गुरु नानक प्रोफेसर महावीर सरन जैन पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के धर्म अध्ययन विभाग के डॉ. प्रद्युम्न शाह सिंह एवं डॉ. गुरमेल सिंह ...
गुरु नानक
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के धर्म अध्ययन विभाग के डॉ. प्रद्युम्न शाह सिंह एवं डॉ. गुरमेल सिंह ने मेरे इस लेख का पारायण करके ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ से उद्धृत अंशों के मिलान और संशोधन का कार्य निष्ठापूर्वक सम्पन्न किया है। लेखक इनके प्रति अपना आभार व्यक्त करता है। |
गुरु नानक भारत की संत परम्परा के ज्योति स्तम्भ हैं। गुरु नानक सिक्ख धर्म के संस्थापक होते हुए भी सर्वधर्म समभाव के अग्रदूत हैं। कुछ विद्वानों ने उन्हें सम्प्रदाय विशेष से बाँधना चाहा है। 'ट्रम' ने नानक को हिन्दू, 'फैडरिक' एवं 'पिनकॉट' ने इस्लामी एवं 'मेकालिफ' ने सिक्ख बतलाया है। सिक्ख धर्म के तो वे संस्थापक हैं ही। विचारणीय है कि उनके धर्म और दर्शन का हिन्दू, इस्लाम एवं अन्य धर्मों एवं साधना पद्धतियों से क्या सम्बंध है ? इस सम्बंध में जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि गुरु नानक ने एक ओर हिन्दू, इस्लाम एवं अन्य धर्मों एवं साधना पद्धतियों की श्रेष्ठ बातों को स्वीकार किया वहीं दूसरी ओर उक्त धर्मों में उनके समय व्याप्त अंध विश्वासों एवं गतिरोधी रूढ़ियों तथा बाह्याडम्बरों पर पूरी ताकत से चोट की। सबसे पहले हम गुरु नानक के दर्शन की मूल अवधारणाओं को स्पष्ट करेंगे तथा इसके बाद उनकी धर्म क्रांति और भारतीय संस्कृति में उनके योगदान की मीमांसा करेंगे।
परम तत्व
गुरु नानक ने जिस अध्यात्म सत्य का स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया, उसे उनके शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।
ੴसतिनामु करतापुरुखु निरभउ निरवैरु।
अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि।। (जपुजी)
(ੴ = एक ओंकार)
(परमेश्वर एक ही है जिसका नाम सत्य है। वह कर्ता, पुरुष, निर्भय, शत्रुताहीन, अकालमूरत अर्थात काल से रहित है (जब से काल की गणना की जाती है, वह उससे भी परे है), अजूनी अर्थात जन्महीन है, सैंभ अर्थात स्वयम्भू (आप ही पैदा होने वाला अर्थात जिसका कोई कर्ता नहीं है)। वह गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।)।
कबीर ने परम तत्व का निरूपण इन शब्दों में किया है –
अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई।।
सुंनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि छिप्यौ नहीं पेखा।। (कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ 230, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी)।
गुरु नानक भी स्पष्ट करते हैं कि वह आदि, वर्ण रहित, अनादि, अनाहत तथा युग युगान्तरों से एक ही वेश वाला अर्थात अविनाशी है –
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु। (जपुजी, 30)
अधिकांश संत निर्गुण निराकार ब्रह्म के ही उपासक हैं। सभी संतों का परम तत्व अनिवर्चनीय है। भाषा के धरातल पर उसका निर्वचन सम्भव नहीं है। कबीर कहते हैं –
गुण में निर्गुण, निर्गुण में गुण है, बाट छाँड़ि क्यूँ कहिये।
गुरु नानक भी गुरुवाणी में यह मानते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में शून्य (निर्गुण) अपने आप निवास किए हुए था। निर्गुण स्वरूप में तो कोई सृष्टि नहीं हुई। जब उसने सृष्टि की रचना की तो अपने आपको प्रकृति के रूप में दिखाया।
अविगतो निरमाइलु उपजे निरगुण ते सरगुण थीआ।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 940)
आत्मा और परमात्मा की एकता
तत्त्वतः आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं है। परमात्मा ने पंच तत्त्वों को मिलाकर काया का निर्माण किया है और उसमें राम रूपी रत्न रखा है। आतम (आत्मा) में राम (परमात्मा) है और राम (परमात्मा) में ही आत्मा है। 'सबद' (गुरुवाणी) द्वारा इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है।
पंच ततु मिलि काइआ कीनी। हिस महि राम रतनु चीनी।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1030)
आतम रामु रामु है आतम हरि पाइऐ सबदि वीचारा हे।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1030)
भारतीय दर्शनों पर गहराई से विचार करने पर पाते हैं कि प्रत्येक प्राणी में आत्मा है जो अनादि निधन है। दूसरी दृष्टि से सब एक परमात्मा के अंश हैं। दोनों कथन विरोधी नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा का भेद तात्त्विक नहीं है। यह भेद भाषिक है। आत्मवादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी मानते हैं। गीता में भी इसी प्रकार की मान्यता का प्रतिपादन हुआ है। आत्मा दो भागों में विभाजित है - जीवात्मा एवं परमात्मा।
‘ज्ञानाधिकरणमात्मा । सः द्विविधः जीवात्मा परमात्मा चेति।'
इस दृष्टि से आत्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चलकर परमात्मा का भव्य प्रासाद निर्मित किया गया।
आत्मा को ही बह्म रूप में स्वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में मिलती है। ‘प्रज्ञाने ब्रह्म', ‘अहं ब्रह्मास्मि', ‘तत्वमसि', ‘अयमात्मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण है। ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप है। यही लक्षण आत्मा का है। ‘मैं ब्रह्म हूँ', ‘तू ब्रह्म ही है; ‘मेरी आत्मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्यों में आत्मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं।सम्प्रति हमारा उद्देश्य आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप की दार्शनिक विवेचना करना नहीं है। हमने अलग से एक लेख में आत्मा और परमात्मा का अंतर तात्त्विक नहीं अपितु भाषिक माना है।
(विशेष अध्ययन के लिए देखें- रचनाकारमहावीर सरन जैन का आलेख : : आत्मा एवं परमात्मा का भेद तात्विक नहीं है; भाषिक है
http://www.rachanakar.org/2009/11/blog-post_25.html#ixzz26XecDgNc)
गुरु नानक की वाणी में परमात्मा और आत्मा की एकता को प्रमाणित करने वाले वचन जगह जगह उपलब्ध हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं –
(1) आतम महि रामु, राम महि आतमु चीनसि गुर बीचारा।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1153)
(2) आत्मा परमात्मा एको करै। (गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 661)
(3) मन तूँ जोति सरूपु है आपण मूल पछाणु।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 441)
(4) आतमु चीन्हि भए निरंकारी (गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 415)
(5) बाहिर भीतरि एकौ जानहु इह ग्गिआन बताई।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 684)
(6) जैसे कुंभ उदक पूरि आनिओ तब ओह भिन्न द्रिमटो।।
कहु नानक कुँभु जलै महि डारिओ अभै अंम मिलो।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1203)
(7) जे जाणासि ब्रह्म करमं।। संभि फोकट निसचउ करमं।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 470)
(8) गुर परसादी दुरमति खोई।। जब देखा तह एको सोई।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 357)
'हुकम' से ही जीवों की उत्पत्ति होती है। 'हुकम' से ही बढ़ाई मिलती है। 'हुकम' से ही उत्तम और नीच कर्म किए जाते हैं। 'हुकम' के अनुसार सुख और दुख की प्रतीति होती है। उसके 'हुकम' से कुछ को 'बखसीस' मिल जाती है और कुछ भ्रमित हो जाते हैं। इस प्रकार सारी सृष्टि ही 'हुकम' के अंतर्गत है। उसके बाहर कोई नहीं है।
हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई।
हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै बडि आई।।
हुकमी उत्तमु नीचू हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि।
इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि।
हुकमै अवरि सभु को बाहरि हुकम न कोई।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1)
जो जीव इस 'हुकम' को समझता है वह 'हउमै' (अहंकार) को समझता है और 'हउमै' (अहंकार) से मुक्त हो जाता है। दर्शन में यह सवाल उठता रहा है कि जीव कहाँ से आता है और कहाँ समा जाता है? गुरु नानक इस सवाल का जबाब सीधे सादे शब्दों में देते हैं। उनकी मान्यता है कि जीव 'हुकम' से उत्पन्न होता है, 'हुकम' से यहाँ से आता है और 'हुकम' में ही समा जाता है।
हुकमे आवै हुकमे जावै हुकमे रहे समाई।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 940)
चूँकि परमात्मा के 'हुकम' से जीव की उत्पत्ति होती है, इस कारण 'देही' (जीव) के अंदर नाम (परमात्मा) का निवास है। अविनाशी (परमात्मा) स्वयं कर्ता है और इस कारण जीव न तो मरता है और न मारा जाता है।
देहि अंदर नामु निवासी।। आपे करता है अबिनासी।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1026)
ना जीवु मरै न मरिआ जाई करि करि देखै सबदि रजाई हे।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1026)
अहंकार के कारण जीव माया और माया की छाया से ग्रस्त रहता है।
हउ विचि माइया हउ विचि छाइआ।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 466)
इसी अहंकार के कारण जीव अपनी पृथक सत्ता समझने लगता है और ऐसी स्थिति में उसकी अवस्था सागर से निकली हुई मछली की भाँति हो जाती है।
तू दरीअउ दाना बीना, मैं मछली कैसे अंत लहा।
जह जह देखा तह तह तू है, तुझ ते निकसी फूटि मरा।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 25)
ब्रह्म एवं सृष्टि की एकता
वेदांत के 'कनक-कुंडल-न्याय' के अनुसार जिस प्रकार सोने से कुंडल बनता है और फिर उस कुंडल के पिघल जाने पर वह सोना ही हो जाता है। उसी प्रकार नाम-रूपात्मक दृश्यों की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और ब्रह्म ही में समा जाती है। इस कारण वेदांत में केवल ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। मगर इस ब्रह्म से भक्ति नहीं की जा सकती। सभी संतों का मार्ग भक्ति का है। इस कारण संतों का 'परम सत्य' वेदांत के 'ब्रह्म' से भिन्न है। तत्त्वतः वह निराकार और निर्गुण है किन्तु गुणों से रहित होते हुए भी गुणों को भोगने वाला है। गुण में निर्गुण है तथा निर्गुण में गुण है। संतों की भक्ति के दर्शन और शांकर के अद्वैतवाद का अंतर हम संतों की निर्गुण भक्ति के प्रतिपादन में कर चुके हैं।
((रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : मध्य युगीन संतों का निर्गुण-भक्ति -काव्य : कुछ प्रश्न)।
www.rachanakar.org/2009/10/blog-post_1347.html)
कबीरदास भी संसार में एक मात्र सत्ता ‘एक ही परम’ की ही मानते हैं। जो कुछ है, परम ही है। परम से ही सबकी उत्पत्ति है। सब उसी में लीन हो जाते हैं।
पाणी ही ते हिम भया, हिम ह्वै गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ।।
सृष्टि रचना के सम्बंध में गुरु नानक के विचार हैं कि परमात्मा के 'हुकुम' से सभी आकारों (सृष्टि रचना) की उत्पत्ति हुई। सिक्ख धर्म दर्शन के कुछ विद्वानों ने 'हुकम' का मतलब 'ईश्वरीय इच्छा' (divine will) और कुछ विद्वानों ने 'सृष्टि विधान' (universal order) माना है। गुरु नानक की विचारधारा के संदर्भ में विचार करने पर सृष्टि विधान अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। इतना निर्विवाद है कि गुरु नानक 'हुकम' को सृष्टि का मूल कारण मानते हैं। इस कारण नानक सृष्टि को मिथ्या नहीं मानते। इसके विपरीत वे एक परम और सृष्टि की एकता का प्रतिपादन करते हैं –
(1) जिसते उपजै तिसते बिनसै अंते नामुं सखाइ।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 909)
(2) जिनि सिरि साजी तिनि फुनि गोई।(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 355)
(3) तुझते उपजाहि तुझ माहिं समावहि।(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 1035)
गुरु नानक की सृष्टि रचना का विचार वेदांत दर्शन की अपेक्षा शैव दर्शन के अधिक निकट है।वेदांत दर्शन एवं शैव दर्शन में निराकार ब्रह्म की शक्ति के स्वरूप-प्रतिपादन का अंतर स्पष्ट है। वेदांत में ब्रह्म की शक्ति “माया" जड़ है। शैव दर्शन में शक्ति चैतन्य स्वरूप है। यह सत है, नित्य है और अविनश्वर है। शिव अपनी सिसृक्षा-रूपा शक्ति के कारण इस जगत् के रूप में हैं। वेदांत दर्शन में माया जिस जगत का सृजन करती है वह विवर्त होने के कारण असत्य एवं मिथ्या है। उसकी स्थिति रज्जु में सर्प अथवा शुक्ति में रजत की भाँति ब्रह्म में सत्य भासता हुआ सा है। वह तात्त्विक दृष्टि से स्वप्न एवं माया-रचित-गंधर्व-नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य है। ( ब्रह्म सूत्र 2/1/14; गीता 15/3 पर शांकर भाष्य, विवेक-चूड़ामणि 140, 141, 405; वेदांत-सार, पृष्ठ 8)। शैव दर्शन में शिव की सिसृक्षा ही शक्ति है और शक्ति का परिणमन ही जगत है। शक्ति की सहायता से ही शिव सृष्टि आदि व्यापार निष्पादित करते हैं। शैव दर्शन में जगत उत्पन्न एवं नष्ट नहीं होता। इसमें परपिंड प्रकट होता है, लयीभूत होता है। जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वह सभी पिण्ड में भी है। परम तत्त्व की पराशक्ति जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसी प्रकार पिण्ड में भी व्याप्त है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वही पिण्ड में भी है। यही विचार कबीरदास का भी है-
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यहु तत कथो गियानी।।
अवतारवाद का निषेध
गुरु नानक ने अवतारवाद का निषेध किया। समाज में भगवान विष्णु के अवतारों की पूजा का प्रचलन चरम पर था। नानक ने परम तत्व को राम और विष्णु के नाम से पुकारा है। इस आधार पर कुछ विद्वान इस मत का खण्डन करते हैं कि उन्होंने अवतारवाद का विरोध किया है। परम तत्व को नाम से पुकारने में और उसे अवतार मानकर उसके विग्रह स्वरूप की पूजा करने में अंतर है। इस अंतर को पहचानने के लिए संत परम्परा का अवगाहन जरूरी है। संतों की भक्ति निर्गुण एवं निराकार के प्रति है। निर्गुण एवं निराकार उपास्य के प्रति भक्ति-भाव है। भक्ति या उपासना के लिए गुणों की सत्ता आवश्यक है। ब्रह्म के सगुण स्वरूप को आधार बनाकर तो भक्ति की उपासना की जा सकती है किन्तु जो निर्गुण एवं निराकार है उसकी भक्ति किस प्रकार सम्भव है? निर्गुण के गुणों का आख्यान किस प्रकार किया जा सकता है? गुणातीत में गुणों का प्रवाह किस प्रकार माना जा सकता है? जो निरालम्ब है, उसको आलम्बन किस प्रकार बनाया जा सकता है। जो अरूप है, उसके रूप की कल्पना किस प्रकार सम्भव है। जो रागातीत है, उसके प्रति रागों का अर्पण किस प्रकार किया जा सकता है? रूपातीत से मिलने की उत्कंठा का क्या औचित्य हो सकता है। जो नाम से भी अतीत है, उसके नाम का जप किस प्रकार किया जा सकता है। वस्तुतः भक्तिकाल के साहित्य की रस साधना में जो भक्ति है वह तत्वतः आत्म स्वरूपा शक्ति ही है। सभी संतों का लक्ष्य भाव से प्रेम की ओर अग्रसर होना है। प्रेम का आविर्भाव होने पर ‘भाव' शांत हो जाता है। भक्त महाप्रेम में अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। सूफियों ने भी भाव के केन्द्र को भौतिक न मानकर चिन्मय रूप में स्वीकार किया है। कृष्ण भक्तों की भाव साधना में भाव ही ‘महाभाव' में रूपान्तरित हो जाता है। राधा-भाव आत्म-शक्ति के अतिरिक्त अन्य नहीं है। इस भक्ति के स्रोत शांकर अद्वैत में ढूढ़ना बेमानी है। संतों की निर्गुण भक्ति और शांकर अद्वैतवाद का अन्तर तो बहुत अधिक है। इस अन्तर की ओर विद्वानों और आलोचकों का ध्यान कम गया है। इस सम्बंध में मैंने जो विवेचन किया है, उससे जो पाठक अवगत होना चाहते हैं, वे निम्न लिंक पर जाकर अध्ययन कर सकते हैं।
(रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : मध्य युगीन संतों का निर्गुण-भक्ति -काव्य : कुछ प्रश्न)।
www.rachanakar.org/2009/10/blog-post_1347.html)
कबीर भी परम तत्व को राम नाम से पुकारते हैं। मगर कबीर के राम मूलतः सगुण और साकार नहीं हैं। कबीरदास की साधना पर विचार करते समय हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि कबीर के लिए राम रूप नहीं है, दशरथी राम नहीं है, उनके राम नाम साधना के प्रतीक हैं।
(आगे पढ़ें: रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : कबीर की साधना http://www.rachanakar.org/2009/11/blog-post_17.html#ixzz3ISW6NI8S)।
गुरु नानक ने जिस सतिनामु के स्वरूप का प्रतिपादन किया वह सगुण एवं साकार ईश्वर के प्रत्यय से मेल नहीं खाता। उसका स्वरूप उपनिषदों में वर्णित निर्गुण एवं निराकार परात्पर परब्रह्म के निकट है। स्वयम्भू पर बल प्रदान करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि वह निरंजन पुरुष अपने आप में वर्तमान है। (आपे आपि निरंजनु सोइ।। जपुजी, 5)। जिस प्रकार उपनिषद सर्वात्मवाद के सिद्धांत को हमारे सामने रखते हैं उसी को गुरु नानक सीधे सादे शब्दों में जन मानस के मन में उतार देते हैं कि मेरा गुरु एक ही बात समझा देता है कि सब जीवों का वही एक दाता है। (गुरा इक देहि बुझाइ सभना जीआका एकु दाता। सो मैं बिसरी न जाइ।। (जपुजी, 6)।
नाम साधना
कबीरदास की भाँति गुरु नानक के भी राम नाम साधना के प्रतीक हैं। सभी संतों की साधना नाम की साधना है। दो प्रकार की साधना पद्धतियाँ हैं। (1) रूप साधना (2) नाम साधना। संतों का परमात्मा चूँकि मूलतः निराकार और निर्गुण है, इस कारण उनकी साधना नाम साधना है, रूप साधना नहीं। 'साधो सबद साधना कीजे'। संतों के पहले नाथ सम्प्रदाय में मंत्र, नाम-जप और अजपा-जप साधना के अंग रहे हैं। मंत्रयोग को अजपाजप भी कहते हैं। यह वह योग है जिससे श्वास-प्रश्वास के माध्यम से निरंतर “हम्” तथा “सः “ उलटकर सुषुना में बिना आयास के “मैं शिव ही हूँ” की निरंतर अनुभूति होती रहती है। प्रत्येक व्यक्ति शिव रूप ही है। जितनी मात्रा में वह इसका अनुभव करता है, उतनी मात्रा में वह शिव की शक्ति को प्राप्त कर पाता है। मंत्रयोग की जप साधना से मंत्र क्रियाशील होता है। साधक अपनी चेतना को विश्व व्यापी चेतना के साथ अभिन्न अनुभव करता है, एकता का अनुभव करता है। 'हठ-योग-प्रदीपिका' में वर्णित है कि जो कुछ नाद रूप में सुनाई देता है, वही शक्ति है, क्योंकि वह व्यक्त है : और जो तत्त्व से परे है, निराकार है, आकार-रूप में व्यक्त नहीं हुआ है, वह सब शिव है। जहाँ तक आकाश का विस्तार है, जहाँ तक शब्द की प्रवृत्ति है, जो निःशब्द है, उसे श्रुतियों में परब्रह्म कहा गया है।
यत्किञ्चन्नादरूपेण श्रूयते शक्तिरेव सा।
यत्तत्वान्तो निराकारः स एव परमेश्वरः।।
यावदाकाशसंकल्पो यावच्छब्दः प्रवर्तते।
निश्शब्दं यत् परब्रह्म स ब्रह्मात्मेति गीयते।।
(हठयोगप्रदीपिका, 4, 101-102)
तंत्र साहित्य का निर्गुण शिव कबीर में सत्य पुरुष के बराबर है और गुरु नानक की वाणी में यह परमेश्वर ही है जिसका नाम सत्य है। वह कर्ता, पुरुष, निर्भय, शत्रुहीन, अकालमूरत अर्थात काल से रहित है। मध्य युग में कबीर, दादू और नानक आदि समस्त महापुरुषों ने मूलतः नाम को सामने रखा और रूप साधना नहीं अपितु नाम साधना को अपनाया। इसको 'सुमिरन' कहें या 'नामजपु' कहें, तत्त्वतः नाम साधना के ही वाचक हैं। गुरु नानक ने नाम साधना के महत्व का प्रतिपादन निर्भ्रांत किया है : “ऐ समृद्धिशाली हिन्दुओ ! एक ओर तो तुम मुसलमानों का शासन सुदृढ़ बनाने के लिए गौओं और ब्राह्मणों पर लगे कर चुकाते हों और दूसरी और गौ के गोबर पर तरना चाहते हो, धोती पहनते हो, टीका लगाते हो, गले में जप की माला लगाते हो किन्तु धान्य तो मलेच्छों का खाते हो। अपने संस्कारों के वशीभूत भीतर-भीतर तो पूजा करते हो किन्तु मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए बाहर कुरान आदि पढ़ते हो और आचरण तुर्कों के समान करते हो। इस पाखण्ड को छोड़ो। इससे कोई लाभ नहीं है। नाम स्मरण करो जिससे तर जाओ”।
(नानकवाणी – आसा की बार, सलोकु 33)
संतों में नाम जप केवल सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं है। सुमिरन केवल मंत्र-जाप नहीं है। यह प्रेम-भक्ति का साधन है। संतों ने शब्द साधना को, नाम साधना को, नाम स्मरण को, सुमिरन को, जाप को प्रेम-भक्ति से जोड़कर बौद्धों, शाक्तों और शैवों की नीरस और जटिल साधना को सरस और सहज बना दिया। गुरु नानक के धर्म में गुरु ज्ञान का प्रतीक है और नाम-जप भक्तिमय है, भक्ति का रूप है।
गुरु नानक की धर्म क्रान्ति
गुरु नानक के समय के धर्म अथवा मजहब के जो ठेकेदार अपने स्वार्थों की सिद्धि में लीन थे तथा धर्म अथवा मजहब के नाम पर समाज के लोगों को पथभ्रष्ट कर रहे थे, गुरु नानक ने उनके खिलाफ क्रान्ति की। उन्होंने सत्य रूपी अमृत के कलश पर आवृत्त अनाचार रूपी आवरण को हटाने का काम किया। उन्होंने समता, अहिंसा, दया, प्रेम, करुणा, सहिष्णुता, मानव सेवा एवं कर्म एवं श्रम आदि जीवन के सात्विक जीवन मूल्यों को अपनाया। इसके विपरीत उन्होंने मायावाद, अवतारवाद, हिंसावाद, मूर्तिपूजा, धार्मिक कर्मकाण्डों का जमकर विरोध किया। उनका अध्यात्म सत्य जीवन की साधना से अधिक उपजा है। वह किताबी ज्ञान से उतना प्रसूत नहीं है।
धर्म ऐसा तत्व है जो मानव मन की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है। धर्म मानवीय दृष्टि को व्यापक बनाता है। धर्म मानव मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है। समाज की व्यवस्था, शांति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम, सद्भाव एवं विश्वासपूर्ण व्यवहार के लिए धर्म का आचरण एक अनिवार्य शर्त है। इसका कारण यह है कि मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना संभव नहीं है। जिंदगी में संयम की लगाम आवश्यक है। धर्म संप्रदाय नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है। मगर जब धर्म सम्प्रदाय का रूप धारण कर लेता है तो वह पापाचार का हेतु हो जाता है। उनके समय के वेदों पर आधारित धर्म और कुरान पर आधारित मजहब में भी साम्प्रदायिक भावना आ गई थी। इसी कारण गुरु नानक ने बिना डर और भय के स्पष्ट शब्दों में कहा –
बेद केतेब दुइ इफतरा भाई, दिलका फिकरु न जाइ।
दु कदम करारी जो करे, हाजिर हुजुर खोदाइ।। (सलोकु, महला 1)
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 727)
(वेद और कुरान दो जुड़वे भाई हैं। इनके द्वारा दिल की चिंता दूर नहीं होती। जो दो कदम विश्वास करके आगे बढ़ता है उसके सामने उसी समय ईश्वर उपस्थित हो जाता है।) इन वचनों में एक ओर हिन्दू और मुसलमान की एकता और भाईचारे का प्रतिपादन है वहीं दूसरी ओर उनके तत्कालीन स्वरूप की विसंगतियों का भी पर्दाफाश है। अपने जीवन में उन्होंने कम से कम पाँच बार लम्बी यात्राएँ कीं। उन्होंने सन् 1500 से लेकर सन् 1524 ईस्वी के बीच 28,000 किलोमीटर का सफर किया। विभिन्न भूभागों में विहार करके समाज के विभिन्न वर्गों और सम्प्रदायों की समस्याओं को आत्मसात किया। उन्होंने यह जाना कि उनके युग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के कारण समाज के गरीब तबके और नारी समाज की कितनी दयनीय स्थिति है। भारत के धार्मिक इतिहास में उपनिषद् के ऋषि, भगवान महावीर एवं गौतम बुद्ध अहिंसा, करुणा एवं समता के मूल्यों की स्थापना कर चुके थे। मगर महापुरुषों के आराधक उनके जीवन मूल्यों के अनुरूप आचरण करने की अपेक्षा उनका जयगान करने में अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। इसी कारण धर्म का अमृत तत्व स्वार्थों की सिद्धि करने वाले तत्वों के आवरण से ढक दिया जाता है।
कबीरदास से लेकर गुरु नामक के समय में धर्म और मजहब के प्रमुख प्रतिमान निम्न हो गए थे –
(1) स्वर्ग की कल्पना।
(2) सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की स्थापना।
(3) वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध।
(4) अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा।
(5) अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की अपेक्षा अपने आराध्य की स्तुति एवं जयगान करने को ही धर्म का प्राण मानना।
गुरु नानक ने जीवन में 'कीरत करनी' अर्थात परिश्रम, श्रम, और मेहनत से अपनी जिंदगी को सुखी और सार्थक बनाने पर बल दिया। धर्म अथवा मजहब के पाखंडों और कर्मकाण्डों पर जमकर प्रहार किया। शास्त्र वाचन की अपेक्षा दूसरों की सेवा करने पर बल दिया। आगे चलकर हम पाते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने इस सूत्र को आगे बढाया और मंदिर में जाकर भोग चढ़ाने वालों से स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि आपका पड़ौसी भूखा मर रहा हो तो मंदिर में जाकर भोग चढ़ाना धर्म नहीं है अपितु पाप है। तत्कालीन परिस्थितियों में गुरु नानक ने यह अनुभव कर लिया था कि निवृत्तिमूलक दर्शन से समाज का कल्याण नहीं हो सकता। सत्य की खोज के लिए जंगलों में जाकर तपस्या करने से समाज की समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं है। घर में रहकर जीविका के लिए काम करते हुए भी अध्यात्म सत्य का साक्षात्कार सम्भव है। मूर्तिपूजा तथा तीर्थाटन और रोज़ा तथा नमाज़ आदि धर्म अथवा मजहब के प्राण तत्व नहीं है। अवतारवाद को ही धर्म मानकर तथाकथित अवतरण की स्तुतिगान करते रहने में धर्म नहीं है। गुरु नानक ने संतों की परम्परा को आत्सात किया। सभी संतों ने बाह्य आचारों का खण्डन किया है।
गुरु नानक ने भी धर्म के वास्तविक स्वरूप को समाज के सामने रखा। उनके शब्द हैं –
जोगु न खिंथा जोगु न डंडे जोगु न भस्म चढ़ाइऐ।
जोगु न मुंड मुंडाइये जोगु न सिंडी वाइऐ।।
अंजन महि निरंजन रहिए जोगु जुगति इव पाइऐ।
गली जोगु न होइ।
इक द्रिसट करि संसरि जानै जोगी कहिऐ सोई।। (सुही, महला 1)
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 730)
(फटी गुदड़ी से योग नहीं होता। दण्डधारण से भी योग नहीं होता। भस्म लगाने से नहीं होता। सिर मुड़ाने से योग नहीं होता। सींहा बजाने से भी योग नहीं होता। इस संसार में निर्लिप्त रहने से योग होता है। केवल बोलने से योग नहीं होता। संसार के सभी लोगों को जो 'इक द्रिसट से' अर्थात समान दृष्टि से देखता है उसी को योगी कहना चाहिए।
कबीरदास के विवेचन के संदर्भ में योग साधना की चर्चा की जा चुकी है। गुरु नानक के काल में भी ढोंगी योगी थे। वे योग के नाम पर भगवा वस्त्र धारण तो करते थे मगर उनका आचरण पाखंड भरा होता था। वे योग के नाम पर अपनी दुकान चलाते थे। वे अपने योग के चमत्कारों से दुनिया को बेवकूफ बनाते थे और स्वार्थों की सिद्धि करते थे। वे घमंडी योगी 'योग साधना' के नाम पर पापाचार करते थे। गुरु नानक ने झूठे और सच्चे योगी में अंतर करते हुए सच्चे योगी की पहचान के लिए निम्न सूत्र प्रदान किया –
आपु मेटि निरालमु होवै अंतरि साँच जोगी कहीऐ सोई।
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 940)
(जो अपने 'आपु' (अहंकार) को मिटाकर 'निरालमु' (निर्लिप्त) रहता है, उसी को सच्चा योगी कहना चाहिए)।
गुरु नानक ने बिना लाग लगाव के धर्म के वास्तविक प्रतिमान निर्धारित किए। उनके द्वारा स्थापित प्रतिमान निम्न हैं –
(1) दया
(2) संतोष
(3) सत्य
(4) इंद्रिय नियमन।
दइया कपाहु संतोख सूतु जतु गंडी सत वट।
एहु जनेउ जोउ का हइत पंडे घत।
ना एहु तुटै ना मल लगे ना एहु जले न जाइ।
धंन सु मानस नानका जो गलचलै पाइ।। (सलोकु, महला 1)
(गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 471)
(दया जिसका कपास है। संतोष जिसका सूत है। इंद्रियों का नियमन जिसकी गाँठ है। सत्य जिसको गंडी है। वैसा जनेऊ जीव के लिए है। हे पंडे (ब्राह्मण) तुम उसी को पहनो। यह न टूटता है। यह न मैला होता है। यह न आग से जलता है। नानक कहते हैं कि धन्य है वह मनुष्य जो इसको पहनकर संसार में चलता है।)।
गुरु नानक की धार्मिक क्रान्ति में केवल निषेध नहीं है। इसके विपरीत उदारता और सहिष्णुता की अधिकता है। उन्होंने मुसलमान और ब्राह्मण धर्मों के सच्चे स्वरूप की ओर भी संकेत किए हैं।
(विशेष अध्ययन के लिए देखें- (1) गुरु ग्रंथ साहिब – वार माफ की, सलोकु महला 1, पृष्ठ 140 (2) गुरु ग्रंथ साहिब – धनासरी – महला 1, पृष्ठ 662)
गुरु नानक अपनी धर्म क्रान्ति के साथ-साथ विभिन्न धर्म साधनाओं के व्यवहारिक पक्षों को भी अपनाने में हिचके नहीं। उन्होंने मुसलमानों के इस्लाम से 'एकेश्वरवाद' और 'भाईचारा',उपनिषदों से 'परब्रह्म',वैष्णवों और शैवों से 'भक्ति', जैनों से 'अहिंसा' और 'आत्मतुल्यता', बौद्धों से 'करुणा' और 'संघ संगठन की भावना' और कबीर आदि संतों से 'नाम साधना', 'अवतारवाद और मूर्ति पूजा का खंडन' और 'जाति प्रथा का निषेध' आदि तत्त्वों और विचारधाराओं को खुले मन से ग्रहण किया। इन सबमें वे संतों के अधिक निकट हैं। उनकी उदार दृष्टि का यह परिणाम हुआ कि उनके समय के हिन्दुओं एवं मुसलमानों के मन में उनके प्रति सम्मान तथा आदर का भाव था। जिस प्रकार कबीरदास के बारे में जनश्रुति है कि उनकी अन्त्येष्टि क्रिया के समय हिन्दू उनके शव का अग्नि संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान उसे कब्र में गाड़ना चाहते थे उसी प्रकार गुरु नानक के बारे में भी जनश्रुति है उसके शव पर हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के अवलम्बियों ने फूल अर्पित किए। जिस प्रकार कबीर के शव संस्कार को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों में जब विवाद हुआ और जब शव के कफन को उठाया गया तो शव के स्थान पर केवल पुष्प-राशि मिली जिसे दोनों धर्मों के अनुयायियों ने आधा-आधा बाँट लिया उसी प्रकार गुरु नानक के शव के बारे में भी यह किंवदन्ती है कि दोनों धर्मों के लोगों ने यह तय किया कि अगले दिन जिस धर्म के मानने वाले लोगों द्वारा अर्पित फूल ताजा मिलेंगे उस धर्म के लोगों का शव पर अधिकार होगा। अगले दिन जब दोनों धर्मों के लोग शव के स्थान पर एकत्र हुए तो उन्होंने पाया कि दोनों धर्मों के अनुयायियों के द्वारा अर्पित फूल तो तरोताजा रखे हुए हैं मगर फूलों के नीचे रखा गया गुरु नानक का शव नदारद है। ये जनश्रुतियाँ इसका प्रमाण है कि जिस प्रकार कबीरदास दोनों धर्मों के उदारवादी लोगों के प्रिय थे, वही स्थिति गुरु नानक की भी थी। उनके मन में अंध विश्वासों और पाखण्डों के प्रति रोष था। श्रेष्ठ आचरण करने वाले समस्त धर्मों के अनुयायियों के प्रति स्नेह था। उनकी चेतना के कण कण में 'सभना जीआका एकु दाता' का विचार और भाव व्याप्त था और उन्होंने अपने अनुयायियों को यही सीख दी कि इसको कभी बिसराना नहीं। आगे चलकर हम इसकी परिणति इतिहास की इस घटना में पाते हैं कि गुरु रामदास अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास एक मुसलिम फकीर के कर कमलों से कराते हैं। गुरु नानक की यह शिक्षा कितनी प्रासंगिक है कि धर्म में कट्टरता और नफरत के लिए कोई स्थान नहीं है।
गुरु नानक का भारतीय संस्कृति को विशिष्ट योगदान
गुरु नानक भारतीय समाज की कुरीतियों, कुप्रथाओं, अंधविश्वासों तथा विषमतामूलक संरचना को विध्वंस कर तार्किक, कर्म एवं श्रम मूलक समता समाज के निर्माता हैं। 'सभना जीआका एकु दाता' के मंत्र दाता हैं। सब जीवों का वही एक दाता है - यह बात भारत में कही तो बार बार गई मगर अपने स्वार्थों के लिए धर्म के दलालों ने इसको 'बिसरा' दिया। इसको भुला दिया। भारतीय मनीषियों ने दर्शन के धरातल पर तो यह स्वीकार किया कि स्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक जीव आत्मतुल्य है। भगवान महावीर ने कहा कि प्राणी मात्र आत्मतुल्य है। इसी आत्मतुल्यता की संकल्पना का प्रतिपादन उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी भाषा में इस प्रकार किया –
“ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते”।।
भारत के सभी दार्शनिकों ने इस विचार के प्रति सहमति जताई कि अपना पाप स्वयं को ही भोगना है। जिन्होंने वाल्मीकि की जीवन गाथा पढ़ी है उनको इस विचार एवं तथ्य की स्वतः अनुभूति हो जाएगी। कर्म सिद्धांत इसी विचार की स्थापना करता है।
हम केवल यह कहना चाहते हैं कि भारत में दार्शनिक धरातल पर यह स्वीकार किया गया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही परम सत्ता (ॐ ईशावास्यमिदमं सर्वम्) से अनुस्यूत है। भारत के दार्शनिकों ने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के सिद्धांत का प्रवर्तन किया । सर्व भूत आत्मवत हैं। गीता का सार ´योग' का उपदेश है और उसमें ´समत्व दर्शन' समाहित है। (समत्वं योग उच्यते – गीता 2/48)। समदर्शी ही सच्चा योगी है। वह संसार के चर-अचर सभी भूत-समुदाय को आत्म-दृष्टि से देखता है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित कर, कहा है –
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः। (गीता 6/32)
(हे अर्जुन। जो योगी आत्म-सदृश्य से सम्पूर्ण भूतों में समदृष्टि रखता है, सुख हो या दुख – दोनों में जिसकी दृष्टि सम रहती है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।)
भारत में विद्या-विनय सम्पन्न ब्राह्मण और चण्डाल को भी समभाव से देखने का विधान है।
भगवान श्री कृष्ण के वचन हैं –
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः।। (गीता- 5/18)
(विद्या-विनय-सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, श्वान और चण्डाल – इन सभी को ज्ञानी जन समभाव से देखने वाले होते हैं।)
मगर इस समतामूलक दर्शन को धर्म के ठेकेदारों ने अपने स्वार्थों के कारण विस्मृत कर दिया, 'बिसरा' दिया। भारत का पतन उस समय से आरम्भ हुआ जब सामाजिक धरातल पर समाज को जन्मना जाति और वर्णों में बाँट दिया गया। सामाजिक समता के अभाव के बीज तो वैदिक युग में भी मिलते हैं। वेदों में, आर्यों और अनार्यों के बीच युद्ध के द्रष्टांत जगह जगह मौजूद हैं। आर्यों ने अपने को तो श्रेष्ठ माना तथा अनार्यों को राक्षस, दस्यु, दैत्य, असुर जैसे अपमानजनक विशेषणों से पुकारा। भारत की परम्परा को महिमामण्डित करने वाले इस तथ्य को ओझल कर देते हैं। मगर यह इतिहास का यथार्थ है। वैज्ञानिक, तटस्थ, निर्पेक्ष एवं वस्तुपरक दृष्टि से विचार करने पर हम इस तथ्य को नहीं नकार सकते। जबसे भारतीय समाज को जन्मना चार वर्गों में बाँटने का उपक्रम हुआ तथा जन्मना उनको ऊँचे से नीचे के क्रम में बाँध दिया गया, जकड़ दिया गया तबसे सामाजिक समता समाप्त हो गई तथा सामाजिक विषमता स्थापित हो गई। सामाजिक विषमता के प्रतिपादक ये वचन हैं -
ब्राह्मणोऽस्य मुखासासीद्, बाहू राजन्यः कृतः।
उरूतदस्य यद् वैश्यः, पद् भ्यां शूद्रोऽजायत।
(विराट पुरुष (ईश्वर) के मुख से ब्राह्मण, बाहों से क्षत्रिय, जाँघों से वैश्य एवं पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं।)
इतिहास प्रमाण है कि शूद्रों को किस प्रकार सम्पूर्ण मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया तथा उन्हें ´अछूत' मान लिया गया। बाद में इन चार वर्गों में अनेक भेद और प्रभेद होते गए। जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज की कितनी हानि हुई है – इसका आकलन कठिन है। दर्शन के धरातल पर 'वसुधैव कुटुबकम्' का आदर्श और सामाजिक धरातल पर भेदमूलक व्यवस्था का घिनौना यथार्थ। हमारे पतन और पराभव का यह मूल कारण है। आदर्श और यथार्थ का इतना भेद और व्यतिरेक। इतना विरोध। समाज को जाति, वर्ग, धर्म, प्रांत, भाषा, कुनबा, वंश, आदि में से किसी भी कारक के आधार पर बाँटने वाली तथा भेदभाव करने वाली विचारधारा अमानवीय, निंदनीय, गर्हित और घिनौनी है। इस प्रकार की विचारधारा न केवल अमानवीय है, भारतीय दर्शन की उदार दृष्टि की विरोधी है। गुरु नानक ने समाज की इस घिनोनी व्यवस्था को पहचाना। गुरु नानक के पहले कबीरदास आदि संत समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध कर चुके थे। गुरु नानक ने समता के मूल्य को पूरी ताकत से वाणी दी। जाति, गोत्र, बिरादरी, फ़िर्क़ापरस्ती को महत्व देने वाली सामाजिक व्यवस्था को अपने धर्म के समाज से निर्मूल करने का काम किया।उनका यह योगदान अविस्मरणीय है कि उन्होंने समता समाज के सत्य को कभी 'बिसराया' नहीं। समाज की जाति-पाँति की विषमताओं, सम्प्रदायों के आपसी झगड़ों और समाज में नारी की दयनीय स्थितियों के सुधार के लिए यह सूत्र प्रदान किया कि “सभना जीआका एकु दाता। सो मैं बिसरी न जाइ”।।
उनका भारत के सांस्कृतिक एवं सामाजिक इतिहास में सबसे बड़ा और मूल्यवान योगदान भारतीय समाज में पूरी ताकत से समता, उदारता, परहित कामना, सेवा, सहिष्णुता, श्रम और कर्म से अपने जीवन को उन्नत बनाने की भावना के परम्परागत जीवन मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर – 203001
COMMENTS