30 दिसंबरः स्मृतिशेष रघुवीर सहाय : आम-अनाम आदमी के रचनाकार नयी कहानी के विकासक्रम में रघुवीर सहाय की एक अलग छवि है...
30 दिसंबरः स्मृतिशेष
रघुवीर सहाय : आम-अनाम आदमी के रचनाकार
नयी कहानी के विकासक्रम में रघुवीर सहाय की एक अलग छवि है। छायावाद युग में जैसा शांत, निर्मल और खालिस गद्य महादेवी वर्मा ने लिखा, नयी कविता के जमाने में वैसा गद्य रघुवीर सहाय ने। नयी कहानी की एक धारा जहाँ प्रेमचंद का पुनर्नवीकरण करना चाहती थी, वहीं एक दूसरी धारा अज्ञेय-जैनेंद्र के प्रयोगों की दिशा में आगे बढ़ रही थी। इस क्रम में रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, मुक्तिबोध और कुंवरनारायण के नाम आते है। यहां निर्मल वर्मा के अलावे अन्य कहानीकारों की स्थिति मूलतः कवि के रूप में रही है।
रघुवीर सहाय की कहानियां आम-अनाम आदमी के जीवनानुभव और वैसे ही विशेषनहीन गद्य में से उपजती है और उसी में डूबती है। यह महज संयोग नहीं कि 'सीढ़ियों पर धूप में' संग्रह के 'जीता-जागता व्यक्ति' खंड की दस कहानियों में कहीं कोई नामवाची चरित्र नहीं आता। उल्लेखनीय है ये जीते-जागते चरित्र का बडप्पन कि उन्हें नाम की अपेक्षा नहीं। वे अपनी विशिष्टता में पहचाने जाते है। अपनी सहज मानवीयता में वे किसी महिमा को चुनौती देते नजर आते है। अपनी कविताओं की तरह कहानियों में भी रघुवीर सहाय मनुष्य जीवन को उसके परिवेश सहित, समग्रता में पकड़ना चाहते है। कविता में उनकी प्रतिज्ञा थी-
''हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
कम से कम वाली बात न हमसे कहिए ।''
और प्रतिज्ञा का निर्वाह इस प्रक्रिया में था कि कवि जीवन के उपेक्षित से उपेक्षित और तिरस्कृत से तिरस्कृत कोनों तक अपनी निगाह दौड़ाते हैं। रघुवीर सहाय की चिंता महिमा की नहीं है क्योंकि उधर तो सभी आप से आप देखेंगे। उनका घ्यान है ऐसे जीवनानुभव की तरफ जिसे कभी मूल्यवान नहीं समझा गया। इस प्रक्रिया का निर्वाह गद्य में, कहानी में कुछ अधिक ही संगति के साथ रघुवीर सहाय ने किया है। उन्होंने स्वयं लिखा है कि ''क्यों हम बिना किसी अतिरंजित दृष्टि के वह घटना पहचान ही नहीं पाते और उसे पहचान कर चौंकते क्यों है, वह तो मानवीय है, स्वाभाविक है और उसमें कौतूहल क्यों पाते हैं, आनंद क्यों नहीं ?''
मनुष्य जीवन और उसके परिवेश के समग्र की बात का बुनियादी साक्ष्य हम रघुवीर सहाय की कहानी 'जीता-जागता व्यक्ति में देख सकते है, जिसके आरंभ में ही कहानी-कला का मूल मंत्र कह दिया गया है- ''अक्सर मेरा मित्र टोका करता, क्या देखा करते हो सड़क पर चलते हुए।''
''कुछ नहीं दिखायी देता, इसलिए देखता हूँ।'' कहानी एक चिड़िया की है जा सड़क पर फैले कोलतार के कीचड़ में फंस गई है। बहुत यत्न करने पर भी वह उससे निकल नहीं पाती, सहायता के प्रयत्न से और घबरा जाती है। वैसे तो कहानी चिड़िया की भी है और उसकी सहायता करने वाले मनुष्य की भी, तभी यथार्थ की पकड़ समग्रतर हो पाती है। मनुष्य चिड़िया से सहानुभूति करता है, चिड़िया उस सहानुभूति से परेशान अंततः उड़ने में सफल हो जाती है।
पूर्ण सुख और पूर्ण दुख से परे जीवन के धुंधलके का एक बड़ा फलक है, जिसे देखना कवि-कहानीकार का बहुत प्रिय नहीं रहा है क्योंकि उधर दृश्यालेख कुछ दिलचस्प और स्पष्ट नहीं लगता लेकिन रघुवीर सहाय अपनी कहानियों और कविताओं में इसी फलक को विस्तार देते है। उनकी कहानी का गद्य अपने निरीह गरीब-गुरबाओं के रूप में ऐसी दृष्टि को संभव करता है, यह रघुवीर सहाय की सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि विराट की महिमा को भी तब उसके आलोक में सही-सही पहचाना जा सकता है और तब कहानीकार की यह बात कि 'कला तो जीवन के लिए है ही, जीवन भी कला के लिए हो जाता है'', विश्वसनीय हो जाती है।
रघुवीर सहाय 'दूसरे सप्तक' के कवि है। इनके यहां कहानी, निबंध, लेखकीय नोटबुक, वैचारिक लेखन, पत्रकारिता और एक भिन्न स्तर पर गद्य कविता मिलता है। रघुवीर सहाय का गद्य में प्रयोग ऐसा रहा है जो पाठक की कल्पना को सक्रिय बनाता है और विवेचन को उतेजित करता है। रघुवीर सहाय कल्पना को परे रखकर सीधे यथार्थ से कहानी रचते है बल्कि यूं कहा जाए कि एक तरह से कहानी के दोनों प्रारूपों-कल्पना और अतिरंजना तथा दूसरी ओर सीधा-सादा विनम्र यथार्थ को सामने रखते है। उनकी कहानियों में से पाठक उपरोक्त दोनों प्रारूपों में से अपनी इच्छा अनुसार एक प्रारूप चुन सकते है। रघुवीर सहाय का गद्य कुछ ऐसा प्रशमित और एकरूप है कि उसे ललित निबंध में भी कोई खास रंग नहीं बदलना होता। 'मौन' पर निबंध में कुछ यूं लिखा है रघुवीर सहाय ने-'यों भी बोलने में एक सुख है, कोई सुने चाहे न सुने। सुनने वाले के लिए यही बात उलटकर नहीं कही जा सकती, सुनने में एक सुख है, मगर यह तो नहीं कि वह सुख रहेगा ही कोई बोले चाहे या न बोले। इसी से बोलता हूँ अर्थात कहता हूँ कि बोलना सुनने से कुछ बड़ा है।'' इस आरंभिक उपपति के बाद चर्चा आगे बढ़ती है और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि बोलना और मौन बहुत हद तक परस्पर सापेक्ष है। 'लेखक की नोटबुक' का गद्य जितना आत्मीय है उतना ही विचारपरक भी, एक उद्धरण से बात स्पष्ट होगी-''मैं किसी का जवाब देने नहीं खड़ा हुआ हूँ। जो किसी ने कहा है उसका खंडन करना मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है यह देखना कि यदि मैं खंडन करता हूँ तो अंत में क्या विचार किसी के लिए बच रहता है।'' बिना किसी शास्त्रीय प्रयोग किए, रचना कर्म की बुनियादी जरूरत और उसकी प्रकृति क्या है, इसका ऐसा सटीक उदाहरण अन्यत्र कठिनाई से मिलेगा। इस गद्य की कोई व्याख्या संभव नहीं, जो यह कह रहा है और जो है, उसमें कोई अंतर नहीं।
साहित्यिक पत्रकारिता और समाचार पत्रकारिता दोनों से रघुवीर सहाय का गहरा संबंध रहा। 'समाचार पत्र' 'प्रतीक' और 'नवभारत टाइम्स' तथा साप्ताहिक 'दिनमान' के संपादकीय विभागों में रघुवीर सहाय संवाददाता से संपादक तक कई स्थितियों में कार्यरत रहे। प्रसंगवश यहां 'न्यू स्टेटसमैन' के तीन दशकों तक रहे संपादक किंग्सले मार्टिन को उनके मित्र लेखक लेनर्ड वुल्फ ने समझाया, 'सिर्फ सात वर्षों के लिए अखबार का दायित्व स्वीकार करो, इससे अधिक नहीं, क्योंकि पत्रकारिता दिमाग को खोखला कर देती है।'' साहित्यिक पत्रकारिता को रचना कर्म का उपकारक और सहयोगी माना जाता है लेकिन समाचार पत्रकारिता की भूमिका विरोधी मानी गई है। रघुवीर सहाय ने 'दिनमान' और 'नवभारत टाइम्स' की समाचार पत्रकारिता और उसके गद्य को अपने लेखन कर्म के लिए बुनियादी स्तर पर उपकारक बनाया। उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता और समाचार पत्रकारिता के बीच सर्जनात्मक अंतर-क्रिया को जारी रखा। सर्जनात्मक साहित्य और पत्रकारिता के गद्य को परस्पर संक्रमित करके रघुवीर सहाय और कठिन रचना कर्म अर्थात कविता की ओर प्रवृत होते है। भाषा और संवेदना दोनों के स्तर पर पत्रकारिता का अनुभव रघुवीर सहाय के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ। 1984 में उन्हें 'लोग भूल गए' कविता संग्रह के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा गया।
उनके कविता संग्रह यथा, 'सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरूद्ध, हंसो हंसो, जल्दी हंसो, कुछ पत्ते कुछ चिट्ठियां, एक समय था' प्रमुख है। रघुवीर सहाय की प्रमुख कहानी संग्रह, यथा 'रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं' हैं। इसके अतिरिक्त कई निबंध संग्रहें जैसे, 'लिखने का कारण, उबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जायेंगे, भंवर लहरें और तरंग, अर्थात मौन' आदि प्रमुख हैं। रघुवीर सहाय ने दर्जनों अनुवाद किए।
अंत में रघुवीर सहाय की एक तंजात्मक कविता-'मेरी स्त्री'
प्यारे दर्शकों यह जो स्त्री आप देखते है सो मेरी स्त्री है
इसकी मुझसे प्रीति है। पर यह भी मेरे लिए एक विडम्बना है
क्योंकि मुझे इसकी प्रीति इतनी प्यारी नहीं
जितनी यह मानती है कि है।
यह सुदंर है मनोहारी नहीं
मधुर है पर मतवाली नहीं
फुर्तीली है पर चपला नहीं
और बुद्धिमता है पर चंचला नहीं।
देखो यही मेरी स्त्री है और इसी के संग मेरा इतना जीवन बीता है।
और इसी के कारण अभी तक मैं सुखी था।
सच पूछिए तो कोई बहुत सुखी नहीं था।
पर दुखिया राजा ने देखा कि मैं सुखी हूँ
सो उसने मन में ठानी कि मेरे सुख का कारण न रहे तो मैं सुखी न रहूँ।
उसका आदेश है कि मैं इसकी हत्या कर इसको मिटा डालूं।
यह निर्दोष है अनजान भी।
यह नहीं जानती कि इसका जीवन अब और अधिक नहीं।
देखो कितने उत्साह से वह मेरी ओर आती है।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह7815301
झारखंड
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