नये साल में कहे देत हैं ........ जब से तुझे मेरे दिल ने दगाबाज घोषित किया है तेरी बतियाँ मानने की मेरी बाध्यता समाप्त हो गई है। तेरे नाम ...
नये साल में कहे देत हैं ........
जब से तुझे मेरे दिल ने दगाबाज घोषित किया है तेरी बतियाँ मानने की मेरी बाध्यता समाप्त हो गई है।
तेरे नाम की दिल में जितनी जलती हुई ‘बत्तियां’ हैं , उन्हें भी नए साल में फूंक कर बुझा दूँ, ये जी करता है।
तुम हमारे, वेलेंटाइन छाप, एक नजर में देखे मुहब्बत जैसे थे।
तुम्हें याद न हो !रामलीला मैदान में हमने तुमको जो पहली बार देखा था रीझने~ वीझने की पुनीत परंपरा का वैदिक अध्याय हमारे दिल में एंट्री मार लिया था। यानी दिल में घंटियाँ बजने ~बजाने वाला चेप्टर शुरू हो गया था।
तुम किसी अनशनकारी के लिए, हनुमान की भूमिका में उन दिनों अवतरित हुए थे शायद।
शुरू शुरू में हमें लगा था कि ,अनशनकारी के निम्मित्त आए निवालों पर, तुम्हारी नजर रहा करती थी।
लगता था, किसी लोक लिहाज के भय से, तुम निवालों की तरफ से नजरें फेरने~ चुराने लगे हो।
उस समय ये भी लगता था, कि कोई लपलपाती जिव्हा को शांत करते हुए रह सकने वाले ‘आदमी’ में, किसी को शुमार करने और पारितोषिक देने की नौबत आये तो अपनी तरफ से मैं तुमको अव्वल पे रखूंगी।
तुम्हारा धांसू आइडिया, मुझको भाया ही नहीं वरन मेरे गले तक भी उतर गया।
क्या खेल खेल में ‘आम’ के सेम्बाल वाली ‘एक नई पार्टी’ जनम ले सकती है?ऐसे अचंभे को तुमने कर दिखाया..... ?
चूसे हुए ‘आमों’ के बीच से, कितनी सहजता से तुमने ‘रसदार आम’ अपने सेहत के नाम से अलग निकाल लिया। काबिले तारीफ .....
हम ‘गुठलियों’ की पीड़ा को समझने वाला, कोई मसीहाई अवतार से लगने लगे थे उन दिनों।
गजब का स्टाइल .... बिजली के खंभों पे चढ़ के, जनता के लिए ‘कांटे फंसाने वाला’ कोई शख्स हजारों साल की पालिटिक्स में कहाँ पैदा हुआ था ?
‘जनता छाप’ लोगों के, दुःख दर्द जानने की कोशिशों ने, मुझको ,मेरी बहनों को तुम्हारा दीवाना सा बना दिया था। तुम्हारे हाथ को चूमने, सहलाने की इच्छाओं को बार~बार दबाना पड़ता था। जमाने से डरते थे,...... लोग क्या कहेंगे......? वाला लिहाज हम पर काबिज जो था।
तुम्हारी मेहनत को देखकर याद आया ,कहते हैं ना, कि किसी की लगन उत्साह और मेहनत को देख के, खुदा को मेहरबान होना ही पड़ता है। अल्लाह की मेहर तुम पर इफरात बरसी।
तुमने गली~गली, जो डंका बजाया ,उसकी गूंज में दिग्गज से दिग्गज धराशायी हुए। अंगद के पैर जो सालो से जमे थे उखड गये। जिस जगह से पिछले तीन चार इलेक्शन जो न हारे थे वे हारे।
सटोरियों के कमजोर भाव वाले मुहरों को, एकाएक जो उछाल तुमने दी ,उसकी तारीफ के पुल हम क्या बांधे ?सारे जमाने ने, दांतों तले उगली दबा के, साल भर पहले ये तमाशा खूब देखा है।
ये सब बातें तो जग जाहिर बातें हैं।
हम कुछ ज्यादा कह गए हों तो हमारा मुह काला हो .....
तुम्हें जनता ने बेतहाशा प्यार दे के,तुम्हारे सर पे ताज धर दिया। तुम ताज पहनने के आदी न थे ये तो माना। मगर ताज के काबिल न बनोगे ये मानते हुए आज भी बहुत दुःख होता है।
ताज को पाने की कोशिश करते देख के लगता था,तुमसे ज्यादा हुनरमंद ,चालाक ,चालबाज, काबिल,होशियार ,होनहार पालिटिशीयन दूसरा नहीं। मगर अचानक ‘मंद हुनर’ बन के अपनी सभी काबिलियतों को क्या खा के, किसके दबाव में अचानक चूना लगा गए आज भी किसी सस्पेंस से कम नहीं है।
लोग तो, ‘सत्ता से चिपकने के हजार बहाने’ वाली पुस्तक की भूमिका से निष्कर्ष तक घोट के पिए रहते हैं। तुमको भले मानुष !,इस किताब के स्वाद को चखने भर से कौन सी अलर्जी हो गई कि दो महीने भी टिक न पाए।
बताओ भला ....?जितना था...... उतने में क्या कमी थी ......?
जिस अल्लादीन ने अठ्ठाइस थमाया था, उसने आठ का इन्तिजाम और भी तो कर दिया था। और हाँ ....परसी हुई थाली को कोई लात मार के जाता है भला ...दुमछल्ले ..?
तुमने वही किया ......।
लोक सभा वाली ,छप्पन ~भोग की उड़ती गंध तुम्हारे नथुनों में क्या समाई तुमको कुछ सूझा ही नहीं ,छुट्टे सांड की आत्मा घुस आई थी क्या ?
सफलता की सीधी ,सधी हुई सीढ़ी सामने दिख रही थी ,आगा पीछा देखे बिना लपक लिए।
माना ,तुम्हारी जगह कोई दूसरा भी यही करता ,मगर पालिटिकल प्लानिंग के साथ देखके करता। खुद कहाँ~ कहाँ चैलेंज भिजवाते फिरोगे ......?
अपने पार्टी के अन्दर नये जन्मे विरोधियों को जिन कामों में लगाना था उधर अपने आप को झोंकते फिरे।
चने और भाड फोड़ने की कहावत ही मन में दुहरा लेते मेरे .... अकेले चने ,,,,,,
वैसे भी ,एक दिन में स्वाद~बेस्वाद छप्पन भोग खाने की कोई कह भी कहाँ रहा था, जो घबराय गये। धीरे~ धीरे ठंडा कर कर के खाते होते ......रोका किसने था .....?
पासा उलटा पड़ने की कहावत लागू होने का सउदाहरण किस्सा,प्रथम दृष्टिया ,किसी पाठ्यक्रम में डालने लायक नजर आता है ,हुजूर।
अब कहे देत हैं ,तुम सफाई करने वाले की भूमिका में जमते नहीं .....?बीमार पड़े दीखते हो.....।तुम्हारे भले के लिए कह रही हूँ ,वरना मुझे क्या पड़ी है ......?सफाई करने को ढेरों पड़े हैं बाक़ी के काम उन से करवाओ वे लोग क्या घास छिलेंगे ?
अपने अकल का तुम्हारे कुछ ठिकाना पता सही हो गया हो तो, मैदानं फिर सामने है कूद जाओ, काठ की पुरानी हांडी लेकर ।
अब की बार सम्हाल के कूदना ,लोगो ने सुन रखा है काठ की हांडी दुबारा नहीं चढ़ती।
तुम्हारी दगाबाजी के किस्सों को पडौसनें बढ़ा`चढा कर जब~ तब बताती हैं तो, मुझे न जाने क्यों कुछ~ कुछ होता है।
मैं घुप्प अन्धकार में अगर रहती तो तुम्हारी बातों को आंख मूंद कर मानती। तुम्हारे इशारों पे चलती.....।तुम्हारी वन्दना करती।
मगर पडौसनों के मुख सुने तुम्हारी नादानी के किस्सों के चलते,तुम्हारी वादाखिलाफी की बदौलत , तुम्हें दगाबाज मान लेने को जी मजबूर सा हो गया है। क्या करें......?
,सो क्षमा के साथ, नये साल में कहे देत हैं ........
दगाबाज तोरी........
सुशील यादव
श्रिम सृष्ठी अटलादरा
वडोदरा ३९००१२
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