आज पंडित सुबह से ही गुस्से में है। फनिग नाग की तरह वह दुश्मनों को फुंफकार रहा है। दिमाग में भरी गालियों को चुन-चुनकर बाहर फेंक रहा है। मधुप...
आज पंडित सुबह से ही गुस्से में है। फनिग नाग की तरह वह दुश्मनों को फुंफकार रहा है। दिमाग में भरी गालियों को चुन-चुनकर बाहर फेंक रहा है। मधुपुर बाजार के उतरी तिराहे पर सामान्य गतिविधियाँ कुछ पलों के लिए थम सी गई हैं। चाय की दुकान पर खड़े लोग भारत-पाकिस्तान की खबरों को छोड़ पंडित के इस तमाशे को देखने लगे हैं। रिटायर्ड मास्टर भोलेनाथ चाय में भीगी अपनी मूछों को पोंछते हुए बोल पड़ते हैं- ए पंडितवा को कौन लौंडा पुड़का गया है? जलेबी खाते हुए महावीर ठेलेवाले ने कहा- मास्टर साहब, बीज वाला छोकरा रहा होगा। पंडितवा को 'मउसा' कह भाग गया होगा। कबाड़ी वाले चरन ने उसकी बात में जोड़ दिया, ..केवल मउसा कहने से पंडित नहीं भड़का है. किसी ने चोरवा कह दिया होगा।-
सहुवाइन के घर के ठीक आगे पंडित दोनों हाथों में पानी वाली बाल्टी नचा-नचा अपने दुश्मनों को गालियाँ दे रहा है। बाप-महतारी. बहिन-भाई किसी को नहीं छोड़ रहा है। 'मउसा' 'चटनी' तक बात रहती तो किसी तरह सह लेता लेकिन 'चोरवा' उसकी बर्दाश्त के बाहर है। चिबिल्ला लड़की को दौड़ाते समय किसी दूसरे लहूके ने ढेला चला दिया। ढेला ठीक उसके माथे पर लगा। तर-तर खून बहने लगा। अँगुलियों से माथा छूते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। हाथ की दोनों बाल्टियाँ अभिमन्यु के टूटे रथ का पहिया बन गईं। वह उन्हें नचाता ही जा रहा है और दुश्मनों को ललकार रहा है- हिम्मत है तो सामने आओ. भाग कहाँ रहा है? पंडितवा के हाथों में घूमती बाल्टी नहीं, बल्कि सुदर्शन चक्र है। लगता है वह विरोधियों का एक-एक कर गला काट देगा।
नन्हू पांडे का इकलौता बेटा प्रभाशंकर बाजार में कब पंडितवा बन गया, इसे केवल वही जानता है। दूसरों को इसमें क्या रुचि. कोई फायदा भी तो नहीं। लेकिन उसे तो सब कुछ याद है- उस शाम जब पड़ोस से खेल-खाल कर अपने घर लौटा तो 'बाऊ' बड़ी बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे, उनके हाथ के दोने में टटकी जलेबियां भरी थीं. जिनकी खुशबू ने उसकी भूख बढ़ा दी। जल्दी-जल्दी खाने लगा- रोज तो ऐसा होता नहीं था। तीन-चार साल का पंडित भला इसके कारणों में कैसे जाता? बाबू चुपचाप उसे निहार रहे थे। समूची रात सोने के बाद सुबह जब वह उठा. धूप नीम के नीचे तक उतर आयी. थी। ऑख मलते-मलते जब तक चारपाई से उतरता उसका पड़ोसी संगी उसके सामने हाजिर हो चुका था 1 उसे खेलने की जल्दी थी- कल की गाड़ी अधूरी जो है। नन्हीं अंगुलियों से गीली मिट्टी सानते हुए उस बाल दोस्त ने कहा 'पंडितवा तोर माई भाग गइल। झुनुवा कहत रहल। ' एक बार तो पंडित अचकचा सा गया। लेकिन तुरंत ही अपने संगी के साथ बैलगाडी की अधूरी पहिया बनाने लगा। तब किसी औरत के भागने का मतलब न पंडित समझता था, न तो उसका दोस्त।
उसके पिता नन्हू पांडे कम कलाकार न थे। घर में चार बीधे की खेती थी. पर ब्राह्मण होकर हरवाही करेंगे?? फिर 'कानों माटी, कोन आतर'- भला उनके वश का है। किसी साधु बाबा के सत्संग में उन्होंने सुन लिया था-बामन को धन केवल भिक्षा। उन्हें यह बात जँच गयी थी. न हाथ मइल न गोड मइल! घुटने तक धोती. हाफ बाँही का कुर्ता, जजमानी वाला बाल गमछा. माथे पर लाल तिलक- यही पहचान थी उनकी। नन्हू महाराज बारी-बारी से हर गाँव मेँ जाते। पंद्रह दिन मं फेरा लगा लेते। घर-घर सिद्धा लेने की गरज से दरवाजे पर जम जाते और घर मेँ से निकलने वाली गृहस्थिन की प्रतीक्षा करते। पहले तो एक घर से आधी थाली दाल-चावल जरूर मिल जाता था। पर अब तो कटोरे में आता है। पर संतोष कर लेते हैं कि इन्होंने किसी को कर्ज तो नहीं दिया था। दान की बछिया के दाँत नहीं गिनते। जब झोली भर जाती तो भरी सॉझ वह घर लौट आते. जहाँ उनका बेटा उन्हें जोहता रहता। कमी-कभी वह बेटे को भी साथ ले लेते, जिसकी रुचि सिद्धा मेँ कम और खाने-पीने मेँ ज्यादा होती थी। उसकी आशा मेँ वह दरवाजे के भीतर झाँकने की भी कोशिश जरूर करता था। किसी न किसी धर से मिल ही जाता- कमी चिउडा-गुड. कमी तिलवा, कमी ढुंढा।
जब वह थोड़ा और बड़ा हुआ तो पढ़ने की उम्र आ गयी, पर नन्हू महाराज को अपनी जजमानी से कहां फुरसत थी। कभी इस गाँव तो कमी उस गाँव। लोगों के बार-बार कहने पर बेटे को उन्होंने स्कूल भेजना शरु तो किया। लेकिन तब तक वह सात-आठ साल का हो चुका था। सब लडकों से डेढ़ मुट्ठी ऊँचा और शरीर से थुलथुल। लड़के घोडवा' कहकर चिढाने लगे। प्रभाशंकर को बड़ा गुस्सा आया। एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने एक लड़के को भरपूर दाँत काट लिया। खून चकचका उठा। लड़का एकाएक बुक्का फाड कर रोया । स्कूल के लड़के प्रभाशंकर को पकड़कर हेडमास्टर के पास ले गये। मास्टर जी ने सदाबहार की मोटी छडी से ऐसी पिटाई की कि वह गालियाँ देते हुए विद्यालय से सदा के लिए बाहर हो गया।
एक दिन जब डूबती साँझ नन्हू महाराज भीखवाली पोटली पीठ पर लिये घर लौटे. तब शरीर में बडी विकलता थी। आते ही बरामदे के तख्ते पर पसर गये। उनकी देह भट्टी की तरह दहक रही थी। पंडित जब धूमधाम कर आया. बाऊ को चुपचाप देख परेशान हो उठा। हिलाने-हुलाने पर भी बाबू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे तेज भूख लगी थी- आखिर क्या करे? तख्ते पर पिता की बगल में लेट गया। धीरे-धीरे नींद आ गई। सुबह जागने पर पंडित ने देखा. उसके पिता शाम की तरह ही पड़े हैं। झकझोरने पर भी जब कोई हलचल नहीं हुई तो वह घबरा उठा। सबसे पहले वह पडोसी चाची को दौड़कर बताया। लोग जुटने लगे। औरतों की आंखों में आँसू थे, आदमी बतरस में लग गये। पंडित जी बिना बताये चले गये- गृहस्थी बडी कच्ची है। तब उससे भी रहा नहीं गया। हुक-कुक रोने लगा 1 उसे अब एहसास हुआ कि वह अब सचमुच अकेला हो गया, कोई निकट का रिश्तेदार भी तो नहीं था। दसवां, तेरही बीतने के बाद एक-एक कर दूर के रिश्तेदार अपने-अपने घर वापस लौट गये- बचा भी तो दूर का एक काइयाँ मामा। विरासत मँ अनाथ प्रभाशंकर को मिला था टूटकर गिर रहा एक खपरैली छाजन वाला घर। आधी-अधूरी दो-तीन लंगडी कोठलियाँ। ही. खेत मिला था। पर जमीन का क्या करेगा वह. जब बाप ही कुछ नहीं कर पाया। बामन तो था ही वह. कथा-पुरान कर सकता है. पर जब अक्षरों से भेंट ही नहीं हुई तो वह पोथी कैसे बांचेगा, केवल 'कलावती कन्या' से कहीं तक काम चलनेवाला है'? नहीं। भीख वाला काम कर सकता है। एक बात जरूर हुई कि रोने-धोने. क्रिया-- कर्म आदि करने के बाद वह एकदम स्वतंत्र हो गया- कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। चाहे जहाँ जाये. कौवे की तरह जिस किसी डाल पर बैठे।
वक्त की नदी ऊँचे कगारों को भी ढहाती हुई तेजी से आगे निकल जाती है। किनारे पर बरसों से खड़े विशालकाय पेड़ भी एक झटके में ही नदी की धारा में समाहित हो अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। तट के कंधे पर मजबूती से बैठे दरख्तों के पंछी दूसरे आशियाने की तलाश में उसे छोड़ उड़ जाते हैं। सब कुछ पल भर में बदल जाता है। पर पंडित की जीवन नदी ने उसे अपने साथ-साथ रखा। समय के साथ कूटते-फटते हुए वह जवान हो गया। सुनहरी मूंछे चेहरे पर मुस्कराने लगीं. रंग भी अमरूद की तरह निखर गया। पर यही तक पहुँचने में से बहुत कुछ खोना भी पडा।
बाप का क्रिया-कर्म सम्पन्न होने के सातवें दिन मामा सोमेस्सर भाग खडा हुआ। बाजार में चाय-पान उड़ाने. जलेबी खाने के लिए पमडित के पास नकद पैसे तो थे नहीं। पाँच सेर बचा चावल वह बेच साँझ जो गया. फिर-फिर लौटा नहीं। आज की सुबह पंडित सच में अकेला हो चुका था, बेर खड़ी होने पर भी वह तख्ते पर करवटें बदलता रहा- न कुल्ला न दतुवन। 'पंडित उठ रे. एतना बेर ले काहें सुतय ने? ' उसके दरवाजे की सहन से गुजरती पकवा इनार वाली सुक्खी चाची ने शायद समझा कि पंडित भी अपने बाप की तरह ऊपर तो नहीं चला गया। चाची की तेज आवाज ने उसे तख्त से खडा कर दिया और मलती ऑखों से उनकी ओर देखते ही उसका मन हुआ कि जी भर कर रो ले। पर कितनी बार रोयेगा? अँधेरे की खामोशी मेँ उसकी आंखों से कितने आँसू निकल चुके थे। खाली पेट की चुभन ने उसकी ऑखों मेँ एक याचना भर दी- 'रात में कुछ भी नहीं खाया। कल दोपहर में चोखा-भात खाने के बाद से अब तक कुछ भी नहीं मिला। ' झुकी चाची की अनुभवी पड़ी आंखी ने पंडित की पीडा को पढ लिया। चाची की बासी रोटी और एक मैली गुड ने उसे कुछ घंटों के लिए निश्चिन्त कर दिया।
गिरते संभलते घर की उदास अंगनाई की ओट में वह भरपूर जवान हो गया। बचपन की बेरहम यादें उसके पास आने में हरने लगी थीं। दिल अपनी नई सुबह के साथ उसके सहन में अपने आप आ जाता। फिर शुरु हो जाता खाने-पीने का सिलसिला। खेत के असामी इतना दे देते कि साल भर तक खाद्यान्न की समस्या न होती. बल्कि अधिक भी हो जाता. जिससे तेल, साबुन, चीनी-गुड, बाजार में चाय-पानी सब कुछ आसानी से हो जाता। संझा बेला में हथुवी रोटी या लिट्टी बना लेता, कभी बैंगन चोखा. कभी गुड, नमक-प्याज से खा लेता। दोपहर में भात- दाल या भात-सच्ची पकाकर नहाने के बाद रच-रचकर पेट में मसाला। न कोई झंझट, न कोई बवाल। चार बजे तक सोकर उठने के बाद हाथ-मुँह धो गंजी-गमछा उतार बरसों पुराना पैंट-शर्ट पहन लेता. फिर बाजार की ओर रुख करता। बाप के धरती से चले जाने के बाद पहली बार उसकी जिंदगी में खुशी धीरे-धीरे उतर रही थी। दूर से देखने पर भी पता लग जाता कि वाकई वह जवान हो रहा है. पाँव, छाती, गाल सभी मर गये थे। चिकनाई ने अपने चमक की चादर इनके ऊपर ओटा दी थी। ऋण क फिकिर न धन क सोच. ई धमधूसर काहे मोट - सचमुच पंडित धमधूसर बन गया था। उसे अपनी गली में किसी से कोई मतलब नहीं था। नाक की सीध में रास्ते से गुजरता. न किसी से पलग्गी. न किसी को अशीष। हाँ. इधर बीच एक नई बात जरूर हुई कि घंटा मर समय शंकर जी के मंदिर में देने लगा। मंदिर के पिछवाडे नये नये गंजेडी जुटते थे. पंडित भी इनमें शामिल हो गया। नाक मुँह से निकले धुएँ का असर जब उसके दिमाग पर गहराता. तब सब वहाँ से खिसकने की सोचते।
पर उसी दिन अजीब बात हुई. गली से गुजरने हुए जब यह नुक्कड पर पहुंच, चौरसिया सौंदर्य प्रसाधन वाले ने उसे जोरदार पलग्गी की। एकदम अलग तरह की बात थी वह। वह ठिठका. उसे अशीर्बाद देना ही पडा। पर आगे बक्से से पहले ही चौरसिया के स्वरों की गीली याचना ने उसे रोक लिया- .गुरु जी कहां जात हबुआ. आज चाय चुक्कड़ हो जाय। ' पंडित की अब तक की जिन्दगी मेँ पहली बार ऐसा हुआ था। उसे अपना जान मुफ्त में कौन चाय पिलायेगा: आखिर कौन है जो अपना मानता है? कई पुश्तों वाली दूर की पट्टीदारी है पर चाची फूटी आँख उसे देखना नहीं चाहती। अपने घर के किसी प्राणी को उससे कमी मेल-जोल बढाने न दिया- एकर मरधन के लेही. जन्मते ही मतारी खा गया। बडा होने पर बाप को लील गया। ना बाबा ना: उसके लगगे कोई प्राणी जाना नहीं। फिर सयानी लडकी घर में है। ई लम्पट अवारा का क्या ठिकाना?. पर कुछ अगल-बगल ऐसे भी लोग थे जिनकी लार उसकी जमीन को देख-देखकर जरूर टपकती थी। बाजी लग भी गई मलुवा चौरसिया के हाथ। उसने गुरुअवा को अपने पास गद्दी पर बैठाना शुरु कर दिया। पलक झपकते ही पंडित के आगे गरम-गरम समोसे और दोना भर टटकी जलेबी के छते हाजिर हो जाते। मल्लू ने साफ मना कर दिया कि पंडित जी उसके रहते हाथ जारेंगे। दो रोटी उसके ही घर बन जायेगी। शाम आठ बजे तक ताजी- ताजी पूरियाँ. तीखी रसेदार सब्जी. चटखदार चटनी. साथ में मलाईदार खीर। सब कुछ उसकी सेवा में हाजिर हो जाता। दोपहर में सोनम का महीन चावल. देशी घी में छौंकी अरहर की दाल और कभी कलौंजी. कभी कतरा- अपने समय से जल्दी ही आ जाता। प्रभाशंकर को लगा. कि उसके जीवन में जो चमत्कार हुआ है. वो सब भोलेनाथ की ही कृपा है।
रात होते-होते बरामदे के तख्त पर नीलदार तोसक बिछ जाती. मल्लू चौरसिया पैताने बैठ जाता। पहले टोला-मुहल्ला की बातें होती, फिर वह अपने मुख्य विषय पर आ जाता- .गुरु त् खानदानी बाभन हबुआ. ई बुरबक का जानव। ' तोसक पर लेटा पंडित हाँ. हाँ करते मधुर खीर की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा होता। जाने क्यों. म दिनों उसे भूख जल्दी-जल्दी लग रही थी। मल्लू भी कम नहीं था. बरामदे से ही चिल्लाता. .रतनी कहाँ हई. आठ बज गयल पंडित जी अबही भोग नाहीं लगठनैं। आवाज सुनते ही चैरसिया की बीवी परदे के पीछे से अपनी दमदार चूडियाँ खनका देती। '
बीसों पूरियां, कटोरेभर रसेदार सच्ची, मलाईदार खीर उदरस्थ कराने के बाद जब पंडित खर्राटे मरने लगता. तब मल्लू अपनी गणित बैठाने में मशगूल हो जाता- पंडितवा की हरैया रोड वाली जमीन अगर एक बिगहा मिल जाये तो राइस मिल खुल जायगी। अपनी 'आइडिया' पर निश्चिंत होकर फिर आनेवाली सुबह का इंतजार करने लगता।
सुबह जब पंक्ति चौरसिया की गद्दी पर मसनद के सहारे खालिस दूध की गिलास भर चाय सुडक रहा था- मल्लू ने अपनी आइडिया के पहले पन्ने को खोला। गुरु! ई जिनगी क का ठेकान कब तक रही, कब परान छूट जाई। ' पहले तो पंडित को यह? बात कुछ कम समझ में आई। जवान-जुहान हवुआ। समय से सब काम हो जाला. त ठीक रहेला। बड़ी सुग्घर लड़की ह। आठ में पढतो ह. कहा त बात चलाईं। ' मन का खाली कटोरा बाहर निकल चुका था. पंडित मुँह फाड़े चौरसिया की बात सुनने लगा था. आंखों में एक आदिम चमक जाग उठी थी। भीतर दीर्घ निद्रा में सोयी मन की आकांक्षा मुँह से उछलने लगी- .चौरसिया जी, अब तोहसे बड़ा हमर कोई हितैषी नाहीं ह। जइसे चाहा, वइसे करा- हम तय्यार हई।.
पंडित नन्हू पांडे के सुपुत्र प्रभाशंकर दुल्हा बने जब घर वापस आये, साथ में दुलहिन भी थी। लाल-लाल दपदप करती साडी में सजी अपनी पत्नी का उसने अभी तक मुँह भी नहीं देखा या। पाणिग्रहण के वक्त उसकी दोनों गोरी हथेलियों को अपने हाथों की बजाय आँखों में भर लिया था। मेंहदी रची अँगुलियों की नई-नई रंगत ने उसके होठों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। रास्ते भर उसके मानसरोवर में अनगिनत नवजात नीलकमल खिलते रहे। घर की ड्योढ़ी पर उतरते-उतरते दरवाजे की सहन में उगे बड़े-बड़े गेंदा-फूल उसे देख मानो मुस्कराने लगे थे। रामलीला के राम-जानकी की तरह बैदेही उसके पीछे-पीछे घर में प्रवेश कर रही थी।
शाम होते-होते चिरौरी कर बुलाए गये भूले-बिसरे रिश्तेदार, नाऊ, पंडित सभी अपने-अपने थाने-ठिकाने हो गये। पंडित दिन डूबने का बेसब्री से इंतजार करने लगा। लाल-लाल रसदार इमरती का बड़ा डिब्बा हाथ में लिए जब बाजार से लौटा, गली में ही अँधेरा हो चुका था। सपनों की रंग-बिरंगी दुनिया में खोया रहा। सपनों के माया लोक में उसकी माँ स्मृति के झरोखे खोल उसकी ओर एकटक देख रही थी.. पर यह माँ के चेहरे को पहचान नहीं सका उसके पांच ज्योंही सहन में पडे, विकट अँधेरे ने उसका रास्ता रोक दिया। आखिर लालटेन कहाँ गई? -भभक कर बुझ गई क्या? असगुन का फंदा उसकी ओर बढ आया। अँधेरे के अभ्यस्त उसके पाँच लइखड़ाने लगे। दालान की चौखट से ठोकर लगी. गिरते-गिरते बचा। पर मिठाई का डिब्बा हाथ से छिटक अँधेरे के अनजान कोने में गुम हो गया। ऑगन से होता हुआ जब भीतरी कमरे में पहुंचा, सब कुछ साफ था। अंदर कोई चिरई का एक पूत भी नहीं। दियासलाई की नन्ही तीली की नवजात रोशनी में सब कुछ स्पष्ट हो गया। पैसे वाली टूटी आलमारी अपनी कहानी खुद कह रही थी। गहना गुरिया तो सब उसकी देह पर ही था। कमरे से बाहर होते-होते तीली बुझ चुकी थी। फिर दलान की चौखट से जोरदार ठोकर लगी. इस बार यह चारों खाने चित हो चुका था। भावनाओं की मखमली चादर तार-तार हो बेजुबान हवाओं में उड गई। मन में लबालब मर आया दुःख ऑखों तक पहुँच गया, पर किसी ने उसे नहीं देखा।
दिन बीतते गये। पंडित नीम के पेड के नीचे चबूतरे पर दिन भर पडा रहता। पत्तियों के बीच से होकर आती धूप से जब ऑखें चौंधिया जाती. वह करवट बदल लेता। आखिर उसने, किसी का क्या बिगाड़ा है? किसकी बेईमानी की? उसने किसी की फूटी-कौड़ी भी हाथ नहीं लगाया। फिर मलुवा ने उसके साथ ऐसा क्यों किया? उसने किस जन्म की दुश्मनी का बदला लिया? अब जाकर बात साफ हो रही है। लड़की के नाम जमीन करने को उसी ने कहा था. उसी बहाने चौरसिया ने बिना दाम के एक बिगहा जमीन भी अपने नाम करा ली। इतना बडा धोखा आखिर क्यों? जमीन चाहिए थी तो सीधे-सीधे कह देता। उसकी दुलहिन. उसकी मैना को क्यों गायब करा दिया? खोज-खबर में भी कोई मदद नहीं की उसने। पेड़ से लटक कर धूप उसके मुँह पर आ गई। उठकर उसने गमछा झाडा, फिर नहाने चल पडा।
महीनों बाद पंडित चौरसिया वाली गली छोड़ पिछवाडे वाले रास्ते से बाजार जा रहा था। बायें हाथ में खाद की बोरी बाबा लम्बा झोला, दायें हाथ मैं एक टेढपा सोटा लिए, नजरँ नीचे किये बाजार में पहुँच गया। उत्तर मुहाल की ओर ज्योंही उसके पैर बढ़े, नुक्कड पर डेढ अंक्खा चाय के दुकानदार ने उसकी ओर सटीक व्यंग्य बाण फेंक दिया. .का बे पंडितवा! सेठवा बोलावत ह. दूसरा दिन होता तो वह उसकी टांग भी तोड देता. एक ऑख तो गायब थी ही। पंडित ने न कुछ कहा न ही ठिठका। आगे बढ़ गया। हनुमान मंदिर की ओर बढ़ते-बढ़ते मन ही मन अपनी जड़ता को उसने स्वीकार कर लिया। आखिर वह सेठवा के झाँसे मेँ क्यों आया? रबड़ी, मलाई अगर नहीं चामता तो क्या मर जाता? भीतर ही भीतर अपने-आपको कोस रहा है-बाकी जमीन भी ले गया सेठवा साला। उससे मिलकर पट्टीदार ने भी धर लिखवा लिया। बुढिया काकी तो कब की मर चुकी, पर उसके नाती ने तो आज घर से भी निकाल दिया। सोचते-विचारते वह मंदिर तक पहुंच गया. मंदिर की ड्योढ़ी पर अपना माया पटक दिया- हनुमान जी! अब कहां जाये वह? किस ठिकाने बैठे? यहाँ से चार कदम दूर ही शिवाला था। हैण्डपाइप पर हाथ-पैर धोते-धोते उसे आशा की एक पतली किरण दिखाई देने लगी।
सहुवाइन बहुत अच्छी है। अजिया ससुर की तेरही में बड़े प्रेम से भर पेट पूरी-कचौरी खिलाई थी। ग्यारह रुपया दक्षिणा में दिया था। उसके कदमों में तेजी आ गई। अपनी दुकान के सामने उसे खडा देख सहुवाइन ने कहा, पंडी जी. सबेरे-सबेरे ई झोला-झंटा लेके कहां सवारी जाई। ' पंडित का अनुमान सही निकला. सहुचास्न जानत हउ. ये दुनिया में हमार के ह। दू रोटी क बात ह, कहीं बीत जाई। ' सहुवाइन ने इशारे से पंडित को दुकान की बगल में तख्त पर बैठने को कहा। सालों से वह सखी की दुकान अपने दुतल्ला मकान के बाहरी बरामदे में चला रही है। सुबह-शाम ग्राहकों की भीड जमा हो जाती है। एक सहयोगी की हमेशा जरूरत पडती है। खराब और सडी सब्जी को छाँटकर बाहर निकालना बडा काम है। लाइट न रहने पर बाहर के सरकारी नल से पानी भी भरना होता है। लेकिन इतने काम के लिए पंडित को दोनों जून भोजन देना सहुवाइन के लिए बडा महँगा सौदा है। वह भली तरह जानती है कि पंडित का पेट नहीं, कुँआ है। तेरही में खिलाकर उसने देख लिया है- दो पांत तक बैठकर पूरी खाई थी। उसने साफ कह दिया- रात का खाना वह देगी पर दिन की व्यवस्था पंडित को खुद करनी पडेगी। हामी भरने के सिवाय उसके पास दूसरा और कोई चारा था भी नहीं।
दिन के भोजन के लिए अब पंडित को सोचना था। वह फावड़ा तो चला नहीं सकता. न तो पहरेदारी ही कर सकता है। किसी दुकान पर सुबह आठ बजे से देर रात तक खट भी नहीं सकता। हाँ. पानी भर सकता है. थोडी आदत है इसकी। जल्दी ही उसने दो-तीन और दुकानदारों से तय कर लिया। वे इतना दे देंगे कि दिन का खाना और सुबह की चाय पानी का काम सलट जायेगा। बीस-पच्चीस लीटर वाली बाल्टियों को नल से भरकर चलता तो हाथ दुखने लगता. तब वह बाल्टी आधे रास्ते में ही रख खैनी मलने लगता।
कई दिन तक ठीक-ठाक चलता रहा, फिर एक नई मुसीबत अकस्मात उसके सामने आ खडी हुई। कल की ही तो बात है, जब वह विश्वकर्मा के यहाँ पानी भरकर सीढी उतर रहा था। जाने कहॉ से एक टिटिहरी लड़का एकाएक सामने आ धमका- मउसा. अबे पंडितवा। ' कहकर वह तेजी से त्रिमुहानी की ओर भाग निकला। जरूर इस लडके ने उसे ही मउसा कहा है पंडितवा भी तो बोला है। उसके अपने मुहल्ले में तो कभी किसी ने इस तरह नहीं चिढाया। हाँ अमरनाथ पंडित जरूर चिढ़ाते थे. कभी-कभी डंडा फेंककर मारने का असफल प्रयास भी करते थे। जरूर कुछ गड़बड़ है। जबकि लड़के को खुद श्री नहीं पता कि आखिर मउसा' कहने से किसी का क्या बिगड जाता है? स्वर्गवासी दद्दा अमरनाथ की बात का उसने कभी बुरा नहीं माना। लड़के ने जरूर उसका निरादर किया है। क्रोध ज्योंही उसके सोटे तक पहुँचता- शरारती लडका त्रिमुहानी की ओर भाग निकला था। पंडित की माँ-बाप की कई गालियों ने उसका दूर तक पीछा किया- तब तक तेज धूप सड़क पर बरसने लगी थी। छोला-समोसा खाने के बाद उसके मन में एक बात उभर आयी- अब कहां जाये वह? पोखरे पर पीपल की घनी छाया होगी!
अब उसे जरा भी भय नहीं होता कि सोन नदी के पाट सा लम्बा-चौडा जीवन कैसे बीतेगा? वह तो दिन और रात के जाग्रत, क्षणों को अपनी मुट्ठियों में संभालकर रखता है। लोगों के चेहरे पर आयी सहज हँसी से उसका नाता खुद-ब-खुद जुड जाता है। उसके चेहरे पर मुस्कराहट का नैसर्गिक रंग पुत जाता। साल-डेढ साल का बच्चा जब लडखडाते हुए उसकी नजर की जद में आता तो प्रसन्नता के पल भीतर समा नहीं पाते और तब वह उठकर खुद ठठाकर हँसने लगता।
लेकिन जब विगत की बेईमानियाँ उसे बेचैन कर देतीं, तब वह एकाएक उठकर गमछा झाड़ देता और सड़क पर गुजर रहीं गाडियों की चाल का अन्दाजा करने लगता। साथ ही जब कोई पड़ोस का लड़का मउसा' के साथ-साथ चोरवा भी कहकर भाग जाता, उसकी ठहरी हुई खुशी में जबर्दस्त उबाल आ जाता। मउसा तो वह बरदाश्त कर लेगा लेकिन चोरवा? चोरवा कतई नहीं! उसने कभी किसी की चोरी नहीं की। यहीं तक कि बेर, जामुन भी बिना पूछे कभी नहीं खाया।
दिन ही नहीं, महीने भी बीत गये। दिन तो यहां-वहाँ बिता लेता लेकिन शाम ज्योंही उसके करीब आने को होती सारी कड़ुवाहट भूल सहुवाइन की दुकान पर पहुँच जाता। हमेशा की तरह दुकान पर ग्राहकी का आना-जाना बढ़ गया होता। पंडित चुपके से उसकी बगल मैं बैठ जाता. वह कतई नहीं बिगड़ती क्योंकि दुकान का समय अभी से तो शुरू हुआ है। ग्राहक की माँग के अनुसार पंडित छोटी डलिया में सब्जी भरता फिर थमा देता मालकिन को। एक-एक पैसे का मुंहजबानी हिसाब करते-करते वह तौलती जाती। बैंगन तौलते-तौलते सहुवाइन के कान का झुमका हिलता तो पंडित को लगता कि वह भी उस झुमके में झूल रहा है। लगभग रोज होता है यह। सहुवाइन जब कुछ स्थिर हुई. माथे का पसीना पोंछ उसने पंडित से कहा. .आज त खिचडी बनी. शनीचर ह न।. खिचड़ी से उसका पेट मरेगा: कायदन तो उसको भरपेट मिलता ही कब है. बस काम चल जाता है। मन और पेट दोनों को तृप्त करने के लिए तो उसको 'तेरहीं का इंतजार करना पड़ता है। जब बाजार का कोई महाजन मरता है तब उसे पंचबभना में शामिल करने के लिए बुलाया जाता है। महाजन के दरवाजे तक पहुंचते-पहुँचते वह पंडी जी हो जाता है। दो पांत से भी आगे बैठा रहता है. दूसरे बामन उसे गाली देते हुए उठ जाते हैं। देह तोडता जाता है और गरम पूरियां भीतर डालता रहता है। बोरे को हिलाकर जिस तरह अनाज भरा जाता है ठीक वही हाल पंडित का था। तेरही की पूड़ी खाने के बाद पंडित अजगर की तरह चौबीस घंटे आराम की मुद्रा में पडा रहता- उस दिन सहुवाइन उसे अपने यहाँ से जरूर भगा देती।
कब रात वाली तेरही की पूड़ी अभी भी उसके पेट के एक कोने में अंडसी है. भूख अभी लगी कहाँ है? उसकी जिंदगी के तीन साथियों में सबसे बडा है यह तालाब. जहाँ पक्का घाट है. घाट के ऊपर पीपल की धनी गया है और डीह वाला पक्का चबूतरा है। कहीं से घूम-घामकर पंडित जब यहाँ आता है तो बेरोक-टोक डीह बाबा उसे शरण दे देते है। उसका दूसरा दोस्त है लंगड़ा डोम जो शाम होने से पहले ही यहाँ आ धमकता है. तीसरी दोस्त है सहुवाइन जिसने रात मेँ उसे अपने पटरे पर सोने नहीं दिया।
धीरे-धीरे धूप ऊपर चढ़ आई और झुक-झुक कर पोखरे के पानी से बातें कर रही है। घाट की सीढियाँ खामोश हैं। भला अब कौन यहाँ आनेवाला है। गमछे पर लेटा पंडित बाहों की तकिया लगाये कभी ऊपर धनी पतियों में देखता है. कभी पूरवी भीट की और। लेकिन नरयना तो अभी आयेगा नहीं- वह तो चार बजे तक आता है। अभी उसकी निगाह पूरवी अटिए से हटी नहीं थी-एक मुड़ी-जुड़ी दोपहर सी औरत बाल्टी भरा कपडा लिए उसकी ओर ही आ रही है। उसके प्रिय एकान्त को ठेस लगती है. औरत इसी घाट आयेगी. घाट पर छांह जो डोलती है। पर उसके मन में शंका बढ़ गई कि औरत जरूर उसे यहां से भगा देगी. उसे टोकेगी कि उसको टकटकी मार क्यों ताक रहा है? पंडित हडबडा कर उठ बैठा. ज्योंही उसने अपना गमछा झाडने की कोशिश की-औरत चुपचाप जाकर घाट की निचली सीटी पर बैठ गई. उसने पंडित की ओर देखा तक नहीं। वह आश्वस्त हो गया- यहाँ पहले की तरह वह रह सकता है। पुरवैया का एक झोंका पंडित की आँखों को छूता हुआ औरत के ऊपर से होकर तालाब मैं समा गया। औरत अभी भी एकटक पानी को देख रही थी। एक डर नये सिरे से कसमसा उठा। औरत जात का क्या भरोसा? औरतें बडी झंझट होती हैं-फिर वह जवान भी तो है। पंडित ने अपना गमछा उठया और पीपल के मोटे तने की ओर बढ़ गया- यहाँ से वह औरत कतई नहीं दिखाई पडेगी।
पर सभी औरतें एक सी नहीं होतीं। करवट बदलते ही पंडित को सहुवाइन का चेहरा याद आने लगा। क्या ठाठ से मचिया पर बैठती है. सब्जी तौलती है. ग्राहकों के मोलभाव का ठमक से जवाब देती है और चिरकुट आदमी को बिना देर किये वापस लौटा देती है। पंडित को उस दिन की बात याद आने लगी जिसे शायद जिन्दगी में वह कभी नहीं भूलेगा। वह पटरे के एक कोने में बैठा टमाटर-बैंगन को पीत-पोंछ चमकाता जा रहा था, सहुवाइन ने एक पल के लिए से देख लिया। उसके चेहरे पर मुस्कान का एक टुकड़ा नाच रहा था। पंडित को लगा. वह उसे देखकर ही मुस्कराने की कोशिश कर रही है। उसकी गोरी कलाइयां में सजी धजी चूडियाँ बज पडी। वह अपना होश खोने लगा। आधी उमर वाली जवान सहुवाइन के कानों में झूलते झुमके में पंडित का मन उलझने लगा। लाल टमाटरों को कपड़े से साफ करते हुए पंडित की निगाह ठहर गयी- सहुवाइन ने अपनी साडी को घुटनों तक ऊपर सरका लिया था। 'हाय राम! इतनी गोरी चिकनी पिंडलियों।. पंडित कपडे को धीरे से नीचे रख अपनी नंगी अंगुलियों से टमाटर को सहलाने लगा- घुटनों के पार, घुटनों के पार कैसा होगा? पर अगले ही पल आगत की आशंका से दहल गया था और तब बड़ी तेजी से सडे टमाटरों को निकाल सड़क पर फेंकने लगा।
.अबे पंडितवा! दिन दहाडे सुतत हउबे? नरायन स्वीपर उसके सिरहाने तक पहुँच गया। मिनटों पहले तक झुलने वाला झूला पलक झपकते ही टूट गया था. पंडित पीठ के बल धडाम से भीट की कंकरीली जमीन पर आ गिरा। ‘स्साले लंगड़ा तू ही त हमार असली संगी हउवे। न तोके केहू पूछे, न हमके।.
‘गुरुआ! आज पहाड़ी नागिन लह गइल ह। उठ, बइठ, लहाव बिठई।‘ नरायन जेब में रखी मुडी-तुड़ी बाधी निकाल आग बनाने लगा। दो फूँक मारते ही दोनों के मन-शरीर में एक नयी जान आई। मुँह नाक से निकला धुँआ उनके दोनों ओर हवा में हिल मिल गया। देखते ही देखते एक चिरई तालाब के पानी को लांधते हुए उस पार हो गई। दोनों को अपने-अपने तनाव से मुक्ति मिल गयी। बे गमछा बिछाकर वहीं पसर गये।
दिन का उजास लुढक कर पानी में समा रहा है। साँझ के माथे पर विराजमान सिन्दरी सूरज जाते-जाते पंडित को ताक रहा है। भीट पर लोगों का आवागमन चालू हो गया है। वह उठ बैठा। गमछे को झटकारते हुए उसने समझ लिया- थोडी ही देर में रात का घना अँधेरा पेड के नीचे इकठ्ठा हो जायेगा और बरम बाबा दंड-बैठकी करने लगेंगे। यदि वह तुरंत यहां से नहीं हटा तो नटवा वीर आधी रात को उसे काँख में दबाकर तालाब के बीचों-बीच कूद जायेगा। भय के वातावरण ने उसे यन्त्रवत खड़ा कर दिया। ज्योंही वह आगे चलने को हुआ. कालिख लगा अँधेरा भी लग गया उसके साथ। सहुवाइन आज जरूर बिगड़ेगी, बल्कि हइकायेगी भी। दुकान की बेला है, वह अकेली ही होगी। दुकान उठ जायेगी, तभी उसे जाना ठीक रहेगा। रात दस बजे जब वह उसकी दुकान पर पहुँचा. सब कुछ शान्त हो चला था। पंडित को मालूम है कि जो दरवाजा बंद हुआ तो वह सुबह ही खुलेगा। घंटी पर टंगे झोले से उसने अपनी लूंगी निकाल ली। गमछे से पटरे की धूल को साफ किया और उसे बिछा दिया। इस पटरे के नीचे बाजार की जाली निर्भय हो रोज बहती है। नियोजित तरीके से इस गंदी मोरी में मच्छरों का आशियाना बनता है। पर पंडित भी कम नहीं. अपनी मोटी लुंगी को सिर से पाँव तक तान लेता है। मच्छर हमला करते-करते थक जाते। क्या मजाल कि लुंगी में कहीं छेद मिल जाय? आज भी गोजर सी लम्बी रात का समापन एक ही नींद में हो गया।
बाजार के उत्तरी तिराहे पर जमी भीड के सामने अब भी पंडित के हाथों की बाल्टी धूम रही है। माथे से तर-तर निकलता हुआ खून बरौनियाँ को भिगोते हुए नाक तक पहुँच रहा है। वह मानेगा नहीं। अपने एक-एक दुश्मन का सिर काट कर रहेगा- उसने क्या बिगाडा है किसी का- वह अपना कमाया खाता है. किसी से नहीं मांगता। फिर लोग उसे चिढाते हैं क्यों? पंडित की आँखों मेँ जो क्रोध उफन रहा था, वह कई सवालों के उत्तर माँग रहा था। जब इस संसार में उसका कोई नहीं तो कैसे मउसा, चटनी, चोरवा हुआ? कौन साला उसे पूड़ी-चटनी खिलाता है? किसी का उसने क्या चुराया है, आकर सबको बता दे?
अभिमन्यु के रथ का टूटा पहिया आज सुदर्शन बनकर पंडित के हाथों पैतरा ले ले घूम रहा है। गुस्साये प्राणी की यह नर्तन लीला तब जाकर ढीली हुई जब नरायना स्वीपर भीड को ठेलते हुए उसके पास पहुँच गया।
.अबे पंडितया तोके का भयल? कवन साला तोर कपार फोरलस? हिम्मत ह त मादरचो.. सामने आ जाय। ' घूमती बाल्टी वाले हाथ को उसने थाम लिया था। माथे पर बहते खून को गमछे से दबाने की कोशिश करने लगा। चोट गहरी थी, तुरन्त उसका गमछा भींग गया। भीड जल्दी ही छंट गयी। डेढ़ टांगों वाला सफाईं कर्मी नरायन पंडित के माथे की चोट हाथों से दबाये सरकारी अस्पताल की ओर भागा। नर-वानर के इस रक्त-रंजित दृश्य को अनजान लोगों ने बहुरूपिया का खेल ही समझा।
कुछ देर बाद माथे पर पट्टी बांधे ड्रेसिंग रूम से पंडित निकला। तब तक नरायन अपनी विकलांग टांगों से अस्पताल के बाहर मचकता रहा। पंडित को देखते ही लपककर छाती से लगा लिया। पंडित की ऑखों के सूख चुके आँसू फिर नम हो टपकने लगे। नरायन भी खून सने गमछे से अपने उमड़ रहे ऑसुओं को पोंछने लगा। अस्पताल के बाहर गुलमोहर की घनी छाया में दोनों बैठ गये और फिर बिना बोले नंगी जमीन पर पसर गये। उनके पैरों के पास ही स्वास्थ्य केन्द्र की गंदी नाली बेरोक-टोक बह रही थी।
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रामानुज मिश्र
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