भारत सहित तमाम विश्व की ऊर्जा संबंधी दीर्घकालीन आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति में में हरित ऊर्जा सहित परमाणु ऊर्जा का भरपूर दोहन की एकमात्र वि...
भारत सहित तमाम विश्व की ऊर्जा संबंधी दीर्घकालीन आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति में में हरित ऊर्जा सहित परमाणु ऊर्जा का भरपूर दोहन की एकमात्र विकल्प होगा.
असैन्य परमाणु ऊर्जा का रास्ता साफ
प्रमोद भार्गव
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत-यात्रा के पहले दिन ही छह साल से अटके असैन्य परमाणु ऊर्जा अनुबंध पर समझौता हो गया। इस करार की बड़ी सफलता यह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व कौशल के चलते भारत को झुकना नहीं पड़ा और अमेरिका संतुष्ट हो गया। इस मुद्दे के सिलसिले में दोनों देशों ने चतुराई यह बरती है कि परमाणु ऊर्जा नागरिक उत्तरदायित्व अधिनियम में संशोधन की जरूरत नहीं पड़ेगी। करार से जुड़ी अमल संबंधी बाधाएं दूर होने के बाद व्यावसायिक सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति बनी है। पूछा जाए तो अमेरिका और भारत के बीच यह मुद्दा ऐसा केंद्र बिंदु साबित होगा,जो दोनों देशों के बीच विकसित हो रहे रिश्तों की आधारशिला को मजबूती देगा। इससे भारत बिजली के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होगा और कालांतर में रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे। इस द्विपक्षीय वार्ता की दूसरी बड़ी उपलब्धि यह भी रही कि रक्षा क्षेत्र में आधुनिक तकनीक के मुद्दे पर दोनों देशों ने रक्षा फ्रेमवर्क अनुबंध का भी आगामी 10 साल के लिए नवीनीकरण कर दिया है। इसमें संयुक्त सैन्य अभ्यास,गुप्तचर सूचनाओं का आदान-प्रदान और समुद्री सुरक्षा शामिल है। आतंकवाद से जूझ रहे भारत को ये सुविधाएं बहुत जरुरी हैं।
परमाणु करार को अमल में लाने के बाबत सबसे बड़ी बाधा 'परमाणु ऊर्जा नागरिक उत्तरदायित्व अधिनियम का उपबंध 17 था। इस धारा में प्रावधान हैं कि यदि अमेरिकी उपकरणों के कारण भारत में कोई त्रासदी होती है तो परमाणु संयंत्र प्रदायक कंपनी को नुकसान की भरपाई करनी होगी। जाहिर है, यह शर्त दुर्घटना होने की स्थिति में आपूतिकर्ता को सीधे-सीधे जिम्मेवार ठहराती है। इसीलिए 2008 में इस समझौते के हो चुकने के बावजूद कोई विदेशी परमाणु ऊर्जा कंपनी भारत नहीं आई। जबकि डॉ मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने इस करार को लागू करने के लिए सरकार ही दांव पर लगा दी थी। इस कानून में संसद में वामदलों की मांग के चलते यह कठोर शर्त जोड़ी गई थी। इस शर्त को शिथिल किए जाने के सिलसिले में अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों का कहना था कि भारत वैश्विक नियमों का पालन करे। इन नियमों के तहत दुर्घटना की प्राथमिक जिम्मेबारी संचालित कंपनी की होती है। इस क्रम में भारत की दुविधा यह थी कि हमारे यहां सभी परमाणु संयंत्रों का संचालन सरकारी कंपनी 'भारतीय नाभिकीय ऊर्जा निगम' करती है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करने का मतलब था,दुर्घटना की स्थिति में सरकार को मुआवजे की अदायगी झेलने की मजबूरी। उत्तरदायित्व कानून में एक अन्य विवादास्पद शर्त दुर्घटना के समय असीमित जिम्मेदारी की भी जुड़ी थी। इस शर्त की वजह से अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा कंपनियों को बीमाकर्ता कंपनी तलाशने में मुश्किलें पेश आ रही थीं, क्योंकि कोई भी बीमा कंपनी परमाणु संयंत्रों से जुड़ी दुर्घटना का संपूर्ण बीमा भार झेलने का जोखिम नहीं उठाती। दरअसल ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमाणु दुर्घनाएं इतनी बड़ी और व्यापक हो सकती हैं कि कोई एक दो बीमा कंपनियां इसकी भरपाई कर ही नहीं सकतीं ? रुस के चेरनोबिल और जापान के फुकूशिमा में घटी परमाणु दुर्घटनाएं इसकी बानगियां हैं।
नरेंद्र मोदी पिछले चार माह से स्वच्छ परमाणु ऊर्जा के विकल्पों का ऐसा आधार तलाशने में लगे थे, जिससे 2008 में हुए परमाणु करार का रास्ता साफ हो जाए। इस बाबत मोदी ने पिछले साल सिंतबर में की अमेरिका यात्रा में तो ओबामा से विस्तृत चर्चा की ही,साथ ही इस बातचीत को ओबामा से म्यांमार और आस्ट्रेलिया में हुई मुलाकातों में भी आगे बढ़ाया। इसके अलावा इस करार को गति देने की दृष्टि से परमाणु संपर्क समूह की भी चार बैठकें जिनेवा और लंदन में हो चुकी हैं। इन बैठकों में भारत ने लचीला रुख अपनाने के संकेत दे दिए थे। इसी का परिणाम है कि ओबामा की तीन दिवसीय भारत यात्रा के पहले दिन ही हैदराबाद हाउस में चाय सुड़कते हुए असैन्य परमाणु करार संभव हो गया। इस करार से भारत बिजली के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में तो आगे बढ़ेगा ही, साथ ही वह परमाणु संपन्न समुदाय की मुख्यधारा में भी शामिल हो जाएगा। इस लिहाज से देश के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है।
परमाणु करार इसलिए संभव हो पाया क्योंकि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही बराक ओबामा से संवाद संप्रेषण बनाए रखे हुए थे। इस वजह से दोनों के बीच जिस तरह से दोस्ती प्रगाड़ हुई, उसके चलते दोनों ही देश इस मुद्दे पर थोड़ी-थोड़ी नरमी दिखाते हुए इसे कामयाबी के शिखर पर ले पहुंचे। इस सफलता में 'बराक' और 'मोदी' के संबोधन का आत्मीय भाव भी सहायक रहा है। परमाणु करार से जुड़ी अमेरिका ने दो शर्तें मान ली हैं। एक तो वह भारत पहुंचने वाली परमाणु सामग्री पर निगरानी नहीं रखेगा। दूसरे, अमेरिका दुर्घटना की स्थिति में अपने देश की चार बड़ी बीमा कंपनियों को मुआवजे के लिए तैयार करेगा। ये कंपनियां आकस्मिक दुर्घटना सहायता के लिए सेतु की तरह परस्पर मिल-जुलकर काम करेंगी।
इसी तर्ज पर भारत ने भी नरम रुख अपनाया है। भारत की भी चार बड़ी बीमा कंपनियां दुर्घटना की स्थिति में अधिकतम पीड़ितों को 750 करोड़ रुपए का बतौर मुआवजा भुगतान करेंगी। जबकि बाकी खर्च भारत सरकार उठाएगी। नागरिक उत्तरदायित्व परमाणु हानि अधिनियम 2010 में किसी भी परमाणु दुर्घटना की आशंका में 1500 करोड़ रुपए की धनराशि पहले से ही सुरक्षित रखने का प्रावधान है। जिससे पीड़ितों को दुर्घटना के तत्काल बाद मुआवजे का प्रबंध किया जा सके। भारत ने इस मुद्दे पर नरम पड़ते हुए,परमाणु ऊर्जा निगम की तरफ से 750 करोड़ रुपए की गारंटी जोड़ दी है। साथ ही 750 करोड़ रुपए भारत सरकार देगी। इस तरह से पिछले छह साल से लटके इस अहम् मुद्दे पर दोनों देशों के बीच सहमति बन गई। इस समझौते की खास बात यह रही है कि अब मोदी सरकार को परमाणु ऊर्जा नागरिक उत्तरदायित्व अधिनियम 2008 और 2010 में किसी संशोधन के लिए बाध्य होना नहीं पड़ेगा। यह संशोधन संभव भी नहीं था,क्योंकि राजग गठबंधन राज्यसभा में बहुमत में नहीं है।
इस करार से काकरापुर,जैतापुर और राजस्थान परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं के जल्दी शुरु होने की उम्मीद बढ़ गई है। अमेरिकी कंपनियों के सहयोग से बन रहीं ये परियोजनाएं लगभग पूरी हैं। रुस के सहयोग से बनी तमिलनाडू की कुडनकुलम परमाणु परियोजना से एक साल पहले ही बिजली उत्पादन का कार्य शुरु हो गया है। अन्य परियोजनाएं भी यदि इस साल के अंत तक शुरु हो जाती है तो देश को 4800 मेगावाट अतिरिक्त परमाणु विद्युत मिलने लग जाएगी। इससे औद्योगिक विकास होगा और रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। इस लिहाज से ओबामा की यह दूसरी भारत यात्रा मील का पत्थर साबित होती हुई,करीबी रणनीतिक साझेदारी के रुप में भी सामने आई है। इस यात्रा के दीर्घकालिक और भी अच्छे नतीजे सामने आएंगे।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
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शिवपुरी म.प्र.
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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