दीपक शर्मा ' सार्थक' का व्यंग्य - भलमनसाहत की चाहत

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अरे वो भले आदमी हैं.… पडोसी के बारे में ऐसा सुनते ही जी हुड़क के रह गया। ये तो कहो कि डाक्टर ने रक्त परिवहन में ज़्यादा ट्रैफिक को देखते हुए...

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अरे वो भले आदमी हैं.… पडोसी के बारे में ऐसा सुनते ही जी हुड़क के रह गया। ये तो कहो कि डाक्टर ने रक्त परिवहन में ज़्यादा ट्रैफिक को देखते हुए बाईपास रुट (सर्जरी )बना दिया था, नहीं तो हृदयाघात होना तय था।

उसी दिन से ठान लिया की मैं भी भला आदमी बन कर दिखाऊंगा। उसके लिए सबसे पहले तो मैंने अपने एक तथाकथित भले मित्र के साथ रहना प्रारम्भ किया क्योंकि 'संगत से गुण होत है,संगत से गुण जाए। ' ऐसा मैंने अपने मनपसंद दारू के ठेके के सामने जो गांधी महाविद्यालय है,वहां की दीवार पर लिखा देखा था। शरीर में बह रहे देसी ठर्रे के साथ तैरती हुई यह बात सीधे कलेजे में चिपक गई थी।

मित्र वाकई भला आदमी निकला क्योंकि मैंने देखा कि उसके मोहल्ले के चौरसिया साहब उनकी बीबी पर खुलेआम चारों तरफ से रस की वर्षा कर रहे थे परन्तु मजाल है कि उन्होंने कभी भी इसका विरोध किया हो। मित्र में भलाई कूट -कूट के भरी थी। वे रास्ते चलते भी लोगों का भला करने में विश्वास रखते हैं। फिर एक ऐसी घटना घटी जिससे मुझे भलाई के साइडफेक्ट देखने को मिले। बात कुछ ऐसी थी कि एक बार रास्ते पर मैं उनके साथ जा रहा था। सामने स्कूटी पर एक लड़की आ रही थी ,दिन में भी स्कूटी कि लाइट जलती देख मित्र की भलमनसाहत जाग उठी और वे बार-बार मुट्ठी बंद करके खोलने लगे जो सामान्यतः लाइट जलने का इशारा होता है। पर हाय रे किस्मत वो लड़की उसे कुछ और ही समझ बैठी और स्कूटी से उतर कर अपनी सैंडिल से उनकी धुलाई करने लगी। भलाई को इस तरह बीच सड़क पर पिटते और बेआबरू होते देख कर मैं सहम गया। उनकी ये दशा देख कर मेरा मन करुणा से भर गया। मैंने उनसे कहा भाई ये तो बहुत बुरा हुआ। वे कराहते हुए बोले 'नेकी कर दरिया में डाल।' मैंने कहा फिलहाल नेकी करने वाले को हॉस्पिटल में डालने कि ज़रूरत है।

फिर क्या था मैंने उन्हें रोड से बटोरा पर फिर भी उनकी भलमनसाहत के कुछ अवशेष (खून की छीटें ,दो तीन दांत )वही रह गए। मैंने उनसे कहा -आपको ऐसा नही करना चाहिए था तो वे दर्द में भी अपने २४ दन्ती मुख से बोले (२४ दन्ती इसलिए क्योंकि दो चार दांत वही रह गए थे )-मैंने तो मात्र अपने धर्म का पालन किया है। मन ही मन मैंने सोचा, ऐसा धर्म किस काम का जिससे मासिकधर्म आने लगे।

इस घटना से मैं इतना तो समझ ही गया कि भलाई बलिदान माँगती है। बात अगर 'नेकी कर दरिया में डाल 'तक ही सीमित होती तो मैं अपने भले आदमी बनने वाली शपत पर कायम रहता पर यहाँ तो लोग नेकी करने वाले को ही दरिया में डाल देते हैं। ना जाने कितने देवी देवताओं की पूजा करते हैं फिर उनकी मूर्तियों को बाकायदा गाते बजाते ले जाकर दरिया में डुबो (विसर्जित ) देते हैं। पर्यावरण का भला चाहने वाले कुछ पर्यावरणविद ने काना फूसी करना शुरू कर दिया है कि इस विसर्जन से नदियाँ, तालाब आदि जल के स्रोत प्रदूषित होते जा रहे हैं। वैसे मुझे इन भले लोगों से बड़ी सहानुभूति है क्योंकि ये लोग बिचारे कानाफूसी ही कर सकते हैं। ये जानते हैं कि जो लोग अपना भला करने वाले भगवान तक को डुबो देते हैं वो उनका क्या हाल करेंगे ये जग जाहिर है।

मुझमें सहानुभूति पैदा हो गई इसका मतलब है कि मुझमें भी भलमनसाहत के गुण पैदा हो रहे हैं। संवेदना और सहानुभूति ये दोनो नेकी के दो हथियार हैं, भले आदमी खासकर नेता (धरती पर पाया जाने वाला सबसे भला जीव नेता है ) इन दोनों शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक करते हैं। ट्रेन हादसा हो गया , सौ लोग मर गए। फिर नेता जी ने टीवी पर दर्शन देकर कहा की मुझे मरने वाले लोगों के परिवार के साथ बड़ी सहानुभूति है और मैं बहुत सारी थोक के भाव में संवेदना व्यक्त करता हूँ। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये शब्द (संवेदना ,सहानुभूति )दिवालिया हो गए हैं।

भलमनसाहत चुनाव के मौसम में अपने शबाब पर होता   है। ये एक ऐसा मौसम होता है जब देश के सभी नेताओं के शरीर में ईश्वर द्वारा बनाए गए सभी छिद्रों से भलमनसाहत बहने लगती है। ये नेता हमारे पालनहार हैं पर अभी हाल ही में एक बेचारे भले नेता को देश की अदालत ने चारा घोटाले में सजा सुना दी ,बताइये ये कहाँ कि भलमनसाहत है। अगर सबका पालनहार विष्णु दूध के सागर (छीर सागर ) में रहे तो कोई बात नहीं और देश का पालनहार (नेता ) अगर थोड़ा चारा भी खा ले तो इतना हल्ला .......... भलाई का तो ज़माना ही नहीं है। बिचारे भले लोग ज़्यादा कुछ नहीं चाहते हैं.……ज़्यादा के नहीं लालच हमको थोड़े में गुजारा होता है। और ये 'थोड़ा ' है क्या ?

रहीम ने ने इस 'थोड़े ' कि व्याख्या करते हुए कहा है -

रहिमन इतना दी जिए ,जामे कुटुम समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ , साधु ना भूखा जाय

इस दोहे के माध्यम से रहीम कहना चाहते हैं कि हे मनुष्य! रहीम से केवल उतना ही मांगो (हालांकि रहीम खुद फटीचर थे ) जिसमे कुटुंब समा जाएं पर समस्या कि ये साले कुटुंब चाहे जितना ही धन इकट्ठा कर लो …… समाते ही नहीं हैं। दोहे के अगले भाग में स्वयं की भूख तथा साधु की भूख की बात कही गई है। साधु बेचारा धन की भूख ,काम की भूख ,सम्मान की भूख से परेशान है। ऐसी ही भूख के चक्कर में दो चार बाबा जेल की हवा खा रहे हैं। बेचारे …कहीं हवा खाने से पेट भरता है। समाज का पतन होता जा रहा है। भले लोगों का तो जीना ही मुहाल है।

जितने भी भले आदमी या संस्था हैं वे किसी ना किसी कारण से परेशान ही हैं। मीडिया को ही ले लीजिए लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ , भलमनसाहत का प्रतीक पर आज कल इलेक्ट्रानिक मीडिया बीमार चल रही है। असल में ज्यादा टी आर पी और लाभ की भागदौड़ में बेचारी इलेक्ट्रानिक मीडिया का पेट खराब हो गया है उसे बार-बार ब्रेक रूपी दस्त आने लगे हैं। कोई गंभीर चर्चा चल रही है, पाकिस्तान भारतीय सीमा पर फायरिंग कर रहा है सत्ता पार्टी का प्रवक्ता लम्बी-लम्बी लपेट रहा है कि पत्रकार बीच में टोक कर कहता है- जनाब थोड़ा रुक जाइये ब्रेक पर जाना है। एक घंटे में चालीस मिनट तक तो दस्त के मारे ब्रेक में ही निकल जाते हैं। ये इतनी लापरवाह है कि इस बीमारी का इलाज तक नहीं कराते हैं जबकि बार-बार दस्त से बबासीर का खतरा रहता है।

बात भलाई कि चल रही थी और और फिर दस्त से होते हुए बबासीर तक पहुँच गई , भाईसाहब भलमनसाहत चीज ही ऐसी है फिर भी मानवता कि भलाई के खातिर महान लोग ना जाने कितने कष्ट उठाते हैं। बुद्ध सत्य की खोज में ना जाने कहाँ-कहाँ भटके और अंत में एक बरगद के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसका मतलब ये नहीं है कि ज्ञान केवल बरगद के नीचे ही मिलेगा,तबीयत से अगर पाखाने में भी बैठ कर सोचे तो वहाँ भी ज्ञान मिल सकता है। ऐसी ही शोध में लगे एक सज्जन ने मुझे बताया की सत्य का स्वरूप कुछ नहीं है ,सत्य तो परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। महावीर को नंगा देख कर श्रद्धा पैदा होती है जबकि आमिर खान को एक पोस्टर में अधनंगा देख कर नैतिकता का ह्रास नज़र आता है। यही नैतिक व्यक्ति अपनी अम्मा कि उम्र कि औरत को भी निर्वस्त्र देखने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं। शॉपिंग मॉल में अंडरगार्मेंट पहने खड़े स्टैचू को भी ऐसे देखते हैं कि वो नर्जीव स्टैचू भी शर्मा जाये।

ऐसे  भले व्यक्ति बड़े भावुक भी होते हैं बात - बात पर इनकी 'भावना' के साथ छेडख़ानी हो जाती है मैं ऐसे भी भले आदमियों को जनता हूँ जिन्हे अपनी 'भावना ' को छिड़वाने में मज़ा आता है, ऐसे लोग अपनी भवना को सदा निर्वस्त्र ही रखते हैं जिससे कोई भी उसे देख कर मतवाला हो जाए और छेड़ दे। मज़ेदार बात ये भी है कि ऐसे लोगों की 'भावना' भी बेशर्म हो जाती है और उसे खुद को छिड़वाने में मज़ा आने लगता है।

एक सत्य ये भी है कि भलमनसाहत समान रूप से हर व्यक्ति में नहीं पाई जाती है। ख़ासकर पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी कि तुलना में खुद को ज़्यादा भला समझते हैं। इसी मान्यता को मानने वाले एक बुज़ुर्गवार से मेरी मुलाक़ात हुई। वे बताने लगे कि "हमारी पीढ़ी में लोग ज़्यादा भले थे पर आज कि पीढ़ी में भलमनसाहत कि जगह बेशर्मी ने ले ली है। खुलेआम लड़के लड़कियाँ घूमते हैं , चूमाचाटी करते हैं।

मैंने कहा ' ये तो रोमांस है इसमे क्या बुराई है ?'

वे मेरी ओर देख कर सपाट लहज़े में बोले, 'अगर चूमना चाटना ही रोमांस है तो फिर धरती पर कुत्ते सबसे ज़्यादा रोमांटिक प्राणी होंगे। '

मेरे पास इसका उत्तर नहीं था। उन्होंने आगे कहा ,' रोमांस तो दूर से ही आँखों से आँखों में देखने से पैदा होता है और हमारे पूर्वज तो मात्र आँखों से देख कर ही महिला को गर्भवती कर देते थे, जैसा कि महाभारत में वेदव्यास द्वारा देखने मात्र से दो कुरु रानियाँ गर्भवती हो गई थी। '

वे आगे भावविभोर होकर बोले ,"हमारे ज़माने में 'काम भवना ' को भी बड़े सलीके से व्यक्त किया जाता था जैसे एक पुरानी फ़िल्म में नायिका के मनोभाव को कितनी अच्छी तरह शब्दों में पिरोया गया है -

 

मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी

भेद ये गहरा बात ज़रा सी

 

वहीं आज कल कैसे गाने बनते हैं -

 

लैला तेरी लेलेगी तू लिख के लेले

 

कितनी ज़्यादा हवस है इन लाइनों में ,लेखक ने इसमे अनुप्रास अलंकार का तो अच्छा प्रयोग किया है पर ध्यान से इसके बोल को देखें तो इसमे जेंडर दोष साफ नज़र आता है। "

वे ताव खाकर आगे बोले ," नई पीढ़ी के लोग एकदम निकम्मे हैं। हमारी पीढ़ी के लोग तीन काल यानी भूतकाल , वर्त्तमानकाल , और भविष्यकाल में जीते हैं पर नई पीढ़ी के लोग केवल ' भौकाल ' में जीते हैं। "

इस तरह वे बुज़ुर्गवार मुझे भलमनसाहत पर लेक्चर देकर चले गए। इससे मैंने सीखा कि दुनिया में सबसे आसान काम लेक्चर देना है। हाँ अगर भलमनसाहत कि पराकाष्ठा देखनी है तो वो डेली सोप सीरियल कि नायिकाओं में मिल सकती है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लेकर समकालीन परिस्थितियों में बने सभी सीरियलों के मूल में एक ही सत्य है कि इसमे एक नायिका होती है जिसमे धैर्य राम ज़्यादा, मानवता बुद्ध से भी ज़्यादा , पराक्रम कृष्ण से भी ज़्यादा होता है। वो बड़ी से बड़ी साजिशों का जेम्स बांड कि तरह पर्दाफाश कर देती हैं। ये कलह प्रधान और टेसूदार सीरियल पतियों कि ज़िन्दगी हराम किये हुए हैं क्योंकि घरेलू महिलाएँ इसकी इतनी एडिक्ट हो चुकी हैं कि वे सीरियल के नायिका कि कभी ना ख़त्म होने वाली समस्याओं को अपनी समस्या समझने लगती हैं। बेचारा पति ऑफिस में बॉस कि गालियां सुनकर तथा ट्रैफिक कि मार खाकर घर पहुंचता है तो उसे उस समस्या से उत्पन्न तनाव को झेलना पड़ता है जो कि सीरियल के नायिका कि है तथा उसकी पत्नी से होकर उस तक पहुचती है। एक पौराणिक ग्रन्थ के अनुसार एक बार माता पार्वती ने क्रोध में आकर भगवान शंकर को खा लिया था और 'धूमा देवी' के नाम से जानी गयी। मेरे पास एविडेंस नहीं है पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ज़रूर सीरियल देखते समय माता पार्वती  को भगवान शंकर ने डिस्टर्ब किया होगा जिसका परिणाम ऐसा निकला।

सूचना  - पतियों से अनुरोध है कि वे सीरियल में चल रहे दृश्य के अनुसार अपनी पत्नी के मूड को आँक कर फिर उसी अनुसार ब्यवहार करें। जन हित में जारी।

एक बात और है ,जो भले दिखते हैं वो ज़रूरी नहीं कि भले ही हों। मेरे गाँव में एक कहावत है कि - 

                 लम्बा तिलक मधुरिया वाणी ,दगाबाज़ की यही निशानी।

बँगाल की लेखिका महाश्वेता देवी की लघु कथा  'कुंती ओ निषादी ' के अनुसार लक्छा गृह में दुर्योधन पाण्डवों को जलाकर मारने का प्रयास करता है पर वे सुरंग खोद कर निकल जाते हैं उसी रात आग लगने से पहले झूठा भ्रम पैदा करने के लिए कुंती एक निषादी और उसके पांच पुत्रों को भोजन कराती है तथा मदिरा पिलाके सुला देती है। आग लगने के बाद निषादी और उसके पाँच पुत्रों के जले शव देख कर दुर्योधन उन्हें पाण्डव समझ कर मरा हुआ मान लेता है। इस प्रकार कुंती अपने तथा अपने पुत्रो के प्राण कि रक्षा करती है। इसे पढ़ कर ना जाने क्यों मुझे पंडित मुरारीलाल तिरबेदी के 'निष्काम कर्म योग का विधान' तथा डाक्टर एस के जैन के 'गुप्त रोग से निदान ' एक जैसे ही प्रतीत होने लगे हैं।

भलमनसाहत की खोज में खोज में मैं इतना तो जान ही गया हूँ कि जो जैसा दिखता हो ज़रूरी नहीं कि वैसा ही हो। और फिर एक दिन मार्क्स बाबा ने मुझे दर्शन दिए .... अरे भई वही मार्क्स बाबा साम्यवाद वाले। जिनके आदर्शों पर चलके रूस में एक मरिल्ले से बच्चे का जन्म हुआ जिसे दुनिया साम्यवाद या कम्युनिसम के नाम से जानती है। ये असमानता ख़त्म करने कि बात करता है और इसलिए जो बड़े थे उनकी गर्दनें काट डाली गई ताकि सब बराबर हो जाये।

खैर बात मार्क्स बाबा कि चल रही थी उन्होंने मुझे दर्शन देकर कहा - 'हे मानव तेरी ये गिद्ध जैसी चीकट आँखें लौंडिया ताड़ने के लिए तो ठीक हैं पर संसार के विराट रूप को देखने में असमर्थ हैं। ' फिर जैसे कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप देखने के लिए दिव्य दृष्टि प्रदान कि थी , मार्क्स बाबा ने मुझे 'भौतिक द्वंदवाद ' रुपी नेत्र प्रदान कर दिए। अब मुझे पूरी दुनियाँ बदली -बदली सी लग रही है। हर तरफ अर्थशास्त्र है जिसने अपनी एक काँख में नैतिकता और दूसरी काँख में मर्यादा को दबा रखा है। मैंने भलमनसाहत के स्वरुप को भी देखा।

            ' भलमनसाहत का पौधा स्वार्थ कि ज़मीन पर उगता है। ' हर जगह भलमनसाहत के पौधे उगे हुए हैं। कुछ जगह तो बाकायदा भलाई कि खेती की जा रही है।

 

ये सब देख कर मुझे बड़ा क्रोध आया एक बारगी मन हुआ कि कम्युनिस्टों के झंडे से हसिया लेकर इन पौधों को काट डालूँ। फिर अपने निठल्लेपन के कारण ये विचार त्याग दिया। वो कहावत है ना कि

किस किस को याद कीजिये, किस किस को रोइए

आराम बड़ी चीज है ,  मुँह ढंक के सोइये।

एक अंतिम बात, जब मैंने ये संस्मरण अपने कुछ भले मित्रों को सुनाया तो उन्होंने कहा कि तुम बड़ी वल्गर भाषा में लिखने लगे हो।

दोस्तों मैं उत्तर भारत के जिस गाँव में पैदा हुआ हूँ वहाँ विद्वता का मानदण्ड यही है कि कौन व्यक्ति बिना दोहराये लगातार पाँच मिनट तक गालियाँ दे सकता है। अतः मुझसे इससे ज़्यादा सभ्य होने कि उम्मीद ना रखें।

                                                                                          __  दीपक शर्मा ' सार्थक '

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रचनाकार: दीपक शर्मा ' सार्थक' का व्यंग्य - भलमनसाहत की चाहत
दीपक शर्मा ' सार्थक' का व्यंग्य - भलमनसाहत की चाहत
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