पल्लवन रचयिता शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव पार्वतीपुरम, गोरखपुर ...
पल्लवन
रचयिता
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
पार्वतीपुरम, गोरखपुर
पल्लवन
ऑंखों में तरंगित प्रकृतिस्पर्शी छवि का पल्लवी स्फुरण
सन् 1964
पल्लवन
परिचय
अरुणिम संध्या का पुष्ट प्रहर
अनुस्वन प्रशांति द्योभूमि- प्रसर
सुख लूट रहा था सहज सरल
रोहिन- अचिरा- संगम-तट पर।1।
उठ रहीं उर्मियाँ स्वर्ण-शमन
दृगस्वप्न त्वरित मृदु पलक-शयन
कल्पना पर्त पर पर्त विरल
मृदु उभर रही द्रू-स्रोत तरल।2।
रवि रक्त-क्षितिज-आश्लिष्ट प्रतनु1
क्रोड़स्थ प्रिया नत नयन अतनु
लघु मेघ खंड नभ रश्मिप्रवर
उत्कीर्ण नीलमणि- कला अमर।3।
1. सूक्ष्म
आवर्त ज्योति के अरुण गहन
दृग में अमूर्त मृदु चिंत्य-चरण2
थे सिमट रहे ज्यों शक्ति प्रणव
बढ़ रहा शनैः था तिमिर विभव।4।
थीं पुरी द्रुमों पर स्वर्ण-रेख
रवि लिखा प्रकृति का वरण-लेख
थी अरुण क्षितिज पर कृष्ण-सरणि
हो टिकी श्रांत ज्यों भग्न तरणि।5।
दिन की अशेष भू तपी श्रमित
छोड़ती श्वास-क्रम शुष्क शमित
अब शांत हुई मृदु मंद मंद
था सुखद पवन शीतल स्वच्छंद।6।
नभ से विशीर्ण-तन तपन-तप्त
द्रुत लौट रहे थे पंखि स्वल्प
ध्वनि डूब रही थी त्वरण-शांत3
नीरव प्रसार में शनैः क्रांत।7।
2.चिंतनीय चरण में अर्थात मद्धिम 3.जिसकी त्वरा शांत हो चुकी हो
मृदु मधुर मधुर संपूर्ण प्रकृति
शुचि शांत हुई शीतल स्निग्ध
हो गई सृष्टि थी सरस सरल
भाविनी तरल कल्पना सजल।8।
शशि पूर्व क्षितिज में पीत अरुण
उग रहा मुखर था मौन करुण
पा सरस स्निग्ध स्वर्स्पर्श, सलज
उठ रही क्रोड़ से प्रिया जलज4।9।
4. कमलिनी
खुल रही पँखुरियाँ सरणि-शेष
ज्यों त्याग नर्तकी नृत्य-वेश
मृदु एक - एक कर स्वर्ण-चीर
कर रही प्रदर्शित कला रुचिर।10।
क्षिति-गगन-संधि शशि उदित प्रमन
ऋजु तरुणि-स्मिति-रद स्वर्ण-शमन
उग रही कुमुदिनी अरुण मधुर
जल फोड़ मृदुल पत्रांक प्रचुर।11।
थी विपुल स्वर्ग-श्री दृष्टि-निखर
पल पल निसर्ग परिवेश अपर5
मृदु-सरण मूक गति दृष्टि-विरल
शशि था प्रसन्न नभ मध्य विमल।12।
5. बदलता हुआ
छिंट गई शुभ्र चाँदनी सुभग
ज्योत्स्ना विपुल स्वर्स्पर्श उमग
झर पड़ी ज्योति मृदु मूक त्वरिल
शफरी - प्रकंप पत्रांक - सरिल6।13।
6. पत्तों के ऊपर तैरता जल
बिछ गई विभा रेशमी धवल
चल चमक उठा आकुंचित जल
शुचि शुभ्र पुलिन पर शयित प्रमन
मन नाच उठा लख दृश्य गहन।14।
नभ की अनंत ज्योत्स्ना सुघर
नव ज्योति-शीर्ष चेतना प्रखर
मृदु उतर रही उर में सवर्त
मन को प्रसन्न तिर्यक तर कर।15।
लघु तरणि सौम्य-सृति7 मंद प्रमुद
तिर रही सुघर थी मंद फुदक
थी खुली पाल सुंदर स्निग्ध
ज्यों फड़क रहे हों पर सुबिद्ध।16।
7. सौम्य गति से
सृति8 थी सुरम्य उसकी अभग्न
सुंदर प्रफुल्ल निज में प्रमग्न
चुग रही मनो हंसिनी सुभग
मृदु-सरण9 असन कंकड़ी अपग।17।
8. गति 9.धीरे धीरे सरकती हुई
यों दृष्टि मेरी पैठी अपन्न
सौंदर्य -स्रोत- तल में प्रसन्न
उड़ उड़ अमंद श्री रजत वर्ण
थी समो रही दृग में अपर्ण।18।
मैं था अचेत निस्पंद प्रमित
सोया निसर्ग में स्वप्नजड़ित
ज्यों डूब रही हो तरणि श्रांत
निस्पंद ताल में उर प्रशांत।19।
कि इसी समय आ गया एक
उज्ज्वल तुषार लघु प्रमुद मेघ
उन्मिलित ज्योति लख राहुग्रस्त
उठ गईं तुरत पलकें अपर्ण।20।
छिप धवल मेघ में शशि सुरम्य
शोभने लगा ले श्री अदम्य
ज्यों शुभ्र सरोवर में अकीर्ण
शिति-प्लात्य-कमल10 सौरभविकीर्ण।21।
10. जल की सफेदी में डूबा हुआ कमल
या सुमन छोड़ने को सहर्ष
अंजलि सुअर्घ्य प्रिय-प्रेम-कर्ष
शुभ डाल लिया हो प्रिया चीर
पलकें प्रसन्न सस्मिति अधीर।22।
शीघ्र ही किंतु यह चीर वरण
प्रिय प्रथम मिलन का सलज चरण
मृदु खींच लिया उर-त्वरण-त्वरित11
मुख शुभ्र कमल द्युत नील सरित।23।
11.हृदय की धड़कन की त्वरा से भरा
यह दृश्य सजल मृदु मौन मुखर
सुकुमार स्वर्ग-श्री सौम्य सरल
रवि-प्रथमरश्मि-सा स्वर्ण-सरणि
उर-भूमि उतर त्वर हुई तरणि।24।
उग गई एक ही साथ रम्य
मृदु प्रतनु भावनाएँ असंख्य
फूटने लगी, ज्यों पद्मपूत
उर-तरल-भूमि से समुद्भूत।25।
खिल लगी होने श्री-भार-विनत12
प्रस्फुटित कमल पंखुड़ी सदृश
उज्ज्वल तुषारमय मनोभूमि
रंग गई पल्लवीप्रात-भूमि।26।
12. सौंदर्य के भार से झुकी हुई
सहसा स्पर्श-सी तन्वि तड़ित
मुदु चमक गई कृश मौन जड़ित
त्वर पसर गई छँट स्वर्ण-शमन
बालिका एक लख पड़ी प्रमन।27।
वह थी सुवर्ण श्री दिव्य सृष्टि
शुचि मंद स्मिति नत मधुर-दृष्टि13
थी गहन सृक्व-द्वय14 रेख-जुड़ी
पल्लव -स्नायु -लालिमा भरी।28।
13. मधुर दृष्टि वादी 14. अधरों के दोनों ओर पड़ते गड्ढे
थीं सरल सजल द्युति समुद कीर्ण
सामने मंद सौंदर्य शीर्ण
मुख- स्वर्ण- सरोवर में प्रशांत
थे शुभ्र कमल15 दो मुखर कांत।29।
15. चक्षु रूपी (कमद)
वह शरद हासिनी सी प्रफुल्ल
थी श्री-समाधि में निभृत फुल्ल
तुल रही प्रकृति-श्री थी असीम
द्रुति-स्मिति16 अधर पर प्रमन पीन।30।
16. गतिमान हास
थी ढुलक रही ज्योत्सना प्रवण
मुख पर हिमाद्रि से बर्फ-स्रवण
रवि अरुण अधर में स्वर्ण-मुखर
हो मनःभूमि में उदित प्रखर।31।
मुख अमित कांत, पीली पवित्र
साड़ी सुरम्य में सजल चित्र
प्रस्फुटित सदल ज्यों स्वर्ण कमल
सज्जित पंखुड़ी पीत उज्ज्वल।32।
थीं त्वरित रम्य तन पर अमंद
मृदु ज्योति-स्निग्ध शशि-किरण-बंद
बन जाय सुभग पद्मक-प्रतिष्ठ17
उस मधुर तरुणि का चीर श्लिष्ट।33।
17. पद्मों के व्यूह में प्रतिष्ठा पाकर
प्रभ टपक रही तन से स्निग्धि
माधुर्य-स्रवण शिशु की समृद्धि
द्रुमदल सुवर्ण मृदु लता-श्लिष्ट
तन्वंगि सुभग तापसी मृष्ट।34।
मृदु मंद मंद था मधुर पवन
मंथरित स्वप्न-सृति18 उर्मि-प्रमन
नभ के तरंग-जल में सर्पिल
शत पुष्प मुखर छायाभ त्वरिल।35।
18. स्वप्न की गति
दृग के अपर्ण सर में सवर्त
त्वर थे अमूल यों स्वप्न पर्त
उड़ उड़ अमंद अविदित प्रवाह
भर रही प्रकृति सुषमा अथाह।36।
पर इसी समय शुचि श्लक्ष्ण स्पर्श
अनुभूत हुआ एक स्वप्न-कर्ष
अनिमिष एकांत शशि पूर्ण पीन
त्वर त्वरिल हुआ सर-सरिल19लीन।37।
19. सरोवर क ेजल में
मृदु टूट गया वह स्वर्ण स्वप्न
मधु विखर गई अनुभूति नग्न
त्वर उतर गई उर में सुमधुर
सस्नेह-सृप्र20 त्विषि21तरल प्रचुर।38।
20. स्नेह से चिकना 21. किरण, प्रभा
स्वर्गिक सुरम्य क्षण आत्म-प्लवन
निर्वाध निमज्जन सुधा स्रवण
मृदु गलित हुआ पर नव प्रकर्ष
पा मुड़े चक्षु ऋजु यह सहर्ष।39।
कँप किंतु एक द्युति दिव्य ज्वलित
निखरी प्रकांति में हुई प्रमित
रह गई खुली की खुली दृष्टि
अपलक अकंप लख दिव्य सृष्टि।40।
झर गई ज्योति तेजस्वि प्रखर
उर में अमूर्त प्रतिरंध्र प्रभर
चिद्-भरण22प्रतनु त्विषि तन्वि मधुर
मन में प्रवेश कर गई प्रचुर।41।
22. चेतना को भरने वाली अर्थात प्रसन्न करेवाली
हो उठे प्राण द्युलोक-द्युतित
बह चली स्रवंती सुधा भरित
श्री-भार-भरित उर मंद त्वरण
गतिमान हुआ कर बोध वरण।42।
दृग के अस्पष्ट तम में प्रदीप्त
नत स्वर्ण कमल ज्यों ज्योति सरित
तट पर सुवर्ण-श्वसि उषा स्वर्ण
कर-कलश ज्योति-भर नवल पर्ण।43।
दिपती अवर्ण्य क्षण में प्रवीण
अब हुई स्पष्ट निज रूप लीन
मृदु नवलरुधिर पत्रिणी सदृश
द्युत मधु समक्ष थी एक सुभशि।44।
वह थी स्निग्ध नव वय किशोरि
पल्लवी-प्राण यौवन-विभोरि
मृदु मंद स्मिति स्फुटित अधर
खिल रही स्वर्ण नव कली प्रवर।।45।
प्रभ टपक रही दुति सहज सरल
ज्योत्सना-मुग्ध शिशु-पुलक-तरल
स्वर्-शुभ्र स्वर्ण-सरि में विनम्र
थी खड़ी स्निग्ध तिर्यक निरभ्र।46।
यों क्षणिक काल तक मन प्रसन्न
दृग रहे युग्म कर्षित अपन्न
मृदु अमृत रूप पीते प्रमग्न
नत हुई पलक फिर प्रेम मग्न।47।
थे मूक उभय पर मौन मुखर
था हृदय त्वरित प्रस्फुट्य उभर
मुड़ मुड़ अमंद थे नेत्र मिलित
मृदु फड़क रहे मृदु अधर प्रमित।48।
कर भंग अंत में मौन सलज
अपलक मनोज्ञ हो विरल सहज
मृदु फूट पड़ी वाणी, समग्र
उर का समेट आवेग व्यग्र।49।
अयि शुभसि! सुमनसुकुमारि शुभे!
कृश-लता-नम्र तन्वंगि विभे
तुम कौन रूप की प्रतनु-रेख
अंकित सुवर्ण सी छवि विशेष।50।
तुम प्रकृति-काव्य की प्रथम पंक्ति
हिम-स्रवित-सरित रेखांक दंशि
नव कमल डाल सी झुकी मिली
तुम कौन स्वर्ण-प्रस्फुट्य कली।51।
लगती कृशांग मृग सी सशंक
मृदु सरस सुरभि की द्रवित अंक
तुम खींच रही मम मृदुल प्रान
शशि की अनंत त्विषि सी अजान।52।
अयि सुमुखि! शुभ्र ज्यात्सना-विमल
झर रही शरद-पर्वणी23! सजल!
कर रही सुमन मन प्राण सरस
मधु मदिर नयन से अमृत वरस।53।
23. शरद ऋतु की पूर्णिमा
अयि सुभगि! कौन तुम प्रकृति-विरल
कृश स्वप्न-क्षितिज की तरुणि सरल
ज्यों उतर रही हो स्वर्ग-सरित
मृदु शक्ति शील सौंदर्य भरित।54।
लग रही प्रथम सरि-उर्मि सदृश
गति-वक्र प्रमित चल-प्रवह24 अनिश25
मृदु खोल मधुर मुख देख सुहृद
शशि पूछ रहा तुम कौन समुदि!।55।
24. उच्छल और प्रवहमान 25. अनवरत
तन्वंगि देव-सरि की उर्मिल
लघु लोल लहर में प्रश्न-स्वरिल
दिक् रजत पुलिन कण पूछ रहे
तुम कौन अमृत स्रोतस्वि शुभे।56।
मुख पर अदम्य तापसी ज्योति
मुखरित सुवर्ण अनुपाय द्योति
त्वर उबल रही उर में सघूर्णि
एक प्रश्न भरी औत्सुक्य उर्मि।57।
अयि प्रवरि!ज्योति की तन्वि विभा
द्रू-तड़ित-वक्र कृश मेघ-प्रिया
तुम मौन मनोरम छवि अशेष
द्रू-पलक-धन्वि26 उद्ग्रीव त्वेष27।58।
26. सुनहरी धनुषाकार पलकों वाली 27. उमंग
तुम कौन मनोरम सौम्य प्रशम
विधि की अपूर्व छवि सृष्टि सुसम
मुख की प्रकांति में विरल-चरण
ढुलती तुषार-श्री स्निग्ध प्रवण।59।
वह दिव्य रमणि इस तरह स्रवण
निस्पंद रही करती कुछ क्षण
फिर मधुर ज्योति-उर सुधा-स्रवणि
बोली सुमंद स्फटिक-अरुणि।60।
प्रिय प्राण! झुके कह नेत्र युगल
दो हुए कमल-संपुटित अपल
त्वर दौड़ गई लालिमा मृदुल
मधुरिम कपोल पर पुष्ट पृथुल।61।
फिर उठी सुभग पलकें सुपन्न
कँपती सुमंद झर स्निग्ध प्रमन
निज सरस गिरा में अमृत घोल
मुखरी सलज्ज सस्मित सरोज।62।
तुम प्राण-पुष्प प्रिय आत्म अ-पर
तिरते असीम आंखों में पर
उर के अनंत जल में प्रसन्न
खिल रहे कमल सा मन-प्रच्छन्न।63।
शशि सी प्रफुल्ल मैं समस्तित्व
उर्वरि प्रसन्न भू-प्रभा द्वित्व
मणिमय स्पर्श की मृदुल वायु
मृदु सुरभि प्राण पल्लव-स्नायु।64।
ओ स्वर्ण-श्वसन कल्पक अमूर्त
मैं हृदय-प्रेरि प्रेयसी मूर्त
कह मौन हुई वह विनत प्रवरि
दिपती अमंद सौंदर्य-प्रभरि।65।
सुन सरल सजल अभ्रक-सुपर्णि
स्फटिक-शुभ्र की गिरा वर्णि
संपुटित प्राण ज्योत्सना-सृप्र28
प्रस्फुटित हुआ ज्यों उषा-सृप्र29।66।
28. ज्योत्सना की स्निग्धता में 29. उषा की स्निग्धता में
द्रुत दौड़ गया पल्लवी रुधिर
धमि में, स्पर्श-मुख-त्वरा-सुषिर30
अनिमिष अवाक ध्वनि फूट पड़ी
मुख से अकल्प झर स्वर्ण लड़ी।67।
30. मुख के स्पर्श (हवा) की त्वरा से
दिव्ये! तरंगि! सुषि-बंद31प्रकृति
पंखुरित पद्म प्रत्यूष-सुकृति
क्षण का प्रकर्ष परिचय अमूर्त
लग रहा चिरंतन प्रेमपूर्त।68।
31. सूराखों में बंद
खिंच रहा हृदय पल पल अजान
उठ रहे मधुर मधु भरित गान
मृदु फूट रहे उर में सहस्र
नव स्वर्ण पद्म सज हरित पत्र।69।
लख तव अपूर्व छवि मुख प्रसन्न
उर्वर प्रशांत प्रभ दिङ्प्रच्छन्न
उर के अदृश्य क्षिति से नवीन
उगता सुवर्ण रवि पुष्ट पीन।70।
सचमुच स्नेहि तुम करोत्पन्न32
पल्लव प्रफुल्ल प्रेरणा-पन्य33
खुलती प्रत्यक्ष छवि में अशेष
मृत्तिका-प्रणयि धूसरित वेश।71।
32. किरणों से उत्पन्न 33. प्रशंसा करने यांग्य
तुम यदपि पूत मणि स्वर्ण-सृष्टि
विद्युत्य विभा निरुपमित पृष्टि
तिरती परंतु वपु पर सलज्ज
निष्कलुष ग्राम्य-सौंदर्य सहज।72।
पल पल उरप्र34 द्युति फूट रही
ॠजु प्रशम पद्र-द्रू-धूलि35 भरी
कढ़ छलक रहा उर करुण प्रवण
शशि-मृत्ति-प्रण्यि कर अंक वरण।73।
34. उर को प्रउन्न करने वाली. 35. गॉव की सुनहरी धूल से
मृदु मंद स्मिति अधरस्थ मुखर
फूटता मौन संगीत प्रखर
त्वर टपक रहा घुल प्राण सरल
मधुमय प्रसन्न माधुर्य तरल।74।
अयि प्रवरि! हृदय की कल्प-मूर्ति
अनुदित निसर्ग में प्राण-पूर्ति
अविदित सघूर्णि त्वर रुधिर त्वरण
तुम शब्द शब्द में मौन मुखर।75।
इस तरह प्रतनु त्वर स्वर्ण रेख
उभरी तरंग-मन में अशेष
बह गई मृदुल गति सहज-प्रवह
थीं अधर-मुखर अव्यक्त-अवह।76।
अपलक अनंत बँध गई दृष्टि
उस स्वर्ण-प्रहर में सुरभि-तुष्टि
स्वप्नक सुवर्ण पलकें प्रसन्न
अविदित स्निग्ध-गति हुई पन्न।77।
वह तन्वि लता सी उर्ध्व प्रमन
द्योभूमि-सृष्ट द्रुति-दृष्टि-श्वसन36
मृदु अस्त हुई दृग में निमग्न
उतरी प्रसन्न उर में अपन्न।78।
36. तरल दृष्टि के साँसों के समान
खो गया अमित सौंदर्य लीन
निष्कलुष स्वर्ण-सा प्रमन पीन
टूटी समाधि जब, वह प्रलीन
था शीश अंक में स्नेह स्विन्न।79।
वह थी प्रसन्न मुग्धा अशेष
मृदु फेंक रही त्विषि सजल श्लेष
उर के अतर्क्य रस से विमुग्ध
थी सींच रही उर सरल शुद्ध।80।
शुचि अरुण-अधर थे फूट रहे
पल्लवित पद्म के मध्य घिरे
हिल रहे मृदुल थे मुखर बंद
उठ रहे मधुर आवर्त मंद।81।
गिर रहीं मृदुल पलकें अमंद
उठकर स्निग्ध रच स्वर्ण छंद
दे रही पूर्ण अलकें विराम
उड़ उड़ स्पर्श कर दृग ललाम।82।
मृदु मृदु स्पंद ग्रीवा सुमंद
मृग के सशंक शिशु-सा अवंध
उस अमिय स्वर्ग-श्री पर अनंत
थी बँधी दृष्टि अपलक अपन्न।83।
सहसा प्रकंप सा हुआ पवन
विखरे प्रसन्न मुख पर्द्द सघन
ज्यों रचा जलद का चक्र अकर
रह सका न शशि वह ओप अपर।84।
फिर भी सुवर्ण छवि मुख-प्रकीर्ण
आ रही प्रतनु थी छन अशीर्ण
रवि स्वर्ण रश्मि ज्यों तन्वि अचिर
मृदु भेद रही वर्षांत-मिहिर।85।
2.
दृष्टि-त्वरण
उस ग्राम्या सी ॠजु स्नेह-तरल
मृदु आर्र्द्र-वाक् को सहज सरल
मन तरल हुआ लख श्री-प्रसन्न
शुचि सरस हुआ था उर विपन्न।1।
सुन मधुर प्रेम-स्वर स्निग्ध प्रवण
पल्लवी-अधर से हृदय-स्वरण
द्रुत उभर चले थे स्वप्न गहन
पलकों में मृदु मृदु अस्त प्रमन।2।
खिंच चली स्वर्ण थी छवि पवित्र
वह बनी आज भी सजल चित्र
दृग में अनंत कुंचन प्रकर्ष
खिंच रहे प्रमन कर उर स्पर्श।3।
उठती तरंगि कल्पना-त्वरिल
उर्वर रसार्द्र जीवंत सरिल
वर्तित नमस्य जल में विशेष
रच रही इंद्रधनु रंग-श्लेष।4।
मृदु फूट रहे शत स्वर्ण कमल
उर के प्रसन्न जल में कोमल
उग रहे प्रतनु अंकुर प्रसूक्ष्म
हृद्-लता ग्रंथि-श्रवि में नवोष्म।5।
उठ रहे त्वरण स्वर्णोप सदल
सृत मंद त्वरित कर उर-शतदल
डुल रहे मधुर पुरइन प्रमंद
खिल रहे अंक में स्वरिल छंद।6।
मृदु मधुर स्मृति आती प्रतिक्षण
मोहन प्रसन्न... यह अरे प्रमन
द्रुत कौंध गई त्वर तड़ित कौन
प्रभ प्रखर तन्वि द्युत प्रतनु मौन।7।
लो पसर गई द्युति स्वर्ण सघन
कर निखिल स्वर्ग-श्री प्रकृति वरण
रच गई एक स्वर्सृष्टि मुखर
मन के अदृश्य-पट पर पल भर।8।
त्वर उभर पड़े शत शृंग-प्रवर
करते स्पर्श द्योभूमि मुखर
प्रकटा हिमाद्रि कुहरिल प्रच्छन्न
भू का अनंत गौरव अपन्न।9।
शुभ दमक उठे उज्ज्वल स्वच्छंद
उड़ते अनंत बादल प्रमंद
घिरते विकर्ष शिति शृंग गिर्द
संपुटित पद्म फूटता कीर्ण।10।
त्विषि छिटक रही शत प्रतनु सरणि
भू क्षितिज संधि से मंद त्वरणि
ज्यों खिला अतल उर पर प्रसन्न
त्वर सूर्यमुखी कीर्णित अपन्न।11।
फूटती रश्मि स्वर्णिम विपन्न
वर्तित तुषार-ह्री में प्रच्छन्न
बुन रही सूक्ष्म भावग्न विश्व
सींचती सृष्टि को लुटा निस्व।12।
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