 10 वर्ष की अवस्था में ‘गिति ओड़ा’ के सदस्य बन जाते थे। जहाँ वे अपनी मातृभाषा में जीवन की विभिन्न भूमिकाओं से सम्बन्धित शिक्षा, लोकगीतों और कहावतों के माध्यम से सीखा करते थे | विभिन्न उत्सव और त्यौहारों के अवसर पर इनकी भागीदारी भी शिक्षा का एक अंग था। इस तरह की शिक्षा उनके लिए कठिन नहीं थी फलतः वे खुशी-खुशी इसमे भाग लिया करते थे। ‘गिति ओड़ा’ की यह परम्परा असुर समुदाय में साठ के दशक तक प्रचलित थी पर उसके बाद से इसमें निरन्तर ह्रास होता गया और वर्त्तमान समय में यह पूर्णतः समाप्त हो चुका है। असुर भाषा का व्याकरण एवं शब्दकोष अभी तक नहीं है। साहित्य की एकमात्र प्रकाशित पुस्तक ‘असुर सिरिंग’ (सम्पादन -सुषमा असुर व वन्दना टेटे 2010) है। इसमें असुर पारंपरिक लोकगीतों के साथ कुछ नये गीत शामिल हैं।
असुर प्रकृति-पूजक होते हैं। ‘सिंगबोंगा’ उनके प्रमुख देवता है। ‘सड़सी कुटासी’ इनका प्रमुख पर्व है, जिसमें यह अपने औजारों और लोहे गलाने वाली भट्टियों की पूजा करते हैं। असुर महिषासुर को अपना पूर्वज मानते है। पिछले कुछ सालों से एक पिछड़े वर्ग के संगठन ने ‘महिषासुर शहीद दिवस’ मनाने की शुरुआत भी की है।हिन्दू धर्म में महिषासुर को एक राक्षस (असुर) के रूप में दिखाया गया है जिसकी हत्या दुर्गा ने की थी। पश्चिमी बंगाल व झारखंड में दुर्गा पूजा के दौरान असुर समुदाय के लोग शोक मनाते है।
यद्यपि यह गोंड समुदाय की एक भ्रमपूर्ण गाथा के कारण उत्पन्न हुआ है कि – उनके देवता शंभू सेक( जो वास्तव में शिव-शंभू महादेव ही हैं ) को आर्यों द्वारा पार्वती के रूपजाल में फंसाकर उनके समुदाय को पराजित कर दिया | परन्तु वास्तव में यह तथ्य उस कथा व घटना का मिथ्याकरण एवं विकृतीकरण है जब दक्षिण भारत के देवता शिव ने समुद्र मंथन से निकला कालकूट विषपान एवं स्वर्ग से गंगावतरण आदि के उपरांत ब्रह्मा, विष्णु से मैत्री के साथ ही देवलोक, जम्बूद्वीप एवं विश्व के अन्य समस्त खण्डों एवं द्वीपों तथा देव-असुर आदि सभी को एक सूत्र में बांधने हेतु दक्षिण भारत की बजाय कैलाश को अपना आवास बनाया एवं दक्ष की पुत्री सती से विवाह किया और कालांतर में देवाधिदेव कहलाये | सती आर्योंवर्त की नहीं अपितु देवभूमि-हिमप्रदेश की निवासी थीं, उस समय तक आर्य या आर्यावर्त थे ही नहीं |
अतः निश्चय ही देव या सुर व असुर एक ही पिता की संतानें हैं, राजनैतिक द्वेष के कारण ही प्रागैतिहासिक युग में भी हमें आपस में बांटा व लड़ाया गया और आज भी अपनी रोटी सेंकने वालों का यही मंतव्य है | हमें बांटने वाली शक्तियों से सावधान रहकर सम्मिलित रूप से देश व राष्ट्र के विकास व उन्नति में योगदान करना चाहिए|
धन्यवाद रवि जी
जवाब देंहटाएंVery best knowledge
जवाब देंहटाएंलेखन अच्छा और ज्ञानवर्धक है, किन्तु संदर्भों और प्रमाणों का अभाव है। कृपया संदर्भों का भी उल्लेख करें ताकि लेख शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है जय हो !
जवाब देंहटाएंश्री मान जी,
जवाब देंहटाएंआपने लिखा कि कश्यप ऋषि जी ने अनेकों स्मृति ग्रंथों की रचना की । अगर सम्भव हो सके तो उन ग्रंथों को उनके नाम सहित सांझा करने की कृपा करें ।
धन्यवाद
BILKUL SAHI AUR STY HALANKI ABHI KAHIN KAHIN KUCHH KAMIYAN RH GAEE HAIN. DHANYVAAD.
जवाब देंहटाएंतथ्यों के साथ उनके स्रोत भी डाले लिंक के साथ.. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंये सभी जानकारियों का श्रोत क्या है? किन पुस्तकों को पढ़ने से ज्ञान मिलेगा
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