’’ !! गांधी तेरे देश में !! ’’ गांधी तेरे देश में - अहिंसा की आड़ में, पशुओं के भेष में, लाखों हिंसक जीव - खड़े हैं इंतजार में निरीह जनता को...
’’ !! गांधी तेरे देश में !! ’’
गांधी तेरे देश में -
अहिंसा की आड़ में,
पशुओं के भेष में,
लाखों हिंसक जीव -
खड़े हैं इंतजार में
निरीह जनता को खाने।
देश भक्तों के भेष में,
सत्ता की आड़ में -
घोटालों के फेर में,
अनेकों बगुला भगत-
खड़े हैं कतार में,
अपना उल्लू सीधा करने।
न सुरक्षित हैं इंसान
न मजदूर न किसान,
सभी बन गये हैं -
’’आदिमानव’’
सभ्यता से विहीन,
स्वार्थी व नेत्रहीन।
खड़ग सस्ती हो गयी है, और -
बढ गये हैं दाम अनाजों के।।
2- कविताः-
’’ !! एक बीज !! ’’
मन के मंदिर में, जब
बसा लेते हैं एक मूरत
वाणी की मधुरता से-
रस टपकाता हुआ एक सूरत।
धुन में तब उसके
लोग सुध खो देते हैं
बिन सोचे अनजाने में
एक बीज बो लेते हैं।
शिकवा हो या गिला
परवाह इसकी नहीं करते हैं
नयनन की भाषा समझ
आगे बढ़ने की सोचते हैं।
न्याय या अन्याय की
तब परवाह नहीं रहती उन्हें,
जाने फिर कब मिले
क्षण इतने सुखद उन्हें।
हार कर तब सब अपना
दिल में बचा लेते हैं एक मूरत
हर घडी, हर महफिल में -बस
याद आती है उन्हें वो सूरत।
3-कविताः-
!! श्रद्धा सुमन !!
सावधान!
आ रहा है फिर
आपके चौखट पर
एक बहुरूपिया-
अपना भेष बदल कर।
वह मांगेगा भिक्षा
झोली फैलाकर, और -
लूटकर ले जायेगा
सब कुछ परदेश।
भूखा रखकर
अंजान बनेगा।
अगर जीना है
स्वाभिमान के साथ -
तो वह फसल मत देना
जो उगता है-
पांच वर्षों में
एक बार।
सावधान!
आ रहा है लुटेरा
आपके अधिकारों का,
लूट कर चढायेगा, रोज,
श्रद्धा के सुमन,
समाधियों पर।
फिर मांगेगा दुआ
शांति की
मुर्दों के लिये ।
4- कविताः-
!! ’’कली पुष्प बन इठलाती जब’’ !!
सुगन्ध बिखेरती कली,
बागों में खिलती है जब,
भीनी -भीनी सी खुशबू-
वातावरण में मिलती है तब।
षष्ठ केन्द्रों में भर आकर्षण
कली, पुष्प बन इठलाती जब
गुंजायमान हो भौंरे उसे पर-
आकर्षित हो जाते हैं तब।
माया जाल बिखेर कली,
इतराती बन पुष्प जहां,
स्वर्ग समझ उस बाग को -
अठखेली करता भौंरा वहां।
शिकवा, गिला बिसार कर भौंरा,
मंडराता है, पुष्प पर जब-
हरण, वरण की समझ पुष्प
सकुचाती है, भौंरे से तब।
न्याय- अन्याय की दे दुहाई-
पुष्प समझाती भौंरे को,
स्वर्गिक सुख में हो विभोर-
कुछ समझ न आती भौंरे को।
हार समझ पंखुडी में पुष्प,
कैद भौंरे को करती है,
देख मिलन तब, पुष्प भौंरे की -
दसों दिशायें हंसती है।
5- कविताः-
!!’’ औरत तेरी यही कहानी ’’!!
आंचल में है दूध, आंखों में पानी,
त्याग, सेवा और बलिदान है तेरी निशानी
औरत तेरी यही कहानी। औरत तेरी यही कहानी।
तू ममता की देवी है
तू मानव की जननी है,
पर तेरी सेवा न करते प्राणी-
औरत तेरी यही कहानी।
कभी-कभी तू मां बनकर
बच्चों को है गीत सुनाती
कभी- कभी तो अद्धांगिनि बनकर,
मर्दों को है तू बहलाती -
तू मानव की क्षुधा मिटाती
तू सब दुःखों को सह जाती
औरत तेरी यही कहानी।
तुझ बिन जीवन व्यर्थ हो जाता,
तुझ बिन उन्नति अपूर्ण रह जाती,
मार्ग दर्शक बन तू मार्ग दिखाती-
करते जब हैं लोग मनमानी।
ममता तुझ में भर आती जब
बरसाती घर में अमृत तब-
ममता,स्नेह और आदर्श बिखेर कर
घर को बनाती स्वर्ग है तब।
कभी -कभी तू भगिनी बनकर
हाथों में है राखी पहनाती
उस राखी की लाज को-
दहेज के लालची कुत्तों से,
बचा न पाता है प्राणी।
दहेज के कारण तब तू, दे देती है अपनी कुर्बानी।
औरत तेरी यही कहानी। औरत तेरी यही निशानी।
6- कविताः-
!! ’’ एक बूंद’’ !!
अथाह जल का
एक बूंद हूं मैं,
खुदा के समुद्र का।
तरंगों की भांति
मुस्कुराता रहूंगा।
वाणी की मधुरता से -
तृष्णा-तृप्ति करूंगा।
जीवन दान देता,
बढता रहूंगा,
आगे की ओर....।
प्रकृति की जड़ता को
रूढ़ता , पुरातनता को
अहमृ और जज्बात को
प्रश्रय न दूंगा।
घृणा-द्वेष स्वार्थ से
विमुख रहूंगा
जाति-धर्म भेद-भाव
मिटाता रहूंगा।
भेद मुक्त - निर्भय मन
बढ़ता रहूंगा
आगे की ओर....।
7- कविताः-
।।’’ तब माली बना तू रोयेगा ’’।।
चाहते हो गर एक हरा भरा उपवन
तो मानो प्यारे मेरा यह कथन।
तुम चमन में अपने, दो ही फूल खिलाना
सींच सींच कर उन दोनों को ही महान बनाना।
ज्यादा फूलों की बगिया, माना सुन्दर दिखेगी
पर इस मंहगाई में उनकी, परवरिश जब न होगी -
उस वक्त कली, फूल बनने के पूर्व ही झड़ जायेगी
तब माली बना तू रोयेगा।
अश्कों से अपने, तू सींचना चाहोगे
पर तुम्हारे सारे अश्क बेकार ही जायेंगे।
तेरे ही उपवन के फूल, दूर तुझसे हो जायेंगे
लाख यतन करोगे पर वे खिल कभी न पायेंगे।
उस वक्त तेरे बगिया में एक फूल भी न बचेगा
तब माली बना तू रोयेगा।
8- कविताः-
।। ’’ अनमोल बात ’’।।
छुपाये रखा था जो दिन में
वो चीज तुम्हें देता हूं।
सम्हाल कर रखना इसे
एक अनमोल चीज देता हूं।
छलके न अश्क आंखों से तेरी
इस पर नजर मैं रखता हूं
अपना ले परिवार नियोजन
यही सबों से कहता हूं।
है यह अनमोल जो
इत्तिफाक से हासिल होता है
जिसने भी अपनाया इसे
ता उम्र खुशी से जीता है।
जख्म सीने का तीरे
न बहे बनकर मवाद
तो बच्चे दो ही रखो
गर न चाहते दंगा फसाद।
बढ़ने न तो जनसंख्या मेरे दोस्त
वरना बढेगी बेकारी-
गरीबी की जंजीरों में फंस जाओगे तुम
तब रोयेगी वतन हमारी।
आओ आगे बढो और नसबन्दी करा लो
बच्चे कम करो और जीवन खुशनशीं बना लो
है दो ही ठीक तुम्हारे लिये बच्चे
बढकर ये ही बनेंगे वतन सिपाही सच्चे।
9- कविताः-
।।’’ परिवार नियोजन ’’।।
आवाज मेरा आप तक है
आपको इसे फैलाना होगा
है खुशियों का दामन परिवार नियोजन
आपको इसे अपनाना होगा।
तोड़कर अंधविश्वास की बेडियों को
सामने आना होगा।
पडी है सामने आपकी खुशी
हर हाल में इसे अपनाना होगा।
माना की दुनियां खुदा की देन है
पर जन्नत इसे स्वयं ही बनाना होगा
गर चाहते हैं, आपके बच्चे चमके बनकर सितारे
तो परिवार नियोजन अपनाना होगा।
बढते रहे गर यूं ही बच्चे आपके
तो माना की सौ बच्चों को बाप आप कहलाओगे
पर रोयेंगे भूख से इस मंहगाई के आंचल में-
तब क्या उनके भूख को आप मिटा पाओगे।
गर नहीं, तो अभी से कुछ सोचो, कुछ अपनाओ
पडी है सामने आपकी खुशी, बढो और इसे गले लगाओ।
सच पूछते हो तो सुनो! दो ही बच्चे ठीक हैं आपके लिये
होकर बडे यही कल , बनेंगे सिपाही वतन के लिये।
आओ मिलकर हम वादा करें
हम परिवार नियोजन अपनायेंगे।
खुशियां ही हो हर तरफ
एक ऐसा माहौल बनायेंगे।
हम परिवार नियोजन अपनायेंगे।
हम परिवार नियोजन अपनायेंगे।।
10- कविताः-
।।’’ प्रायश्चित ’’।।
नंगे हो गये है पहाड़
हो गयी है धरती नंगी।
सुख रही है जल-धारा,
हो गये है प्यासे पशु पक्षी।
आ रही है कहीं बाढ़
पर रहा है कहीं सूखा
जंगलों की किल्लत से-
वातावरण हो गया है रूखा -रूखा।
लकडी की किल्लत से अब
झोपडी भी न बन पाते।
लकडी की दिक्कत से अब
मुर्दे भी न जल पाते।
जंगल खत्म हो रहे
हैं जानवर भूखे भटक रहे
पर्यावरण दूषित हो गया
है संक्रामक रोग फैल रहे।
पर यह सब क्यों ?
बात साफ है।
हमने अपनी जनसंख्या
अंधाधुंध बढाई
जंगलों की की -
निरंतर कटाई।
पुरखों की पूंजी
बच्चों की भविष्य निधि
सभी है गंवाई।
किया जो हमने महापाप
अब क्यों न करें हम पश्चाताप।
पाप किया है तो-
प्रायश्चित भी करना होगा
हमें एक जुट हो यह ...
संकल्प लेना होगा।
हम वृक्ष बचायेंगे।
हम वृक्ष लगायेंगे।
पर्यावरण प्रदूषण को-
हम दूर भगायेंगे।।
11- कविताः-
।। एक ख्वाब हूं मैं ।।
खामोश रात का चिराग हूं मैं,
गर्दिश बाग का गुलाब हूं मैं।
न पूछ मुझसे दिल की बात यारों-
टूटा तार का सितार हूं मैं।
न बजता हूं, न गुनगुनाता हूं
चोट खाकर लौट आता हूं मैं।
गमों के सागर में डूबा रहता हूं,
सारे जख्मों को सीने से लगा रहता हूं मैं।
मरहम मिलता नहीं जख्म भरेगी खाक-
जख्म सहने की आदत बना रखता हूं मैं।
फूल चमन में नहीं, कांटों को सींचता हूं मैं,
दिल रोने को चाहता है पर हंसता हूं मैं।
सच पूछो तो जीने का शौक नहीं मुझको
नसीब कल तो खुलेगी ये सोचकर जीता हूं मैं।
जब रोता है दिल तो बहती है आंसू-
बनाकर स्याही आंसुओं से गजल लिखता हूं मैं।
12- कविताः-
।। मैं कौन हूं ।।
मैं कौन हूं ?
क्या हूं ? किसलिये हूं ?
कहां से आया हूं ? क्यों आया हूं ?
मेरे मन की तन्हाई में
एक ऐसा वक्त आता है
जब मैं सोचने लगता हूं।
उस वक्त मेरे मन में
ये सवाल गूंजने लगती है।
मैं कौन हूं,
क्या हूं, कहां से आया हूं, क्यों आया हूं।
किसने भेजा है, क्यों भेजा है।
फिर मैं परेशान हो जाता हूं
कोई आकर इतना तो बता दे
मेरे इन जज्बाती सवालों का
जवाब क्या है।
मैं कौन हूं ? किसलिये हूं ?
पर कोई नहीं । कोई भी नहीं ।।
जो जवाब दे सके।
तब -मेरे मन के भीतर
एक विचार उठता है
क्या ? क्या मैं चुना गया हूं।
क्या करने को चुना है खुदा ने
अपने अरमानों की पूर्ति के लिये
या, या फिर किसी और के लिये।
सोचता हूं, पर कह नहीं सकता।
यह सोचना आखिर-
कब समाप्त होगा।
मैं इंतजार में हूं - उस वक्त का
जब कोई आकर कहेगा।
’’ तुम जल का एक बूंद हो
खुदा के समुद्र का
हमेशा मुस्कुराते रहो
तरंगों जैसा
तृष्णा तृप्ति करो
वाणी की मधुरता से
जीवन दाद देते
हमेशा बढ़ते रहो
आगे की ओर....। ’’
पर कोई कहने वाला हो तब तो।
बस! अब और सहा नहीं जाता
कोई आकर बता दे
नहीं तो मैं दर दर भटकता
यही पूछता रहूंगा।
मैं कौन हूं ? क्या हूं ?
काश! कोई ये तो बता दे
मैं कौन हूं ?
पर बेकार - सिर्फ निरर्थकता ही हाथ आती है।
और, तब मैं यह सोचने पर विवश हो जाता हूं- कि
मैं ’’ मैं ’’ हूं
’’ मैं ’’ यानि ’’ अहम् ’’
अहम् यानि घमण्ड
पर मुझमें घमण्ड नहीं, क्योंकि -
मैं हूं कौन , मुझे पता नहीं तो घमण्ड कैसा।
अंत में, मैं यह मान लेता हूं
मैं हूं -
एक पुतला - हाड़ मांस का।
शायद वहीं हूं।
हां मैं वही हूं।
हां ! हां ! मैं वही हूं।।
राजेश कुमार, पत्रकार, राजेन्द्र नगर, बरवाडीह, गिरिडीह। (झारखंड)
ईमेलः
patrakarrajesh@gmail.com
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