आदिवासियों के अनूठे त्योहार बनाम जंगल में मंगल मनुष्य के धर्म की तरह ही इस विराट रचना का भी एक धर्म है, और वह है प्रकृति के साथ तालमेल र...
आदिवासियों के अनूठे त्योहार बनाम जंगल में मंगल
मनुष्य के धर्म की तरह ही इस विराट रचना का भी एक धर्म है, और वह है प्रकृति के साथ तालमेल रखने का काम. सच माने में धर्म तो वही है जो प्रकृति के अनुकूल हो और पाप वही है जो प्रकृति के विरूद्ध हो. नियम सिर्फ़ मनुष्य भर के लिए नहीं, वरन पूरे ब्रहमाण्ड के लिए भी यही नियम लागू होता है. सृष्टि के पांचों चक्र इन्हीं सनातन धर्म (नियम ) का पालन करते हैं. न तो धरती अपनी धूरी से हटती है और न ही चन्द्रमा अपनी शीतलता बिखेरने में पीछॆ हटता है और न ही सूरज अपनी ऊष्मा का दान करने में कंजूसी करता है. ऋतु चक्र भी अपनी सनातन गति पर चलता है, बीज में वृक्ष और वृक्ष में बीज समाये रहता है. वेदों में इसकी व्याख्या है इसलिए वैदिक धर्म भी यही है.
प्रकृति के माध्यम से जीवन की मंगलकामना करना वेदों की विशेषता रही है. यह कामना है शुद्धि की, पवित्रता की और पर्यावरण के संरक्षण की. जल शुद्ध बना रहे, अन्न-जल विषाक्त न हो, हिरण्य़गर्भा धरती धन की खान और कृषि कर्म की सम्पादिनी बनी रहे, पशु-धन की विपुलता रहे, संताने सुन्दर-स्वस्थ और दीर्घजीवी बनी रहे. प्रकृति का यह नाद जीवन के संगीत में समाया हुआ है. कुदरत का जीवन से हटने का मतलब है फ़ेफ़डॊं से प्राणवायु का निकल जाना, इसे हम जितनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही अच्छा है.
भारत विभिन्न जातियों और उप-जातियों का एक अजायबघर है, जिसमें लगभग 3,000 जातियां निवास करती है. इनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और परम्पराएं की अपनी-अपनी विशेषताएँ है. भारत की प्राचीनतम जाति को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने “आदिवासी” नाम से संबोधित किया था. यह नाम उन जातियों को प्रदान किया जो अनादि काल से वनों में निवास कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वनों से किया करती थी. इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी एक विशिष्ठ पहचान रही है. इन लोगों में वन-संरक्षण करने की प्रबल वृत्ति रही है. ये वन्य जीवों व वन से उतना ही प्राप्त करते रहे हैं, जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके. और आने वाली पीढी को वन-स्थल धरोहर के रूप में सौंप सकें. वन-संवर्धन, वन्य-जीवो, एवं पालतू पशुओं का संरक्षण करने की प्रवृति परम्परागत रही है. इसी कौशल और दक्षता और प्रखरता के साथ इन्होने पहाडॊं, घाटियों एवं प्राकृतिक वातावरण को सन्तुलित बनाए रखा. जब तक आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक वातावरण में सेंध नहीं लगी थी तब तक हमारी आरण्य-संस्कृति बची रही. आधुनिक भौतिकतावादी समाज की जब इन क्षेत्रों में प्रविष्टि हुई तब वहाँ की परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास होने लगा और उनके खुली हवा में विचरण करते हुए आमोद-प्रमोद का आनन्द समाप्त सा होता चला गया. यह भी एक अजीब संयोग है कि देखते ही देखते धरती-पुत्र अपनी ही धरती से विलग कर दिया गया. शायद उन्होंने इस बात की कल्पना तक नहीं की थी कि पीढी-दर –पीढी जिन वनों में वे रह रहे थे, अधिकारों से ही वंचित कर दिए जाएंगे. इन सब के बावजूद वे अपना रोना लेकर किसी के पास नहीं जाते और न ही अपना दुखडा किसी और को सुनाते हैं. जो कुछ भी है, जैसा भी है, बस उसी में संतुष्ट रहते हुए वे अब भी अपनी परम्पराओं को जीवित रखते हुए आमोद-प्रमोद में निमग्न रहते हैं,.
शहरी सभ्यता से कोसों दूर, गहन जंगलों के अन्धेरे कोनों में, पर्वतों की गगनचुम्बी चोटियों पर, पाताल को छूती गहरी पथरीली खाइयों में, दिन में अनमने से ऊंघते और रात में खौंफ़नाक/ हिंसक हो उठते जंगल में रात बिताते आदिवासीजनों की एक अनोखी दुनिया है. एक ऎसी दुनिया जो आधुनिक संसार की सांस्कृतिक जगमगाहट से कोसों दूर—बेखबर--,अनजान है.
आदिवासियों के मेले तथा त्योहारों का अपना आनन्द है. ये मेले उनके कठोर जीवन में रस का संचार करते हैं. उनके लिए यही तो एक मात्र ऎसा आकर्षण है, जिसे आदिवासी वर्ष भर अपने हृदय में संजोए रखता हैं. त्योहार के आते ही उनके पैरों में थिरकनों का संचार होने लगता है. बात-बात में उनके होंठॊं पर गीत मुखरित होने लगते हैं. माहौल मदमस्त होने लगता है. वे एक जगह इकठ्ठा होने लगते हैं. स्त्री हो या फ़िर पुरुष एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, मुस्कुराते, घेरा बना कर नाच उठते हैं. ढोल, टिमकी, मांदल की गूंज पर समूचा वातायण झूम उठता है. प्रकृति भी भला कहाँ पीछे रहती है. वह इनका भरपूर साथ देती है. पकते हुए महुए की मादक गंध, मंजरियों से झरता पराग, उसकी भीनी-भीनी खुशबू, लाल-लाल दगदगाता खिलता सेमल का फ़ूल, उस पर नकचढा टेसू इनकी नृत्य नाटिका के लिए एक अनोखा रंगमंच तैयार करते हैं. सल्फ़ी कहें या महुए की शराब, हलक से नीचे उतरते ही उन्हें एक अनोखे संसार में ले जाती है. यह वही महुआ है जिसके आसरे आदिवासीजन जंगल में ठहर पाने का जज्बा बनाए रखता हैं.
गोंडॊं का त्योहार “मेघनाथ”
फ़ाल्गुन मास के प्रारम्भ होते ही अलग-अलग स्थानों में, अलग-अलग तिथियों को “मेघनाथ पर्व” मनाया जाता है, जिसमें विभिन्न गाँवों के लोग उसमे सम्मिलित हो सकें. गोंडॊं द्वारा मेघनाथ कॊ अपना सबसे बडा देवता माना जाता है. इस पर्व के लिए खुले मैदान में चार खम्बे गाडॆ जाते हैं. इनके बीचोंबीच सबसे ऊँचा खम्बा गाडा जाता है और उसके ऊपर एक खाम्बा इस तरह बाँधा जाता है कि वह चारों ओर घूम सके. चारों खम्बों में से दोके बीच लकडियाँ बाँधकर सीढियाँ बना दी जाती है. इसे मुर्गी के पंखों, रंगीन कपडॊं के टुकडॊं आदि से सजाया जाता है. इस अवसर पर खण्डारा देव का आव्हान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है. जब इन लोगों पर कोई विपत्ति आती है या ये बीमार होते हैं तो खण्डारा देव की मान्यता करते हैं. यदि कोई भारी मुसिबत में होता है तो मेघनाथ के चक्कर लगाने का व्रत करते हैं. इसमें मान्यता मानने वाले व्यक्ति को मेघनाथ के ऊपर बँधी लकडी पर पीठ के सहारे बाँध दिया जाता है. ऊपर खडा एक व्यक्ति घूमने वाले खम्बे को सँभालता है और ऊपर बँधे हुए आदमी को जोर-जोर से घुमाता है. इस अवसर पर खूब ढोल-मंजीरे बजते हैं और गीत गाए जाते है. मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ में इस पर्व को बडी धूमधाम से मनाया जाता है.
भीलों का त्योहार
राजस्थान के भील-आदिवासियों के अधिकांश रीति-रिवाज, उत्सव एवं त्योहार बडॆ ही रोचक और विचित्र होते हैं. ये लोग त्योहारों और उत्सवों के दिन को शगुन मानकर अपने जीविकोपार्जन के लिए धन्धा प्रारम्भ करते हैं. अन्य हिन्दुओं की भाँति ये गणगौर, रक्षाबन्धन, दशहरा, दीपावली एवं होली आदि त्योहार मनाते हैं, लेकिन इनके मनाने का ढंग निराला-अनूठा होता है.
“आव्लयाँ ग्यारस”
फ़ाल्गुन शुक्ल एकादशी को भील समाज “आवल्याँ ग्यारस” त्योहार के रूप में मनाते हैं. सल्फ़ी की मस्ती में मदमस्त होकर ये आँवलें के पीले फ़ूल अपने पगडियों में तुर्रे के रूप में लगाकर, जंगली फ़ूलों की मालाएँ पहनकर तथा मण्डलियाँ बनाकर नृत्य और गान करते हुए ये लोग आस-पास के गाँवों में मेले के रूप में एकत्र होते हैं. इस दिन को शुभ दिन मानकर ये जंगलों से लकडियाँ काटकर बेचने का धन्धा प्रारम्भ करते हैं.
“होली पर्व”
होली के पर्व को ये बडॆ विचित्र ढंग से मनाते हैं. भील महिलाएँ नाचती-गाती आगन्तुकों का रास्ता रोक लेती हैं और जब तक इन आगन्तुकों से इन्हें नारियल या गुड नहीं मिल जाता, ये रास्ते से नहीं हटतीं. होलिकादहन के पश्चात हाथ में छडियाँ लिए रंग-बिरंगी पोशाकें पहने ये लोग “गैर”(एक प्रकार का नृत्य) खेलना प्रारम्भ कर देते हैं. छडियों और ढोल-ढमाकों, मांदल और थाली की लय के साथ पाँवों में घुँघरुओं की ध्वनि का तालमेल आकाश को एक अनोखी एवं मधुर ध्वनि से ध्वनित कर देता है. इस नृत्य में महिलाएं भाग नहीं लेतीं. होली के तीसरे दिन “नेजा” नामक नृत्य बडॆ ही कलात्मक एवं अनूठे ढंग से किया जाता है. एक खम्बे पर नारियल लटकाकर आदिवासी महिलाएँ उसके चारों ओर हाथ में छडियाँ तथा बटदार कोडॆ लिए नृत्य करती हैं और जैसे ही पुरुष नाचते-कूदते उस नारियल को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, महिलाएँ उन्हें छडियों एवं कोडॊं से मारती हुई भगा देती हैं. इस नृत्य में ब्रज-मण्डल की होली की झलक कुछ अंश तक दिखलायी पडती है.
चैत्रमास में गणगौर का मुख्य त्योहार अन्य लोगों की भाँति ही आदिवासी भी मनाते हैं, लेकिन आबू एवं सिरोही के पहाडॊं और जंगलों के बीच रह रहे आदिवासी गिरासिये नृत्य और गान करते हुए गणगौर की काष्ट प्रतिमा को लेकर आस-पास के गाँवों में घूमते हैं. सावन-भादों के महिने में ये भील लोग अपने घरों को छॊडकर गाँवों से बाहर चले जाते हैं और जगह-जगह नृत्य करते हुए अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं. इस तरह गौरीनृत्य का शुभारम्भ होता है. यह नृत्य :श्रीशिवजी” के जीवन पर आधारित होता है. भैरव के प्रति धार्मिक कर्त्तव्य सम्पन्न करने के लिए इस नृत्य में सैंकडॊं आदिवासी भाग लेते हैं.
कार्तिक मास में दीपपर्व को ये अत्यन्त उल्लास और उमंग से मनाते हैं. पशु-धन को लक्ष्मी मानकर उनके ललाट पर कुंकुम से तिलक कर आरती उतारते हैं. इस उत्सव का प्रारम्भ ये “खेतरपाल”(खेत के प्रहरी देवता) की पूजा से करते हैं. खेत के किनारे विराजे खेतरपाल देवता पर सिंदूर चढाकर, नींबू काटकर एवं नारियल फ़ोडकर रात्रि को दीप जलाकर पूजा-अर्चना करते हैं..दीपावली के दिन किसी विशिष्ठ स्मारक की पूजा करते हैं. किसी सत-चरित्र एवं लोकप्रिय आदिवासी की असामयिक मृत्यु होने पर उसका प्रस्तर-स्मारक बनाकार पूजा करते हैं, जिसे “गाता-पूजा” कहते हैं. इसी दिन ये स्नेह-मिलन का भीआयोजन करते हैं, जिसे “मेर-मेरिया” कहा जाता है.
डूंगरपुर जिले की असपुर तहसील के नवातपुरा ग्राम से करीब देढ किमी. दूर माही एवं सोम नदी के बीच स्थित “बाणेश्वर महादेव” का मन्दिर अवस्थित है. यहाँ पर माघ शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक चलने वाले मेले में बडी संख्या में आदिवासियों का यहाँ जमावडा होता है. महिलाएं बडी सुरीली आवाज में गीत गाती हुई दूर-दूर से पदयात्रा करती हुई मेले में भाग लेती हैं. पुरुष अपने पुरखों की अस्थियाँ इसी अवसर पर माही नदी के जल में प्रवाहित करते हैं.
बिहार, मध्यप्रदेश तथा उडीसा के सुदूर जंगलों में संथाल आदिवासी की अपनी एक अजीबोगरीब दुनिया है. इनका लोकप्रिय ग्योहार “सोहाराय” है. यह त्योहार प्रायः जनवरी माह में पाँच दिन तक चलता है. घरों की सफ़ाई के बाद सभी ग्रामीण एक जगह इकठ्ठे होते हैं और जहेर तथा गोधन का आव्हान करते हैं. गौठानों के विभिन्न स्थानों में अण्डॆ रखे जाते हैं. चरवाहों का विश्वास है कि यदि उनकी गाय अण्डॆ कॊ सूँघ ले या उस पर उसका पाँव पड जाय तो यह अत्यधिक भाग्य का सूचक है. इसके पश्चात गायों के पैर धुलाने का भी रिवाज है.
दूसरे दिन दोपहर के वक्त सरभोज का कार्यक्रम होता है. इसमें गाँव की कुँवारी बालिकाएँ सज-धाज के मुखिया के घर जाती हैं वे वहाँ नाचती-गाती और गोपूजन करती हैं. वे पशुओं के सींगॊं में सिन्दूर और तेल लगाती हैं..इस दिन गाँव की सभी बहुएँ अपने मायके चली जाती हैं.
जुलाई माह में मनाए जाने वाले त्योहार “हरियर सिम” और अगस्त में “दूरी शुण्डली ननवानी” त्योहार दरअसल में दोनों ही त्योहार फ़सलों का त्योहार है. फ़सल के फ़ूलते-फ़लते तथा उसे काटते समय आदिवासी संथाल का प्रसन्न होना स्वाभाविक है.
सितम्बर और अक्टूबर में “करम परव” पर्व मनाया जाता है. गाँव के लोग रात में करम पेड की डाली काटकर लाते हैं और गाँव की गली में गाडकर उसके चारों ओर नाचते-गाते हैं. हिन्दुओं की मकर-संक्रान्ति के दिन मनाए जाने वाले त्योहार की तरह ही “मोकोर त्योहार” मकर संक्रान्ति के दिन मनाया जाता है. इस दिन संथाल अपने पूर्वजों के नाम चूडा मौर शक्कर चढाते हैं. जनवरी के अन्त और फ़रवरी के शुरु में “माघा सीम” त्योहार मनाया जाता है. इस पर्व से संथालों का नया वर्ष आरम्भ होता है.
फ़रवरी के अन्त में मनाया जाने वाला त्योहार “वाहा या वसन्त” है. संथाल इसे अपना वसन्तोत्सव मानते हैं. ये लोग वसन्त के नये फ़ूल एवं पत्तों का उपयोग वाहा मनाने के बाद ही करते हैं. इस त्योहार को बडॆ बडॆ पवित्र ढंग से मनाया जाता है. देवी-देवताओं को धूप, दीप, सिन्दूर एवं घास के अतिरिक्त हँडिया, महुए तथा सरकुए के फ़ूलों की भेंट चढाई जाती है. जहेर स्थान पर खिचडी पकायी जाती है, जो प्रसाद की तरह वितरित की जाती है. इस अवसर पर जल उछालकर हृदय की हिलोरें प्रकट की जाती है. सारे वैरभाव छॊडकर ये आपस में गले मिलते है, गाते बजाते हैं, नृत्य करते हैं.
“सरहुल” जिसे फ़ूलों का पर्व भी कहते हैं, वसन्तोत्सव की तरह मनाया जाता है
मुण्डा आदिवासी चैत्र मास में “वा” पर्व मनाते हैं. “ वा” का अर्थ फ़ूल होता है. इस अवसर पर वे वनदेवी को प्रसन्न करने के लिए सिन्दूर, फ़ूल, जल, अक्षत आदि चढाते हैं. उराँवों में यह पर्व चैत्र शुक्ल की पंचमी को मनाते हैं. इस अवसर पर विवाहिता लडकियाँ भी अपने मायके से बुला ली जाती हैं. इनकी मान्यता है कि खेती सर्वप्रथम इसी पर्व को मनाकर शुरु की गयी थी. आज भी ये लोग उस पर्व को मनाये बिना अपने खेतों में खाद तक नहीं डालते. सूरज और धरती की खुशहाली भी इस त्योहार का प्रतीक है.
मध्यप्रदेश और बिहार में निवास कर रही उराँव जाति में “करम” पर्व का विशेष महत्व है. इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत को “करमा” कहा जाता है. करम वृक्ष को लेकर यहाँ एक लोककथा प्रचलित है. इस कथा के अनुसार करमा और धरमा दो भाई थे. एक बार व्यापार आदि के लिए करमा गाँव छॊडकर बाहर गया. एक निर्धारित समय बाद तक जब वह नहीं लौटा तो उसके भाई धरमा ने करमवृक्ष की डाल काट कर आँगन में गाड दी. उसने उस डाक की पूजा की और अपने भाई के समान ही आदर दिया. किंतु जब करमा लौटकर आया तो उसने उस डाल को झाड-झंखाड समझकर कूडॆ में फ़ेंक दिया. इस कारण दोनो भाइयों को भारी कष्ट उठाना पडा, क्योंकि यह करमवृक्ष का अपमान था. कष्टॊं से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने फ़िर से उस डाल को उठाया, आँगन में गाडकर उसकी पूजा की. पूजा करने से उनका खोया सुख पुनः प्राप्त हो गया. आज भी उराँव जाति के लोग “करमवृक्ष” की देवता के समान पूजा-अर्चना करते हैं.
मध्यप्रदेश के मण्डला जिले की बैगा जाति द्वारा शहद पीने का त्योहार मनाया जाता है. यह त्योहार नौ वर्षों में एक बार आता है और इसे वे अपने पूर्वज “नंगा बैगा” के नाम पर मनाते हैं.
बोडॊ आदिवासी बडॆ बिहड इलाके में रहते हैं. वे इतने उग्र, भयंकर तथा प्रचण्ड होते हैं कि उनके पर्वों पर बाहरी व्यक्ति का गाँव के भीतर प्रवेश वर्जित रहता है. वे गाँव की सीमा पर कंटिली झाडियाँ लगाकर लोगों का रास्ता बंद कर देते हैं. उनका अपना मानना है कि गाँव के भीतर आने पर दूसरे गाँव का दैवी संक्रमण हो जाता है और बाहर जाने पर गाँव की उर्वरा शक्ति दूसरे गाँव की भूमि में चली जाती है.
“जियाग-जिगे” आम की फ़सल का पर्व है. पूजा-समारोह में शाखाएँ तथा पत्ते जलाए जाते हैं. जौनसार-बाबर (उत्तरप्रदेश) इलाके में माघमास में जगह-जगह मेले आदि लगते हैं. इस दिन आदिवासी रंग-बिरंगी पोशाकें पहनते हैं. इन्हें देखकर ऎसा लगता है मानो रंग-बिरंगे पुष्प किसी गुलदस्ते में लाकर सजा दिये गये हों. इसी तरह जौनपुर में माघ का त्योहर “खाँई” मनाया जाता है. यहाँ वैशाख तथा आषाढ में पृथक-पृथक पर्व मनाये जाते हैं. “दखन्यौड पर्व” में पशु-पूजा की जाती है. भाद्रपद में जन्माष्टमी, माघ में माघी, और फ़ाल्गुन में शिवरात्रि का त्योहार मनाया जाता है. “दुर्योधन की जूतेमार” पूजा भी इसी इलाके में होती है. मध्यप्रदेश के कूरकू आदिवासी कार्तिक मास में पडने वाली दीपावली बडॆ हर्षोल्लास से मनाते हैं. वे “बाल्दया”( पशुगृह) की सफ़ाई आदि करते हैं तथा पशुओं को लोहे के गर्म औजार से दागते हैं. उनका मानना है कि दागे जाने के बाद पशु बीमार नहीं पडते.
शहरों की चकाचौंध और शहरी सभ्यता से कोसों दूर निवास कर रहे इन आदिवासियों को यदि ऋषियों की संज्ञा से विभूषित किया जाए तो शायद यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. ये कभी भी अपना इलाका छॊडकर शहरी वातावरण में न तो प्रवेश करने की चाह रखते हैं और न ही कभी हानि पहुँचाने के चेष्टा करते हैं. घोर अभाव के बावजूद ये प्रसन्न रहते हैं. ये अपना रोना-धोना लेकर किसी के पास नहीं जाते. और वे यह भी नहीं चाहते कि कोई उनकी अमन-चैन की जिन्दगी में जहर घोले. अपना जीवन यापन करने के लिए ये पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर रहते हैं और आवश्यक्ता के अनुसार ही प्रकृति का दोहन करते हैं.
आज स्थिति एकदम विपरीत है. नए-नए कानून बनने से इनको अनेक कठिनाइयों के बीच से होकर गुजरना पड रहा है. जंगल का राजकुमार कहलाने वाला आदिवासी आज चोरों की श्रेणी में गिना जाने लगा है. जंगलों की निर्बाध कटाई का सारा दोष इन गरीब आदिवासी के सिर बांध दिया जाता है,जबकि ये प्रकृति के सच्चे आराधक रहे हैं. जंगलों के उजड जाने की कल्पना मात्र से सिहर उठते हैं. आज इन्हीं को जंगल से निष्कासित किया जा रहा है. इन वनवासियों का मालिकाना हक केन्द्रीय एवं राज्य शासन के पास चला जाएगा तो क्या ये आदिवासी बेघर नहीं हो जाएंगे ?. किसी सजग पहरेदार की तरह दिन और रात जंगलों की रक्षा करने वाले इन भोले भाले आदिवासियों के जंगल में न रहने से पारिस्थितिक सन्तुलन रखने वाले घटक लुप्त नहीं हो जाएंगे ? क्या हिंसक जीव-जंतु जीवित रह पाएंगे? विकास के नाम पर बंधने वाले बडॆ-बडॆ बांधों से क्या वहाँ की भूमि दलदली नहीं होगी? क्या वहाँ की भूमि की उर्वरा शक्ति कम नहीं होगी?. क्या हम आने वाली पीढी को आदिवासियों के विस्थापन की समस्या एवं वन सम्पदा का पूर्ण विनाश देने जा रहे है?. संस्कृति एवं पर्यावरण को नष्ट कर आर्थिक लाभ की कल्पना, निश्चित रूप से कालान्तर में अवश्यमेव विनाशकारी सिद्ध होगी.
हमारा संविधान वचनबद्ध है कि आदिवासी परम्परागत विशिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए ही राष्ट्र की विकास धारा में इच्छानुसार जुड सकते हैं. अतः हमें त्वरित गति से ऎसे निर्णय लेने होंगे जिससे उनकी प्राकृतिक संस्कृति पर कोई असर न पडॆ. वे अमन-चैन से रह सकें और इसी तरह उत्सव मनाते रहे.
103 कावेरी नगर ,छिन्दवाडा,म.प्र. ४८०००१
सम्मानीय श्रीयुत श्रीवास्तवजी
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आलेख प्रकाशन के लिए धन्यवाद.
सम्मानीय श्रीयुत श्रीवास्तवजी
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार
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