किसके लिए? रामानुज मिश्र पुरानी डोंगी सी खंखड बंसखट पर चित्त पड़ा बैजू किचराई आँखों से छाजन की कड़ियाँ गिन रहा है एक-एक कर। अतीत के तेजी से ग...
किसके लिए?
रामानुज मिश्र
पुरानी डोंगी सी खंखड बंसखट पर चित्त पड़ा बैजू किचराई आँखों से छाजन की कड़ियाँ गिन रहा है एक-एक कर। अतीत के तेजी से गुजरे उन पलों को अपनी बेजान अंगुलियों से सहला रहा है। चारपाई पर लेटे-लेटे कितने दिन बीत गये, वह गिन तो नहीं सकता पर आज भी जब बंसखार में तेज पुरवैया घुसती है तो उसकी सरसराहट को महसूस कर अंदाज लगा लेता है कि बरसात अभी गई नहीं है। तब उसके भीतर तिल-तिलकर मरनेवाला आदमी कुछ पहर के लिए जिन्दा हो जाता है और भरभरा कर खत्म हो जाने वाली जिन्दगी ठहर जाती है। वैसे रिश्तेदारों ने कई बार कहा कि लकवा मरणान्तक बीमारी नहीं लेकिन वह अपने मन का क्या करे जो बार-बार अधमरा हो जाता है। समय की मार से पलकें खुलती कम हैं, बन्द ज्यादा रहती हैं। आज उन बन्द पलकों में बरसों गुजरी माँ का चेहरा नजर आ रहा है। तमाम हिलते-डुलते चेहरों में बाबू तो पहचान में नहीं आ रहे हैं पर उस जमाने की एक धूप चटख हो रही है, बाप का चेहरा साफ हो गया है।
तब यह बैजू नहीं था, न ही बैजनाथ-था भी तो केवल बैजुआ। बाप के पास एक जर्जर मडई थी। टटरे से अलग कर तीन हिस्से बने थे उसमें। एक में धान का भूसा. दूसरे में लंगड़ी गाय जो लोटा भर से ज्यादा दूध नहीं देती थी, तीसरे में चूल्हा चौका और उसी में बची जमीन पर सोते थे तीनों जन। भूले-भटके अगर कोई मेहमान आ भी गया तो गोईठेवाले छपरे में जाना पड़ता किसी एक को। खेती के लिए जमीन कहीं थी, मुश्किल से दस बारह बिस्वा।
आँख खुलते ही बैजू को प्यास लग गई। चारपाई की दाई पाटी के नीचे रखे लोटे को टटोलने लगा। लोटा एकदम खाली था, अंगुलियों को छूने भर से जमीन पर लुढ़क गया। चटकते गले ने हिम्मत पैदा की- वह पोती को बुला ले। एक वही तो है जो दादा की भूख -प्यास को समझ लेती है। गलगलाती सी अस्पष्ट आवाज दालान की ओर जाती है. पर कोई जवाब नहीं आता है वहाँ से। अब चिल्लाना ठीक नहीं। पतोहू के तेवर को जानता है वह। अभी भड़केगी- 'बुढ़ऊ के तरास छन-छन लगय ले। नटई में लोटवा काहें नाहीं बान्ह लेतयँ। ' घूँट-घूँट उभर आयी प्यास को बैजू ने भटका देने की सफल कोशिश की। फिर उसकी मलीन आँखें ओसार के गौखे से निकल दरवाजे के सहन पर टिक गयीं। भुसबुल की भीत पर जुआ पड़ा है उसी की तरह निर्जीव खामोश। हरिस अनाथ हो धरती पर पड़ी है-कितने जतन से गढ़वाया था उसने चिल्लू लोहार से। समय हाथ छुड़ाकर भाग रहा था पीछे की ओर।
जुलजुल माई-बाऊ के जाते-जाते उसके पास तो वही जमीन थी। बाऊ थक गये, चले भी गये, इस धरती मैया से पेट नहीं भरा सबका। बाऊ के जाते ही जिन्दगी को आगे ढोने का भार जब उस पर पडा, उसने गौर से निरखा अपने जमीन के हिस्से को। यह कोडार बन सकती है। उस साल बैंगन ने साथ दे दिया उसका। बड़े शहजोर पौधे थे। सबेरे-सबेरे कुदाल लेकर खेत में पहुँच जाता। पौधे के नीचे बैठ निराई-गुड़ाई करता। बैंगन की काँटेदार पत्तियों से पीठ छिल जाती। दिन चढ़ते-चढ़ते पसीने से सन जाती सारी देह। चक-चक पसीना माथे पर मुँह पर, पीठ पर। थकावट जैसे डर जाती थी। जब बेर कन्धे पर खड़ी होने लगती, भूख की तलब होने पर बीच-बीच में खडा हो जाता। उसकी घरवाली भुवरी भी देर करना नहीं जानती। सिर पर पानी का बडा लोटा धरे हाथ में प्याज गुड समेत रोटी लिए उसके पास आ धमकती। देह की सारी थकान उसके माथे की बड़ी गोल बिन्दी में पलक झपकते ही खो जाती।
अभी लाल टिकासन बिन्दी की चमक स्मृतियों से ओझल भी नहीं हुई थी कि बैजू को आना पडा फिर ओसार में। दरवाजे को ठेलकर करिअवा कुक्कुर झाँक रहा था। बाहरी अलंग सूंघते-सांघते अब भीतर आने की फिराक में है 1 कुत्ता भी जान गया है कि झलंगी खटिया पर लेटा आदमी जिन्दा होने का एहसास भर है। उसे पता हो गया है कि यह आदमी न उसे दुरदुरा सकता है, न ही पैना फेंककर मार सकता है। पर बैजनाथ अभी इतना भी नहीं मरा है कि वह आवारा कुत्ते की नियत भी न भांप सके। दालान के दरवाजे को बन्द पाकर कुत्ता वापस लौट रहा है -लगता है वह समझदार भी है। उसने मान लिया है कि चारपाई पर पड़े आदमी की शक्ल जिन्दा है। कुत्ता तो बाहर चला गया उसकी प्यास फिर उभर आयी। आधी जानवाले हाथ को नीचे करता है पर लोटा तो अभी भी लुढ़का पडा है। उसके भीतर का बचा-खुचा सब खाली हो जाता है। बाहर सहन में धूप और कड़ी हो गयी है।
उस साल बैंगन का बड़ा अच्छा दाम मिला। एक-एक बोरे से इतना मिलना शुरा हो गया कि जिन्दगी की अधूरी साध पूरी होने के पास तक पहुँचने लगी। मण्डी से लौटते समय अब उसके जेब में नोट ही नोट होते। इतने पैसे जरूर मिल गये कि उसने बगलवाले डेढ बिगहवा को रेहन पर उठा लिया। खेत बढा तो मेहनत भी बड़ी। सपने सुने हो गये। रेहनवाली जमीन से इतना अन्न पैदा हुआ कि घर में रखने की जगह नहीं बची। अगले दशहरे पर भी नरमू अपना खेत नहीं छुड़ा सका। खुशी अकेले नहीं आयी-भुवरी ने बताया कि वह पेट से है। सपनों की बैलगाडी में बैठ गये दोनों। पहले मड़ई की जगह खपरैल की चौखुट बनेगी। साल दर साल छान्ह की मरम्मत करनी पड़ती है।
फसल की कटाई खतम होते-होते उत्तरवाली छान्ह को हटाकर बैजू नींव खोदने लगा। पन्द्रह हाथ चौड़े, सत्रह हाथ लम्बे घर की नींव एक आदमी के वश की बात तो थी नहीं। पर उसने हिम्मत नहीं हारी। दिशा फिरागत के बाद बिना दतुवन किये फरसा लेकर डट जाता। घर-बासन, झाडू- बुहारू और कलेवा बनाने के बाद मुंदरी भी उसके साथ हो जाती। खचिया भर-भर खोदी मिट्टी बाहर निकालती। साल पूरा होते-होते उत्तरवाली मडई खपरैल में तब्दील हो गयी। अब आँधी बवण्डर में छान्ह के उडने-टूटने का भय भी नहीं रहा।
अभी वह अपनी बखरी निहार ही रहा था कि बरामदे का दरवाजा भड़का। पट्टीदारी का लड़का है। दालान बन्द देख वह समझ गया कि उसके मतलब का आदमी घर में नहीं है। एक बेकार और मरने के करीब बुढ़वा चारपाई पर पड़ा है। यह तो लडका ही है। सयाने ही कौन उसके पास आते हैं? हाँ उस दिन जब उसे हवा लगी, मुहल्ला टूट पडा था। पर यह सिलसिला कितने दिन चला-यह सोचने से क्या फायदा? लड़का देखते-देखते बाहर निकल गया।
दरवाजे की फांफर से रामनाथ भाई की चौखुट बखरी साफ दिखाई दे रही है। नम हो चली पुतलियों को दायें हाथ की अंगुलियों से पोंछने का अधूरा यत्न करता है...। उसकी अपनी भी तो बखरी है, बीस हाथ लम्बा ओसार भी जिसमें कुछ दिन पहले दो-दो मजबूत चौकियाँ पड़ी रहती थीं। दोनों पलंगरी तो बेटा नरेश भीतर ले गया। लग रहा बेकार है ये सब सोचना याद करना। पाटी पर धरे हाथ की अंगुलियाँ हरकत में आती हैं। दूर पड़ी चौकी से निगाह अब भी नहीं हटी। अलगू बढई के साथ कितना रन्दा चलवाया था उसने। हाथ में जब फफोले पड जाते तो लत्ता बाँधकर काम पूरा कराया करता था।
दिन पोरसा भर ऊपर चढ़ आया। पुसवा भी पढ़कर नहीं लौटी। नरेशवा जरूर खेत में फँस गया है। बैजू को भूख कबर आयी थी, तरास तो दब गयी। दाई अंगुलियों को सहलाने की फालतू कोशिश करता है अभी कुछ जान बची है दायें में। मुँह पर भिनभिनाती मक्खियों को भगाने की ताकत भी कहीं बची है। भूख को दबाते-दबाते मन किसी और दिशा में चला जाता है। ऑखें मुंद जाती हैं अब तो इनमें इतना भी पानी नहीं कि पिचके गालों को गीला कर सकें। उसे राहत मिल जाती है जब पुतरी से दो-चार बूँदें बाहर निकल पडती हैं और जीवित होने के एहसास को दुबारा साबित कर जाती हैं। कुछ देर पहले की तरह फिर खामोशी उसके भीतर पाँव फैला देती है।
भीतर-बाहर पसरी खामोशी तब टूट जाती है, जब पडोस से बैंडबाजे के स्वर बरामदे में बेरोक- टोक घुस आते हैं- शादी है किसी की। औरतें लावा आनने जा रही हैं। बैंडबाजा तो उसने भी बजवाया था नरेश बेटवा के बियाह में। पट्टीदार भज्जन बड़ा खुरपेंचवाला आदमी है किसी की बढ़ती उसे सुहाती नहीं। बैजू को उसकी तब की बात हूबहू याद है- फिजूल खर्च क्यों कर रहे हो? मन्दिर से कर लो। अकेली जान हो, पंडित पुरान का खर्चा बेमतलब है। गाड़ी-घोड़ा, बैंडबाजा सब फिजूलखर्ची है। उसने भी करारा जवाब दिया था, सब याद है। 'क्या कमी है उसके पास?' बारह बिस्से से बढ्कर साढ़े सात बिघा खतौनीवाला काश्तकार है. फिर एक ही लडका। बेटवा की शादी फिर तो होगी नहीं। धूमधाम से शादी की। पैसा भी मिला था दहेज में।
दरवाजा किसी ने नहीं भड़काया, अतीत-यात्रा जारी रही। भत्तवान के दिन जब पीढे पर कथा के लिए बैठा, बायें तरफ की जगह एकदम खाली थी। वहाँ अब तक भुंवरी को गोड़ रंगा के बैठ जाना चाहिए था। खपरैल की ओरवानी की ओर निगाह उठी- सचमुच वह पागल बौराह है अरे ऊपर जानेवाले कभी लौट के आते हैं? भुंवरी मलकिन तो गृह प्रवेश के दिन ही उससे हाथ छुड़ाकर चुपचाप चली गई। एक दिन का भी मौका नहीं दिया। किसी बीमारी ने भी खबर नहीं दी उसको। 'बैजनाथ भगत हाथ में अक्षत फूल ले लो' कथावाचक पंडित ने कहा था। सच है इस तरह चले जानेवाले कभी लौटते हैं भला? आँखों की कोर में अटके दो बूंद आँसू अचानक गालों पर लुढ़क आये, उसने उन्हें पोंछने की भी कोशिश नहीं की।
भूख दब गई, प्यास भी नहीं उभरी। उस समय न ही कोई लड़का न तो कोई कुत्ता ओसार के अकेलेपन की एकरसता को भंग करने के लिए आया। दरवाजा खोल नरेशवा की दुलहिन आ गयी। कुछ पलों के लिए छागलों की छमाछम ने बेसुरे सूनेपन में कुछ मीठे स्वर भर दिये। लगा भुंवरी लौट आयी है बखरी में। मन हो रहा है पीछे-पीछे वह भी जाये। जल्दी ही मन ने समझाया ' घर के भीतर, ऑगन में, दालान में जाना ठीक नहीं। जो भीतर गया है उसका ऑगन है दालान, भीतरी कमरे सब कुछ उसके हैं। यह अधिकार तो तभी उससे छिन गये, जब घर में बहू आ गयी। तुलसी चौरे पर एक लोटा जल चढ़ाने की बड़ी इच्छा होती थी। अब तो बस वह सोच सकता है कि इस वक्त निवाले आकाश में कौन सा परिन्दा उड़ा होगा। कुछ जानवाली बायीं कलाई हिलती-दुलती है-यह जिन्दा है। एक बाहरी औरत ने उसके सपनों की नींव पर खडी बखरी को उससे छिन लिया। वह कैसे धीरज धरे कि ऐसा होता ही है? मालकियत को सभी मिलकर लूट रहे हैं। बेटवा-पतोहू की क्या कहे, भगवान ने भी उसकी भुंवरी को बलपूर्वक छीन लिया है। कितने दिन हो गये-ऑगन की धूप देखे।
हवा के तेज झोंके ने उढ़के दरवाजे को खोल दिया है। रोशनी का एक बड़ा गोला बरामदे में घुस आया। अब उसके पास क्या बचा है? जीते जी जमीन का मालिक हो गया नरेश।' उसकी घरवाली ने पूरी बखरी पर कब्जा कर लिया है। हल, बैल, गाय, भैंस एक भी नहीं कब्जे में। पुरवाई की झुरझुर को विधाता ने छीन लिया। पछुवा को कन्धा सहलाने से समय ने रोक दिया। अब तो उसके हिस्से पड़ी है यह झलंगट खटिया जो दिशा-पेशाब के लिए बीच में काट दी गई है। उसके इर्द-गिर्द है तो अब बदबूदार बास और अपमान भरी तिरस्कारपूर्ण बेटे-पतोहू की निगाहें 1 समय-समय दिशा-पेशाब साफ करते बेटे की टेढी निगाहों को लेने की क्षमता भर ही बची है उसके पास।
गली में लड़ते-झगड़ते कुत्ते बैजू के दुआर तक आ पहुँचे। ताकत होती तो उठकर दो-चार बार लाठी भांज देता। बेटा-पतोहू के घर लौटने कीं आहट सूंघ रहा है। भीतर छिपी भूख नये सिरे से फिर उठ रही है। आगे-आगे नरेश है पीछे उसकी मेहर। बैजू की डूबती, उतराती आँखों ने देखा-पसीने से लथपथ होने के बावजूद दुलहिन के माथे की बिन्दिया जरा भी धूपित नहीं है...। भुंवरी भी तो ऐसी ही बिन्दिया लगाती थी लेकिन उसकी जरा बड़ी थी। दनदनाकर दोनों बखरी के भीतर चले गये। बैजू ने महसूस किया, आज बड़ी गर्मी है... कब सांझ होगी।
सांझ से मिलकर रात जाने कब ओसार में घुस आयी। बाहर सहन में टहकार अजोरिया फैल रही है। बैजू साफ-साफ देख रहा है, भीतर का अंधेरा अजोरिया से लड़ रहा है। आज की चाँदनी अजीब है. उसे बार-बार खींच रही है उस अजोरिया के पास.... तब उसने अमवारवाले बगीचे में बनाया था कोल्हुवाड़। आम की घनी पत्तियों से छनकर किरणें कराहे में उछलते मटमैले लाल रस पर पड़ रही थीं। बड़े-बड़े बुलबुले ऊपर उठकर चाँद की शीतलता को अपनी बाहों में भर रहे थे। खोइया पर लेटा बैजू आसमान से झर रही चाँदी को अपनी जेबों में भरने लगा। घरवाली ने अभी उसे आराम दिया है। खुद झोंक रही है खर-पतवार भट्ठे में। चूल्हे से निकलती लपटों से उसका मुँह लालटेस हो गया है। तन्द्रा से लौटते हुए बैजू की निगाह भुंवरी के लवंग पर पड़ी, जहाँ चाँदनी की एक किरण ठहर गयी थी। देखने लगा वह एकटक। कराह झोंकती भुंवरी की निगाह भी पडी उस पर। आखिर आज क्या है उसके चेहरे पर? दोनों की एकटक जुड़ी निगाहों में अब कोई प्रश्न नहीं था, केवल उत्तर था, जिसे हल कर दिया था पति-पत्नी के रिश्तों के गुरुत्वबल ने। उछलते कराहे की उछलन दो शरीरों में समा गयी। नये बनते गुड की मादक गंध ने विस्मृति के बंधन में उन्हें जकड़ लिया।
. नारी-पुरुष की आदिम काम यात्रा से लौटते हुए भुंवरी ने घूर-घूर कर उसे देखा-इस वक्त यहाँ कैसे हो गया ये सब? तब न बैजू के पास कोई शब्द था. न ही भुंवरी के पास। वह ताकने लगी तिरछी निगाहों से.... गुड़ अपवित्र हो गया। लेकिन बिगड़ते-बिगड़ते भी वह गुड़ मीठा बना और स्वादिष्ट भी। पर मालकिन ने उसे अलग ठिल्ली में रख दिया और जब वह पास-पड़ोस से रंडी, लौंडों का नाच देख घर लौटता-उसी गुड की मांग करता, भुंवरी कुछ बोलती नहीं, पर आँखें जरूर तरेर देती।
अजोरिया सरकर कब आसमान में चली गयी. बैजू को पता नहीं चला। दिन की तेज रोशनी खिड़की को ठेल बरामदे में फैल गयी थी। बिहान हो गया। भीतर का दरवाजा खुलेगा अब, नरेश उसके पास आते-आते तिरछी निगाह से घूरेगा। नाक दबाकर ओसार झारेगा. फिर बस्साते गू-भूत साफ करेगा। पतोहू तो बस आधी कटोरी दाल तरकारी इसलिए देती है कि बुड्ढा अधिक खायेगा-पियेगा तो टट्टी-पेशाब भी ज्यादा करेगा। कौन साफ करेगा नरक?
आज बैजनाथ को साफ-सफाई करते नरेश की घिन्नाती आँखें नहीं दिख रही हैं। ऊपर जाकर मालकिन को जरूर बतायेगा कि मेरा बेटा.. .हमारा बेटा कितना लायक है, भुंवरी जरा भी घबराना मत।
तुम नहीं जानती न. एक गौरैया गौसे से होकर कल मेरे पास आई थी। उसने बताया, कितनी बेसब्री से मेरा इन्तजार कर रही हो तुम। मैंने तुम्हें इतना सताया, लम्बा इन्तजार कराया। माफ करना. मैं आज ही तुम्हारे पास आ रहा हूँ।
संपर्क:
मोबाईल - 8400437691
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