जसबीर चावला लाल क़ालीन और पड़दादा ''''''''''''''''''''...
जसबीर चावला
लाल क़ालीन और पड़दादा
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मैं शर्मिंदा हूँ आज अपने दादा के पड़दादा पर
मैंने नहीं खोजा उनका नाम
उनके निजी कारनामे
दिलचस्पी नहीं किसी पंडे की बही में
सत्रह सौ सत्तावन प्लासी युद्ध के दिन
तब कहाँ थे मेरे दादा
मीर जाफ़र ही भीतरघाती नहीं था
जगतसेठ भी क़तार में थे
रायदुर्लभ ओम/स्वरूप/मेहताबचंद हैं चंद नाम
अंग्रेज़ों के साथ खड़े थे लाव लश्कर के साथ
जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश भी संभाला
तब कहाँ थे मेरे दादा
कहाँ है दर्ज विरोध की आवाज
इतिहास के पन्ने कोरे अधूरे हैं
'राष्ट्रवादी' पडदादे संग संग मूत देते
मुट्ठी भर अंग्रेज़ बह जाते
शर्म आती है उनकी स्वार्थी चुप्पी पर
तब कहाँ थे मेरे दादा
आज मैं भी चुप्पा दादा हूँ
नहीं कर रहा दादागिरी
ईस्ट इंडिया कंपनी बन देश व्यापार राज कर रहा
बिछा रहे लाल क़ालीन दिल्ली के दादा
शायद शर्म से ग़ुस्साए पड़पोते पूँछें
तब कहाँ थे मेरे दादा
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राजीव आनंद
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं
कि पैदा किए जाने का
दंड माँ-बाप को क्यों दिया जाए ?
अगर वे बचे हुए है तो !
उस घर को माँ-बाप के पनाह में
जहाँ बचपन बिता, जवानी पाया
क्यों यातना-घर बना दिया जाए ?
माँ-बाप के लिए
क्यों बेताब रहा जाए
माँ-बाप को जला देने के लिए
मरने से पहले
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं ?
बूढ़ा असहाय बाप
घिघियाने के सिवा
आततायी बेटे के सामने
और कर भी क्या सकता है ?
जिस हाथों में उसी का लहू
ताकत बन कर दौड़ रहा
उस ताकत का इस्तेमाल आज
बाप को पिटने में क्यों किया जाए ?
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं
माँ जो अब खाना बमुश्किल खाती है
दे नहीं सकती
उसे जिंदा जला देने की बार-बार
धमकी क्यों दिया जाए ?
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं
बेटे की आवाज क्यों दहला देती है
माँ-बाप को क्यों नहीं लगती
उस की पहली आवाज सी
जिसे माँ-बाप ने ही सिखाया था उसे
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरंगडा
गिरिडीह-815301
झारखंड
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राम शरण महर्जन
१ ) वक्त ही बताते
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कठोर होता ये वक्त
प्यारा भी होता ये वक्त |
उमंगों से भरे तो जीवन
रिश्तों को निभाते जब सब
जन्मों से पाया ये निराला सुख
तब तो प्यारा होते ये वक्त |
अह्म से जब अन्धे होते
दुनियां डूब मरे सुख तो 'मेरे' को
रिश्ते-नाते क्या चीज है 'मेरे' को
और को दुःख, तड़प, सताना है 'मेरे' को
तब तो कठोर होता है वक्त
ज़िंदा जब थे सब का बद्दुआ लगे
मरा भी जब ये भटकते आत्मा रहे |
२ ) जीने की वो अंदाज
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जन्मों का नाता जीवन की वो प्यार थी
प्राणों से बड़ा जीने की वो अंदाज थी |
वक्त की पहेली में खोने लगी वो जब से
हँसता-खिलता दुनिया मुर्झाने लगी तब से |
सुख क्या है, प्यार क्या है, भूलने लगी अब
सब कुछ होते भी वो सूनापन में जीते अब |
कौन संभालें अह्म के खायी में गिरे उसको
इंसानियत भी छोटे पड़े जीने की अंदाज से |
जन्म बड़ा है जन्मों से बड़ा और कुछ है
तन बड़ा है तन से भी बड़ा और कुछ है |
३ ) ईश्वर के वरदान से बड़ी
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जन्म देने औरत माँ नहीं बन सकी
माँ का प्यार ईश्वर के वरदान से बड़ी |
दुनिया दारी में उलझते संस्कार ही भूली
सीरियल की औरत की दिमाग आजमायी |
गर्भ की सुख रक्त की नाता को दाग लगाती
नयी सिख आगे बढ़ने की ये क्या राह अपनायी |
मातृत्व, प्यार सामान होते अपने संतान पे
कहावत बने रहे जीने की ये आज का ढंग से |
अपने ही घर अपने ही हाथों बिखरते चले
अपनी ही संतान खून की प्यासे रिश्ते-नाते तोड़े |
सुख भी कैसा प्यास भी कैसा कोई न जानता
तन की सुन्दर मन की काली कब बनी कोई न जानता |
४ ) दौलत भी क्या चीज है
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जीवन अपनी अपने ही हाथों बरबाद की
बदला की तड़प में औरों की राहों में चली |
क्या कुछ न की अपनी सपना सजाने में
दौलत को चुनी छोड़ी सही-गलत परखने में |
दौलत भी क्या चीज है देखने वाले बातें करें
जीना भी क्या जीना है ज़िंदा लाशें सब ने कहे |
क्या सोचा हो क्या पाया ये अपनी ही कर्मों से
दिल को तोड़ने से सपनों में भी लगती हाय दुखियों की |
५ ) आत्मा की आवाज
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बच्चों से मिले हो जाते बूढ़े भी बच्चे
दिल से पूछे तो उम्र भी वो भूल जाते |
खेल देखते खेलप्रेमी खो जाते खेल में
झूमने व हकीकत में होती बड़ी फ़ासले |
आत्मा की आवाज बुलंद होती सदा
बल की शक्ति से कभी दवा नहीं सकता |
काट न सका बातों को खून पीया जुबां को
पत्थर भी पिघले दर्द दिल की कहर से |
दिल धड़क रहे
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कोहरे ढकें
गाँव हुई अँधेरे
पथिक डरें
आगे-पीछे शून्य है
अपना रास्ता
मालूम नहीं कहाँ
स्वर भी नहीं
कौन सा खाई है ये
दैव ही जानें
दिल धड़क रहे
जीवन भी है
समय का खेल है
कोई न जानें
कब क्या क्या होता है
जड़ ना होते
सब बदलते है
संयम रहें
चले रहे रास्ते पे
डरना मत
कब चूमें मंजिल
दंग रहें आप से |
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बलजीत सिंह
उल्फत
मैं
अब से पहले
कंदीर-ए-उजास की मानिंद
अपनी खामोशिओं से उपजे
शोर में जलती थी
अब
आँखें रचने लगी हैं
निराकार सपने
ख्वाबों के महीन धागे
अब टूटते नहीं
मानों बन गयी हूँ मैं
अपनी ही ख्वाहिशों का पर्याय
मेरे मन में कैद रिंद आवारगी
ले जाना चाहती हैं मुझे
बहुत दूर उथले बादलों में
जहाँ की बेपनाह ख़ामोशी
मेरी रूह की
इखलास-ए-इर्शना पहचानती है
मैं खोने लगी हूँ
शर्म्म-ए-संसार में
जहाँ मुझसे जन्मे शब्द
खोने लगते हैं
क्षणिक
चिरपरिचित उजास में
मगर
मेरी आवाज़ की मंजिल पर
मेरे अल्फाज़
शायद कभी दस्तक नहीं देंगें
इसलिए डरती हूँ
इस शहजोर ख्वाइश को
इस अजन एहसास को
शायद
तुम
कभी समझ न सको !
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वीरेन्द्र 'सरल'
मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ
मेरे रोम-रोम में है ईश्वर, मैं वाणी वेद-पुराण की हूँ।
इतिहास मेरा गौरवशाली, मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ।।
सागर है मेरे चरणों पर, मस्तक पर हिमालय की चोंटी।
संस्कार मिला है मुझे ऐसा, मैं बाँट के खाती हूँ रोटी।
मेरे कोख में रतनों की खानें, है गोद में नदियों का कलकल।
है हरियाली मेरे आँगन में, आँचल में हरे-भरे जंगल।
मैं जननी सूर, कबीरा और तुलसी, मीरा, रसखान की हूँ।
इतिहास मेरा गौरवशाली, मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ।।
कहते हैं अन्नपूर्णा मुझको, कण-कण मेरा उपजाऊ है।
मेहनत करने वाले मेरे, बेटे हलधर बलदाऊ है।
है धैर्य-शौर्य गहने मेरे और स्वाभिमान श्रृंगार मेरा।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक, है बहुत बड़ा परिवार मेरा।
प्रतिबिंब मैं त्याग-तपस्या की और कथा अमर बलिदान की हूँ।।
दौलत है ईमान मेरा और सद्साहित्य है समृद्धि।
लक्ष्मी है मेरे बाँहों में, है बाजुओं में रिद्धि-सिद्धि।
हर साँस में मेरा रामायण, शिक्षा में गीता ज्ञान की हूँ।।
इतिहास मेरा गौरवशाली मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ।
वीर जवान
देश पे मरने वालों की जहां, अमर चिताएं जलती है।
देशभक्ति की खूशबू लेकर वहां हवाएं चलती है।
समर भूमि में देशभक्त के खून जहां पर गिरते हैं।
उस पावन भू को महकाने फूल वहां पर खिलते हैं।
यही फूल जरूरत पड़ने पर बन जाते हैं अंगारे।
मातृभूमि की रक्षा करने फिर धरती पर है आते।
मतृभूमि की रक्षा करने, जो देते हैं जीवन दान।
मरते नहीं अमर होते हैं देश के ऐसे वीर जवान।
नक्सली हमले में देश के लिये मर मिटने वाले जवानों की शहादत को नमन और उन्हें अश्रूपरित श्रद्धाजंली।
कविता कवि की वाणी
कभी शोला हूँ, कभी शबनम हूँ, कभी आग कभी मैं पानी हूँ।
तलवार की ताकत है मुझमें, मैं कविता कवि की वाणी हूँ।।
सागर से गहरे भाव भरे, है मुझमें नभ की ऊँचाई।
बेअर्थ नहीं मेरे अर्थों की, है दूर क्षितिज तक लम्बाई।
कब सिमटी हूँ सीमाओं में, है दुनिया भर विस्तार मेरा।
संवेदनशील सृजनशिल्पी , है सच में पहरेदार मेरा।
फूलों की तरह कोमल हूँ मैं, लहरों की मस्त रवानी हूँ।
तलवार की ताकत है मुझमें, मैं कविता कवि की वाणी हूँ।।
हर जोर जुल्म के टक्कर में, हरदम आवाज उठाती हूँ।
भरती हूँ जोश शिराओं में, वीरों का बल बढ़ाती हूँ।
माँ की ममता मेरे भीतर, है करूणा की अश्रुधारा।
अन्याय कभी बर्दाश्त नहीं, मुझे न्याय सदा ही है प्यारा।
दुष्टों के लिए अंगार हूँ मैं, सज्जनों के लिए कल्याणी हूँ।
तलवार की ताकत है मुझमें, मैं कविता कवि की वाणी हूँ।।
इतिहास गवाही है मैंने, मुर्दों को जीवनदान दिया।
पथ दिखलाया पथभ्रष्टों को, जग को अच्छा इंसान दिया।
जो हार चुके थे जीवन से, उनको जीने की दी शक्ति।
कई हृदय शून्य पाषाणों को, मैंने ही दी प्रभु की भक्ति।
मैं हरिशचन्द्र सम सतवादी और कर्ण, दधीचि दानी हूँ।
तलवार की ताकत है मुझमें, मैं कविता कवि की वाणी हूँ।
मैं सदविचार संवेदना हूँ, केवल शब्दों का मेल नहीं।
नवयुग गढ़ना है लक्ष्य मेरा, मैं मनोरंजन य खेल नहीं।
कवि धर्म नहीं निभता जिनसे, दौलत के लिए जो लिखते हैं।
नफरत है मुझको उनसे जो, अन्याय के हाथों बिकते हैं।
मैं ही शिवा, राणाप्रताप और झांसी वाली रानी हूँ।
तलवार की ताकत है मुझमें, मैं कविता कवि की वाणी हूँ।
बेटियां
बेटी गंगा-सी पावन है, बेटी तुलसी है आंगन की।
बेटी धड़कन दिलों का है, बेटी सांसे है जीवन की।
बेटी सृष्टि की जननी है, बेटी श्रृंगार है जग का,
बेटी उल्लास है मन का, बेटी मधुमास मधुबन की।
बेटी करती नहीं मां-बाप से, अधिकार की बातें।
बेटी करती सभी से है, हमेशा प्यार की बातें।
बेटी बोती नहीं हैं बीज नफरत के किसी दिल में,
बेटी शबनम-सी है करती नहीं अंगार की बातें।
बेटी फूलों की डाली है, बेटी पूजा की थाली है।
बेटी लक्ष्मी है, सीता है, बेटी दुर्गा है, काली है।
बेटी है चांद-सी शीतल ,बेटी में तेज सूरज का,
बेटी के ही रौनक से तो होली है दीवाली है।
बेटी फूलों-सी कोमल है, उन्हें अपनी महक दे दो।
बेटी चंचल किरण-सी है, उन्हें अपनी चमक दे दो।
उन्हें मत कोख में मारो ,उन्हें दुनिया में आने दो,
बेटी महकायेगी जग को उन्हें जीने का हक दे दो।
हो यही भावना सबकी
बोये बीज शहीदों ने और हमको मिली फसल है।
मुफ्त में नहीं मिली आजादी बलिदानों का फल है।
कितने शीश कटे और कितनी बही खून की गंगा।
लाखों कुर्बानी के बदले हमको मिला तिरंगा।
आजादी के लिए लड़े जो, दी अपनी कुर्बानी।
नमन आज हम उन्हें करें जो, हुए अमर बलिदानी।
कुर्बानी की गीता पढ़कर, देशभक्ति हम सीखें।
आजादी के कल्पवृक्ष को, तन-मन-धन से सींचे।
आओ शपथ उठायें माटी, तेरा मान रखेंगे।
जान भले ही जाये पर जिन्दा, स्वाभिमान रखेंगे।
अमर तिरंगे झण्डे को हम, झुकने कभी ना देंगे।
आजादी की दिव्य ज्योति को, बुझने कभी ना देंगे।
गणतंत्र के पावन दिन पर, यही कामना सबकी।
प्रगति पथ पर देश बढ़े हो, यही भावना सबकी।
बेटी को भी पढ़ने दो
बेटी वेदों की ऋचाओं की पावन-सी कहानी है।
बेटी मानस के दोहें हैं,बेटी गुरूग्रंथ की वाणी है।
बेटी है नूर आंखों का, बेटी खूशबू है सांसों की,
बेटी बहते हुये दरिया के लहरों की रवानी है।
बेटी सरगम सुरों का है, मधुर संगीत है बेटी।
गुनगुनाये जो मन हर पल इक ऐसा गीत है बेटी।
निराशा के क्षणों में हौसला हरदम बढ़ाती है,
जिन्दगी के हर एक जंग में दिलाती जीत है बेटी।
सपने बुनने दो जीवन के रास्ते स्वयं गढ़ने दो।
मंजिलें तय करने दो, शिखर पर नाम करने दो।
जिगर में हौसला भर दे, उन्हें संस्कार ऐसा दो,
दे दो चाबी सफलता की, बेटियों को भी पढ़ने दो।
वीरेन्द्र'सरल'
बोड़रा ,मगरलोड़
पोष्ट-भोथीडीह
जिला-धमतरी छ ग
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पद्मा मिश्रा
आप सभी को गणतंत्र -दिवस की शुभ-कामनाएं
गणतंत्र हमारा ---
बलिदानो की तप्त धरा पर,शोभित है गणतंत्र हमारा,
संघर्षों के उच्च शिखरपर , फिर गूंजा 'जय-हिन्द'का नारा,
भारत माँ के चरणों पर अर्पित है सर्वस्व हमारा ,
राष्ट्र--ध्वजा के तीन रंग में,आदर्शों की पावन धारा ,
युवा सोच हो,सुदृढ़ इरादे,संकल्पों का वैभव सारा,
संघर्षों के उच्च शिखर पर , फिर गूंजा 'जय-हिन्द'का नारा,
अंधियारे को भेद खिलेगा,उम्मीदों का स्वप्निल सूरज,
नवल प्रगति की दिशा गढ़ेगा,जगमग होगा देश हमारा,
लोकतंत्र की धरती ने फिर नई सुबह को आज पुकारा,
संघर्षों के उच्च शिखर पर , फिर गूंजा 'जय-हिन्द'का नारा,
नव हरीतिमा से पुष्पित हो,जीवन का उल्लास ,सहारा ,
सदा सादगी ,सच्चाई में ,करुणा में विश्वास हमारा ,
आगे बढ़ते प्रगति -चक्र से गतिमय हो परिवेश हमारा ,
संघर्षों के उच्च शिखर पर , फिर गूंजा 'जय-हिन्द'का नारा,
ये चरण शिखर की ओर चलें,
ये चरण शिखर की ओर चलें ,
चाहे कितनी घिरें आँधियाँ -
बाधाएं घनघोर पलें -
संग लेकर सपनों की थाती,
हम नए क्षितिज की ओर चलें,
ये चरण शिखर की ओर चलें ,
जग उठे उम्मीदों का सूरज ,
अभिलाषाओं की भोर तले ,
बढ़ चले कदम फिर रुकें नहीं ,
दृढ़ संकल्पों की ज्योति जले,
ये चरण शिखर की ओर चलें ,
हम नवयुग के जागृत प्रहरी,
संघर्षों में भी झुके नहीं,
साहस के आगे नतमस्तक
मुश्किल पथ पर भी थमे नहीं,
आँखों में जीत भरा सपना,
मंजिल की थामे डोर चले ,
ये कदम शिखर की ओर चलें,
भारत की माटी चंदन है !
चन्दन है भारत की माटी,
जहाँ सत्य-अहिंसा कण कण में,
जन -मन का सहगान बनी,
गांधी के पावन सपनों का ,
साकार रूप -प्रतिमान बनी,
उस माटी को शत बार नमन,
सतकर्मों की सुंदर थाती,
चन्दन है भारत की माटी,
जग में बिखरा अँधियारा तम ,
हमने सूरज बन दिशा गढ़ी
जो नानक-गौतम-ईसा के,
उपदेशों की पहचान बनी,
भारत है जीवित भास्कर सम,
यह सिखलाती श्रम की धरती ,
चन्दन है भारत की माटी,
निराला के प्रति,,,
तुम महाप्राण!,तुम विश्व वन्द्य!,
निर्झर बसंत के गान तुम्ही,
गर्वित तुमसे ही मुक्त छंद ,
जग की करुणा के प्रिय गायक !,
भाषा के हित अर्पित जीवन,
माँ वाणी के सम्मान तुम्ही,
तुम नील गगन के ''सूर्य-कांत''
छाया की माया में पलती ,
सपनों की भावभरी दुनियां,
गीतों में मधुर तरलता थी,
छंदों में बहती थी खुशियां,
हिंदी-गौरव,-अभिमान तुम्ही !
कोमल भावों के सरल बंध !
था मुक्त ह्रदय,-संवेदनता,
''दुःख ही जीवन की कथा रही,''
शब्दों में मेह बरसता था,
पीड़ा भी छू न सकी जिसको,
अंतर में स्नेह बिहँसता था,
कविता के थे दिनमान तुम्ही,
तव अभिनन्दन ,हे सृजन -मान!,
0000000000000000000000000000
जय प्रकाश भाटिया
गरीब माँ ,
उसकी हाथों की लकीरे मिटती गई,
लोगों के झूठे बर्तन मांज मांज कर,
उसकी छाती पे धूल जमती रही,
लोगों के गंदे घर बुहार बुहार कर,
धोती रही घर घर जाकर मैले कपड़े ,
सर्दियों में होकर गीली ठिठुर ठिठुर कर,
कभी आराम नहीं किया --
जिस से चलता रहे उसका घर ,
पुराने चीथड़ों में भी करती रही गुज़ारा -
यह सोच सोच कर की मेरे बच्चे,
अच्छा पहने, अच्छा खाएं ,
और अच्छी तालीम पाएं--
समय गुजरता गया-- ,
बच्चे पढ़ लिख गए,
बड़े हुए, अपने पैरों पर खड़े हुए,
अच्छी नौकरी में लग गए,
ऐशो आराम की ज़िंदगी बिताने लगे,
पर वह गरीब माँ ,
उसकी हाथों की लकीरे मिट गई,
माँ के इस त्याग से ,
बच्चों की किस्मत की लकीरे भी बदल गई,
और यह क़्या --
उनके दिल भी बदल गये.... और
वह गरीब माँ-
आज भी घर घर जाकर
लोगों के झूठे बर्तन मांजती है,
अपना पेट पालने के लिए. - --
24/01/2015
00000000000000000000
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
अरे कोई तो बतलाओ...****(गीत)
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किसने किया श्रृंगार प्रकृति का
अरे, कोई तो बतलाओ !
डाल-डाल पर फूल खिले हैं
ठण्डी सिहरन देती वात
पात गा रहे गीत व कविता
कितने सुहाने दिन और रात
मादकता मौसम में कैसी ,
अरे ,कोई तो समझाओ ।
खेत -खेत में बिखरा सोना
कौन लुटाये बन दातार
रसबन्ती, गुणबन्ती देखो
धरा करे किसकी मनुहार
रंग-महल सी बनी झोंपड़ी,
कारण कैसा, समझाओ ।
स्वागत में किसके ये मन
खड़ा हुआ है बन के प्रहरी
उजड़ा-उजड़ा सँवरा फिर से
बात समझ ना आये गहरी
मेरे मन की,तेरे मन की,
गुत्थी अब तो सुलझाओ ।
भ्रमरों का मधुरिम गुंजन
और तितली का मँडराना
चप्पा-चप्पा बरसे अमृत
नहीं कोई भी बिसराना
आया है 'ऋतुराज' आज अब,
स्वागत में कुछ तो गाओ ।
>
- विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
(गीतकार )
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
स. मा. (राज.)322201
00000000000000000000
मनोज कुमार श्रीवास्तव
मेरा देश आगे बढ़ रहा है,
विकास की सीढ़ी चढ़ रहा है,
हम अज्ञानता के दाग धो रहे हैं,
अब लोग डिजिटल हो रहे हैं,
सब मिलकर बताने वाले हैं,
अब अच्छे दिन आने वाले हैं।
हवा का रूख बता रही है,
जागरूकता तो आ रही है,
विचारों में की स्वच्छता हो रही है,
कुविचारों की छंटाई हो रही है,
दकियानूसी विचार कतराने वाले हैं,
क्योंकि अच्छे दिन आने वाले हैं।
नवपीढ़ी का साथ निभाएं,
अधिकारों को कर्तव्य सिखाएं,
तो आओ हम सब जोर चलें,
नवभारत की ओर चलें,
सफलता थाल में सजाने वाले हैं,
अब 'अच्छे दिन' आने वाले है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
देशभक्ति
क्या तुम्हारी आत्मा में आवाज है?
अपने दुष्कृत्यों पर तुम्हें लाज है?
क्या तुम्हें छोटों से स्नेह है?
क्या परमार्थ तुम्हारा ध्येय है?
क्या तुम्हारी वाणी नर्म है?
क्या मानवता तुम्हारा धर्म है?
क्या गरीबों से दुआएं लेते हो?
क्या असहायों को स्नेह देते हो?
अधिकारों के साथ कर्तव्य निभाते हो?
बड़े तो हो पर बड़प्पन दिखाते हो?
अन्याय देखकर तुम्हारा मन तुम्हें धिक्कारता है?
तुम्हारे अपराध को तुम्हारा हृदय स्वीकारता है?
अपने स्वार्थ की होली क्या तुमने कभी जलायी है?
क्या तुम्हारे विचारों में देश की भलाई है?
अगर इन बातों को सहज ही,
तुझमें स्वीकारने की शक्ति है,
तो मैं भी गर्व से कहता हूं,
ये तुम्हारी सच्ची देशभक्ति है।
मनोज कुमार श्रीवास्तव
शंकरनगर नवागढ़
जिला बेमेतरा
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अंजली अग्रवाल
मेरी उड़ान
अब मैं भी स्कूल जाऊँगी......
अपने सपनों को पंख लगाऊँगी......
जिन्दगी को जिन्दगी बनाऊँगी......
तोड़ दूँगी में ये झूठी जंजीरों को.....
अब चली मैं उड़ने को......
क्या रोकेगा मुझे ये जमाना,
मैं वक्त को अपने साथ लेकर चली......
कह देना ऊपर वाले से..........
मैं अपनी तकदीर खुद लिखने चली....
हौसलों से भरी मेरी नाव को किनारे तक मैं लगाऊँगी......
पराया धन को अब किस्से कहानी मैं बनाऊँगी......
ढूँढ लिया है मैंने अपने आशियाने को......
चली मैं आसमान छूने को......
बुझी हुई आग थी मैं जिसे चिंगारी मिल गयी.....
अंधकार से भरी इस जिन्दगी को रोशनी मिल गयी.....
उठ गयी हूँ मैं ....
खुली आँखें से सपने देखने को....
अपनी कटी पतंग उड़ाने को.....
चली मैं आसमान छूने को......
अपने हौसलों की उडा़न भरने को......
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देवेन्द्र सुथार 'बालकवि'
ऊँचा है मस्तक राजस्थान का
वे जौहर वाली धरती है स्वतंत्रता की दीवानी।
टूट गई पर झुकी नहीँ इसकी चट्टानेँ तूफानी॥
जब जब दुश्मन ने ललकारा चमक उठे बरछी भाले।
सर से कफन बाँध कर निकलेँ केसरिया बाने वाले॥
इसके प्राणोँ मेँ ज्वाला है युग व्यापी हुंकार की।
इस धरती का कण कण मानी धनी रही तलवार की॥
गोरा बादल समर भूमि मेँ प्रलय मेघ बन टूटे थे।
काँप उठी थी वसुन्धरा खिलजी के छक्के छूटे थे॥
उधर पद्दिमनी के जौहर ने पानी रखा मान का।
जिससे हिमगिरी सा ऊँचा है मस्तक राजस्थान का॥
राख हुई जलती ज्वाला मेँ कलियाँ जुही गुलाब की।
बिखर गये मोती सारे पर इज्जत मिटी न आब की॥
जब भी सरहद से दुश्मन ने पौरुष को ललकार दी।
तब इस धरती ने सोई तलवारोँ को झंकार दी॥
इसने साँगा को जन्म दिया जिसने दिल्ली तक दहला दी।
जिस दिन बाबर ने ललकारा धरती शोणित ने नहला दी॥
अस्सी घावोँ पर भी साँगा तुमने तलवार नहीँ छोडी।
इस वीर प्रसूता धरती के गौरव की आन नहीँ तोडी॥
कट गया पैर,कट गई भुजा घावोँ से रक्त बह रहा था।
फिर भी राजस्थानी नाहर घावोँ पर घाव सह रहा था॥
वह गंगा का पावन जल था अपनी गति मेँ निर्बाध रहा।
अस्सी घावोँ वाला साँगा अन्तिम क्षण तक आजाद रहा॥
पूछो खूनी चट्टानोँ से क्या कहती है हल्दीघाटी।
सचमुच वीरोँ का चन्दन है जिसकी बलिवेदी की माटी॥
सावन मेँ पर्वत की धारा चट्टानी सीना चीर बही।
उस तरफ प्रतापी पौरुष से मेवाड धरा की लाज रही॥
जिस दिन चेतक की टापोँ से रण का विप्लव आरंभ हुआ।
आजादी के उस दिन से ही दुर्जय नारा प्रारंभ हुआ॥
राणा प्रताप के हाथोँ मेँ जिस दिन अजेय भाला आया।
उस दिन स्वतंत्रता का दीपक जल प्राणोँ मेँ ज्वाला लाया॥
तोपेँ गोले बरसाती थीँ,होता था शोणित से तर्पण।
राणा प्रलयंकर शंकर से करते रण मेँ ताण्डव नर्तन॥
आखिर मेँ वह क्षण भी आया घिर गये वैरियोँ से राणा।
कोहराम मच गया सेना मेँ, दौडो मरमिटो घिरे राणा॥
बस उसी समय राजस्थानी धरती का मतवाला आया।
वह मूर्तिमन्त कुर्बानी सा ज्वाला बनकर झाला आया॥
अपने ही शोणित से रक्षा की थी उस दिन बलिदान ने।
जब जब जौहर का ज्वार जगा घुटने टेके तूफान ने॥
लिखे खून से इतिहासोँ के पन्ने राजस्थान ने।
हर हर महादेव का स्वर दुहराया हर चट्टान ने॥
-देवेन्द्र सुथार 'बालकवि'
गांधी चौक, आतमणावास, बागरा,जिला- जालौर,राजस्थान 343025
ई मेल-devendrasuthar196@gmail.com
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