लेख अकेली संतान, आफ़त में जान डॉ. रामवृक्ष सिंह हम बचपन से पढ़ते-सुनते आए हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। पता नहीं, बचपन वाली वह कहावत ...
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अकेली संतान, आफ़त में जान
डॉ. रामवृक्ष सिंह
हम बचपन से पढ़ते-सुनते आए हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। पता नहीं, बचपन वाली वह कहावत हम हिन्दुस्तानियों पर अब कितनी चरितार्थ होती है। शंका अकारण नहीं है। समाज का ताना-बाना बिखर रहा है। समाज से लघुतर इकाई-परिवार का विश्रृंखलन हो रहा है। परिवार भी अब पति-पत्नी और बच्चे तक सिमट गए हैं। पति, पत्नी और बच्चे तीनों एक छत के नीचे रहते हुए भी अपनी अलग-अलग दुनिया में रमे रहते हैं। बहुत-से घरों में अब पूरा परिवार विभिन्न कारणों से एक साथ भोजन नहीं कर पाता।
शिक्षा और तज्जनित बेहतर रोजगार व संपन्नता के बढ़ने से परिवार छोटे हो रहे हैं। सुशिक्षित और सुसंपन्न दंपति अब एक या दो संतानों के बाद ही संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया पर विराम लगा रहे हैं, फिर चाहे वह अल्प विराम हो, अर्ध-विराम या पूर्ण विराम। इस विरामन प्रक्रिया में बहुत बड़ा योगदान हमारे कैरियर, आर्थिक संसाधनों और डॉक्टरों का भी है। कैरियर की व्यस्तता के चलते अब महिलाएं एक बच्चा जन लें, वही बहुत है, दो या अधिक की तो बात ही मत कीजिए। आज प्री-स्कूल से लेकर स्नातकोत्तर तक की शिक्षा इतनी महँगी हो गई है कि एक बच्चे को ही ठीक से पढ़ा ले जाएँ, वही बहुत है, दो या अधिक की तो बात सोचना भी कठिन है। और डॉक्टरों के क्या कहने! बच्चा गर्भ में आया नहीं कि उनका मीटर डाउन! जो जचगी सामान्य तरीके से हो सकती थी, उसे भी हमारे डॉक्टर लोग सीजेरियन ही कराएँगे। कारण? प्रसूता का पेट नहीं चीरेंगे तो सर्जन की फीस, ओटी की फीस, भर्ती की फीस, कमरे का किराया, महँगी दवाओं के ऊल-जलूल दाम कैसे वसूलेंगे? डॉक्टरी का पेशा अब ऐसा ही हो चला है। यानी एक बच्चा पैदा करने में लाख रुपये का चूना लगना लाज़िमी है। तो जिसके पास इतने रुपये हों वह बच्चा पैदा करे। लिहाज़ा सामान्य आर्थिक हैसियत वाले दंपति एक पर ही बस कर लेते हैं।
खैर.. यह तो हुई संतान की संख्या एक तक सीमित रखने की मज़बूरी। लेकिन उसके दुष्परिणाम क्या होते हैं, ज़रा इस पर भी तो ग़ौर फर्माएँ।
हमारे एक पूर्व सहयोगी के एक ही बेटा है। पति-पत्नी, दोनों नौकरी करते हैं। छुटपन से ही बच्चा घर में अकसर अकेला रह जाता था। बात तब की है जब वह बच्चा दस-ग्यारह वर्ष का था। एक दिन सुनते हैं कि बच्चा अस्पताल में भर्ती है, उसके पेट में बहुत दर्द है। जाँच करने पर पता चला कि दर्द अपेंडिक्स का है। ऑपरेशन किया गया तो पता चला कि बच्चे ने खूब ढेर सारी चॉकलेट खा ली थी, जो अपेंडिक्स का कारण बनी। ये तो डॉक्टर ही बताएँगे कि क्या ऐसा हो सकता है। लेकिन यह तो सच है कि अकेला बच्चा दिन भर घर में कुछ न कुछ खाता रहता है, टीवी देखता रहता है, बच्चों से चैट करता है, इंटरनेट साइटें देखता है, फोन पर बातें करता है, या कॉलोनी के दूसरे बच्चों अथवा गली-मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलकर वह सब कुछ सीखता है, जो शायद उसकी उम्र के बच्चों के लिए उचित नहीं होता।
मैं अपने बचपन में खुद इसी स्थिति से गुजरा हूँ। मेरी संगत दो ऐसे मातृहीन लड़कों से हो गई थी, जो सर्वेंट क्वार्टर में रहते थे। वे अपने पिता के सिरहाने से बीड़ी का बंडल निकाल लाते और पीते। मैंने उनसे पूछा कि तुम यह गलत काम क्यों करते हो, तो उन्होंने पूछा कि पिताजी पीते हैं, तो हम क्यों नहीं पी सकते? उन्होंने मुझे भी बीड़ी पीने के लिए प्रेरित किया, किन्तु ईश्वर की कृपा से और अपने संस्कारवश मैं उस गड्ढे में गिरने से बच गया। बहुत-से छोटे बच्चे ऐसे ही गलत साथियों की संगत के कारण तमाम तरह की बुरी बातें सीख लेते हैं।
संभ्रान्त घरों के बच्चों के लालन-पालन का जिम्मा आया अथवा पुरुष नौकरों को दे दिया जाता है। यदि बच्चे सौभाग्यशाली हुए तो आया और पुरुष नौकर उनके साथ मातृवत अथवा पितृवत व्यवहार करते हैं। लेकिन अभागे बच्चों के साथ वैसा भी हो जाता है जैसा नोएडा की अरुषि के साथ हो गया। अंग्रेजी के एक पुरुष लेखक की आत्म-कथा में ज़िक्र है कि अपनी प्रौढ़ा आया के साथ संसर्ग करके उसने यौन जीवन में प्रवेश किया।
पाठक पूछेंगे कि इससे बच्चे के अकेले अथवा दुकेले होने का क्या संबंध है? यह तो किसी भी बच्चे के साथ हो सकता है? लेकिन हमारी विनम्र राय में इसका बच्चे के अकेलेपन से गहरा संबंध है।
अकेला बच्चा किसी दूसरे बच्चे (और बच्चा न मिले तो किसी भी मनुष्य) का साथ पाने के लिए तरसता है। यदि उसे घर में ही साथ खेलने के लिए कोई साथी मिल जाए तो वह घर के बाहर नहीं जाता। दोनों बच्चे आपस में खेल-कूदकर साथ-साथ बड़े होते हैं। उनमें असुरक्षा और अकेलेपन की भावना नहीं घर कर पाती। घर में साथी नहीं मिलते तो बच्चे इंटरनेट, मोबाइल आदि अथवा व्हाट्सऐप, फेसबुक आदि के माध्यम से मित्र बनाते हैं। यदि इन मित्रों में कोई चालू-चपट हो और बच्चे का शोषण करने की स्थिति में हो तथा उसका इरादा शोषण करने का हो तो वह बड़े शातिराना तरीके से बच्चे को अपना शिकार बना लेता है।
घर में यदि दूसरा बच्चा हो और (जैसाकि अकसर होता है) यदि दोनों एक ही कमरे में पढ़ते और सोते हों तो वे एक-दूसरे की गतिविधियों की जानकारी रखते हैं। बिलकुल सटीक जानकारी न भी रखें, तब भी उन्हें आभास रहता है कि दूसरा बच्चा क्या कर रहा है। एक ही लिंग वाले बच्चों के बारे में तो यह बात काफी हद तक लागू होती है। विपरीत-लिंगी बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो माता-पिता उनके कमरे अलग-अलग कर देते हैं। ऐसे में एक-दूसरे की अंतरंग दिनचर्या की जानकारी उन्हें नहीं हो पाती, और शायद होनी चाहिए भी नहीं। किन्तु ऐसी स्थिति में एक बच्चा (जो अकसर पुरुष होता है) दूसरे बच्चे (जो अकसर स्त्री होती है) पर निगरानी रखता है। यानी भाई अपनी बहन पर निगरानी रखता है, चाहे बहन छोटी हो या बड़ी। बशर्ते दोनों में उम्र का अंतर बहुत ज्यादा न हो। इसी प्रकार यदि बहन बड़ी होती है तो अपने छोटे भाई पर निगरानी रखती है। सिबलिंग राइवलरी के चलते बच्चे कोई गलत काम करते डरते हैं, कि यदि दूसरे को जानकारी हो गई तो वह माता-पिता से चुगली कर देगा। चुगली करना बुरा माना जाता है, लेकिन उसका डर बच्चों को उन कार्यों से दूर रखने में मददगार होता है जो वर्जित हैं। यह डर बच्चों को गलत रास्ते जाने से रोकता है। अकेली संतान के मामले में ऐसा कुछ नहीं होता। वह एक प्रकार से निरंकुश होती है। यदि माता-पिता स्वयं ही अपनी अकेली संतान की गतिविधियों से ग़ाफिल हो जाएं तो फिर वह जंगल की बेल की तरह बढ़ेगी, इसकी संभावना बहुत ज्यादा हो जाती है।
इस प्रकार संतान का अकेला होना दोहरी बुराई है। एक ओर तो ऐसा बच्चा संगी-साथी के लिए तरसता है और बाहरी लोगों की कुसंगति में पड़ने की प्रवणता उसमें बहुत अधिक होती है, दूसरी ओर ऐसी स्थिति में उसकी गलत गतिविधियों की जानकारी माता-पिता तक पहुँचाने का कोई स्रोत उपलब्ध नहीं होता।
अकेले बच्चे प्रायः ज़िद्दी और बिगड़ैल होते हैं। न हों तो ईश्वरीय चमत्कार ही समझिए। माता-पिता की पूरी दुनिया उस अकेले बच्चे में सीमित होती है। बच्चा जो माँगता है, माता-पिता अपनी सामर्थ्य भर उसे लाकर देते हैं। बच्चे अपने माता-पिता की इस मानसिक विवशता को भांप लेते हैं और अकसर उनका भावनात्मक शोषण करते हैं। बात तब बिगड़ जाती है जब जिन्दगी के किसी बहुत ही नाज़ुक मोड़ पर ये बच्चे अपने तईं बहुत सही निर्णय करते हैं किन्तु वह निर्णय वास्तव में विध्वंसकारी सिद्ध होता है। अपने अकेले बच्चे पर जान छिड़कने वाले माता-पिता बच्चे के प्रति मोहवश उस विध्वंसकारी निर्णय की स्थिति में भी खुद को असहाय और लाचार पाते हैं तथा बच्चे की ज़िद मानने के अलावा उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं बचता।
लखनऊ में हाल ही में एक उन्नीस वर्षीया बच्ची की लाश छह टुकड़ों में कटी हुई पाई गई। अख़बार कहते हैं कि बच्ची अपने माता-पिता की अकेली संतान थी। बकौल अख़बार, उसके मित्रों की संख्या कई सौ है। अख़बार बताते हैं कि वह उनके साथ घूमती-फिरती थी, फेसबुक व अन्य साइटों पर चैट करती थी, संदेशों का आदान-प्रदान करती थी। लड़की के मरने के छह दिन बाद पुलिस ने कुछ खुलासा किया है। वह खुलासा इस लेख की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है बच्ची के पिता का कथन। वे पछता रहे हैं कि यदि वे अपनी बच्ची की गतिविधियों के बारे में और अच्छी तरह जानते तो शायद इस दुर्घटना से बचा जा सकता था।
इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण से हमें यह सीख मिलती है कि हम अपने बच्चों के साथ और अधिक समय बिताएँ, उनकी गतिविधियों की पूरी जानकारी रखें। वे गलत संगत में पड़ जाएँ, इससे पहले हम उनको गलत-सही का बोध कराएँ। अपनी सामर्थ्य और सुविधा के अनुसार संतानें उत्पन्न करना बहुत समझदारी की बात है। लेकिन उससे अधिक समझदारी की बात है बच्चों की सही परवरिश करना। कई बार बच्चों में गलत दिशा में जाने का रुझान दिखने लगता है। ऐसी स्थिति में माता-पिता में इतना साहस होना चाहिए कि वे बच्चे के सामने किसी अभेद्य दीवार की भाँति खड़े हो जाएँ और उनके भटकाव को किसी भी कीमत पर रोकें। यदि हम अपने बच्चे की गलत प्रवृत्ति पर आपत्ति करने का साहस नहीं दिखा पाते और उसके रुष्ट हो जाने के भय से आक्रान्त होकर चुपचाप तमाशाई बने देखते रहते हैं तो बच्चे के विनाश के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी हमारी है। कानून में प्रावधान होने चाहिए कि यदि माता-पिता के स्तर पर पेरेंटिंग की कमी के चलते बच्चे के साथ कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना होती है तो न केवल घटना को अंजाम देने वाले अपराधी, बल्कि बच्चे के माता-पिता को भी उचित दंड मिले। वैसे बच्चे के गलत रास्ते चले जाने अथवा उसकी तज्जनित असामयिक-अस्वाभाविक मृत्यु के बाद उसके माता-पिता जो त्रास झेलते हैं, वह भी किसी दंड से कम नहीं होता।
एक और ख़राब स्थिति यह है कि माता-पिता खुद अपने दुर्व्यवसनों एवं वासनाओं से ग्रस्त होते हैं और अपने ही बच्चों के सामने कोई बहुत बड़ा आदर्श उपस्थित नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में यदि बच्चे भी अपने माता-पिता के पथ का अनुसरण करने लगते हैं तो माता-पिता में इतना नैतिक साहस नहीं होता कि वे बच्चों के सामने मुँह खोल सकें। घर में वर्जित साहित्य हो, वर्जित फिल्मों की सीडी/डीवीडी पड़ी हों, नेट से वर्जित फिल्में डाउनलोड की जाती हों, शराब की बोतलें पड़ी रहती हों, ताश और जुए की बैठकें होती हों, तो बच्चे भी कभी न कभी उसी ओर का रुख करेंगे। इसमें जिसे शक हो, उसकी सामान्य बुद्धि पर हमें तरस आता है। लखनऊ वाले उपर्युक्त प्रकरण में माता-पिता ने खुद प्रेम-विवाह किया था और यदि बच्ची भी वैसा ही करती तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। अखबारों में बकौल पिता ऐसा छपा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले के प्रेम और आज के प्रेम में बहुत फर्क आ गया है। अब प्रेम बाद में होता है, सेक्स पहले होता है। पहले प्रेम की परिणति विवाह में होती थी, बल्कि प्रेम किया ही इसलिए जाता था कि उसे विवाह में परिणत किया जा सके। तब उसे शारीरिक संबंध में बदलने की बारी आती थी। अब प्रेम (या विवाह-पूर्व संसर्ग) किसी से होता है, विवाह किसी से किया जाता है। प्रेम करने के पहले बच्चे माता-पिता से नहीं पूछते, लेकिन शादी के बाबत बात हो तो कहेंगे कि शादी तो माता-पिता की मरज़ी से होगी। तथाकथित प्रेम का यह उथलापन हमारे युवाओं को कितना उच्छृंखल बना रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। नतीज़ा सामने है। बच्ची की मौत का जिम्मेदार कौन है? शायद उत्तर आपको मिल चुका होगा।
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