विक्रम सिंह की कहानी - और कितने टुकड़े

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कहानी और कितने टुकड़े विक्रम सिंह ''एक ओंकार सतनाम करता पुरख अकाल मूरत निरभउ निरवर अजूनी सैभ............गुरूनानक देव जी'' प्...

कहानी

और कितने टुकड़े

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विक्रम सिंह

''एक ओंकार सतनाम करता पुरख अकाल मूरत निरभउ निरवर अजूनी सैभ............गुरूनानक देव जी''

प्लेटफार्म पर गाड़ी खड़ी हुई तो मात्र चार पाँच लोग ही गाड़ी से उतरे। सरदार कुलवंत सिंह ने गाड़ी से उतरकर दायें बायें देखा, प्लेटफार्म पर कुछ ही लोग इधर उधर घूम रहे थे। उसने देखा प्लेटफार्म पर भरे मिट्टी के बोरों के पीछे जवान स्टैनगन लिए तैनात थे। कुछ जवान कंधों में स्टैनगन लिए गश्त लगा रहे थे। लोगों से ज्यादा उसे जवान ही नजर आ रहे थे। उसे लगा जैसे वह प्लेटफार्म पर ना हो कर बार्डर में आ गया हो। सरदार कुलवंत सिंह ने गहरी सांस ली और अपनी पेंट को कमर से ऊपर पेट तक खींच लिया। फिर अपने दोनों हाथों से पगड़ी ठीक की, सींक से दाढ़ी को संवारा और बैग उठाकर चल दिया। जैसे ही प्लेटफार्म के दरवाजे के पास पहुँचा कि एक जवान ने कहा,''जी, अपनी अटैची खोल कर एक बार दिखा दीजिए।''

सरदार कुलवंत सिंह ने तुरन्त अपनी अटैची नीचे रखी और अटैची को खोलकर जवान के सामने रख दिया। जवान ने अटैची के अंदर रखे कपड़े को उठा-उठाकर अटैची के नीचे की तह को देखा और कहा,'' सिर्फ कपड़े ही है ना?''

''जी साहब''

एक बार फिर जवान ने कपड़े उठाकर देखा बस तीन सेट कपड़े ,एक हल्की चादर,एक तौलिया के सिवा कुछ नहीं था। एक टिफिन बॉक्स था। घर से चलने के पहले कुलवंत की पत्नी ने रास्ते के लिए रोटी और भरोंवा करेले दिये थे। जवान ने टिफिन बॉक्स खोल कर दिखाने के लिए कहा,जैसे ही टिफिन बॉक्स खोला तो उसमें से सड़ी सी बदबू आ निकली।''

जवान ने कहा,'' बंद कर ले टिफिन पता नहीं कब से यूं ही रखा है। धोया तक नहीं।''

जवान ने उसे जाने दिया।

 

कुलवंत सिंह प्लेटफार्म से बाहर आकर बस स्टैण्ड की तरफ चल दिया। प्लेटफार्म के बाहर भी कई जवान चक्कर लगा रहे थे।

कुलवंत सिंह बस स्टॉप पर आकर बस में बैठ गया। करीब आधे घंटे के भीतर बस में सवारी भर गई।

जैसे ही बस स्टार्ट हुई कि कंडक्टर ने चिल्ला कर कहा,''जिनके पास खुल्ले पैसे हैं, वे बैठे रहें, जिनके पास नहीं है वो उतर जायें।''

कुलवंत ने पास बैठे नौजवान से पूछा,''दस का खुल्ला होगा।''

''देखता हूँ जो मिल गये तो ठीक है।''

उसने अपने पेंट के पॉकेट से पर्स निकाला और उसमें से पाँच-पाँच के दो नोट निकाल कर दे दिये।

खुल्ले पैसे मिलते ही कुलवंत की जान में जान आई।

बस चल पड़ी। कुलवंत खुश हो गया। कुलवंत ने उस नौजवान लड़के से पूछा,''बेटा कौन सा गाँव पड़ता है?''

''सुन्दरपुर''

''मैं भी तुम्हारे पास के गाँव जा रहा हूँ।''

''अच्छा जी''

'''बेटा तुम क्या करते हो।''

''बस अभी अभी बारहवीं. की परीक्षा दी है। आगे की पढाई दिल्ली जाकर करूँगा।''

''क्यों पंजाब अच्छा नहीं लगता।''

''नहीं, पापा कहते हैं, पंजाब अभी सेफ नहीं है।''

 

कुलवंत ने गहरी साँस ली। खिड़की का शीशा जरा सा और खोल दिया। बस खेतों खलियानों बालियो के बीच के पक्की सड़क से चलती जा रही थी। सड़क पर कई जगह मिट्टी के बोरों के पीछे जवान स्टैनगन लिए तैनात थे।

अचानक जंगल से गुजरते समय बस रूक गई। बस में बैठे कुछ लोगों ने पूछा,बस क्यों रूक गई?''

कन्डक्टर ने कहा,''चुप करो।''

बस में एक युवा चढ़ा। छह फूट लम्बा कद, दुबली पतली देह। उसने सफेद पंजाबी कुर्ता पजामा पहन रखा था। चेहरा दाढ़ी से भरा हुआ था। उसकी दाढ़ी बिखरी हुर्इ्र थी। उसने सिर पर नीला पटका तथा कंधे में एक स्टैनगन टांग रखी थी। बस में बैठे सभी यात्रियों को उसने बड़े तेवर से कहा,'' जितने भी नौजवान बस में बैठे हैं वह बस से उतर जायें।''

बस में बैठे सभी लोगों के डर से पसीने छूटने लगे। सभी नौजवान लड़के एक-एक कर बस से उतरने लगे। कुलवंत के पास बैठा लड़का भी अपनी सीट से उठ कर ख़ड़ा हो गया। कुलवंत ने उसका हाथ पकड़ कहा,''बैठा रह बेटा कुछ नहीं होगा।''

''नहीं अगर मैं बस से नहीं उतरा तो उनको मेरे ऊपर शक हो जायेगा मैं बेवजह मारा जाउँगा।'' इतना कहकर वह आगे बढ़ गया।

सारे नौजवान लड़के बस से उतर गये। वह युवा आतंकवादी बस में दोबारा चढ़ा और बस के चारों तरफ अपनी नजर घुमाकर उतर गया। कुलवंत को अपने नौजवान बेटे की याद आ गई। वह भी कुलवंत के साथ गाँव आना चाह रहा था। ''पापा मैं भी आप के साथ गाँव चलता हूँ।''

कुलवंत की पत्नी ने कहा,'' नहीं बेटा अभी तुम्हारा जाना वहाँ ठीक नहीं होगा।''

''अगर मेरा जाना ठीक नहीं तो क्या पापा का जाना ठीक रहेगा?''

''मैं तो तुम्हारे पापा से भी कह रही हूँ। मत जाईये। नौकरी के बहुत अवसर आयेंगे।'

''मौके बार बार नहीं आते। बस मैं काम करवा कर जल्द लौट आउंगा।'

''ठीक है आप अकेले ही जाइये। बेटे को मत लेकर जाइये।''

फिर कुलवंत ने बेटे को समझा दिया था।

 

बस के नीचे छह-सात आतंकवादी बंदूकों से लेस खड़े थे। वह एक एक कर लड़कों का चेहरा देखते उन्हें बस में चढ़़ने का इशारा कर देते। जैसे ही वह लड़के को बैठने का इशारा करता। लड़का हडबडा कर बस में चढ़़ कर बैठ जाता था।

आखिर कार कुलवंत के सामने बैठा लड़का भी चढ़ गया। उसे देखते ही कुलवंत के चेहरे में रौनक आ गई। उसे ऐसा लगा जैसा उसका अपना बेटा बिछड़कर चला गया था।

बस फिर से चल पड़ी। कुलवंत ने पूछा,''वह क्या चाह रहे थे।''

''चाहत तो बहुत बडी है। उन्हें अपना खालिस्तान चाहिये। मगर फिलहाल वे किसी की तलाश में थे।''

कुलवंत सिंह ने गहरी साँस ली और खिड़की के बाहर देखने लगा। उसने खिड़की का शीशा थोड़ा और सरका दिया। खेत,मैदान,मजदूर सब कुलवंत की नजरों के सामने से पीछे भागते जा रहे थे। कब आँख लग गई पता ही नहीं चला।

अचानक एक जगह बस रूक गई। एक पुलिस का सिपाही कंधों में स्टैनगन टांगे हुए बस में चढ़ गया। वह बस के खाने में रखे बैग, अटैची को सरका-सरका कर देखने लगा। फिर उसने सीट के नीचे देखना शुरू कर दिया। जैसे ही कुलवंत के सामने वाली सीट के नीचे देखने के लिए कुलवंत के पैर को थोड़ा हिलाया कि उसकी नींद खुल गई। उसने झट अपना पैर ऊपर उठा लिया। सिपाही वहाँ से आगे चला गया और जाँच-पड़ताल करने के बाद, बस से नीचे उतर गया।

बस चल पड़ी। कुलवंत ने कहा,''अब, ये क्या ढूंढने आया था?''

''ना जाने कितनी जगह इसी तरह नाकाबंदी होती है और बैग, थैलों की चैकिंग होती है। हर बार मुझे ऐसा महसूस होता है कि आखिर अपने राज्य में किसी आतंकवादी से कम नहीं हैं हम, जहाँ हर म़ोड़ पर सफाई देने के बाद ही हमें जाने दिया जाता है।''

''कोई बात नहीं बेटा, अच्छा वक्त भी आयेगा। कभी मैं भी अपना पंजाब ,अपना गाँव छोड़ कर परदेश गया था। मगर तब ऐसा पंजाब नहीं था, जो आज देख रहा हूँ। सोचते-सोचते कुलवंत यादों के भँवर में गोते लगाता, बहुत पीछे चला जाता है। ऐसे दिन थे जब गाँव में चारों तरफ हरियाली फैली रहती थी। सभी मित्रों ने आठवीं की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उन दिनों आठवीं बोर्ड की परीक्षा होती थी। हम सभी सुबह उठ कर दौड़ लगाया करते, डन्ड बैठक पेला करते थे। सबके शरीर गठीले हुआ करते थे। 'घी की रोटी की चूरी' तथा गिलास भर दूध पीया करते थे। सभी केवल सिक्ख रेजिमेंट में भर्ती होना चाहते थे और देश की सेवा करना चाहते थे। सभी दोस्त खेत में जी-तोड़ मेहनत किया करते थे। खेत पर ही घर से लस्सी तैयार होकर आ जाती थी। फिर सभी दोस्तों के साथ हमलोग पानी के बम्मी में नहाया करते थे। नहाते वक्त खूब हुड़दंग मचाया करते थे।

 

कभी किसी की शादी-व्याह आ जाती तो, रात भर ढ़ोल के साथ भंगड़ा किया करते थे। पूरा का पूरा गाँव नाचा करता था।

अचानक बस रूक गई। बस के कन्डक्टर ने आवाज लगाई। ''मेते गाँव वाले उतर जायें।''

कुलवंत को अचानक से होश आया,हाँ जी, बस रोक लो।

कन्डक्टर ने कुलवंत से कहा,''पहले सोये हुए थे क्या?''

बस रोक लो जी, कन्डक्टर ने बस के ड्राइवर से कहा।

शाम के अभी छह बज रहे थे। मगर सड़क के पास कोई नजर नहीं आया, ना ही कोई रिक्शे वाला ही नजर आया। तो वह पैदल ही खेतों के पगडन्डी वाली राह पकड़ ली।

गाँव पहुँचते-पहुँचते हल्का अंधेरा और बढ़ गया। गाँव में जैसे सन्नाटा फैला हो। अपने भईया के घर के पास पहुँच कर उसने दरवाजे की कुंडी खटखटाई। अंदर से आवाज आई,'' हाँ कौन आ।''

''पाजी मैं कुलवंत।''

फट से दरवाजा खुल गया। अरे कुलवंत तू। अचानक ही आ गये। घर में सब खैरियत है।''उसने दोबारा दरवाजा जल्द बंद कर दिया।

 

''हाँ सब ठीक है।''

''गाँव में अंधेरा होते ही सभी अपने-अपने घर में चले जाते हैं। कोई पुलिस वाला तो रास्ते में नहीं रोका तुम्हें?''

''नहीं, मैं खेतों के बीचों बीच आया हूँ।''

''यहाँ तो दिन के उजाले में भी लोग सुरक्षित नहीं है और तुम रात को अकेले चले आ रहे हो।''

''क्या करता कोई तांगे वाला दिखा ही नहीं।

''खैर कैसे आना हुआ?''

''क्या है कि हमारी कम्पनी ने एक बहाली निकाली है, जो सिर्फ एस.सी ,एस.टी वालों के लिए है। कम्पनी के अधिकारी से मेरी बात हो गई है, बस कागज की जरूरत है।''

''सरपंच के बेटे का तो कल व्याह है। व्याह के बाद बात करेंगे।''

''मगर गाँव में तो ऐसा लग रहा है, जैसे मातम छाई हुई है। कोई ढोल, बाजा कुछ भी नहीं बज रहा है।''

''आजकल गाँवों में व्याह ऐसे ही हो रहे हैं। अब तो कोई, किसी से ज्यादा दोस्ती भी नहीं रखता है। एक दूसरे से लोग डरते हैं।''

''अपनों से कैसा डर, मैं समझा नहीं।''

''वह मुस्कुराया और बोला,''मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। क्या पता तुम मेरे पीछे आतंकवादी से मिले हो।''

''ये कैसी बाते कर रहे हो भईया।''

''हाँ यही सच है। तुम्हें पता है। मेरे जोड़ीदार बलवंत के लड़के हरदीप के साथ क्या हुआ? बस इतनी सी गलती थी कि उसने जिस लड़के से दोस्ती रखी थी, वह आतंकवादियों से जा कर मिल गया था। एक रात पता नहीं वह हरदीप के घर ठहर कर चला गया था। शायद उस दिन उसे पुलिस ढूंढ रही थी। और जब पुलिस को वह नहीं मिला तो बलवंत के लड़के के पीछे पड़ गये। वह तो शुक्र था कि हरदीप के मामा अमेरिका में थे, तो वह अमेरिका चला गया। फिर उसके बाद वह कभी दोबारा गाँव नहीं आया। अपना देश ही उसके लिए पराया हो गया।

''हमारे गाँव के नौजवान भी खालिस्तान चाहते हैं।''

''नहीं,बस बेरोजगार और गरीब लोगों के दिमाग में मजहब का पाठ पढ़ा कर उन्हें अपने में शामिल कर लिया गया है।''

नहीं, ऐसा नहीं है। गरीबी और भूख का कोई मजहब नहीं होता। मजहब और ईश्वर इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। गरीब की गरीबी और भूखे की भूख जो मिटा दे वही उनके लिए ईश्वर है खुदा है। इस वक्त तो हर गरीब को यह आतंकवादी ग्रुप उनके लिए भगवान लग रहा है।''

''खैर, तुम नहा लो। भोजन कर लो।''

 

कुलवंत ने सब परिवार के साथ भोजन खाया। भोजन के बाद कुलवंत का मन तो खुली छत पर सोने का था। मगर वह जानते थे अब किसी की भी खुली छत नहीं रह गई है। कमरे में सोये वह अतीत में खो गये। गाँव में उसकी प्रेमिका लाजो हुआ करती थी। वह लाजो से रात में छुप-छुप कर मिला करता था। लेकिन चोर की चोरी तो एक दिन पकड़ी ही जाती है। चोरी पकड़ी जाने के बाद लाजो का जल्द से जल्द व्याह कर दिया गया था। कयोंकि लाजो ने उसे इतना कहकर व्याह रचा लिया था कि ''तुम्हें मुझसे भी खूबसूरत और अच्छी लड़की मिल जाएगी।'' कुलवंत के घर में भी इस बात को लेकर खूब हल्ला मचा कुलवंत के बापू ने अपने बड़े लड़के गुरदयाल को फोन कर सारी बात बताकर यह कह दिया कि इसे अपने पास ही बुला ले नहीं तो यह गाँव में बिगड़ जाएगा। उस वक्त कुलवंत बारहवीं पास हो चुका था। वह ऐसा वक्त था। जब गाँव में बिजली नहीं होती थी। कुलवंत रात में ढिबरी जला कर पढ़ता था। देर रात तक पढ़ता ही रहता था। माँ उसे कहती ,''बेटा ढिबरी बंद कर दे नहीं तो तेल खत्म हो जाएगा। तू दिन में पढ़ लिया कर बेटा।''उसे इस वजह से दिन में ही पढ़ना पड़ता था। उस पर उसे खेत में भी काम करना पड़ता था। इसलिए कुलवंत के बापू को लगा कि कहीं कुलवंत लड़की के चक्कर में बर्बाद ना हो जाए। उसे बड़े लड़के के पास भेज दिया था। अब तो ना ही बापू रहे ना ही गुरदयाल।

 

हाँ तो गुरदयाल बर्नपुर 'इ.स.का'' में काम करता था। उसने कुलवंत को पास ही आई.टी.आई स्कूल में दाखिल करवा दिया था। कुलवंत ने सोचा था आई.टी.आई की पढाई कर वह दोबारा पंजाब चला जायेगा। मगर सोचा हुआ कभी नहीं होता है। आई.टी.आई के बाद गुरदयाल ने उसका नाम रोजगार एक्सचेंज में लिखवा दिया था। आई.टी.आई के बाद कुलवंत के लिए दो गाय खरीद दी थी। क्योंकि गुरदयाल का मानना था कि ईश्वर मेहनत करने वालों को ही अच्छे मुकाम पर पहुँचाता है। कुलवंत सिंह सुबह उठकर गाय की सानी-पानी करता था। फिर गाय को दूह कर, टिफिन में दूध लेकर बाजार में बेचने निकल जाता था। मगर कुलवंत को दिल से कभी यह काम पसंद नहीं था। अर्थात उसे इस काम में मन नहीं लगता था। वह अच्छी नौकरी के प्रयास में लगा रहता था। उसने अपना नाम 'इमप्लायमेंट एक्सचेंज' में लिखवा रखा ही था। एक बार हैगट कम्पनी की बहाली निकली 'इमप्लायमेंट एक्सचेंज' की ओर से इन्टरव्यू का कॉल लेटर आ गया।

इन्टरव्यू में जाने से पहले बड़े भाई गुरदयाल ने उसे अच्छी तरह समझाया साहब जो पूछे सही सही जवाब देना। साहब के सामने थोड़ा नरमी से अपनी गरीबी का रोना, रोना। दया आ गई तो नौकरी दे देगा''

इन्टरव्यू में साहब ने कुछ ही सवाल पूछे थे। यह बात कुलवंत ने कई बार हंसते हुए अपने बेटों को भी बताई थी। साहब ने पूछा,'' तुमने आई.टी.आई कहा से की है?

''जी बर्नपूर से।''

''कौन से ट्रेड से की है?''

''फिटर ट्रेड से की है।''

''घर पर कौन-कौन हैं?''

''साहब घर में, मैं और दो बहने है। जिनका पालन-पोषण मैं ही करता हूँ।''

''क्या करते हो''?

''साहब दो गाय पाल रखी है''।

''कितना दूध देती है?''

''जी, यही कोई तीस-चालीस लीटर के आस-पास।''

''पानी भी मिला देते होगे?''

''कुलंवत सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा,''साहब थेाड़ा बहुत करना ही पड़ता है।''

 

इस बात पर साहब हँसे कुलंवत भी हँस पड़ा। साहब ने पूछा, मान लो चलती हुई मशीन बंद हो जाये। उसमें तेल-पानी डालना पड़े तो, डाल लोगे ना?'''

''साहब मैं ठहरा फिटर आदमी, हम नहीं करेंगे, तो कौन करेगा।''

बस फिर क्या था? तीन महीने तक कागजी कारवाई पूरी होने के बाद 'ज्वाइनिन्ग लेटर' आ गया।

फिर नौकरी में ऐसा मन लगा कि पंजाब वापस आ ही नहीं पाया। बंगाल में ही रह गया।

सुबह काफी हो हल्ला मचने लगा था। डंगर की भी चिल्लाने की आवाज आने लगी थी। कुलवंत की नींद खुल गई। तकिये के पास रखी अपनी घड़ी देखी, सुबह के सात बज गये थे। चूंकि गाँव के घरों में उन दिनों शौचालय नहीं होता था। सभी घरों के बाहर खेतों में जाया करते थे। सो कुलंवत भी बोतल में पानी ले कर, नीम की तिला दाँत में रगड़ते हुए खेत की तरफ निकल पडा़।

 

खेत की तरफ जाते वक्त उसको गाँव के कई लोग मिलते गये। गाँव और खेत के बीच एक रेल पटरी थी । कुलवंत पटरियों के बीच चला जा रहा था तभी खेत में काम करते एक शख्स ने कुलवंत को जोर से आवाज दी ''अरे कुलवंत'' कुलवंत ने उसे देखा,लेकिन पहचान नहीं पाया। वह व्यक्ति दौड़ता हुआ उसके पास आ गया। उसने पास आकर कुलवंत से कहा,''ओय बहन दे टके। साले पहचाना नहीं।''। वह सरदार ही क्या जो गाली देकर और झप्पी डालकर ना मिले। कुलंवत ने भी कहा,ओय बहन चोद सुखबीर! ये हुलिया कैसे बदल लिया।'' दोनों ने एक दूसरे को गले लगा लिया। कुलवंत ने कहा,''यार तू तो बिल्कुल बदल गया। तू तो पूरा सिख बन गया।'' सुखबीर कुलवंत का लंगोटिया यार था। पहले सुखबीर मौना सरदार हुआ करता था। किसी फिल्मी हीरो सा दिखता था। सुखबीर भी कुलवंत की कम्पनी में नौकरी करता था। वह नौकरी भी कुलवंत ने ही लगाई थी। जब कुलवंत की नयी-नयी नौकरी हुई थी, तो कुलवंत ने अपने कई जोड़ीदारों को नौकरी पर लगवाया था। दरअसल कुलवंत चाहता था। उसका पंजाब दूर है। लेकिन साथी पास आ जायेंगे, तो समझो अपना गाँव यहीं बस गया और अपना मन भी लगा रहेगा। मगर ऐसा हो नहीं सका। सुखबीर ने एक दिन कह दिया ,यार मेरा यहाँ जी नहीं लग रहा है। दूसरे के यहाँ काम करने से अच्छा है, अपने खेत में ही मेहनत करो। उसने कुलवंत से भी गाँव वापस चलने के लिए कहा था। मगर कुलवंत का वहीं मन लग गया था। सुखबीर वापस चला आया था। उसी तरह बाकी जोड़ीदार भी वापस आ गये। कुलवंत ने कहा,''अच्छा है पगड़ी में भी अच्छे लग रहे हो।''

''अब अच्छा लगूं या बुरा केश ना रखता तो पंजाब में रहने कौन देता? हिन्दू समझकर मार डाला गया नहीं होता। अच्छा भी है, पंजाब की रौनक तो सरदारों से ही होती है।''

''पक्के खालसा बन गये हो तुम।''

''ऐसा ही कुछ समझो''

''तुम भी खालिस्तान चाहते हो।''

''नहीं,अचीबिंग जसटिस,ह्यूमन राईट्स एंड डिगनीटी ऑफ पंजाब एंड सिखस।''

''हिन्दुओं को मार कर और लोगों को डरा कर हम कभी अपनी महानता हासिल नहीं कर सकते हैं।''

''कोई सिख हिन्दुओ को नहीं मार रहा, उन्हें तो समझाया जा रहा है कि वो पंजाब छोड़ कर चले जायें। मगर जाने की बजाए और इधर ही आते जा रहे हैं। बस जब लोग नहीं मान रहे हैं तो बंदूक तो उठाना पडेगा़ ही।''

''करीब 40 प्रतिशत सिख देश के कोने-कोने में बसे हुए हैं। देश के कई गरीब इलाकों से रोजी रोटी के लिए यहाँ पंजाब आते हैं। इसलिए हम अपनी महानता इनसे अलग होकर नहीं दिखा सकते।''

''देखो मुस्लिमों ने अपना पाकिस्तान लिया और हिन्दुओं ने अपना हिंदुस्तान लिया। अगर हम सभी सिख अपना खालिस्तान मांग रहे हैं, तो बुरा क्या है?''

''1947 में बंटवारे में आधा पंजाब पाकिस्तान चला गया। कुछ कश्मीर में समा गया। तो अब क्या अलग होगा?'' कुलवंत का पेट गुड़गुड़ाने लगा, प्रेशर जोर का आ गया था, उसने कहा, सुखबीर मैं तुमसे बाद में बात करूंगा।

''ठीक है आज शाम का खाना मेरे घर खाना।''

 

कुलवंत अच्छा कह भागता हुआ खेतों के बीच घुस गया। खेतों के बीच से फूड़ोच से फाइरिंग की आवाज आई।

घर के आँगन में कुलवंत के बडे भाई साहब सत्ता सिंह चारपाई में बैठ कर शीशे में चेहरा देखकर पगड़ी बांध रहे थे। कुलंवत के वापस आते ही सत्ता सिंह ने कहा,''कुलवंत जल्दी तैयार हो जा, सरपंच के बेटे के व्याह में चलना है। सरपंच जी को वहीं बधाई दे देना और काम की भी बात वहीं कर लेंगे।''

सरपंच के घर के बाहर ढोल बाजे के बीच लड़के नाच रहे थे। लड़कियाँ 'गिदा' पा रही थी।

सरपंच जी के पास पहुँच कर कुलवंत और सत्ता ने उन्हें बधाई दी। तब तक अगुवा आकर सरपंच जी से कहा,''सरपंच जी दिन के दस बज गये है। बारात दिन के 'दिन ही वापस लानी है। जल्दी से सबको कहे बस में बैठ जाने के लिए।''

सरपंच ने सबको नाच गाना बंद कर बारात की तैयारी करने के लिए कहा।

बस में सभी लोग बैठ गये थे। एक सरदार बस में चढा और आदमी गिनने लगा। आदमी गिन उसने सरपंच जी से कहा,''सरपंच जी कुल तीस बंदे बैठ गये हैं। हम तो सिर्फ चौदह बंदे ही बारात में ले जा सकते हैं। आगे या तो आंतकवादी रोक लेंगे या पुलिस रोक लेगी।'' दरअसल बात ऐसी थी कि खालिस्तान वालों का कहना था कि कोई भी लड़के वाले बारात में ज्यादा लोग लेकर नहीं जायेंगे। क्योंकि इससे लड़की वालों पर खर्च बढ़ जाता है। उधर पुलिस वालों का कहना था कि बरात में आदमी कम जाये ताकि गोलीबारी में ज्यादा लोग ना मरे।

कुलवंत बस से उतर कर कहने लगा,''सरपंच जी मैं रह जाता हूँ ।''

''नहीं कुलवंत जी आप चलिए।''

 

फिर गिनती शुरू हुई। माफी मांग-मांग कर कुछ रिश्तेदारों को बस से उतर जाने के लिए कहा गया। कुछ तो खुद ही उतर गये। एक ने तो यह कह दिया बारातियों से ज्यादा तो बैंड बाजे वाले ही हो गये। इन्हें भी कम कर लो। दस बैंड बाजे वालों की जगह पाँच कर दिये गये। सरपंच ने इस पर गुस्से से कहा,''अब सारे बैंड बाजे वालों को मत उतार देना। मैं लड़के की बारात लेकर जा रहा हूँ। किसी की मईयत में नहीं जा रहा हूँ।''

बैंड बाजे वाले बस के ऊपर बैठ गये। बस चल पड़ी।

शाम के वक्त कुलवंत सुखबीर के घर खाना खाने के लिए गया था। उसकी फूल सी बेटी दोनो को चूल्हे पर रोटियाँ सेक-सेक कर दे रही थी। सुखबीर ने कहा,''बस बेटी की शादी कोई अच्छा सा लड़का देख कर कर दूँ।''

कुलवंत को सुखबीर की बेटी बहुत पंसद आई। उसका मन किया आज ही अपने बेटे जसकरन के लिए उसकी बेटी का हाथ मांग ले। मगर अभी उसे इस वक्त यह सब कहना ठीक नहीं लगा। क्योंकि पहले बेटे की नौकरी हो जाये फिर सुखबीर से इस विषय में बात करूंगा।

बात ही बात में रात के करीब आठ बज गये। कुलवंत ने कहा,'' चलो आब चलता हूँ।''

गाँव पूरा सुनसान था। कुलवंत और सुखबीर पैदल चले जा रहे थे। तभी बुलेट में सवार दो पुलिस वालों ने दोनों पर टार्च मारी और उनके पास आकर कहा,''कौन हो तुम लोग?''

सुखबीर ने कहा,''मैं सरदार सुखबीर सिंह। इसी गाँव से।''

''और यह कौन है तुम्हारे साथ।''

''सरदार कुलवंत सिंह। परदेश में नौकरी करता है। इसी गाँव का रहनेवाला है।''

''ठीक है जाओ।''

 

''सरकार ने तो इन्हें इतनी छूट देख रखी है कि जहाँ चार युवा एक साथ खड़ा मिले एनकाउन्टर कर दो। सरकार युवा पीढ़ी से डर गई है। उन्हें लगता है कि सारे युवक आतंक से जुडे हुए हैं। ऐसा सुखबीर ने कहा।

कुलवंत को घर के पास से छोड़ सुखबीर वापस चला गया।'

गाँव आये हुए कुलवंत को सप्ताह भर हो गया था। एक दिन सरपंच ने कुलवंत को सुबह अपने घर में बुला लिया। हाथ में कागज पकड़ाते हुए कहा,''लो कुलवंत भगवान करे तुम्हारे बेटे की नौकरी हो जाये । अच्छा है जो तुम अपने गाँव से बहुत दूर हो।''

''मगर अपना गाँव अपने लोग कहाँ भूल सकते हैं। वहाँ रह कर भी हमेशा गाँव की चिंता सताती रहती है।''

''कौन सा गाँव?किसका गाँव?कैसा गाँव? जहाँ खुली साँस ना ले सके,सूकुन की रोटी ना खा सके,चैन की नींद ना सो सके। जहाँ खुल कर स्वतन्त्रता से जी ना सके? वही अपना गाँव अपना देश है। यहाँ तो हम ऐसे तराजू में लटके हैं कि एक तरफ आतंकवादी की गोली है तो दूसरी तरफ पुलिस की गोली।''

''सरकार कुछ क्यो नहीं कर रही है?''

''सब कुछ सरकार का ही तो किया धरा है। वोट बैंक के लिए पहले किसी का साथ लिया अब उसकी माँग को कैसा पूरा करे? वह भी तो अलग देश बना कर राज करना चाहता है। खैर हमें यह बात यहीं खत्म करनी चाहिये क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं।''

 

कुलवंत खांसता हुआ दरवाजे से बाहर निकल आया था। घर आकर वापस जाने की तैयारी करने लगा। आखिर तैयारी क्या करनी थी जैसे तीन जोड़़े कपड़े लेकर आया था वैसे ही उठा कर चल देना था। घर के बाहर तांगे वाला तांगा लेकर आ गया था। घर के बाहर घोड़ा हीन......हीन... की आवाज कर रहा था, रह रह कर अपना सिर भी हिला रहा था। कुलवंत ने सबसे जाने की इजाजत मांगी। बडे भाई ने कहा,''बेटे की नौकरी होने पर खत लिखना।''

''हाँ जरूर लिखुंगा। आप लोग भी अपना ख्याल रखियेगा।''

कुलवंत तांगे पर बैठ गया। तांगे वाले ने लगाम को खींच कर हूर...हूर की आवाज लगाई और घोड़ा दौड़ पड़ा।

ट्रेन में कुलवंत अपनी सीट में बैठा हुआ था। उसके आस पास सारे हिन्दू बैठे दिख रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था। वह कह रहे हों,यह सिक्खों का राज्य है। यहाँ अपनी जिन्दगी की कोई निश्चिंतता नहीं है।

कुलवंत ने घड़ी देखी, गाड़ी छूटने में अभी भी पन्द्रह मिनट बाकी था। प्लेटफार्म पर कई सारे कबूतर अचानक फड़फड़ाने लगे। ट्रेन के डिब्बे के ऊपर धड़ाधड़ गोलियाँ बरसने लगी। कुलवंत ने किसी की आवाज सुनी,'' सीट के नीचे छुप जाओ।'' कुलवंत और सभी लोग सीट के नीचे घुस गये। लगातार गोलियाँ बरसती जा रही थी। गाड़ी के डिब्बे से हृदय विदारक रोने की आवाज आ रही थी। अचानक से ट्रेन में कुछ फौजी चढ़ गये और इधर से भी फाइरिंग होने लगी।

डीजल इंजन धुँआ छोड़ता हुआ सीटी बजाकर चल देता है। आर्मी के जवान दूसरी तरफ कूद जाते हैं।

 

गाड़ी पटरी पर तेजी से दौड़ने लगती है। कुलवंत धीरे से सीट के नीचे से निकलता है और अपनी बेतरतीब हुई पगड़ी को सही करता हुआ खिड़की के बाहर झांकता है। पटरी में दौड़ती पहियों की आवाज के साथ अचानक खिडकियाँ बंद होने की आवाज आनी शुरू हो गई थी। सबने अपनी-अपनी खिड़कियाँ बंद कर ली थी। यहां तक कि डिब्बे का दरवाजा भी बंद कर दिया गया था। क्योंकि ट्रेन पंजाब में ही दौड़ रही थी। ट्रेन भागती जा रही थी और कुलवंत गहरी चिंता में डूब गया। क्या वह दिन दूर नहीं जब एक और पाकिस्तान बन जायेगा? हमें भी हिन्दुस्तान से खदेड़ा जायेगा? आखिर हम हिन्दुस्तान के कितने टुकड़े करेंगे। आखिर कब तक हम अपने ही लोगों से अलग होकर जंग के मैदान में एक दूसरे पर गोला बारूद गिराते रहेंगे। ना जाने ऐसे कितने विचार कुलवंत के दिमाग में उमड घुमड़ कर रहे थे। गाड़ी पटरी में दौड़ती जा रही थी। पास बैठे एक शख्स हनुमान चालीसा पढ़ने लगा था। एक पचास के करीब औरत हाथों में कन्ठी माला लेकर कुछ जाप करने लगी थी। कुलवंत ने भी वाहे गुरू का नाम लिया और अपनी बर्थ में पैर फैला कर चौड़ा होकर सो गया। ट्रेन एक स्टेशन पर आकर रूकती है। कई लोग दरवाजा खोलने के लिए कहते हैं, मगर कोई भी दरवाजा खोलने के लिए आगे नहीं बढ़ता है। स्टेशन में खड़े कई लोग ट्रेन के डिब्बे को गौर से देखने लगते हैं। डिब्बे के ऊपर गोलियों के निशान स्पष्ट दिख रहे थे। आखिर कार कुलवंत ने उठ कर दरवाजा खोल दिया था।

ट्रेन कई स्टेशनों पर रूकती और अपनी रफ्तार से फिर पटरी में दौड़ने लगती थी। उन दिनों कुलवंत को पंजाब से बंगाल आने में तीन दिन का सफर तय करना पड़ता था। करीब तीन दिन बाद कुलवंत अपने घर पहुँचा था।

घर पहुँचते ही कुलवंत की पत्नी के जान में जान आई थी। जब पत्नी जसबीर ने गाँव पंजाब के हालात के बारे में पूछा तो कुलवंत ने इतना कहा था। सब कुछ ठीक है बस लोग बाग ऐसे ही अफवाह फैलाते है। कुलवंत नहीं चाहते थे कि पत्नी को वहाँ की हालत के बारे में बताया जाए।

खैर कुलवंत ब्रश लेकर, दाँत में रगड़ते हुए घर से बाहर आ गये। सामने उसका पड़ोसी था जो उसके साथ ही कम्पनी में एक ही विभाग में काम करता था। उसने कुलवंत को देख कर कहा, उग्रवादी आ गये।''

 

दरअसल कुलवंत को उसके म़ित्र उसे उग्रवादी कह कर बुलाते थे। हर दिन अखबार में तथा रेडियो में पंजाब की खबर देखते थे। इसी वजह से उन दिनो कई जगह पर सरदारों को लोग मजाक से उग्रवादी कह दिया करते थे। खैर कुलंवत सिंह कभी इस बात का गुस्सा नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें मजाक और हकीकत का फर्क पता था। कुलवंत ने कहा, ''मियॉ मैं आ गया।'' कुलवंत का पड़ोसी निजामुद्दीन मुस्लिम था। कुलवंत उसे मियॉ कह कर पुकारता था। सही मायने में तो कम्पनी में काम करने वाले सभी लोग एक दूसरे को असली नाम से पुकारते ही नहीं थे। कुछ न कुछ उपनाम रख दिया जाता था।

''काम हो गया।''

''हाँ काम तो हो गया। मगर असली काम तो बाकी है।''

''अब असली काम क्या रह गया है।''

''बेटे की नौकरी।''

''वह तो होना ही है।''

 

कुलवंत को कम्पनी के साहब बहुत मानते थे। उनका मानना था कि सरदार मेहनती,ईमानदार, निडर होते हैं। वह किसी काम से नहीं डरते हैं। इसलिए कुलवंत कभी-कभी किसी काम को करने से मना कर देता कहता,''यह काम मुझसे नहीं हो पायेगा।'' तो साहब का एक ही जुमला होता,अगर सरदार से नहीं होगा तो फिर यह काम किससे होगा।'' यही वजह थी कि बेटे की नौकरी भी हो गई।

बेटे की नौकरी की खुशी में कुलवंत ने अपने सभी जोड़ीदार मुसलमान,बंगाली,बिहारी,मद्रासी साथियों को अपने घर में दावत दी थी।

ये ऐसे दिन थे जब पंजाब में बहुत कुछ घट रहा था। कभी हिन्दुओं को बसों से उतार कर मारा जा रहा था। कभी कई पुलिस वाले मारे जा रहे थे। पुलिस के हाथों भी आतंकवादी मारे जा रहे थे। कभी पुलिस के हाथो बेगुनाहों का एनकाउन्टर किया जा रहा था।

अपने बेटे की नौकरी की खबर पत्र व्दारा पंजाब भेज दी थी।

कुलवंत खाना खाकर दोपहर को सोने जा रहा था। तभी पोस्टमैन ने आवाज दी,पोस्टमैन''

कुलवंत को रजिस्टरी देकर चला गया। पत्र कुलवंत के बड़े भाई का था। कुलवंत पत्र पढ़ने लगा। पत्र पंजाबी में लिखी हुई थी।

बेटे की नौकरी की खबर सुन कर बहुत खुशी हुई। तुम्हारा बेटा अपने पैरो पर ख़ड़ा हो गया। अब जल्द से जल्द इसका व्याह कर दो। एक बहुत दुख की खबर भी है हम लोगों का सुखबीर अब इस दुनिया में नहीं रहा। पुलिस वालों ने उसे आतंकी बोल एनकाउन्टर कर दिया है। पंजाब के हालत दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं। खैर तुम अपना ख्याल रखना। बेटे को मेरा प्यार देना।

पत्र पढ़ते ही कुलवंत की आँखें आँसू से भर गयी थी।

 

समय बीतता गया। पंजाब में उन दिनों बहुत कुछ घट रहा था। ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे थे। पंजाब में अपने लोगों की चिंता कुलवंत को परेशान करने लगी थी।

6 जून 1984 की सुबह हर सिखों के लिए बहुत ही निराशा भरा दिन था। दरबार साहिब में खालिस्तानियों का खात्मा करने के लिए उसका घेराव किया गया। इससे कई निर्दोषों की जान चली गई। इससे पहले की आर्मी वाले आम जनता को कुछ कह पाते। गोलियाँ चलनी शुरू हो गई। देखते ही देखते सब कुछ खत्म कर दिया।

31 अक्टूबर 1984 की शाम इस देश के लिए बेहद निराशा और आशांति का दिन था। तत्कालीन प्रधान मंत्री को उनके ही सिख बाडी गार्ड ने मिलकर उनकी हत्या कर दी थी। तत्काल ही पूरे देश में सिखों का कत्ले आम शुरू हो गया।

उस दिन कुलवंत घर पर रेडियो सुन रहा था। बेटा कम्पनी गया हुआ था। कुलवंत की पत्नी डर गई। कुलवंत यह सब सुन अपने बेटे को कम्पनी लेने जाने की तैयारी करने लगे। लेकिन पत्नी ने उन्हें रोक लिया आखिर बाहर उन्हें भी तो खतरा था। अचानक से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। कुलवंत ने पूछा कौन,मैं निजामुद्दीन।''कुलवंत ने दरवाजा खोल दिया। निजामुद्दीन अपनी लाइसेंसी बंदूक टाँगे अंदर घुस गया। चारों ओर सिखों को मारा जा रहा है। उनकी दूकान और घर जलाये जा रहे हैं। पास की सरदार के ढाबे को जला दिया गया है। मगर कुलवंत तू चिंता ना कर , एक-एक बहन चौ* को उडा दूंगा।''

''मुझे अपनी नहीं अपने बेटे की चिंता है।''

''तुम चिंता मत करो कम्पनी में उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। देख कुलवंत जिन हिन्दुस्तानियों की रक्षा के लिए गुरूनानक देव ने सिख धर्म बनाया आज वही हिन्दू, सिखों के खून से नहा रहे हैं। आज तो कोई मुस्लिम उन्हें नहीं मार रहा है।''

''नहीं मेरे दोस्त आज कोई मजहब नहीं मार रहा, न मुसलिम, न हिन्दू आज कुछ असामाजिक लोग हैं जो राजनीति का चोला पहन कर लूट रहे हैं, मार रहे हैं।''

 

उस रात कुलवंत का बेटा जसकरन वापस नहीं आया। निजामुद्दीन ने कहा,'' हो सकता है। उसने कहीं शरण ली हो, माहौल ठण्डा होने पर आ जायेगा।''

लेकिन जसकरन कभी नहीं आया। कुलवंत अपने बेटे की तलाश के लिए खूब भटका, मगर वह कहीं नहीं मिला। लोगों का कहना था दंगाई लोगों ने उसे मार कर जिंदा जला दिया होगा या फिर हो सकता है कि कम्पनी में ही आग की भट्टी में फेंक दिया होगा। गुस्साये लोगों ने उसके जीस्म का पीस पीस कर दिया होगा।

एक दिन कुलवंत के पास उसके मित्र अफसोस जताने आये थे। कुलवंत ने बस इतना भर कहा था।'' अगर पंजाब में हिन्दुओं को मारने वाले सिख आतंकवादी थे तो यह कौन थे जिन्होंने मासूम लाचार लोगों की जान ली है।''

 

कहते हैं कुछ दिनों के बाद कुलवंत बिना किसी से कुछ कहे वहाँ से चला गया। लोगों का कहना है, कुलवंत गुस्से से पंजाब चला गया और खालिस्तानियों से मिल कर उग्रवादी बनकर हिन्दुओं को मारने लगा। कुछ लोगों का कहना था कि उसकी पत्नी हिन्दुओं से डर गई थी। जैसे उसने अपना बेटा खो दिया था, वैसे अपने पति को खोना नहीं चाहती थी। इसलिए सब कुछ बेचकर पंजाब अपने मुल्क चली गई थी। लेकिन अभी-अभी कुछ लोगों का कहना है कि कुलवंत को दिल्ली के जंतर-मंतर में दंगां में पीडित सिखों के परिजनों के बीच ''आई वान्ट टू जस्टीस'' का बोर्ड लगाये बैठा देखा गया है

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परिचय

नाम- विक्रम सिंह

जन्म- 1 जनवरी 1981,जमशेदपुर झारखण्ड

शिक्षा- मैकेनिकल इंजीनियरिंग।

प्रकाशन- वारिस ;कहानी संग्रहद्ध2013,समरलोक,सम्बोधन,किस्सा,अलाव,देशबन्धु,प्रभात खबर,जनपथ,सर्वनाम,वर्तमान साहित्य,परिकथा,आधारशिला,साहित्य परिक्रमा,जाहन्वी,परिंदे इत्यादि पत्र-पत्रिकाओ में कहानियाँ प्रकाशित। एक कहानी परिकथा के जनवरी नव लेखन अंक के लिए स्वीकृत तथा एक कहानी कथाबिंब में स्वीकृत।

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत

सम्पर्क- बी ब्लॉक-11,टिहरीविस्थापित कॉलोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407

ई-मेल bikram007.2008@rediffmail.com

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: विक्रम सिंह की कहानी - और कितने टुकड़े
विक्रम सिंह की कहानी - और कितने टुकड़े
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