दादाजी की आँखें - विनीता शुक्ला रेवती सोच में है. जब देखो, ऋतिका उलझ पड़ती है; तुनकमिज़ाजी, विरासत में जो मिली है. आखिर उसकी अपनी बेटी है....
दादाजी की आँखें
- विनीता शुक्ला
रेवती सोच में है. जब देखो, ऋतिका उलझ पड़ती है; तुनकमिज़ाजी, विरासत में जो मिली है. आखिर उसकी अपनी बेटी है...तेवर भी, उस जैसे ही होंगे! यादें करवट लेकर, वहीँ पहुंचा रही हैं- वयःसंधि की देहरी पर, जहाँ अभी ऋतिका खड़ी है. पहाड़ों पर तब बसंत आया हुआ था; हवाएं महक रही थीं, वादियाँ गमक रही थीं; डेहलिया, गुलाब, बुरांस, आर्किड और कई बेनाम जंगली फूल, धरती की चूनर पर जड़े हुए! वे भी क्या दिन थे!! बस्ते लेकर पहाड़ी पगडंडियों पर, उछलते कूदते हुए चलना ... जंगली फूलों के गुच्छे तोड़, सोतों में बहा देना... घाटियों को गुंजाने वाली हंसी और मासूम सी शरारतें! सपनों के झरने भी वहीँ से फूटे; खुद को साबित करने की कोशिशें भी.
कहानी शुरू हुई - दादाजी की आँखों से... आंखें जिन्हें देख, वह सहम जाती थी...और अपने मन की बात कहने से डरती थी. लेकिन एक दिन, उन्हीं के खिलाफ बोल पड़ी, “ अम्मा मुझे काव्य – संध्या में जाना ही है”... “चुप कर मुई! दादाजी ने मना की थी- कस्बे से बाहर भेजने को...अकेली-दुकेली लड़की...कुछ ऊंच-नीच हो जावे तो???”...“रहने दो अम्मा; हमसे- तुमसे बैर पाले रहते हैं; पर उपदेश देने से बाज नहीं आते” वार सीधे दिल पर था.
अम्मा कुछ पिघलीं और दबे सुर में बोलीं, “देख री मुनियाँ...जब तक दादाजी यहाँ हैं, उनका कहा मानना होगा ...आखिर बड़े हैं हमारे! भले पीठ पीछे, मनमर्जी करती रईयो.” पारंपरिक बहू की छवि में कैद, अम्मा भीरु बन गयी थीं. ससुर की आज्ञा, ब्रह्मवाक्य हो जैसे! रेवती मन मसोस कर रह गयी. फोटो फ्रेम में जड़ी, दादाजी की आँखें, उसे ललकार रही थी!! उसके पिता घनश्याम दास, सेब- बागानों के ठेके से आये तो बिटिया का बुझा मुख देखा.
“मुनियाँ, मेरा बच्चा! क्या हुआ? क्यों उदास है तू??” रेवती कुछ न बोली. “चल बता फटाफट... नहीं फिर कट्टी कर लूंगा!! उनकी प्यार भरी झिड़की सुन, बच्ची के आंसू निकल आये. आंसुओं के साथ, दर्द बह निकला- उलाहनों की शक्ल में, “आपने ही कहा था, जिस इवेंट में जाना चाहूँ, मैं जा सकती हूँ”... “वह तो अब भी कह रहा हूँ” घनश्याम दास विस्मित थे. मन की कसक ने, सिसकियों और फुसफुसाहटों का रूप ले लिया... और फिर...उसके बाद!
वह गर्व से काव्य- संध्या में, विजेता बनकर खड़ी थी. काव्य- संध्या में- जहाँ उसके दादाजी, प्रसिद्द लोककवि रघुवीर दास, मुख्य अतिथि की भूमिका में थे...उसे मैडल पकड़ाते हुए. उसको लगा कि दादाजी के रोबदार चेहरे पर, कोई अदृश्य स्याही पुती थी. उनकी आँखें और भी भयावह हो चली थी! देख रही थीं- कच्ची उमर का सयानापन!! इतिहास खुद को दोहरा रहा था. बस किरदार ही तो बदले थे- “ममा, शर्मा आंटी रोज-रोज क्यों आती हैं?! शी इज सच अ डेविल!! हमेशा ‘लूज़ टॉक्स’ करती हैं...कभी कुछ अच्छा नहीं...हाउ डू यू टोलरेट हर?! ममा...उन्हें जाने को क्यों नहीं बोलतीं??!!”
“जस्ट यू शट अप ऋतु...बड़ों के बारे में, ऐसा नहीं कहते...देख बेटा, ये अच्छे मैनर्स नहीं”
“बट ममा, सिंह अंकल को चिढ़ाने के लिए, आपने ही सिखाया था कि मैं उन्हें सायकल जैक्सन बोलूँ. अंकल भी तो बड़े हैं ...देट आल्सो वाज़ बैड मैनर ओनली” ऋतिका उलझ गयी थी. ममा जिन्हें अच्छा मानती- उसको ‘इरिटेटिंग’ लगते और जिनसे उसे समस्या नहीं...वही ममा के दुश्मन!! “लुक स्वीटी” माँ ने बेटी को समझाना चाहा, “ वो बेवजह आकर टाइम खराब करते हैं...तेरे पापा उनसे कुछ कह नहीं पाते- देट इज व्हाई...”
“सो? फॉर देट आप मुझे बुरा बना देती हैं...एक दिन ताईजी से आपने कहा था कि मैं उन्हें बाबाजी कह रही थी. हू टोल्ड यू देट??? आई कैन स्वेर टु गॉड...मैंने ऐसा कुछ नहीं बोला”
“स्वीटी...ताईजी ममा के छोटे बालों का मजाक बना रही थी; उन्हें कुछ जवाब तो देना था...खुद अपने बाल देखें- एकदम जटाओं जैसे लगते हैं- यू नो सो फनी!!”
“तो आपने मेरा नाम क्यों लगाया?! वो तो मुझे ही गलत समझेंगी...वो ही क्यों- एवरीबॉडी थिंक्स ईविल अबाउट मी”
“गेट लॉस्ट!! बहुत बहस करने लगी है...डोंट ट्राई टु क्वेश्चन मी” ऋतिका भीगी पलकों को मसलते हुए, चल पड़ी- पूरी बात सुने बिना. रेवती को लगा, वह कुछ ज्यादा बोल गयी; बिटिया के साथ, ज्यादती कर दी. उसकी दृष्टि हठात ही, सीलिंग से झूलते गमलों पर गयी. लाल, गुलाबी, सफेद, पीले और बैंजनी फूलों से लदे क्रिसमस कैक्टस...टहनियों पर फूटता, उमगता सौन्दर्य! खिडकियों से छनती धूप, फूलों में परावर्तित हो, उजास के रंग बिखरा रही थी; अनगिन शूलों संग गुंथा, कोमल पंखुरियों का शिल्प...अद्भुत, नयनाभिराम, मोहक इंद्रजाल! वह खुद ऐसी है- फूलों सा चुम्बकीय व्यक्तित्व और कंटकों जैसी चुभन भी!!
रेवती ने गहरी सांस ली. जीवन समझौतों का नाम है. जाने अनजाने उन समझौतों में, ऋतु भी घसीट ली जाती है. उसका विरोध स्वाभाविक है...नादान सा द्रोह! कितनी बार, उसे सामने वाली प्रिया के घर भेजा है- मेहमानों की जासूसी करने!! बहाने से वह, आंटी के पास आती- जाती है. कभी उनके घर, जानकर अपने सैंडल छोड़ देती है...कभी बर्तन लौटाने का बहाना. प्रिया आंटी ममा की फरमाइश पर, कुछ न कुछ बनाकर देती हैं; बर्तन तो निकलेंगे ही. कभी ऐसा भी होता है कि उनके घर कॉलोनी से ही, गेस्ट आ जाता है. तब ममा उसे वहां भेजती है, उन आंटी/ अंकल से पूछने, “ आप हमारे घर कब आयेंगे?” मां खुद भी, उधर पैनी नजर रखती हैं. जब प्रिया आंटी सत्यनारायण की कथा या किटी पार्टी करती हैं तो मां अंत तक, वहां मौजूद रहती हैं ; देखने को- कि कौन आया- गया. जाने क्यों डैड भी, इस बात को अप्रूव करते हैं. बड़े लोगों का बचकानापन, ऋतिका पर बेहद नागवार गुजरता है... मन कुलबुलाता है...ये हरकतें- क्यों, किसलिए??!!
धीरे- धीरे थोड़ा- बहुत समझने लगी है ऋतु. एक दिन डैड, ममा से कह रहे थे, “रेवू ऑफिस में जो ग्रुप्स बनते हैं, वह बहुत कुछ हमारी सोशल- इक्वेशन पर डिपेंड है...कॉर्पोरेट सोसाइटी की यही तो विशेषता है- जो तुम्हारे लिए फिट हो, उसे ओबलाइज करो...थोड़ा गिफ्ट- उफ्ट दो और जो रास्ते का रोड़ा हो, उसे रास्ते से हटा दो.” ऋतिका इस बात पर गहन चिंतन करती है. रास्ते का रोड़ा यानी प्रिया आंटी के पति विश्वनाथ अंकल?? पिछली बार जब डैड का प्रमोशन हुआ था तो ममा खुश नहीं हुई थी; क्योंकि डैड के साथ विश्वनाथ अंकल भी प्रमोट हो गये...दोनों ही टक्कर पर हैं!
ओबलाइज करने की बात शायद, मिठाई के पैकटों से जुड़ी है- जो दिवाली या दूसरे अवसरों पर घर- घर पंहुचाये जाते हैं. डैड के साथ, वह कॉलोनी में, पैंडुलम जैसी डोलती फिरती है...स्वीट स्माइल चिपकाकर, स्वीट्स बाँटते हुए.... कॉलोनी भी तो आफिस की है. डैड के सुपीरियर मोस्ट बॉस- जी. एम. अंकल के घर, सबसे बड़ा डब्बा पकड़ाना होता है. जी. एम. अंकल और आंटी को अपनी ‘प्यारी प्यारी’ बातों से इम्प्रेस करना, उसकी जिम्मेदारी है. जितना अच्छा इम्प्रैशन, उतनी बड़ी चॉकलेट!!
इधर रेवती का हाल तो पूछो ही मत!! “रेवू कहाँ हो?” अपने पति नीलाभ की पुकार पर, वह चौंककर उठी. ओह...आज तो नीलाभ जल्दी ऑफिस से आ गये. उसे होश ही नहीं कि क्लब में आज गेट- टुगेदर है. आज दिन भर बेटी के कारण, वह अनमनी रही. नहीं तो ऐसे मौकों पर, सवेरे से ही तैयारी करने लगती है. मैचिंग ज्वेलरी, मैचिंग चप्पलें, डिज़ाइनर ब्लाउज और साड़ी. बदले में पाती है, प्रशंसा और ईर्षालु आँखों की तड़प. कुछ हवस भरी नजरें, उसके ‘शकुन्तला- छाप’ ब्लाउज के गिर्द फिसलती हैं...लेकिन परवाह किसे है?! मॉडर्न दिखने के लिए, कोम्प्रोमाईज़ तो करना ही होता है!!
क्लब के गेट- टुगेदर्स में ऋतु, ममा के साथ जी. एम. आंटी और दूसरी कई आंटियों को इम्प्रेस करने में व्यस्त रहती है. उस दिन सुंदर ड्रेस पहननी होती है...कुछ मेकअप भी सुंदर दिखने के लिए; बात बात पर हलो आंटी, हलो अंकल, हलो दीदी, हलो भैया...चहकते हुए इधर- उधर की चर्चा करना और मौक़ा मिलते ही गाकर या नाचकर दिखा देना. रेवती उसकी तरफ से निश्चिन्त सी हो गयी है...शी इज़ परफेक्टली ट्रेंड! पर गड़बड़ तो हो ही सकती है ना...जैसे कि आज वह किसी कोम्प्रोमाईज़ के मूड में नहीं है. ऐसे में वह बेहद खतरनाक हो जाती है! एक दिन कह रही थी, “ममा आप जी. एम. आंटी से, विश्वनाथ अंकल की बुराई क्यों कर रही थीं?!”...“बेटा मैं तो इंडायरेक्ट हिंट दे रही थी”...“इंडायरेक्ट हो या डायरेक्ट...बुराई तो बुराई होती है” ऋतिका तो कहकर चली गयी किन्तु रेवती ठगी सी देखती रही- विद्रोही बेटी को जाते हुए. विश्वनाथ के रसिक व्यवहार के बारे में, एक हद तक सही ही कहा था उसने... गलाकाटू स्पर्धा के युग में, यह अनुचित भी नहीं... पर ऋतु!!! दुनियांदारी के फेर में पड़कर, ख़ास किस्म की परिपक्वता आती है. सुंदर, पारदर्शी अंतस को, कुरूप औपचारिकता का खोल ढंक लेता है; ताकि कोई निजता को भेद न सके; निजी रहस्य, निजी कमजोरियों को न जान सके...भावुक व्यक्ति वह खोल ओढ़ नहीं पाता. उसे ऋतिका को भावुकता से बचाना होगा.
वह खुद भावुकता के पाश में थी... सोचती रही कि उत्कृष्ट कवितायें लिखकर, दादाजी को परास्त कर देगी...एक हद तक सफल भी हुई. जिला स्तर पर प्रथम पुरस्कार पाया; उस लम्बी कविता के लिए, जिसका शीर्षक था- शहीद की विधवा. कविता में, अपने शहीद पति के शव पर, पछाड़ खाकर गिरने वाली नवविवाहिता का मर्मान्तक चित्रण था. कविता को पढ़, उसकी स्कूल- प्रिंसिपल आशा देवी रो ही पड़ीं परन्तु दादाजी फिर भी न पिघले. उनका दुराग्रह, जस का तस बना रहा. उनकी आँखों का तिरस्कार भी! जन्म से ही, उससे घृणा जो करते थे! रेवती उनके बेटे की चौथी संतान थी.
तीन पोतियों के बाद, वे पोते की आस लगाये बैठे थे. उसके आने के बाद तो जैसे, मातम सा छा गया. बेटे से फोन पर खबर पाकर, रघुवीर दास ने स्पष्ट घोषणा की, “तुम्हारी मनहूस औलाद का चेहरा नहीं देखना मुझे...नहीं आ रहा हूँ मैं!” तीनों बहनों के विवाह में, जी खोल कर सहायता की; उसकी बारी आने पर, हाथ खींच लिया. जिनकी कविताओं में समानता की गुहार थी... पीड़ितों की छटपटाहट थी... स्वयम लैंगिक असमानता के पूर्वाग्रह से ग्रसित!! एक दादाजी के चलाने से ही, लेकिन दुनियाँ नहीं चलती. उसका ब्याह हुआ- वह भी दान दहेज़ के बिना. यह बात और है कि उस जैसी नाजुक सुंदरी को, ‘बेबी एलीफैंट’ सरीखे नीलाभ से ब्याहना पड़ा. तो क्या?!!! शानो- शौकत, पैसा, स्टेटस, सब कुछ है नीलाभ के पास.
अपनी ‘तिकड़मों’ की बदौलत, कहाँ से कहाँ पहुँच गया. कभी चाटुकारी के बल पर, कभी ‘रहनुमाओं’ की ‘मुट्ठी गरम’ कर, समय से पहले, प्रमोशन पाता रहा. अब जब रेवू, मायके जाती है; शान से जाती है. उसकी ठसक, उसके रुआब ने; दादाजी की बोलती बंद कर दी है. वे आँखें...उनकी अनार्द छाया, अब उसे दहलाती नहीं. उनका तिरस्कार स्वयम, अबूझ चुप्पियों में जकड़ गया है. उन्हें हारता देख, एक क्रूर सुख की अनुभूति होती है. बेटी को भी अपनी तरह थोड़ा व्यवहारिक, थोड़ा कांइयाँ बनाना है. ऋतिका की रेसिटेशन- टीचर, बहुत आदर्शवादी है. ऋतु के दिमाग में भी, वही भूसा भर रही थी.
रेवती से कहने लगी, “मिसेज वर्मा, आपकी बेटी बहुत टैलेंटेड है. इतने अच्छे से, पोएम रिसाइट करती है. उसे मेरा क्लास अटेंड करने दें प्लीज” इतने पर भी रेवू न मानी. बिटिया की पर्सनालिटी को, शेप- अप करना जरूरी है; उसका नेचुरल टैलेंट, वेस्ट होता है तो हो! कविताबाजी से भला, उसे ही क्या मिला?! रेसिटेशन छुड़वाकर ऋतु को, पियानो ऑप्ट करवा दिया. आजकल यही ‘ट्रेंड’... यही फैशन है!!
ऐसा नहीं कि ऋतिका एकदम बुद्धू हो. मां- बाप की संगत में बच्चा, कुछ न कुछ तो सीखता ही है. अक्सर ऋतु, स्कूल या कॉलोनी के बच्चों से, झगड़ पड़ती है; उनकी झूठी शिकायत भी करती है. लेकिन रेवती इग्नोर कर देती है...बल्कि कई बार, उसे सपोर्ट भी करती है. तेजतर्रार बनना, समय की मांग जो है!! वाक्पटुता भी बहुत जरूरी है. उसे याद है, एक बार उसने प्यार से, बेटी को डांटा था, “क्या बच्चा...सारा सामान बिखरा देती हो. ससुराल में तुम्हें लोग क्या कहेंगे? कहेंगे- इसे कुछ आता ही नहीं”
“मुझे नहीं तुम्हें कहेंगे- कि इसकी मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया” पट से जवाब मिला. सुनकर वह दंग रह गयी थी. लेकिन उसे बिटिया को डांटा नहीं; बल्कि उसकी ‘स्मार्टनेस’ को लेकर, फख्र महसूस हुआ. रेवती ने हंसकर यह बात, सब सहेलियों को बताई. इस पर मिसेज शर्मा बोलीं, “मुझसे तो कह रही थी- प्रिया आंटी की बिल्ली, बच्चे देने वाली है. उसका ऑपरेशन होगा. हम सब उसे देखने हॉस्पिटल चलेंगे.” महिला- मंडल में, हंसी की लहर दौड़ पड़ी. रेवू थोड़ा परेशान जरूर हुई, “बड़ी आउट स्पोकन हो गयी है लड़की”
गीता शर्मा और उनकी ‘गैंग मेम्बर्स’, ‘नॉन वेज’ चुटकियाँ लेती रहती हैं. उनसे ही सीखी होगी ऋतु!! रेवती भी क्या करे?? ‘लड़की जात’ को साथ रखना पड़ता है...और फिर मिसेज शर्मा, नीलाभ के इमीडियेट बॉस की बीबी है...उसे कैसे टालें?! सर्वाइवल के लिए, सोशलाइजेशन तो जरूरी है... इधर विश्वनाथ की शिकायत,“ ऋतिका अमीश पर, हाथ उठाती रहती है. स्कूल या कॉलोनी जहाँ पाती है- धुन डालती है.” ‘हुंह...पहले बेटे को देखें विश्वनाथ! मंदबुद्धि अमीश...इतना बड़ा होकर भी, छोटी क्लास में पढ़ता है!!’ विचारों को भंग करते हुए, फोन घनघनाया. ऋतु के स्कूल से अर्जेंट बुलावा था. सारा माजरा जानकर, रेवती के पैरों तले, जमीन खिसक गयी! ऋतिका का आक्षेप था कि अमीश ने जांघें ठोंककर, ‘गंदे काम’ के लिए, इशारा किया.
टीचिंग स्टाफ में तहलका मच गया. दोनों के अभिभावक, ‘तलवार तानकर’ बैठे थे. मामला खोदा गया. बच्ची का ‘अधकचरा ज्ञान’, सबसे बड़ा साक्ष्य था. आरोप की हवा निकल गयी...रेवू का अहम्, गुब्बारे सा फिस्स!! भविष्य में ऋतु के ससुरालवाले, जो कहें सो कहें; अभी तो सब बुदबुदा रहे थे, “चौथी क्लास में है...और इतनी चंट!! क्या सिखाती है इसकी माँ??” बाद में पता चला कि जाघें ठोंकने वाला ‘दिव्य ज्ञान’, शर्माइन से मिला था- जब वो महाभारत सीरियल की चर्चा कर रही थीं. रेवू रात भर सो न सकी. दादाजी की आँखें, फिर उसे घूरती रहीं... डराती रहीं- उसकी तमाम ठसक को खारिज कर!!
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परिचय -
नाम- विनीता शुक्ला
शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)
परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)
अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)
कार्य अनुभव-
१- सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य
२- आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य
सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ
प्रकाशित रचनाएँ-
१- प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित
२- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित
३- लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित
४- झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित
५- द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न
६- ‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित
७- ‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित
८- कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार
९- २६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित
१०- ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार
११- ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
१२- ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन
१३- ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित
१४- ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता प्रकाशित
१६- -जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित
१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित
१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक (२०१४)में कहानी प्रकाशित
२०- ‘वनिता’, ‘वुमेन ऑन द टॉप’ तथा ‘सुजाता’ पत्रिकाओं के जनवरी (२०१५) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
२१- ‘जागरण सखी’ के फरवरी अंक में कहानी प्रकाशित
पत्राचार का पता-
टाइप ५, फ्लैट नं. -९, एन. पी. ओ. एल. क्वार्टस, ‘सागर रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स, पोस्ट- त्रिक्काकरा, कोच्चि, केरल- ६८२०२१
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