व्यंग्य खुशखबरी! देश में लकड़बग्घों की संख्या तेज़ी से बढ़ी! डॉ. रामवृक्ष सिंह हाल ही में देश में बाघों की गणना की गई। पता चला कि बाघों ...
व्यंग्य
खुशखबरी! देश में लकड़बग्घों की संख्या तेज़ी से बढ़ी!
डॉ. रामवृक्ष सिंह
हाल ही में देश में बाघों की गणना की गई। पता चला कि बाघों की संख्या 2010 की तुलना में लगभग 30% बढ़कर 2226 हो गई है। पृथ्वी पर इन्सानों और बनैले जानवरों के अपने-अपने रिहाइशी क्षेत्र बँटे हुए हैं। प्राकृतिक संतुलन के लिए ज़रूरी है कि दोनों अपने-अपने इलाके में फलें-फूलें और चैन से रहें। बाघ हमारे देश के संरक्षित पशु हैं और उनके शिकार पर पाबंदी है। लिहाज़ा बाघों की संख्या में वृद्धि होना प्रसन्नता का विषय है। इसके लिए लड्डू बाँटे जाने चाहिए। लेकिन दिक्कत की बात यह है कि बाघ जैसे प्यारे राष्ट्रीय पशु के साथ-साथ, अपने देश में लकड़बग्घों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। लकड़बग्घा प्रजाति के इन्सानों और उन्हें चाहने वालों के लिए यह खुशी की बात हो सकती है, किन्तु शरीफ और निरीह भारतवासियों के लिए यह घोर चिन्ता का विषय है। और दिक्कत यह भी है कि शरीफ आदमी प्रायः निरीह ही होता है, उसका मुँह तो कुत्ता भी चाट जाता है। लकड़बग्घा तो खैर उसे खाकर हजम ही कर डालता है।
लकड़बग्घे आसानी से पहचान में नहीं आते। यानी यदि किसी को लकड़बग्घे की सही पहचान न हो तो वह उसे अपना वफादार साथी यानी छोटे आकार का गधा, कुत्ता, बकरी आदि समझकर निरापद भी मान सकता है। लकड़बग्घे प्रायः भेस बदलकर रहते हैं और प्रथम दृष्टि में भले दिखते हैं। इसीलिए मुहावरा प्रचलित है भेड़ की खाल में भेड़िया।
अपने समाज में लकड़बग्घों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। और सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि लकड़बग्घे दो पैर वाले, सफेद अथवा शुभ्र वस्त्र-धारी भी हो चले हैं। वे हें-हें करके हँसते हैं, हाथ जोड़े आपके इर्द-गिर्द घूमते हैं, आपका सेवक होने का ढोंग रचते हैं। यानी आपके मन और मस्तिष्क पर पूरी तरह काबिज हो जाते हैं। आपको अपने चंगुल में फँसा लेते हैं और आप जैसे ही तनिक असावधान अथवा आश्वस्त होते हैं, वे चट से आपको अपना शिकार बना लेते हैं।
हमारे प्रान्तों और देश की राजधानी में कुछ विशेष इमारतें और संस्थाएं ऐसी हैं, जहाँ ये छद्म भेसधारी लकड़बग्घे आराम से घुसपैठ कर लेते हैं और उन इमारतों और संस्थाओं को अपनी सुरक्षित माँद की भांति इस्तेमाल करते हैं। एक बार ये वहाँ घुस गए तो माननीय कहलाने लगते हैं और फिर इनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।
कई बार तो लकड़बग्घे पैदाइशी होते हैं, किन्तु बहुधा वे गुणान्तरण और व्यवसायान्तरण की प्रक्रिया से भी वर्तमान स्वरूप को प्राप्त होते हैं। आपने चुहिया वाली कहानी तो पढ़ी होगी, जिसमें एक ऋषि महोदय एक निरीह चुहिया को धीरे-धीरे शेर बना देते हैं। वही स्थिति हम आम हिन्दुस्तानियों की है। प्रजातंत्र ने समूहबद्ध नागरिकों को असीम शक्ति प्रदान की है। हम उन ऋषि-मुनियों की भांति हैं जो निरीह प्रतीत होनेवाली चुहिया की याचना से द्रवित होकर उसे कालान्तर में सर्वशक्तिमान शेर बना देते हैं और बाद में वही शेर हमें मार-मारकर खाने लगता है, हमारे संसाधनों को चट करने लगता है। चुहिया और शेर के दृष्टान्त में हम शेर को हटाकर लकड़बग्घा रख दें, तो पूरा परिदृश्य उभरकर सामने आ जाता है। लिहाज़ा, सौ की एक बात यह कि लकड़बग्घे हमारे चारों ओर किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं और हमने उन्हें मूषक से लकड़बग्घा तो बना डाला है, किन्तु हिंसक और हमारी जान-माल के दुश्मन हो चुके लकड़बग्घों को पुनः मूषक बनाना हमारी औकात के बाहर की बात है।
जैसाकि हमने बताया कुछ लकड़बग्घों को सफेद खद्दर पहनकर देश की निरीह जनता और उसके संसाधनों का भक्षण करना पसंद है। कुछ लकड़बग्घे सार्वजनिक संस्थाओं में चले आते हैं और वहीं से अपने अधिकार-क्षेत्र के समस्त संसाधनों का भरपूर दोहन करते हैं। कुछ लकड़बग्घे बाबाजी और बापू जी का बाना धारण कर लेते हैं और बकरियों, खरगोशों, गायों-बैलों के सदृश मनुष्यों को प्रवचन देते-देते उन्हीं में से किसी-किसी का शिकार कर लिया करते हैं।
लकड़बग्घों के बारे में एक चीज़ जो बहुत कॉमन है, वह है उनकी धन-लोलुपता और काम-लिप्सा। कभी-कभी तो वे अपने जीते-जी प्रकाश में आ जाते हैं और धरकर सलाखों के पीछे पहुँचा दिए जाते हैं। किन्तु कभी-कभी जीते-जी पकड़ में नहीं आते और मरने के बाद जब उनकी माँद खोदी जाती है, तब पता चलता है कि अरे इस लकड़बग्घे ने तो इतने क्विंटल सोना-चाँदी, नकदी और अकूत संपदा अपनी माँद में छिपा रखी थी। लकड़बग्घों की काम-लिप्सा की शिकार महिलाएँ और बच्चियाँ यहाँ-वहाँ गुहार लगाती फिरती हैं। कभी-कभी उनकी गुहार सुन ली जाती है, लेकिन अकसर उनकी करुण पुकार सत्ता के गलियारों तक पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ देती है। कारण यह कि वहाँ भी जहाँ-तहाँ लकड़बग्घों के ही यार-दोस्त, भाई-बंधु विराजमान होते हैं, जो मामले को दबा देते हैं। इसे देखकर हमें एक नया मुहावरा रचने का मन करता है- लकड़बग्घा लकड़बग्घा भाई-भाई।
अपने देश की न्याय-प्रणाली और शासन-व्यवस्था यथाशक्य ऐसे लकड़बग्घों को सबक सिखाने की कोशिश भी करती है। उनके लिए विशेष चिड़ियाघर खोले गए हैं, जहाँ उनके जैसे अन्य जानवर रखे जाते हैं। कुछ लकड़बग्घों को इन्सानी बस्तियों से पकड़-पकड़कर इन विशेष चिड़ियाघरों में पहुँचाया जा चुका है, किन्तु अभी बहुत बड़ी संख्या में लकड़बग्घे हमारे आस-पास छुट्टा घूम रहे हैं और पूरा देश लकड़बग्घों का अभयारण्य बना हुआ है। पता नहीं, कब हमारा देश लकड़बग्घों की इस बढ़ती हुई प्रजाति से मुक्त होगा! फिलहाल तो आइए बाघों की गणना के बढ़े हुए आँकड़ों का आनन्द लूटें, तब तक, जब तक कि कोई स्वयंसेवी संगठन आकर यह न प्रमाणित कर दे कि अरे, ये आँकड़े तो बिलकुल बेबुनियाद और झूठे हैं! लेकिन यकीन जानिए देश में लकड़बग्घों की तेजी से बढ़ती जनसंख्या की खबर बिलकुल सच्ची है। यकीन न हो तो आप खुद आजमा कर देख सकते हैं। और भगवान न करे कि कभी आपका उनसे पाला पड़ जाए। बड़े घटिया जानवर होते हैं साहब!
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खुशखबरी! देश में लकड़बग्घों की संख्या तेज़ी से बढ़ी!
डॉ. रामवृक्ष सिंह
हाल ही में देश में बाघों की गणना की गई। पता चला कि बाघों की संख्या 2010 की तुलना में लगभग 30% बढ़कर 2226 हो गई है। पृथ्वी पर इन्सानों और बनैले जानवरों के अपने-अपने रिहाइशी क्षेत्र बँटे हुए हैं। प्राकृतिक संतुलन के लिए ज़रूरी है कि दोनों अपने-अपने इलाके में फलें-फूलें और चैन से रहें। बाघ हमारे देश के संरक्षित पशु हैं और उनके शिकार पर पाबंदी है। लिहाज़ा बाघों की संख्या में वृद्धि होना प्रसन्नता का विषय है। इसके लिए लड्डू बाँटे जाने चाहिए। लेकिन दिक्कत की बात यह है कि बाघ जैसे प्यारे राष्ट्रीय पशु के साथ-साथ, अपने देश में लकड़बग्घों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। लकड़बग्घा प्रजाति के इन्सानों और उन्हें चाहने वालों के लिए यह खुशी की बात हो सकती है, किन्तु शरीफ और निरीह भारतवासियों के लिए यह घोर चिन्ता का विषय है। और दिक्कत यह भी है कि शरीफ आदमी प्रायः निरीह ही होता है, उसका मुँह तो कुत्ता भी चाट जाता है। लकड़बग्घा तो खैर उसे खाकर हजम ही कर डालता है।
लकड़बग्घे आसानी से पहचान में नहीं आते। यानी यदि किसी को लकड़बग्घे की सही पहचान न हो तो वह उसे अपना वफादार साथी यानी छोटे आकार का गधा, कुत्ता, बकरी आदि समझकर निरापद भी मान सकता है। लकड़बग्घे प्रायः भेस बदलकर रहते हैं और प्रथम दृष्टि में भले दिखते हैं। इसीलिए मुहावरा प्रचलित है भेड़ की खाल में भेड़िया।
अपने समाज में लकड़बग्घों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। और सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि लकड़बग्घे दो पैर वाले, सफेद अथवा शुभ्र वस्त्र-धारी भी हो चले हैं। वे हें-हें करके हँसते हैं, हाथ जोड़े आपके इर्द-गिर्द घूमते हैं, आपका सेवक होने का ढोंग रचते हैं। यानी आपके मन और मस्तिष्क पर पूरी तरह काबिज हो जाते हैं। आपको अपने चंगुल में फँसा लेते हैं और आप जैसे ही तनिक असावधान अथवा आश्वस्त होते हैं, वे चट से आपको अपना शिकार बना लेते हैं।
हमारे प्रान्तों और देश की राजधानी में कुछ विशेष इमारतें और संस्थाएं ऐसी हैं, जहाँ ये छद्म भेसधारी लकड़बग्घे आराम से घुसपैठ कर लेते हैं और उन इमारतों और संस्थाओं को अपनी सुरक्षित माँद की भांति इस्तेमाल करते हैं। एक बार ये वहाँ घुस गए तो माननीय कहलाने लगते हैं और फिर इनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।
कई बार तो लकड़बग्घे पैदाइशी होते हैं, किन्तु बहुधा वे गुणान्तरण और व्यवसायान्तरण की प्रक्रिया से भी वर्तमान स्वरूप को प्राप्त होते हैं। आपने चुहिया वाली कहानी तो पढ़ी होगी, जिसमें एक ऋषि महोदय एक निरीह चुहिया को धीरे-धीरे शेर बना देते हैं। वही स्थिति हम आम हिन्दुस्तानियों की है। प्रजातंत्र ने समूहबद्ध नागरिकों को असीम शक्ति प्रदान की है। हम उन ऋषि-मुनियों की भांति हैं जो निरीह प्रतीत होनेवाली चुहिया की याचना से द्रवित होकर उसे कालान्तर में सर्वशक्तिमान शेर बना देते हैं और बाद में वही शेर हमें मार-मारकर खाने लगता है, हमारे संसाधनों को चट करने लगता है। चुहिया और शेर के दृष्टान्त में हम शेर को हटाकर लकड़बग्घा रख दें, तो पूरा परिदृश्य उभरकर सामने आ जाता है। लिहाज़ा, सौ की एक बात यह कि लकड़बग्घे हमारे चारों ओर किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं और हमने उन्हें मूषक से लकड़बग्घा तो बना डाला है, किन्तु हिंसक और हमारी जान-माल के दुश्मन हो चुके लकड़बग्घों को पुनः मूषक बनाना हमारी औकात के बाहर की बात है।
जैसाकि हमने बताया कुछ लकड़बग्घों को सफेद खद्दर पहनकर देश की निरीह जनता और उसके संसाधनों का भक्षण करना पसंद है। कुछ लकड़बग्घे सार्वजनिक संस्थाओं में चले आते हैं और वहीं से अपने अधिकार-क्षेत्र के समस्त संसाधनों का भरपूर दोहन करते हैं। कुछ लकड़बग्घे बाबाजी और बापू जी का बाना धारण कर लेते हैं और बकरियों, खरगोशों, गायों-बैलों के सदृश मनुष्यों को प्रवचन देते-देते उन्हीं में से किसी-किसी का शिकार कर लिया करते हैं।
लकड़बग्घों के बारे में एक चीज़ जो बहुत कॉमन है, वह है उनकी धन-लोलुपता और काम-लिप्सा। कभी-कभी तो वे अपने जीते-जी प्रकाश में आ जाते हैं और धरकर सलाखों के पीछे पहुँचा दिए जाते हैं। किन्तु कभी-कभी जीते-जी पकड़ में नहीं आते और मरने के बाद जब उनकी माँद खोदी जाती है, तब पता चलता है कि अरे इस लकड़बग्घे ने तो इतने क्विंटल सोना-चाँदी, नकदी और अकूत संपदा अपनी माँद में छिपा रखी थी। लकड़बग्घों की काम-लिप्सा की शिकार महिलाएँ और बच्चियाँ यहाँ-वहाँ गुहार लगाती फिरती हैं। कभी-कभी उनकी गुहार सुन ली जाती है, लेकिन अकसर उनकी करुण पुकार सत्ता के गलियारों तक पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ देती है। कारण यह कि वहाँ भी जहाँ-तहाँ लकड़बग्घों के ही यार-दोस्त, भाई-बंधु विराजमान होते हैं, जो मामले को दबा देते हैं। इसे देखकर हमें एक नया मुहावरा रचने का मन करता है- लकड़बग्घा लकड़बग्घा भाई-भाई।
अपने देश की न्याय-प्रणाली और शासन-व्यवस्था यथाशक्य ऐसे लकड़बग्घों को सबक सिखाने की कोशिश भी करती है। उनके लिए विशेष चिड़ियाघर खोले गए हैं, जहाँ उनके जैसे अन्य जानवर रखे जाते हैं। कुछ लकड़बग्घों को इन्सानी बस्तियों से पकड़-पकड़कर इन विशेष चिड़ियाघरों में पहुँचाया जा चुका है, किन्तु अभी बहुत बड़ी संख्या में लकड़बग्घे हमारे आस-पास छुट्टा घूम रहे हैं और पूरा देश लकड़बग्घों का अभयारण्य बना हुआ है। पता नहीं, कब हमारा देश लकड़बग्घों की इस बढ़ती हुई प्रजाति से मुक्त होगा! फिलहाल तो आइए बाघों की गणना के बढ़े हुए आँकड़ों का आनन्द लूटें, तब तक, जब तक कि कोई स्वयंसेवी संगठन आकर यह न प्रमाणित कर दे कि अरे, ये आँकड़े तो बिलकुल बेबुनियाद और झूठे हैं! लेकिन यकीन जानिए देश में लकड़बग्घों की तेजी से बढ़ती जनसंख्या की खबर बिलकुल सच्ची है। यकीन न हो तो आप खुद आजमा कर देख सकते हैं। और भगवान न करे कि कभी आपका उनसे पाला पड़ जाए। बड़े घटिया जानवर होते हैं साहब!
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वाह वाह लकडबग्घों पर प्रकाशित ये शोध तो हाहाकारी प्रकाश डाल गया ..बहुत अच्छे , आनंदित करने वाला , हालांकि और भी हैं कईएक प्रजातियां जी
जवाब देंहटाएंऐसे लकडबग्घों लोक सभा और विधानसभाओं के टिकट देना इनके सरकारी संरक्ष्ण की ही तो पुष्टि करते हैं |
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