उसका नाम प्रथमा था। यह उसका असल नाम नहीं था। असल नाम तो अर्चना, नूतन, अनिता, रीता, प्रीति या रीमा कुछ भी हो सकता है। वैसे उषा, कल्पना या...
उसका नाम प्रथमा था। यह उसका असल नाम नहीं था। असल नाम तो अर्चना, नूतन, अनिता, रीता, प्रीति या रीमा कुछ भी हो सकता है। वैसे उषा, कल्पना या श्यामली भी कौन से बुरे नाम है। प्रथमा तो वह नाम है जिस नाम से मैं उसे बुलाया करता था। हालांकि घर के लोग उसे बेबी कहकर बुलाते थे।
नाम लेकर बुलाने का मौका कम ही मिल पाता था, मैं जैसे गेट खोल उसके घर के हाते में पहुंचता था वह चली आती थी- आइए, वह बहुत होले मगर उत्साहपूर्वक कहती थी और मैं उसके साथ-साथ अक्सर उसके कमरे में चला जाता था।
हम घंटों बातें करते, कई-कई बार तो बात करते-करते रात के बारह तक बज जाते और उसके घर के लोग बोलने लगते-बेबी, अब सोने चलो और मैं गप्प के इस विराम से दुखी हो जाता और वह भी मेरे साथ-साथ हाते तक आती। फिर हम गेट तक पहुंचते-पहुंचते देर तक बातें करते रहते। ऐसा लगता बातें खत्म होने को ही नहीं है। अक्सर एक-दूसरे को ‘गुड नाइट' कहते हम लाचार मन से विदा लेते।
ऐसे क्षणों में लगता काश उसके घर के ऊपर ‘‘वाली मंजिल पर ही मेरा घर होता ओर उसके कमरे और मेरे कमरे के बीच सीढ़ियां लगी होतीं।
ऊपर-नीचे के कमरों और उनके बीच सीढ़ियों की कल्पना मुझे असीम सुख देती। मैं अक्सर ही उसे इस कल्पना के विषय में बताता और वह हौले से मुस्करा भर देती।
उसकी मुस्कराहट मुझे बेहद अच्छी लगती।
और मैं कभी-कभी बहुत डरते-डरते कह उठता- काश हमारी तुम्हारी शादी हो जाती तो कितना अच्छा रहता।
‘आप पागल हो गए हैं क्या' उसका संक्षिप्त सा जबाब रहता।
कई बार मैं कहता- ‘कितना अच्छा हो हम घूमने के नाम पर अमेरिका जाएं और वहां शादी कर लें।'
उसकी और मेरी मुलाकात तब हुई थी जब मैं पहली-पहली बार पटना आया था। जिस मेजबान के घर ठहरा था वहीं मेरे पिता को पूरा घर दिखाने के क्रम में रसोईघर दिखा रहा था और मैं अपने पिता के साथ था।
रसोईघर की देहरी पर एक सांवली सी लड़की बैठी थी- और मेरे पिता को बताया गया यही बेबी है। तब मैंने उसे आँखों के कोर से देखा था।
उसने कुछ भी नहीं कहा था- मैं भी चुप था। यह दूसरी बात थी कि उस समय मैं तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था और वह पहली की।
उसके चाचा की शादी में मैं पटना आया था। यह हमारी पहली मुलाकात थी।
समय के साथ वह बी.एस.सी. की छात्रा हो गई और मैं एम.ए. का। इसी समय उसके पापा के एक मित्र का लड़का डाक्टरी पढ़ने पटना आया। वह हास्टल में रहता था और प्रथमा के पिता ही उसके स्थानीय अभिभावक थे। इस कारण अक्सर ही वह प्रथमा के घर आने लगा था।
हमारी मित्रता में कोई अन्तर नहीं आया था। हम घंटों गप्प करते। ढेर सारी बातें होतीं। देखने वाले अक्सर पूछते तुम दोनों के पास गप्प का इतना बड़ा स्टाक है कि खत्म ही नहीं होता। प्रथमा अपने कॉलेज की हर दिन की हर घटना मुझे सुनाती और वह भी पूरे विस्तार से।
एक दिन दोपहर मैं उसके घर गया। वह खाना खा रही थी। मगर उसने एक बड़े से तौलिए से अपना मुंह छिपा रखा था- मैंने पूछा अरे मुंह छिपा कर क्यों खा रही हो- वह मुस्कराई थी और उसने अपने मुंह को कुछ ज्यादा ही छिपा लिया था। वह मेडिको लड़का भी पास ही बैठा था। उसने तौलिया खींच लिया। मैंने देखा प्रथमा के ओंठ सूजे थे।
‘अरे, यह क्या हुआ'
‘‘हड्डा काट लिया है'' उसका जवाब था।
मैं अफसोस करने लगा।
इसी बीच एक घटना घटी। प्रथमा की बड़ी बहन की शादी थी। बारात लगी थी। लोग आ-जा रहे थे। ऐसे में एक ऐसा परिवार भी आया जो मेरे पिता जी से ज्यादा ही जुड़ा था। स्वागत करने हेतु मेरे पिता उठे और भंडार की तरफ बढ़े- चार प्लेट नाश्ता लाओ, श्रीवास्तव जी आए हैं।
‘‘नाश्ता नहीं है।'' प्रथमा के मामा का जवाब था।
मेरे पिता मर्माहित होकर भंडार से वापस आ रहे थे। मेरे परिवार के सारे लोग इस घटना से विचलित होकर वापस जा चुके थे।
प्रथमा के परिवार और मेरे परिवार में बातचीत बंद हो गई थी। एक अजब तनाव का माहौल था।
दोनों पक्ष एक-दूसरे की कटु आलोचना में व्यस्त थे। इतिहास की सारी घटनाएं जुटाई जा रही थी और एक नया महाभारत छिड़ चुका था।
मेरे घर में मेरी शिकायत हो रही थी क्योंकि तब भी प्रत्येक दिन मैं प्रथमा के घर जाता था और प्रथमा के घर में प्रथमा की शिकायत हो रही थी, क्योंकि वह भी नहीं बदली थी।
यह भी एक नया अनुभव था। मेरा प्रथमा के घर जाना- वहां किसी का भी मुझसे न बोलना और मेरा चुपचाप उसके बेडरूम तक पहुंचना।
भारत-पाक युद्ध जैसी यह तनातनी लगभग साल भर चली।
इसी बीच मेरी एक कहानी आकाशवाणी पर आई जो बहुत ही लोकप्रिय हुई और आकाशवाणी को ढेर सारे पत्र मिले।
उनमें ही एक पत्र अशोका का था। आरा की इस श्रोता ने कहानी की भूरी-भूरी प्रशंसा की और पूछा था- यह कहानी आपने लिखी क्यों। क्या यह आपका भोगा हुआ यथार्थ है।
मैंने पत्र का जवाब दिया और दूसरी कहानी लिखने की सोच ही रहा था कि एक नई कहानी हो गई।
सुबह-सुबह ही घर में एक परिवार आया। 15-16 की एक लड़की उसकी दादी और उसके एक रिश्ते के चाचा। पता चला मेडिकल टेस्ट देने यह लड़की पटना आई है और उसके पिता और मेरे पिता रिश्ते में थे। मित्रता के इसी तकाजा के अनुभव पर वह लड़की जिसका नाम अर्चना था अपनी दादी और चाचा के साथ मेरे घर ठहर कर परीक्षा देने हेतु पधारी थी।
सामान्य अभिवादन के बाद मैं घर से निकल गया क्योंकि इन बिन बुलाए मेहमानों के साथ रहना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। देर रात जब घर आया तो पिता ने अपना आदेश सुनाया- कल सुबह 6 बजे से अर्चना की परीक्षा है। तुम इसे परीक्षा दिलाने ले जाना। और परीक्षा दिलाकर वापस घर भी लाना। दूसरे शहर की लड़की है, इस कारण पटना में उसका कुछ देखा-सूना नहीं है।
गांधी मैदान के पास मगध महिला महाविद्यालय में उसे परीक्षा देनी थी। बहुत गुस्सा आया- कहाँ फंस गया। किसी को परीक्षा देनी है तो मैं क्यूं मरूं। मगर लाचार था। तब के बेटे अपने परिवारों को न नहीं बोला करते थे।
दूसरे दिन साथ-साथ रिक्शा पर उसे परीक्षा दिलाने ले गया। रास्ते भर मैं चुप था और वह अपनी किताब में खोई थी। लौटते वक्त जोरदार वर्षा शुरू हो गई और हम दोनों रिक्शे पर बैठने के बावजूद बुरी तरह भींग गए। इस स्थिति में रिक्शे का आगे बढ़ना संभव नहीं था और लाचार हो हम एक रेस्तरां में रूक गए।
बिना किसी विशेष संकोच से अर्चना ने मसाल डोसा का आर्डर दे दिया। उसके बाद वर्षा थमने पर हम भींगे कपड़ों में ही घर आए। पता चला घर में लोग काफी चिन्तित थे- आखिर देरी क्यों हुई। खैर अर्चना, परीक्षा देकर वापस अपने शहर लौट गई मगर वहां से पत्र लिखना न भूली।
‘‘आप एक सूरज हैं'' अर्चना के पत्र में लिखा था। यह पत्र ले मैंने प्रथमा को पढ़ाया और प्रथमा ने पत्र पढ़कर मुस्करा कर कहा- ‘‘सूरज केवल जाड़े में सुखकर लगता है आप कहीं ग्रीष्म के सूर्य तो नहीं।''
फिर अभी इस पत्र का जवाब दूं या न दूं, यह सोच ही रहा था कि अर्चना का दूसरा पत्र आया।
‘‘जन्म लेता बच्चा जिस तरह रोने को बेचैन होता है उसी तरह कोई आज लिखने को बेचैन हो उठा है।... कभी-कभी पत्थर भी रोते हैं और समुद्र भी प्यास रह जाता है।''
यह पत्र भी मैने प्रथमा को दिखाया। उसने पत्र को पढ़ा कई बार पढ़ा। फिर उसने कहा- इसका जवाब आप जरूर दें। मैं पशोपश में था- एक प्रेम का मन रखने को एक अप्रिय को प्रेम का सम्बल मिल रहा था।
‘‘तुम सरस, सरल, सजल हो। तुम्हें कल्पनाओं से सजाना मेरा काम नहीं। हां, तुमने मुझे सूर्य कहा है, कहो तो मैं तुम्हें जलाकर भस्म कर दूं'' मैंने लिखा था।
इसी बीच प्रथमा ने बैंक प्रतियोगिता परीक्षा का फार्म भरा था। उसके पिता ने मुझे बुलाकर कहा- ‘‘जरा बेबी को मैथ पढ़ा दीजिए।'' आपको पढ़ाने में दिक्कत नहीं हो इसलिए ऊपर का कमरा खाली कर दिया है। ‘नहीं' वह लगभग चीखी थी, पढ़ने के लिए नीचे का यह ड्राइंगरूम ही ठीक रहेगा।
यह तुमने क्या कर दिया प्रथमा। मैंने अपने मन में कहा था।
मैं पटना आ रही हूँ, मेरा रिजल्ट निकल गया है और पटना मेडिकल कॉलेज में मेरा दाखिला होना है। अर्चना का पत्र आया।
मैंने पढ़ाते-पढ़ाते तुम्हें यह पत्र भी पढ़ाया था। चलिए, अच्छा हुआ सूरज को चांद का साथ मिलेगा। प्रथमा मुस्करा कर बोली थी और मैंने उदास होकर सोचा था- काश सूरज को चांद का नहीं प्रथमा का प्यार मिलता।
और मैंने पूछा था- सच बताओ प्रथमा, तुम मुझे प्यार नहीं करती। ‘नहीं' प्रथमा ने कचकचा कर मेरे सपनों का महल तोड़ दिया था। आप मेरे मित्र हैं केवल मित्र।
और तभी मुझे लगा था महल्ले में उठे इस अफवाह में शायद काफी बल है कि प्रथमा मेडिकल में पढ़ने वाले एक लड़के से प्यार करती है, यह मेडिको लड़का कौन हो सकता है यह मैं भली भांति समझता था और मैंने भी लगभग चिल्ला कर कहा था।
‘‘हां, हां, यह क्यों नहीं करती कि तुम दीपक से प्यार करती हो, क्योंकि वह डाक्टरी पढ़ रहा है और आगे चल कर डाक्टर बनेगा।''
तो आपको किसने रोका है- ‘‘अर्चना भी तो डाक्टर बनेगी।''
यह प्रथमा ने कैसा तीर छोड़ा था। वह जानती थी मैं अर्चना को कभी प्यार नहीं कर सका था। वह तो मैं प्रथमा की बात में आकर उसके प्रेम के वशीभूत प्रथमा के शब्दों को अपने नाम से लिख अर्चना को अर्पित कर रहा था।
मैं उदास और दुखी मन से लौटा था। अच्छी तरह याद है रात भर सो न सका था। सुबह समझौते की मुद्रा में गया- ‘‘हां, मुझे केवल मित्र रहना भी मंजूर है।'' प्रथमा हंसी थी। हम साथ-साथ चाय पीए थे।
इसी बीच प्रथमा के घर आने वाले उस मेडिकल लड़के से मेरी मित्रता बढ़ती गई और उसकी बातें मुझे बहुत ही विचित्र लगने लगी।
उसकी छोटी बहन कल्पना इसी बीच पटना आई और जैसी कि परम्परा थी वह प्रथमा के घर ठहरी।
कल्पना बहुत ही लजालू किस्म की लड़की थी। उसके रहते मैं प्रथमा से मिल नहीं पाता था। ऐसे में एक दिन मैं घर में बैठा एक कविता लिख रहा था कि अर्चना का एक पत्र मिला।
पटना आने के बाद भी मैं आपसे मिल नहीं पा रही, क्या यह संभव नहीं कि आप तिरस्कार से ही सही मगर मेरी झोली में अपना एक पूरा दिन डाल दें जिसे मैं हर दिन सजा-सजा कर अल्पना बन सकूं।
यह पत्र अप्रभावी कैसे रहता। मैं अर्चना से मिलने उसके हास्टल गया तो पता चला कि अर्चना फिल्म देखने गई है। बस, आती ही होगी। अर्चना जल्दी ही लौटी थी मगर अकेली न थी साथ में एक लड़का था जिसका नाम राजीव था। अर्चना ने बताया- आज अचानक 15 वर्षों के बाद उसे अपने पूर्व प्रेमी राजीव से मुलाकात हो गई और मैंने एक पुस्तक को पढ़े बिना बंद कर दिया जिसे अभी-अभी पढ़ने के लिए खोलने की सोच ही रहा था।
मैं वापस प्रथमा के पास आया और पूरी कहानी सुनाकर अपने लिए सहानुभूति के कुछ शब्द चाहे थे तो- उसने हंसना शुरू किया तो सूरज को पता चल गया कि उसका भी अस्त होना निश्चित है।
मैं रो रहा था और प्रथमा हंस रही थी।
और मैंने निर्णय लिया सूर्य को जलना होगा- पल-पल, पल-पल प्रति क्षण तड़पना होगा।
मगर यह क्या आज कई दशकों बाद जब वापस पटना आया हूं तो अचानक प्रथमा की एक डायरी हाथ लग गई है। खोलता हूं- ‘‘सूरज को भी कभी अपनी व्यापकता छोड़ किसी ढिबरी में समाना चाहिए। हां, मेरे सूरज तुमने कभी भी प्रथमा को बर्फ की वह ठंडक क्यों नहीं दी जिसकी उसे तलाश थी ? क्यों दूसरों के पत्र पढ़ा-पढ़ा उसे जलाते रहे और अपने सूर्य धर्म को निभाते रहे। हां, सूर्य, तेरी प्रथमा को अब भी तेरी तलाश है मगर तेरे उष्मता के साथ नहीं। उसे छोड़ कर ही तुम अपनी प्रथमा को पा सकोगे।''
और मैं दूर-दूर तक नजर दौड़ता हूं, पूछता हूं प्रथमा कहां है मगर किसी को यह पता नहीं।
मुझे प्रथमा की अभी भी तलाश है क्या आपने उसे देखा है ?
अरविन्द कुमार मुकुल
एल.एफ.27, श्रीकृष्णापुरी
पटना - 800001
मुकुल जी बहुत अच्छी कहानी है . बधाई
जवाब देंहटाएंbahut achchhi kahani ...badhai
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