अहसास चार बार तिथियाँ बदलने व विद्यार्थियों को बार-बार हिदायत देने के बाद उस दिन थोड़े से अभिभावकों ने विद्यालय आने का कष्ट किया और बड़ी कठिन...
अहसास
चार बार तिथियाँ बदलने व विद्यार्थियों को बार-बार हिदायत देने के बाद उस दिन थोड़े से अभिभावकों ने विद्यालय आने का कष्ट किया और बड़ी कठिनाई से विद्यालय प्रबन्धन समिति की नवकार्यकारिणी के गठन की प्रक्रिया को पूरा किया जा सका। मेरे मन में सहसा अपने पुराने विद्यालय की उन दिनों की याद ताजा हो गई जब मैं नया-नया उस विद्यालय में स्थानांतरित होकर आया था। बोर्ड की परीक्षाएँ हो चुकी थीं । परीक्षा के संचालन का कार्यभार अर्थशास्त्र के प्रवक्ता श्री मदन जी, जो युवा होने के साथ-साथ विद्वान, कर्मठ, दूरदर्शी, निर्भीक व्यक्तित्व के स्वामी थे के हाथों में था। वे उसी विद्यालय के ही पुराने छात्र थे व अब भी हिमाचल विश्वविद्यालय पी.एच.डी कर रहे थे। उनका मत था- ‘नकल ही एक ऐसी बुराई है जो छात्रों में निट्ठलेपन की भावना को जागृत करती है तथा अध्ययन अध्यापन के कार्य में बाधा उपस्थित करती है। यदि इस बुराई का अन्त कर दिया जाए तो शैक्षिक वातावरण स्वतः ही बन जाता है व तभी सही अर्थो में बालक का सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है।‘ उस वर्ष उन्होंने बोर्ड परीक्षाओं को बोर्ड के उचित मापदण्ड़ो व दिशानिर्देशों के आधार पर संचालित किया था। परिणामतः परीक्षा परिणाम घोषित होने पर पढ़ने वाले बच्चों का प्राप्ताँक प्रतिशत तो अच्छा रहा परन्तु विद्यालय का पास प्रतिशत काफी कम रहा और विशेषकर दसवीं के गणित विषय का। इस पर शिक्षक के भी दो वर्ग बन गए थे। एक वर्ग था जो उनके साहसिक कदम की प्रशंसा कर रहा था तथा दूसरा वर्ग जिसमें गिने चुने अध्यापक थे उन्हें घटिया परीक्षा परिणाम के लिए दोषी ठहरा रहा था।
बाजार आदि में कुछ दिनों तक इसकी चर्चा रही परन्तु धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया लेकिन बड़े आश्चर्य की बात थी कि दो तीन महीने व्यतीत हो जाने पर भी किसी भी बालक के माता-पिता /अभिभावक ने विद्यालय में आकर यह जानने का कष्ट नहीं किया कि उनका बच्चा क्यों या कैसे अनुत्तीर्ण हो गया या उसकी क्यों कंपार्टमैंट आई। कुछ बालकों ने स्कूल छोड़ दिया, कुछ ने पुनः प्रवेश ले लिया तथा कुछ छात्रों ने स्वयं ही अपना विद्यालय-त्याग प्रमाणपत्र लेकर दूसरे विद्यालय में प्रवेश ले लिया। बाहर बाहर चर्चाएँ होती रहीं पर विद्यालय में कोई नही आया।
मैं परीक्षाओं के दौरान ही उस विद्यालय में स्थानान्तरित होकर आया था। चार पाँच महीने तो विद्यालय में स्वयं को समायोजित करते ही व्यतीत हो जाते हैं कि मुझे जिलाधीश के कार्यालय से पंचायत की ग्रामसभा में विद्यालय प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित होने के निर्देश मिले। मैं निश्चित तिथि को निर्धारित समयानुसार उस स्थान पर पहुँचा परन्तु उस समय पंचायत भवन में ताला लगा हुआ था। मैं बरामदे में लगे सूचनापट्ट में चस्पां की गई सूचनाओं को पढ़ने लगा तब मुझे ज्ञात हुआ कि मीटिंग का समय बारह बजे का है। मैं बरामदे के एक कोने में रूमाल बिछाकर बैठ गया। साढे ग्यारह बजे के लगभग चौकीदार वहाँ आया, उसने मेरा अभिवादन किया कमरा खोलकर मुझे भीतर बैठने को कहा। उसके बाद धीरे-धीरे लोगों का आना शुरू हो गया। पंचायत प्रधान उप-प्रधान, मैम्बर इत्यादि भी आ गए थे परन्तु अभी कोरम पूरा नहीं हुआ था। लोग मुझे नहीं पहचानते थे क्योंकि एक तो विद्यालय में मेरा कार्यकाल ही कम था दूसरे वे लोग विद्यालय में कभी आते ही नहीं थे। हाँ मैंने उन लोगों को अकसर बाज़ार की ओर आते जाते तो अवश्य देखा था पर उनसे बात करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। पंचायत सचिव का कार्यभार भी एक प्राईमरी स्कूल के अध्यापक को सौंपा गया था उनसे मैं भली-भाँति परिचित था। उसी दोरान एक शिक्षित चतुर महिला ने पंचायत सचिव को संबोधित करते हुए कहा,”भाई साहब इस बार स्कूल का दसवीं का परीक्षा परिणाम तो अच्छा नहीं रहा है।“
सचिव ने अपने सिर से बात टालते हुए तथा मेरी ओर इशारा करते हुए कहा, “इसीलिए तो आज गुरुजी हमारे बीच में उपस्थित हैं वो ही आपको इसके संबंध में सही-सही बतला सकते है।”
मैं उनकी बातों को ध्यान से सुन रहा था व मुझे स्कूल के परिणाम की भी पूरी जानकारी थी परन्तु मैंने फिर भी अनजान बनते हुए पूछा, “आप क्या बताने के बारे में बात कर रहे हैं I” इस पर पंचायत सचिव ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा इनका कहना है कि इस बार आपके विद्यालय का परीक्षा परिणाम ठीक नहीं रहा ये इसके कारण के बारे में जानना चाहती हैं।”
“विद्यालय का परीक्षा परिणाम ठीक नहीं रहा मुझे तो ऐसा नहीं लगता।” यह सुनकर वह भड़क गईं और क्रोध मिश्रित भाव में मेरी ओर देखा कर कहने लगीं आप कैसे मास्टर हैं जिन्हें अपने स्कूल के रिजल्ट के बारे में ही नहीं पता?”
“ मैंने उससे विनम्रता से प्रश्न किया, “आपके किस बच्चे का परिणाम ठीक नहीं है, क्या आप मुझे उसका नाम बताने का कष्ट करेंगी?”
“ मेरी बात तो छोड़ो मेरे बच्चे तो बड़े-बड़े हैं और कॉलेज में पढ़ते हैं मैं तो आम लोगों के बच्चों की बात कर रही हूँ।”
“ फिर आप किस प्रकार कह सकती हैं कि परिणाम खराब है जबकि आपका तो कोई बच्चा विद्यालय में पढ़ता ही नहीं?”
“ स्कूल का रिज़ल्ट तो सब लोगों को पता लगता है शायद आपने ने हम लोगों को अनपढ़ गंवार समझ रखा है। आजकल सब लोग थोड़ा बहुत पढ़ लिख लेते हैं। स्कूल का रिजल्ट जानने के लिए अपने बच्चों के स्कूल में पढ़ने की बात तो बिलकुल बेतुकी लग रही है। इसका पता तो आजकल अखबारों से ही चल जाता है।” यह कहते कहते व व्यंग्य की हँसी हँसते हुए उस महिला ने सभागार में उपस्थित सभी लोगों को इस प्रकार निहारा मानों अपनी बात में लोगों का समर्थन जुटाना चाहती हों।
“मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। मैं तो परीक्षा परिणाम तब गलत मानता यदि अनुत्तीर्ण हुए छात्रों के अभिभावक हमारे पास आकर पूछते कि आप बताएँ मेरा बेटा या बेटी क्यों परीक्षा में सफल नहीं हुए I जब वे आए ही नहीं तो मैं तो यही मान सकता हूँ कि वे उसी प्रकार के परिणाम की आशा लगाए हुए थे तथा उस परीक्षा परिणाम से संतुष्ट हैं। मेरे विचार से वे ही समझ सकते हैं कि उन्होंने उन्हें पढ़ने का कितना समय दिया है, उनसे और कितने काम लिए है और उनका बालक कितने दिन स्कूल गया है व वहाँ जाकर उसने क्या किया हैI इसके बारे में आप क्या जान सकती हैं जब आपका बच्चा विद्यालय में है ही नहीं| मेरी इस बात को सुनकर सब मेरा मुँह ताकने लगे।
उस महिला ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा, जिनके बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं भई वे खुद बात करो मैं क्यों पडूँ आपके झमेले में |
तत्पश्चात मैंने सबको समझाने का प्रयास किया कि शिक्षा एक तिकोनी प्रक्रिया है जिसमें छात्र, शिक्षक व अभिभावक तीनों में सामंजस्य होना अति आवश्यक है। यह तो एक तिपहिए वाहन की तरह है। यदि तिपहिए वाहन का एक भी पहिया खराब है तो पूरे वाहन की गति रुक जाती है। इसी प्रकार इन तीनों में से यदि कोई भी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह नहीं करता तो शिक्षा के विकास की गति में बाधा आती है। शिक्षा कोई आनिक का इंजैक्शन नहीं जो शिक्षार्थी को लगाया जा सके। जब तक आप लोग अपने बालक के प्रति जागरूक नहीं होंगे तो बालक का सर्वांगीलंण विकास नहीं हो सकता।’’
मेरी इस बात को सुनकर एक महाशय कहने लगे, “हम कृषक है हमारे पास बहुत से काम हैं- खेती बाड़ी पशुओं को चराना, घास पानी का प्रबंध करना। हमारे पास तो मरने की फुरसत नहीं होती।”
“आप यह सब किसके लिए करते हैं ?”
“अपने और अपने बच्चों के लिए।”
“आप अपने पशुओं को दिन में कई बार देखते हैं कि वे कहाँ चर रहे है | आप अपने कुत्ते बिल्लियों का ध्यान रखते हैं परन्तु जिनके लिए आप यह सब काम करते हैं उनके लिए आप महीने में एक आध घंटे का समय भी निकालने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते। आप जरा सोचिए यदि वे गलत संगत में पड़कर अपना भविष्य बिगाड लेते हैं तो आपके ये सारे कर्म जो आप उनके लिए कर रहे हैं क्या सब व्यर्थ नहीं हो जाएँगे?” मैंने यह अनुमान लगाते हुए भी कि ये लोग इसका विपरीत अर्थ भी लगा सकते हैं उनसे प्रश्न किया।
अब महाशय थोड़ी सोच में पड़ गए । मैं भी समझ रहा था कि ये लोग अपने बालक को शिक्षित करवाने में अपनी भूमिका को समझ नहीं पा रहे हैं | मैंने उन्हें समझाने के लिए बात को आगे बढ़ाया और उन्हें अवगत करवाया कि आपके गाँवों के कई बच्चे सुबह सात बजे ही स्कूल के मैदान में पहुँच जाते हैं तथा छुट्टी हो जाने पर भी शाम सात-सात बजे तक मैदान में डटे रहते हैं पर किसी भी अभिभावक ने यह जानने का कभी प्रयास किया कि वे विद्यालय में पढ़ते भी हैं या खेलते ही रहते हैं | जब वे छह बजे उठकर घर सें जाते हैं और घर में आठ या नौ बजे प्रवेश करते हैं तो क्या आपको नहीं पूछना चाहिए कि वे इतनी जल्दी क्यों जाते हैं और देर से क्यों आते हैं? इसपर एक अन्य सज्जन कहने लगे, “ पी.टी.आई जी तो हमारे मित्र हैं हम उनसे बच्चों के बारे में पूरी खबर रखते हैं।”
“आप यहीं तो गलती कर रहे हैं। उनका काम तो शारीरिक शिक्षा देना व खेल-कूद करवाना है जो बालक सारा दिन खेलता रहेगा उनके विषय में तो ठीक होगा ही परन्तु वे अन्य विषयों के बारे में थोड़े ही बता सकते हैं। इसके लिए आपको थोड़ा सा समय निकालना ही होगा। आप जब कभी भी महीने दो महीने में स्कूल के पास से गुजरें तो एक चक्कर स्कूल का भी लगा लें। प्रधानाचार्य जी से मिलें वे आपको अन्य अध्यापकों से मिलवाएँगे तथा आपके बच्चे की प्रगति के बारे में सही जानकारी दिलवाने का प्रयास करेंगे। आप लोगों के बच्चों से संबंधित समस्याओं को आप लोगों के समक्षा रखेंगे तथा उसके समाधान के लिए आप लोगों से विचार विमर्श करेंगे।”
अब उन अभिभावकों की समझ में मेरी बात आने लगी थी। कई लोग जिनके बच्चे हमारे विद्यालय में पढ़ते थे शायद उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया था। अब वे जिज्ञासु की भाँति अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु उठ-उठकर तरह तरह के प्रश्न करने लगे। मैंने उन्हें यह कहते हुए कि आप हमारे लिए आदरणीय हैं, आप अपना कीमती समय निकालकर इस सभा में आए है आपको खड़े होने की कोई आवश्यकता नहीं है आप बैठकर ही अपने प्रश्नों को पूछकर अपनी जिज्ञासा को पूर्ण कर सकते हैं। इसके पश्चात बहुत सी बातें हुईं काफी विचार विमर्श हुआ। यहाँ तक कि जब मैं वापिस लौट रहा था तो लोग मुझे अपने-अपने घर ले जाने की जिद्द करने लगे मैंने उन्हें अपनी विवशता बतलाई पर वे तब तक मेरे साथ रहे जब तक मैं बस में नहीं बैठ गया और बस चल नहीं पड़ी।
उसके बाद अभिभावकों में एक नई प्रकार की जागृति देखने को मिली। वे जब तब विद्यालय में आने लगे व अपने बच्चों के बारे में जानकारी प्राप्त करने लगे। इसका परिणाम बहुत संतोषजनक रहा I अध्ययन-अध्यापन के कार्य में कुछ परिवर्तन हुए और आगामी वर्ष की परीक्षाएँ भी उसी प्रकार विधिवत ढंग से ली गईं परन्तु विद्यालय का परिणाम बहुत अच्छा रहा। आज मुझे पुनः ऐसा अनुभव होने लगा कि यहाँ पर भी अभिभावकों में इसी प्रकार की सोच पैदा करने का प्रयास किए जाने की आवश्यकता है तभी शैक्षणिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चला पाना संभव हो सकेगा अन्यथा अध्यापकों द्वारा किए जा रहे सभी प्रयास पूर्णतया सफल नहीं हो पाएँगे।
ओम प्रकाश शर्मा,
एक ओंकार निवास, सम्मुख आँगरा निवास छोटा शिमला,शिमला-171002
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