लेख हिन्दी को बुधुआ की लुगाई न बनने दें डॉ. रामवृक्ष सिंह न जाने क्यों लगने लगा है कि हिन्दी इस देश में बुधुआ की लुगाई है, और इस नाते वह...
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हिन्दी को बुधुआ की लुगाई न बनने दें
डॉ. रामवृक्ष सिंह
न जाने क्यों लगने लगा है कि हिन्दी इस देश में बुधुआ की लुगाई है, और इस नाते वह सबकी भौजाई है। जो चाहे, आए और हिन्दी से भद्दे से भद्दा मजाक कर जाए। फागुन का महीना आने से पहले ही अंग्रेजी भाषा के चर्चित लेखक चेतन भगत ने पिछले दिनों एक अख़बार में कुछ ऐसा ही मजाक करने की गुस्ताखी दिखाई। उन्होंने लिखा कि हिन्दी की लिपि रोमन कर दी जानी चाहिए।
पहले तो यह समझ लिया जाए कि हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने की हिमायत करनेवाले चेतन भगत कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं। उनसे बहुत पहले कई लोगों ने यह बात कही है। खुद नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी इसी मत के थे कि हिन्दी को रोमन में लिखा जाना चाहिए। हमारे डाक-तार विभाग में जब तक देवनागरी लिपि में लिखित सामग्री के प्रेषण और प्रापण की सुविधा नहीं थी तब तक हिन्दी का मैटर रोमन में ही भेजा जाता था और गंतव्य पर उसे देवनागरी में परिवर्तित किया जाता था। लेकिन इसके कई खतरे भी थे। लगभग तीन दशक पूर्व जब दक्षिण में हम कार्यशालाएं चलाते थे तो अकसर एक उदाहरण देते थे- DADAJI AJMER GAYE. रोमन के बड़े अक्षरों में लिखे इस संदेश को कोई ‘दादाजी आज मर गये’ पढ़ ले तो आप क्या कीजिएगा? रोमन की अवैज्ञानिकता का बखान करना हमारा उद्देश्य नहीं है।
शुरुआत में हिन्दी को रोमन में लिखने की तरफदारी इस कारण की गई, क्योंकि उन दिनों देवनागरी टंकण के लिए यान्त्रिक सुविधाओं की कमी थी। बाद में बहुत लंबे समय तक हम देवनागरी टंकण के लिए टाइपराइटर का इस्तेमाल करते आए। देवनागरी के ककहरे में जितने कैरेक्टर हैं, वे सब टाइपराइटर कुंजीपटल पर अँट नहीं पाते थे। इसलिए कई लिपि-चिह्नों की बलि देनी पड़ी। देवनागरी लिपि के मानकीकरण के नाम पर जो सबसे बड़ी विसंगति हमने स्वीकार कर ली, वह थी पंचम वर्ण के स्थान पर अनुस्वार का उपयोग। इससे सतही तौर पर सरलीकरण चाहे हो गया हो, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि इसने भाषा में बहुत बड़ी अराजकता पैदा कर दी। उदाहरण के ज़रा निम्नलिखित शब्दों को देखें-
कंघा- हम हिन्दी वाले अभ्यासवश इस शब्द का ठीक उच्चारण करते हैं। लेकिन यदि किसी ऐसे विदेशी व्यक्ति को उच्चारण करना हो जो इस शब्द से परिचित न हो तो वह इसका उच्चारण- कन्घा, कम्घा और कँघा भी कर सकता है। इसी प्रकार पंप का उच्चारण पन्प, पँप और पम्प, तीनों ही हो सकता है। अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं से आगत कई शब्दों का सही-सही, उच्चारण-अनुकूल लेखन तो तभी हो सकता है जब हम पंचम वर्ण का इस्तेमाल करें। उदाहरण के लिए हॉङ्ग-कॉङ्ग शब्द को लें। इसे या तो हम हाँग-काँग लिखते हैं या हांग-कांग। दोनों में से कोई भी सही उच्चारण नहीं है, जबकि हॉङ्ग-कॉङ्ग बिलकुल सही उच्चारण है। हिन्दी के कई नामचीन अख़बार (जिसमें नवभारत भी शामिल है) आइटम सॉङ्ग को आइटम सॉन्ग लिख रहे हैं। भाषा की प्रकृति का गंभीरता से अध्ययन किए बिना जब हम उसमें लिखने-पढ़ने की कोशिश करते हैं तो इस प्रकार की छोटी-छोटी दुर्घटनाएं होना स्वाभाविक है।
हिन्दी को संघ की राजभाषा के तौर पर स्थापित, प्रचारित और प्रसारित करने के लिए सरकार ने बहुत बड़ा अमला तैनात किया है। लेकिन इस अमले में बहुत से महारथी ऐसे हैं, जिन्हें भाषा की इन छोटी-छोटी बारीकियों की कोई समझ नहीं है। वे इस बारे में कुछ सुनने को भी तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है कि इससे हिन्दी और कठिन हो जाएगी। सच्चाई यह है कि अनुवाद के बाद हिन्दी का जो कृत्रिम कलेवर उभरकर हमारे सामने आता है, उसपर अंग्रेजी की प्रेत-छाया होती है, वह अंग्रेजी शैली में, देवनागरी में लिखी गई हिन्दी होती है। ऐसी हिन्दी ने दफ्तरों में काम करनेवाले हिन्दी के जानकारों को भी हिन्दी से विमुख कर दिया है। बहुत से हिन्दी अधिकारियों को अनुस्वार और अनुनासिक का विवेक नहीं होता। पचास प्रतिशत अधिकारी तो ऐसे मिल जाएँगे जो आंचलिक को आँचलिक लिखते हैं। रेफ् कहाँ लगाया जाए, इसके बारे में भी पूरी अभिज्ञता लोगों में नहीं है। र्कायालय लिखनेवाले हिन्दी अधिकारी भी मिल जाएँगे।
हिन्दी में संक्षेपाक्षरों का घोर अभाव है। परिवर्णी शब्द भी हमने नहीं बनाए। यदि किसी ने बना भी लिए तो उनको प्रचलन में लाने का प्रयास कोई नहीं करता। यहाँ तक कि हिन्दी का दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स भी खुद को नभाटा लिखने के बजाए एनबीटी लिखना बेहतर समझता है। कई बार तो यह देखने में आता है कि मूल नाम विशुद्ध हिन्दी में है, किन्तु उसका संक्षेपाक्षर रोमन में कर दिया गया, जैसे भारतीय जनता पार्टी का बीजेपी, केन्द्रीय विद्यालय का केवी (न कि केवि), राजीव गाँधी स्वास्थ्य बीमा योजना को हमने बनाया आरएसबीवाई। हम इसे रागांस्बीयो या रागांस्वाबीयो भी तो कर सकते थे। प्रथम दृष्टि में यह सुनने में अटपटा लगता है, किन्तु चार बार बोलने के बाद पाँचवीं बार ठीक लगने लगता है। दरअसल हमारे भाव-जगत में ही नहीं रही हिन्दी। उसकी जगह अंग्रेजी ने ले ली है। हम मन से अंग्रेज हो गए हैं।
भारत के अधिकतर लोग मन से पक्के अंग्रेज हो गए हैं। चाहे वे अनपढ़ हों, अर्ध-शिक्षित हों या सुशिक्षित। हिन्दी बेल्ट ने भी हिन्दी से किनारा कर लिया। और सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि हिन्दी की सेवा, उसके प्रचार-प्रसार के लिए जिन लोगों को नियुक्त किया गया था, वे भी हिन्दी के अनुसंधान व विकास में कोई रुचि नहीं ले रहे। होना तो यह चाहिए था कि प्रबुद्ध राजभाषा अधिकारी हिन्दी की वैज्ञानिकता को बरकरार रखने की कोशिश करते। यूनीकोड के व्यवहार में आ जाने के बाद यह बहुत आसान हो गया है। अब हम अधिकतर ध्वनियों का अंकन देवनागरी में कर सकते हैं। अब हमें हांग-कांग लिखकर hong-kong उच्चारण करने की ज़रूरत नहीं रही। लेकिन इस दिशा में कोई गंभीर चिन्तन नहीं हो रहा है। इसी प्रकार यदि सभी राजभाषा अधिकारी अपने-अपने मंत्रालय, निकाय और विभाग में प्रयुक्त शब्दों की संक्षिप्तियाँ व परिवर्णी शब्दों की सूचियाँ तैयार करते और अपनी हिन्दी कार्यशालाओं, परिपत्रों, प्रकाशनों आदि के माध्यम से उन्हें प्रचलन में लाने की कोशिश गंभीरता पूर्वक करते तो हिन्दी काफी आगे बढ़ चुकी होती।
हिन्दी को आगे बढ़ाने, सरकारी दफ्तरों में लागू करने के लिए सरकार ने कितना बड़ा अमला खड़ा किया है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन उस अमले ने क्या किया? उस अमले ने नई प्रौद्योगिकी, यानी कंप्यूटर के माध्यम से हिन्दी और देवनागरी को आगे बढ़ाने पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। उस अमले के अधिकतर अधिकारी यूनीकोड के इन्स्क्रिप्ट की-बोर्ड से परिचित नहीं हैं। यदि वे खुद यह कुंजी पटल नहीं इस्तेमाल कर सकते तो कैसे दूसरों को सिखाएँगे? यह अमला हिन्दी के विकास के बारे में न सोचकर निरन्तर अंग्रेजी की कमियाँ गिनाता रहता है। इस नकारात्मक सोच से तो हिन्दी का विकास होने से रहा।
अब चेतन भगत की बात। चेतन भगत उस ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे हिन्दुस्तानी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, बांगला, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, तेलुगु, कन्नड़ आदि भाषाओं और उनकी उद्गम लिपि- ब्राह्मी तथा परवर्ती लिपियों (जिसमें नागरी भी शामिल है) की मूल प्रकृति, साहित्य और परंपरा के बारे में गहराई से कुछ भी ज्ञात नहीं है। क्या चेतन भगत को इन लिपियों के स्वरों, व्यंजनों, आक्षरिक व्यवस्था, संधि-नियमों आदि के बारे में कुछ ज्ञान है? क्या उन सभी का निर्वाह रोमन लिपि में हो पाएगा? यदि चेतन भगत ने इस विषय में तनिक भी गंभीरता से सोचा होता वे रोमन लिपि को प्रकारान्तर से इन भाषाओं (और खासकर हिन्दी) के लेखन का माध्यम बनाने के संबंध में अपना मुँह न खोलते।
हम एक प्रति-प्रस्ताव रखना चाहते हैं-
व्हाइ इंग्लिश कैननॉट बी रिटेन इन देवनागरी? मिस्टर चेतन भगत शुड ट्राइ राइटिंग हिज नॉवल्स इन देवनागरी। दिस वे हिज नॉवल्स वुड बी रीचिंग ए लार्जर नंबर ऑफ रीडर्स एंड ऑफ कोर्स, दिस वुड फेच हिम मोर रीच, मोर पब्लिसिटी एंड मोर मनी टू। व्हेन देवनागरी इस कैपेबल ऑफ इन्स्क्राइबिंग ऑल दि साउण्ड्स ऑफ दि इंग्लिश लैंग्वेज, वी शुड प्रोबैब्ली अडॉप्ट देवनागरी ऐज द ऑफिशियल स्क्रिप फॉर राइटिंग इंग्लिश इन दि टेन हिन्दी स्पीकिंग स्टेट्स ऑफ दिस कण्ट्री।
इफ माइ अटेंप्ट ऑफ राइटिंग इंग्लिश इन देवनागरी स्क्रिप्ट अपीयर्स टु बी ए ट्रान्स्ग्रेशन ऑफ इंग्लिश लैंग्वेज, वी, द सर्वेण्ट्स ऑफ द कॉज ऑफ हिन्दी विश टु अर्ज मिस्टर भगत टु ऐब्स्टेन फ्रॉम मेकिंग अनसॉलिसिटेड सजेशन्स एंड कमेंट्स अबाउट ए लैंग्वेज, व्हिच हैज नेवर बीन हिज डोमेन ऑफ राइटिंग। ही हैज नो अथोरिटी टु मेक सच ईडियॉटिक सजेशन्स, विदाउट गोइंग इण्टू द जेनर ऑफ द लैंग्वेज। दिस इज हाइली ऑब्सीन एंड ऑब्जेक्शनेबल। दिस इस ऐन अटेम्प ऑफ टैम्परिंग विथ द सैंक्टिटी ऑफ अवर नेशनल लैंग्वेज। एण्ड इट गोज अगेंस्ट द प्रोविज़न्स ऑफ आर्टिकल 343 ऑफ दि कंस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया, व्हिच क्लीयरली प्रोवाइड्स फॉर राइटिंग हिन्दी इन देवनागरी स्क्रिप्ट।
फ्रॉम द अबव, इट शुड नाउ बी अम्प्टीन क्लीयर टु मिस्टर भगत दैट इंग्लिश कैन वेरी वेल भी रिटेन इन देवनागरी ऐज वेल।
सच तो यह है कि चेतन भगत का सोच अंग्रेजों की उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त है, जो अपने पूरे परिवेश को अपने अधीन लाने में विश्वास रखती है। हम सभी हिन्दी भाषियों और विशेषतः हिन्दी सेवकों को पूरे मनोयोग से इस औपनिवेशिक मानसिकता का विरोध करना चाहिए। साथ ही, हमें खुद कंप्यूटर पर हिन्दी में, यूनीकोड में काम करना सीखना चाहिए। इसके अलावा हमें हिन्दी में संक्षिप्तियों, परिवर्णी शब्दों तथा नए शब्दों का विकास व प्रचार-प्रसार करना चाहिए। अपनी हिन्दी को हम बुधुआ की लुगाई नहीं बनने देंगे। यह बात हमें हमेशा याद रखनी चाहिए।
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डॉक्टर साहब,
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ़ा. विचारोत्तेजक लगा. मेरे विचार देना चाह रहा हूँ-
1. चेतन भगत तो क्या इस देश में किसी को भी अपने विचार रखने का हक है. इसे आप इस कदर जलील न करें, ऐसी मेरी सोच है. शायद आपको पसंद नहीं आए. आप अपनी राय स्पष्ट व सुशील शब्दों में रख सकते थे.
2. यह कोई जरूरी नहीं कि भगत जी का प्रस्ताव मान ही लिया जाए. जो मानने या अस्वीकार करने के हकदार हैं, वे निर्णय ले लेंगे. मैं उन पर छोड़ना चाहता हूँ.
3. मैंने भी भगत जी का लेख पढ़ा है और वह अखबार सँजो कर रखा है. मुझे लगा कि इस देश में जो (खासकर अहिंदी भाषी) लोग हिंदी बोल पाते हैं पर लिख नहीं पाते उनके लिए यह सहायक हो सकती है.
4. अहिंदी भाषियों के आकर्षण से हिंदी का विस्तार और बढ़ेगा. धीरे धीरे उन्हें हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है.
5. आपने पंचमाक्षर नियम का उल्लेख किया है. मैंने कई जगह ( नेट पर भी) पूछकर जानना चाहा है कि "हिमांशु" को विस्तृत तौर पर सही कैसे लिखा जाए. शायद आप मुझे इस बारे में सीख दे सकेंगे... कृपया धन्य करें.
6. आपने अपनी देवनागरी में लिखी अंग्रेजी में हिंदी को नेशनल लेंग्वेज कहा है. मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है. हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है.
लेख के बाकी अंशों में मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ.
मेरी हिंदी रुचि के लिए आप hindikunj.com पर "राजभाषा हिंदी" विषय पर मेरे लेखों की शृंखला देख सकते हैं. रचनाकार में भी कुछ लेख-कहानी- कविता प्रकाशित हो चुकी हैं.
मेरी टिप्पणी में समाए विचारों के प्रति आपकी कोई भी असहमति हो तो अवश्य अवगत कराएं. अंत में एक बार फिर आग्रह करना चाहूँगा कि "हिमांशु "का विस्तार दे और धन्य करें.
सादर-शुभाकाँक्षी,
माड़भूषि रंगराज अयंगर. (laxmirangam.blogspot.in)
8462021340
अयंगर जी द्वारा उठाए कुछ प्रश्नों का उत्तर रामवृक्ष जी ने अपने लेख में दिया है -
हटाएंhttp://www.rachanakar.org/2015/02/blog-post_42.html
सम्मान्य डॉ. साहब,
जवाब देंहटाएंऐसा लगता है कुछ बातें आपकी नजर में अभी आई नहीं हैं. प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने बाकायदा रोमन लिपि में देवनागरी वर्णों के लिए एक वर्णमाला तैयार की थी. लेकिन अन्य भाषाशास्त्रियों ने उसे अस्वीकार कर दिया था. चेतन भगत की बातों से आप क्यों चिंतित हाते हैं.
पंचमाक्षर के लिए संयोग में अनुस्वार रखने का नियम मनमाना नहीं है. यह हिंदी वैयाकरणों द्वारा स्वीकृत तथ्य है और हिंदी व्याकरण का हिस्सा बन चुका है. और यह हिंदी की प्रकृति के अनुसार भी है. आप जिस नियम का हवाला दे रहे हैं वह संस्कृत भाषा का नियम है और हिंदी और संस्कृत के व्याकरण के नियम अलग हैं.
सम्मान्य रंगराज अयंगर जी,
आपके प्रस्न का समाधान मैं दे रहा हूँ..
हिमांशु का विग्रह है --- हिम+अंशु. यहाँ अं अक्षर में दो वर्णो का संयोग है, स्वर अ और अयोगवाह अनुस्वार ( ं ) का. अनुस्वार.किसी व्संजन से युक्त नहीं होता पर अर्थ का वहन करता है. और इसका संयोग अंतस्थ और उष्म व्यंजनों के साथ होता है. जैसे-- संयत. अयंगर. अहं, अंत.
श्री शेषनाथ जी,
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी पढ़ी. तो क्या यह मानना उचित होगा कि जैसे पंचांग के पञ्चाङ्ग लिखा जा सकता है वैसे हिमांशु को किसी तरह नहीं लिखा जा सकता और उसे हिमांशु ही लिखना होगा. यदि यह सही न हो तो विस्तार दें.
सादर,
अयंगर.
सम्मान्य अयंगर जी,
जवाब देंहटाएंअनुस्वार के योग संबंधी टिप्पणी में थोड़ी भूल हो गई है. अनुस्वार (ं) का न तो स्वर वर्ण के साथ योग होता है न व्यंजन वर्ण के साथ. यह केवल स्वरों के सहारे चलता है और अर्थ का वहन करता है. दूसरा अंतस्थ (य र ल व) और उष्म (ष,श,स,ह) के पूर्व अनुस्वार प्रयोग होता है. अब आप स्वयं निर्णय कर लें.
पूर्व की टिप्पणी में की गलती के लिए क्षमा.
श्रीमान शेषनाथ जी,
हटाएंआपकी - स्वयं निर्णय करें - मुझे समझ नहीं आई. मैंने हिंदी में एम ए या डी फिल नहीं किया है. इसलिए चाहूँगा कि यदि हिंमांशु को ब्ना अनुस्नवार के पञ्चाङ्ग जैसा लिखा जा सकता है तो लिपि दर्शाएं. आभारी रहूँगा.
सम्मान्य अयंगर जी,
जवाब देंहटाएंभाषा पर अधिकार के लिए एम.ए., डी.फिल.की आवश्यकता नहीं होती.
हिमांशु को हिमांशु की तरह ही लिखा जाएगा. यहाँ मा के बाद अंतस्थ वर्ण श है. हिंदी व्याकरण के नियमानुसार म में स्वर वर्ण अा जुड़ा हुआ है ( म्+आ) और इसके बाद अंतस्थ वर्ण श है. अतः सवरयुक्त व्यंजन मा के बाद और अंतस्थ वर्ण श के पूर्व अनुस्वार की स्थिति होगी. ध्यान दें--मां में अनुस्वार का उच्चारण मा के बाद और श के पहले होता है.
मैं अनुरोध करूँगा कि आप अपना क्रोध थूक दें.
यह पञ्चाङ्ग की तरह नहीं लिखा जाएगा.
शेषनाथ जी,
हटाएंधन्यवाद.
अयंगर.