राकेश भ्रमर की कहानी - गांव में एक दिन

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गांव में एक दिन राकेश भ्रमर मैं लगभग बीस साल बाद गांव आया था. जबसे पिताजी नहीं रहे, गांव आना लगभग समाप्त हो चुका था. साल दो साल में किसी शा...

गांव में एक दिन

राकेश भ्रमर

मैं लगभग बीस साल बाद गांव आया था. जबसे पिताजी नहीं रहे, गांव आना लगभग समाप्त हो चुका था. साल दो साल में किसी शादी-ब्याह में घंटे-दो घंटे के लिए गांव या उसके आस-पास के क्षेत्र में रिश्तेदारियों में आना-जाना होता रहता था, परन्तु इस प्रकार का आना न आने के बराबर होता था. उस दौरान न तो किसी से ज्यादा घुल-मिलकर बातें हो पाती थीं, न किसी को ठीक से जानने का मौका मिलता था. गांव के बारे में छिटपुट जानकारियां मिलती रहती थीं, परन्तु उससे गांव में होनेवाले परिवर्तनों के बारे में सही तरीके से पता नहीं मिल चल पाता था.

गांव में मेरा कोई सगा-संबंधी नहीं था. खानदान के लोग थे, परन्तु उनसे केवल शादी-ब्याह के अवसर पर औपचारिक तौर पर मिलना हो पाता था. वहां अगर कोई खास था, तो मेरा एक दोस्त था, जो मेरे साथ इलाहाबाद में पढ़ता था. बी.ए. तक की शिक्षा पूरी करने के बाद उसने नौकरी नहीं की थी. गांव में आकर बस गया था. उसके पास अच्छी-खासी पुश्तैनी खेती की ज़मीन थी. उसी को आधुनिक तरीके से विकसित कर वह खेती कर रहा था और अच्छी कमाई कर रहा था. उसने अपनी खेती को फार्म हाउस में बदल दिया था. छठे-छमासे राजेन्द्र ही मुझे फोन करता था और जब भी फोन करता, गांव आने के लिए जरूर कहता. मैं भी ‘हां, आऊंगा’ कहकर फिर से प्रशासनिक और पारिवारिक कार्यों में व्यस्त हो जाता. बात आई-गई हो जाती.

गांव जाने का कोई विशेष कारण मेरे पास नहीं था, इसीलिए बीस साल तक मैं गांव नहीं जा सका, परन्तु इस बार कुछ ऐसा संयोग बना कि मेरी तैनाती मेरे गृह ग्राम से केवल 100 किलोमीटर की दूरी पर हो गई. अब मेरे पास कोई बहाना नहीं बचा था कि मैं अपने मित्र के आग्रह को टाल सकता, अतएव एक शनिवार को अपनी गाड़ी से गांव के लिए रवाना हो गया. बच्चों से कहा, परन्तु वह गांव की धूल-धक्कड़ खाने के लिए तैयार नहीं हुए. बीवी ने भी मना कर दिया. आधुनिक सभ्यता की चकाचौंध ने नई पीढ़ी को ग्रामीण अंचल से बहुत दूर कर दिया है या उनके मन में गांवों के बारे में ऐसी भ्रांतियां भर दी हैं, जो किसी भी तर्क और प्रमाण से दूर नहीं की जा सकती हैं.

सुबह के ग्यारह बजे मैं अपने मित्र के फार्म हाउस पर पहुंच गया था. उसने बड़ी खुशदिली और गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया. गले मिलते हुए पूछा, ‘‘भाभी और बच्चों को नहीं लाए?’’

मैंने संकोच करते हुए कहा, ‘‘क्या बताऊं दोस्त, आजकल के बच्चे गांवों की तरफ नहीं अमेरिका की तरफ भागते हैं. उनकी आंखों में भौतिकता की चमक है और वह भारत में रहते हुए भी यहां की सभ्यता और संस्कृति को हेय दृष्टि से देखते हैं.’’

‘‘हां, अब तो गांवों के भी बहुत सारे लड़के दुबई, कुवैत, बहरीन और अन्य कई अरब देशों में जाकर काम कर रहे हैं. ढेरों रुपया भेजते हैं. उनके घरों में समृद्धता आ गई है, परन्तु रिश्तों में बहुत दूरियां हो गयी हैं. गांव में पक्के मकान हैं, परन्तु गलियां सूनी हैं. एक-दूसरे से मिलना-जुलना कम होता है. किसी के पास समय ही नहीं है कि एक दूसरे के पास जाकर गप्प-शप्प मार सके.’’

‘‘लगता है, शहर ने गांवों में अपने पैर पसार लिये हैं. गांवों में आई समृद्धता के कारण अपनापन समाप्त हो गया है.’’

‘‘यहीं एक कारण नहीं है. मैं तो गांव में रहता हूं, मुझे पता है. यहां एक दूसरे से दूरियों के अन्य कारण भी हैं. समृद्धता के साथ यहां अपराधों ने भी जन्म ले लिया है. एक जमाना था, पारिवारिक झगड़ों के अलावा किसी प्रकार के झगड़े यहां नहीं होते थे, परन्तु अब तो बेवजह भी यहां झगड़े, लड़ाइयां होती हैं. तुम्हें पता नहीं होगा, इस गांव में कई हत्यायें भी हो चुकी हैं, मार-पीट तो आए दिन होती रहती है.’’

‘‘अच्छा,’’ मैंने आश्चर्य व्यक्त किया. यह मेरे लिए अफसोसजनक भी था कि गांव के लोगों के बीच भाईचारा खत्म हो चुका था. नई पीढ़ी परम्पराओं, नैतिकता, संस्कारों, मर्यादा और सदाचरण से दूर होती जा रही थी. इसीलिए अपराध पनप रहे थे.

‘‘गांवों में होनेवाली घटनाओं के बारे में रात में बात करेंगे.’’ मैंने मित्र से कहा.

चाय-पानी के बाद मैंने गांव घूमने का मन बनाया. मित्र भी साथ हो लिया. हम दोनों उसके फार्म हाउस से निकलकर दक्षिण दिशा में चले, जिधर मेरे बचपन और जवानी के दिनों तक एक लंबा-चौड़ा ऊसर का मैदान हुआ करता था. हमारा इंटर कॉलेज इसी दिशा में था और गांव के बच्चे जब टोली बनाकर स्कूल-कालेज के लिए निकलते थे तो इस मैदान में हम लोगों की दौड़ लगा करती थी. इसी क्रिया को हम लोग स्कूल से लौटते समय भी दोहराते थे.

मुझे उस दिशा में दूर-दूर तक कहीं ऊसर का मैदान नज़र नहीं आया. चारों तरफ खेंतों की लंबी-लंबी कतारें थीं, जिनमें धान की फसल लहलहा रही थी. वह कुआर का महीना था और कुवारी धान की फसल पक चुकी थी, अगहनी धानों में अभी तक फूल नहीं आए थे, परन्तु फिजां में कच्चे-पक्के धानों की मनमोहक सुगन्ध बिखरी हुई थी. हल्की-हल्की पुरवाई भी मन को आह्लादित कर रही थी. आसमान साफ था, इसलिए धूप थोड़ी तीखी थी, परन्तु पुरवाई की ठंडक से धूप उतनी कष्टदायक नहीं लग रही थी.

मैंने प्रश्नवाचक भाव से मित्र की तरफ देखा, और पूछा, ‘‘मित्र वह ऊसर कहां चला गया?’’

‘‘वह तो कभी का टुकड़ों में बंटकर लोगों के कब्जे में आकर खेतों में तब्दील हो गया. कुछ ज़मीन सरकार ने गरीबों को आबंटित कर दी और कुछ ज़मीन दबंगों ने अपने कब्जे में कर ली. इस तरह ऊसर और चारागाह खत्म हो गये. जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती रही, मकानों की आवश्यकता भी बढ़ती रही. गांव के किनारे के खेतों में मकान बन गये. ऊसर और खाली मैदान, जहां कभी जानवर चरा करते थे, खेतों में बदल गये. आज कहीं भी एक इंच ज़मीन खाली नहीं मिलेगी, सब तरफ खेत ही खेत हैं.’’

सच में देश तरक्की कर रहा है. जनसंख्या बढ़ रही है, नए-नए मकान बन रहे हैं, ऊसर ज़मीन उपजाऊ ज़मीन में बदल रही है, पेड़ कट रहे हैं. आदमी को पेड़ों की ठंडी छांव की जरूरत नहीं है, वह गमलों में लगे फूल-पौधों को देखकर खुश हो रहा है. प्राकृतिक हवा के बजाय पंखों की हवा से ताजगी अनुभव कर रहा है, या वातानुकूलित कमरों की ठंडक से दिल में तरावट महसूस कर रहा है. जीवन कितना बदल गया है, सचमुच देश ने बहुत तरक्की की है. मैंने एक अफसोस की सांस ली और आगे बढ़ गया.

मित्र मेरे पीछे-पीछे आता हुआ कह रहा था, ‘‘ऊसर के बीच में जो रास्ता था, वह पक्की सड़क बन गया है, उस पर अब हम फार्राटे से गाड़ियां दौड़ाते हुए गांव से कस्बे दस मिनट में पहुंच जाते हैं.’’

हम दोनों सड़क पर पहुंच गये थे. मित्र ने बताया, सड़क अभी तीन साल पहले ही बनी थी, परन्तु वह इस कदर टूट चुकी थी कि लगता था उसे बने हुए दस-बीस साल हो गये हैं, जबकि उससे कोई भारी वाहन नहीं गुजरता था. केवल मोटर साइकिलें और कभी-कभी छोटी गाड़ियां गुजरती थीं. परन्तु सड़क में जगह-जगह गड्ढे थे और उसके कंकड़-पत्थर उछलकर इधर-उधर बिखर गये थे.

हम लोग उसी सड़क से पैदल चलते हुए पश्चिम की दिशा में नहर की तरफ बढ़े. मुझे याद है, बरसात के दिनों में यह रास्ता पानी और कीचड़ से भर जाता था, तब हम लोग नहर के रास्ते घूमकर अपने इंटर कॉलेज जाते थे, जो उस रास्ते से लगभग दूनी दूरी पर पड़ता था, परन्तु इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था. अब सड़क बनने से सुविधा हो गयी थी. बरसात के पानी-कीचड़ से लोगों को निज़ात मिल गयी थी.

नहर की पुलिया पर खड़े होकर मैंने दोनों दिशाओं में देखा. नहर का जो स्वरूप मेरी आंखों में बसा हुआ था, वह कहीं नजर नहीं आ रहा था. नहर के अंदर दोनों किनारों पर ऊंची-ऊंची घास और पतवार उगी हुई थी. नहर की तली में मिट्टी की ऊंची परत जमी हुई थी, जैसे वहां बाहर से मिट्टी लाकर डाली गयी हो. नहर की तलहटी में भी लंबी-घनी घास उगी हुई थी, जैसे बरसों से उस पर पानी का बहाव नहीं हुआ था.

‘‘क्या नहर में पानी नहीं आता आजकल?’’ मैंने मित्र से पूछा.

वह दुखी स्वर में बोला, ‘‘आजकल की छोड़ो, मुझे तो यह भी याद नहीं कि नहर में कितने वर्ष से पानी नहीं आया है. बरसात में भी इसमें पानी नहीं बहता है.’’

‘‘फिर सिंचाई का काम?’’

‘‘लोगों ने अब नलकूप लगवा लिये हैं, पम्मसेट गड़वा लिये हैं, काम चल जाता है.’’

अफसोस की फिर एक लंबी सांस... मैं राज्य सरकार में अधिकारी था और मुझे अच्छी तरह पता था कि राज्य में सिंचाई मंत्री थे, सिंचाई विभाग था, उसमें सचिव स्तर से लेकर अन्य सैकड़ों अधिकारी और हजारों कर्मचारी थे. पूरा महकमा काम कर रहा था, परन्तु नहर विभाग इस तरह उपेक्षित कैसे था, यह समझ में नहीं आ रहा था. अधिकारी और मंत्री कर क्या रहे थे?

मेरे बचपन में नहर में लगभग बारहों महीने पानी आता था. इसी से गांव के खेतों की सिंचाई होती थी, कुछ खेतों की सिंचाई तालाब के पानी से होती थी, या रहट या पुराही से, परन्तु 90 प्रतिशत सिंचाई नहर के पानी से होती थी और अब नहर में पानी ही नहीं आता था.

इस नहर की पुलिया के नीचे पानी झरने की तरह गिरता था. पानी आने की दिशा में ज़मीन ऊंची थी. इस पुलिया के बाद नहर की सतह नीची हो गयी थी, अतः पानी आने की दिशा में एक पक्की दीवार बना दी गयी थी, उसके बीच में पानी निकलने के लिए कटाव था, जहां से नहर का पानी झरने की शक्ल में नीचे गिरता था. उसका मधुर संगीत हर आने-जाने वाले को कुछ देर के लिए वहां रोक लेता था. मैं जब बचपन में इस दिशा में जानवर चराने के लिए आता था तो पुलिया पर बैठकर कल-कल की आवाज के साथ पानी को गिरते हुए देखता-रहता. जब नहर में पानी नहीं आता था, तब पुलिया के नीचे की खाली जगह में, जहां झरना गिरने के कारण गड्ढा बन गया था, कई प्रकार की मछलियां इकट्ठा हो जाती थीं. लोग उन्हें पकड़ने के लिए आते थे. मैं भी कभी-कभी वहां मछली पकड़ने के लिए उतर जाता था. परन्तु इस दुःसाहस के मुझे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते थे. मेरे बाबा मेरे किसी तालाब या नदी-नाले में उतरने के सख्त खि़लाफ़ थे और अगर उन्हें पता चल जाता था कि मैंने ऐसी कोई हिमाकत की थी तो जमकर मेरी ठुकाई होती थी.

अब तो नहर में पानी भी नहीं था. मैं न तो झरने के संगीत का मजा उठा सकता था, न नहर की पुलिया के नीचे इकट्ठा हुई मछलियों के दर्शन कर सकता था.

सूरज सिर पर आ गया था. धूप अब और तीखी हो गयी थी और बदन को चुभने लगी थी. मैं चुपचाप खड़ा मुर्दा नहर को देख रहा था और मेरे मन में बचपन के सुनहरे दिनों की यादें एक-एक कर आती जा रही धीं. बचपन की यादों से निकलने का मन नहीं हो रहा था, परन्तु तभी मित्र ने टोंक दिया, ‘‘आओ, अब चलें. दोपहर के खाने का समय हो रहा है. नहा-धोकर खाना खाकर कुछ देर आराम करेंगे. धूप कम होने पर बाकी गांव का भ्रमण करेंगे.’’

हम दोनों फार्म हाउस पर लौट आए. मित्र के फार्म हाउस पर रसोई बनाने की व्यवस्था थी, परन्तु वहां खाना विशेष अवसरों पर ही बनता था. आज उसके घर से खाना बनकर आया था.

नहाने के लिए मित्र ने पम्पसेट चालू कर दिया. पाइप से बर्फ सा सफेद पानी तेजी से निकलकर टंकी में गिरने लगा. साफ-सुथरा पानी देखकर एक बारगी तो मेरा मन भी नहाने का हुआ, परन्तु मैं सुबह नहा-धोकर घर से चला था, इसलिए केवल हाथ-मुंह धोया. मित्र ने वहीं स्नान किया और फिर हम लोगों ने खाना खाया.

मन थोड़ा-थोड़ा उदास था. गांव की दुर्दशा पर दुख हो रहा था. आखिर देश के कर्णधार इस देश को कहां ले जा रहे थे. विकास के नाम पर प्राकृतिक धरोहरों का विनाश करते जा रहे थे. गांव और शहर प्रकृति की सुन्दरता को निगलते जा रहे थे, और हम बेखबर थे.

तीसरे पहर मैं अपने मित्र के साथ गांव घूमने के लिए निकला. गांव की गलियां पक्की हो गयी थीं, कहीं-कहीं खड़ंजा लगा था, पक्की नालियां बन गयी थीं. अब कहीं कच्चे मकान नजर नहीं आते थे. गांव में सम्पन्नता ने पैर पसार लिये थे, परन्तु किस कीमत पर...गलियां सूनी थीं. घरों के बाहर लोग दिखाई नहीं पड़ रहे थे.

मैंने पूछा, ‘‘गांव में इतना सन्नाटा क्यों है?’’

मित्र ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैंने बताया था न, गांव में अब भाईचारे जैसी कोई बात नहीं रह गयी है. लोग वैमनस्यता की छांव में दिन बिताने के लिए मजबूर हैं. युवाओं में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, लड़कियों से सरेआम छेड़खानी होने लगी है. मोबाइल और टीवी ने गांव की संस्कृति में सेक्स, बलात्कार और लूटपाट का जहर घोल दिया है.’’

‘‘तो क्या अब लोग आपस में मिलते-जुलते नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, बस आमने-सामने पड़ गये तो दुआ-सलाम कर ली, वरना हर आदमी अपने खेत और घर के बीच कैद होकर रह गया है. अब किसी के घर के सामने महफिलें, चौपालें नहीं लगतीं, देश-विदेश की बातें नहीं होती. राजनीति के चर्चे नहीं होते. लोग अपने में सिमटकर रह गये हैं. पता नहीं कौन सा रोग इस गांव को लग गया है कि भाईचारा और प्यार मोहब्बत खत्म हो गया है.’’

हम दोनों चलते जा रहे थे, और बातें करते जा रहे थे. गलियों में चलते हुए इक्का-दुक्का आदमी-युवा और बूढ़े मिल जाते थे, परन्तु कोई भी मुझे पहचान नहीं पा रहा था. युवा मुझे इसलिए नहीं पहचानते थे कि उन्होंने मुझे कभी देखा नहीं था और बूढ़े इसलिए नहीं पहचान पा रहे थे कि मैं बीस साल बाद गांव में आया था और इन बीस सालों में न केवल मुझमें परिवर्तन आ गया था, बल्कि गांव के लोग भी बदल गये थे. बुढ़ापे के असर ने उन्हें जर्जर कर दिया था. मेरे भी आधे से अधिक बाल सफेद हो गये थे, शरीर मोटा और कुछ हद तक थुलथुल हो गया था. गाल भरे हुए थे और सफाचट मूंछों ने पूरी शक्ल ही बदल दी थी. मित्र से मैं पूछता जा रहा था और पहचान कर बड़े-बूढ़ों को नमस्कार करता जा रहा था.

नाम बताने पर बुजुर्ग मुझे पहचान जाते थे, क्योंकि उन्हें मेरे बारे में पता था और वह जानते थे कि मैं शहर में सरकारी अधिकारी था.

परन्तु दुआ-सलाम के बावजूद किसी व्यक्ति ने मुझे अपने घर पर बुलाकर चाय-पानी के लिए नहीं पूछा, जबकि कई व्यक्ति तो अपने घर के सामने ही मिले थे. उन्होंने औपचारिक बातें कीं, हाल-चाल पूछे और बस...कहीं से भी मुझे किसी के व्यवहार में आत्मीयता नहीं लगी. समय के साथ लोगों में शारीरिक परिवर्तन ही नहीं होते, स्वभावगत और व्यवहारगत परिवर्तन भी होते हैं. यह आज मुझे गांव आकर पता चल रहा था.

गावों में जनसंख्या बढ़ गयी थी, पुराने कच्चे मकान पक्के हो गये थे. नए मकान बनते जा रहे थे, परन्तु लोगों के दिल खाली होते जा रहे थे. जब लोगों के घरों में सम्पन्नता आती है, तो दिलों के बीच दूरियां भर जाती हैं.

गांव के उत्तर-पूर्वी किनारे पर एक बड़ा तालाब था, जिसे उसकी विशालता के कारण बीस सागर कहा जाता था. इसे झील नहीं कहा जा सकता था, परन्तु तालाब काफी बड़ा था और इसमें पूरे साल पानी नहीं सूखता था. कितनी भी गर्मी पड़ती थी, परन्तु तलहटी में पानी जरूर बचा रह जाता था. इस तालाब में जाड़े के दिनों में सरवन नाम के साइबेरियन पंछी आते थे. वह जाड़ा आरंभ होते ही आ जाते थे और गर्मी का अहसास होते ही चले जाते थे. रात दिन उनकी चहचहाहट से पूरा गांव गुंजायमान रहता था. पंछी पूरे तालाब की शोभा थे.

गांव का चक्कर लगाकर जब हम उत्तरी दिशा में पहुंचे तो मेरा दिल धक् से रह गया. तालाब की जगह पर उंची-उंची टेकरियां थीं, जैसे वहां मिट्टी का भराव किया गया था. तालाब के दक्षिणी और पश्चिमी किनारों पर लोगों ने अपने मकान बना लिये थे, जिससे तालाब का अस्तित्व सिमटकर आधे से कम रह गया था. आधे तालाब में भी मिट्टी भर गयी थी और उसमें पानी का नामोनिशान तक नहीं था. केवल आभास सा होता था कि किसी जमाने में वहां कोई तालाब हुआ करता था. ऐसा कैसे हुआ?

मैंने मित्र की तरफ देखा और पूछा, ‘‘क्यों भाई, इस तालाब को क्या हो गया?’’

वह व्यंग्यात्मक हंसी हंसकर बोला, ‘‘होना क्या था, जब धरती पर पाप बढेंगे तो तालाब क्या नदी, सागर सभी सूख जायेंगे.’’

‘‘परन्तु अपने गांव के इस तालाब के सूखने का क्या कारण है?’’

‘‘इसके कुछ कारण तो मनुष्यों द्वारा उत्पन्न किये गये हैं और कुछ आस्था और विश्वास से जुड़े हुए हैं.’’

‘‘वह कैसे?’’ मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी थी.

‘‘लगभग दस साल पहले की बात है. उस वर्ष अतिवर्षा के कारण चारों तरफ बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई थी. चारों तरफ पानी ही पानी नज़र आता था. खेत, खलिहान, नदी, नाले, तालाब और कुएं सब पानी से लबालब भर गये थे. पता ही नहीं चलता था कि कहां तालाब है, कहां नाला है और कहां कुआं है? उसी वर्ष इस तालाब में मछलियों की भरमार हो गयी. तुम्हें याद है, इस तालाब में गांव के लोगों को छोड़कर कभी कोई मछली नहीं मारता था, वह भी ज्यादातर कांटा लगाकर. जाल तो शायद ही कोई डालता था. परन्तु उस वर्ष विनाश की देवी ने ग्राम प्रधान के मन में लालच भर दिया और उसने लोगों के मना करने के बावजूद तालाब की मछलियां बेच दीं.’’

‘‘फिर...?’’

‘‘फिर क्या? वही हुआ जो होना था. मछेरों ने बड़े-बड़े जाल डालकर बेरहमी से मछलियों का शिकार किया. शिकार करने के कारण पंछी भी उड़ गये. कई दिनों तक मछलियों का शिकार होता रहा और बेचारे पंछी उड़कर आते, आसमान के कई चक्कर लगाते, परन्तु तालाब में बड़े-बड़े जाल तथा शिकारियों को देखकर निराश लौट जाते और एक दिन ऐसा गये कि दुबारा लौटकर नहीं आये. आज तक नहीं आये. हम लोग तो उस पछी के दर्शन को तरस गये.’’

‘‘वह तो होना ही था. मनुष्य के लोभ और क्रूरता से पशु-पछी ही नहीं प्रकृति का भी विनाश होता है, परन्तु यह तो बताया नहीं कि तालाब कैसे सूखा.’’

‘‘पता नहीं यह किसका अभिशाप था कि उस साल के बाद न तो तालाब में पानी भरा, न पंछी लौटकर आये. अगले साल बारिश में पानी तो तालाब में आया, परन्तु उसके साथ ही इतनी ज्यादा मिट्टी बहकर आई कि तालाब की तलछटी में गाद भर गयी, सतह उंची हो गयी. पानी कहां टिकता?’’

इतने बड़े और गहरे तालाब के सूख जाने के जो भी आस्था, विश्वास और अभिशाप के कारण रहे हों, परन्तु यह सच था कि मनुष्य के अतिक्रमण और विकास की गतिविधियों से इसका विनाश हुआ था. मुझे याद है, मेरे बचपन में भी तालाब के किनारों पर जिन लोगों के घर थे, वह अपने घर का कूड़ा-कचरा और मिट्टी तालाब के किनारे डालते रहते थे, जिससे तालाब सिकुड़ता जा रहा था. उन दिनों भी कई लोगों ने तालाब को पाटकर अपने घरों के सहन बढ़ा लिये थे और कई लोगों ने उनमें दीवारें भी खड़ी कर दी थीं, जो बाद में कमरों में तब्दील हो गयीं.

मेरे बचपन के दिनों में गांव के आधे से ज्यादा मकान कच्चे थे और गर्मियों में उनकी मरम्मत के लिए गीली मिट्टी के साथ-साथ घरों के अंदर ज़मीन को समतल बनाने के लिए तालाब से मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले उखाड़कर निकाले जाते थे. कच्चे मकान की दीवारें भी तालाब की मिट्टी से बनती थीं. इसके अतिरिक्त कुछ संपन्न लोग तालाब की मिट्टी से ईंटें बनवाकर वहीं भट्ठे लगवाते थे. इस तरह हर साल तालाब की तलहटी से मिट्टी निकाले जाते रहने के कारण उसकी गहराई बनी रहती थी. परन्तु जब से पक्के मकान बन गये, लोगों ने तालाब से मिट्टी निकालनी बंद कर दी. नतीजा यह हुआ कि प्रत्येक वर्ष बरसात के पानी के साथ तालाब में मिट्टी भरती रही और तालाब गायब होता रहा. इसमें दोष किसको दें?

मैंने मित्र से पूछा, ”मनरेगा के तहत सरकार की तरफ से तालाबों को खुदवाकर पक्का करवाने का अभियान चलाया जा रहा है. क्या इस तालाब को सरपंच ने नहीं खुदवाया?“

मित्र बड़ी जोर से हंसा, ”यार, तुम भी शहर जाकर घनचक्कर बन गए हो. तुमको नहीं मालूम कि सभी सरकारी योजनाएं केवल अधिकारियों और कार्यकर्ताओं की जेबें भरने के लिए चलाई जाती हैं. इस तालाब की खुदाई करके गहरा करने के लिए पता है कितने रुपये खर्च किए गये हैं.“

”कितने...?“ मैंने उत्सुकता से जिज्ञासा प्रकट की.

”पूरे पांच लाख...“

”तो फिर यह गहरा क्यों नहीं हुआ?“

“कैसे होता? दस-पांच मजदूरों ने कुछ दिन काम किया. काम क्या किया, काम के नाम पर तालाब के किनारे की थोड़ी बहुत मिट्टी काटकर बगल में डाल दी. कागजों में सैकड़ों मजदूरों के नाम दर्ज किये गये. उनके नाम से बैंक में फर्जी खाते खुलवाकर सरपंच और अधिकारियों ने सारा पैसा हड़प कर लिया. उधर पैसा गायब हुआ, इधर अगली बरसात में तालाब की मिट्टी फिर से बहकर तालाब में आ गयी.“

प्रशासन की लूट-खसोट तो हर व्यक्ति जानता है. मैं मित्र से क्या बयान करता. चुप रह गया.

चूंकि मैंने अपने बचपन के सुनहरे दिन गांव में गुजारे थे और तब प्रकृति की सुनहरी छटा के साथ मैंने दौड़ते-भागते, उछलते-कूदते अपना बचपन वहां गुजारा था, मुझे गांव की बरबादी पर अधिक दुख हो रहा था. जब बरबादी क्रमिक रूप से आती है, तो किसी को विनाश की गति का पता नहीं चलता और वह दुखी नहीं होता. परन्तु मैंने अचानक गांव की बरबादी को बीस साल बाद देखा था, तो मुझे विनाश के लक्षण साफ-साफ दिखे थे, इसलिए मुझे अति दुख हुआ था. गांववाले इससे बेखबर थे.

रात को जब हम दोनों मित्र खाना खाकर लेटे, तो मित्र ने गांव की दो-चार ऐसी अनहोनी बातें बताईं, जिन्हें सुनकर मुझे भी अत्यन्त दुख हुआ. यह मेरे लिए कल्पनातीत नहीं था कि गांव में हत्या जैसे जघन्य अपराध की घटनाएं भी हो चुकी थीं.

दुनिया के प्रत्येक कोने में प्रेम-मोहब्बत, दुराचार, व्यभिचार, अपहरण, बलात्कार और शारीरिक शोषण की घटनाएं होती रहती हैं. इनके कारण हत्यायें भी होती हैं, परन्तु जहां तक मैं जानता हूं, मेरा गांव हत्या जैसी जघन्य घटनाओं से अछूता था. किसी बुजुर्ग ने भी ऐसी किसी घटना का जिक्र कभी नहीं किया था. मैं गांव में लगभग 22 साल की उम्र तक रहा था और मेरी जानकारी में ऐसी कोई घटना मेरे गांव में कभी नहीं हुई थी, परन्तु लगभग पन्द्रह साल पहले इस गांव में हत्या की पहली घटना हुई थी.

मित्र ने बताया कि इसकी शुरुआत बेचारे महेश की मृत्यु से हुई. वह बेचारा गरीब आदमी था, शक्ल-सूरत का बहुत साधारण और रंग बिलकुल आबनूस की तरह काला, परन्तु सौभाग्य या उसके दुर्भाग्य से उसकी बीवी खूब गोरी-चिट्टी और खूबसूरत थी. उसकी जाति में ऐसी सुंदर लड़कियां दुर्लभ थीं. कहते हैं, उसकी बीवी ही उसका दुर्भाग्य अपने साथ लेकर आई थी. वह सुंदर ही नहीं स्वभाव की चंचल थी. महेश गोविंद सिंह का खेतिहर मजदूर था. बीवी भी उसके साथ ठाकुर के खेतों में काम करती थी. गांव का यह अलिखित काला इतिहास है कि गरीब औरतों का सदा दबंगों द्वारा यौन-शोषण किया जाता रहा है. बहलाने-फुसलाने, लालच से लेकर डराने-धमकाने तक के हथकंडे अपनाए जाते हैं, और कोई भी गरीब की जवान लड़की या बहू बिना शोषण के नहीं बचती.

महेश की बहू गोविंद सिंह के जाल में फंस गयी. यही नहीं, वह इतनी खूबसूरत थी कि गांव के अन्य दबंग भी उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गये. वह किस-किस से बचती, लिहाजा जल्द ही गांव में उसकी बदचलनी के चर्चे हर एक की जुबान पर चढ़ने लगे. यह एक कड़वा सच है कि औरत मर्दों के द्वारा बेइज्जत की जाती है, परन्तु बदचलनी और बदनामी का दाग केवल औरत के माथे पर लगता है. महेश गांव के दबंगों या गोविंद सिंह का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता था, अतएव उसने अपनी बीवी पर लगाम लगानी चाही. बस उसकी इतनी सी खता की सजा उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.

जाड़े के दिन थे. एक सुबह महेश की लाश गोविंद सिंह के आलू के खेत में पड़ी मिली. उसी रात उस में पानी दिया गया था. पास ही बिजली का खंभा था और बिजली का एक तार टूटकर महेश के पास पड़ा हुआ था. लाश मिलते ही पुलिस को खबर की गयी, पुलिस आई और लाश का पंचनामा करके उठा ले गयी. बताते हैं कि पुलिस ने उसे दुघर्टना का मामला बताकर फाइल बंद कर दी थी. कहा गया कि महेश रात में गोविंद सिंह के खेत में पानी लगाने गया था. वहीं अचानक बिजली का तार टूटकर उसके ऊपर गिर पड़ा था, जिससे करेंट लगने से महेश की मृत्यु हो गयी थी. परन्तु चश्मदीदों का कहना था कि महेश के शरीर में कहीं भी बिजली के तार से जलने के निशान नहीं थे, बल्कि उसके गले में एक घाव था जैसे किसी ने उसके गले में लोहे के तार को लपेटकर उसका गला दबाया हो. निश्चित ही यह एक हत्या का मामला था, परन्तु पुलिस ने उसे दुर्घटना का मामला बताकर दबा दिया था.

न किसी की गवाही हुई, न किसी से पूछताछ हुई. लोगों ने भी अपनी जुबान बंद रखी. गरीब आदमी की मौत पर कोई अपनी जान का दुश्मन क्यों बनता.

दूसरी घटना इस प्रकार हुई.

मेरे हमवयस्क दीपक का बेटा कमल अपने पड़ोसी की बेटी से इश्क लड़ा बैठा. दोनों ही जाति के ठाकुर और दबंग थे, परन्तु इश्क किसी को बर्दाश्त नहीं होता, लड़की के घरवालों को तो बिलकुल नहीं. जब दोनों के इश्क के चर्चे पूरे गांव में फैले तो लड़की पर पाबंदियां लगाई गईं, उसका घर से निकलना बंद हो गया. कुछ लोगों ने मिलकर कमल के बाप से भी शिकायत की. दीपक ने भी अपने लड़के को समझाया, धमकाया; परन्तु इश्क की आग जब एक बार लग जाये तो जल्दी नहीं बुझती. चूंकि लड़की और लड़के के घर आपस में जुड़े हुए थे, वह दोनों रात में छत पर मिलने लगे. इसका पता बहुत दिनों तक किसी को नहीं चला, परन्तु एक रात लड़की की मां ने देख लिया कि वह चुपके-चुपके छत पर जा रही थी. उसने अपने पति को जगाया. दोनों ने उसका पीछा किया तो छत पर अपनी लड़की को लड़के के साथ संभोगरत देख लिया.

उस वक्त तो लड़की के बाप ने खून का घूंट पी लिया, परन्तु मन ही मन एक योजना बना डाली.

फिर एक दिन पता चला कि कमल की लाश लड़की के बाप के ट्यूबवेल के कमरे के अंदर से बरामद हुई. लड़की को उसी दिन कहीं और भेज दिया गया था और घरवाले फरार हो गये थे. बाद में पता चला था कि उनकी योजना रात में लाश भी गायब कर देने की थी, परन्तु तब तक पुलिस को खबर हो गयी थी और अंधेरा घिरने के पहले ही पुलिस ने गांव में डेरा डाल दिया था, अतः लड़की के घरवाले कमल की लाश गायब नहीं कर सके.

परन्तु लड़की वाले सम्पन्न थे. अपने एक रसूखदार रिश्तेदार के माध्यम से पुलिस को अग्रिम पैसा पहुंचाया गया. फिर एक योजना के तहत उन लोगों ने सरेंडर कर दिया. चूंकि सारा खेल पैसे का था, पुलिस ने हल्का-फुलका मामला बनाकर अदालत में आरोप-पत्र पेश कर दिया. परन्तु दीपक भी ठाकुर था और कुछ हद तक पैसेवाला, परन्तु लड़की वालों से पैसे के मामले में कमजोर पड़ता था. लड़के के कत्ल का मामला था, अतः उसने पुरजोर तरीके से मामले की पैरवी थी. उसकी पैरवी से मामला लड़कीवालों के खिलाफ जा रहा था और लगने लगा था कि मुल्जिम आसानी से बरी नहीं हो सकते थे. इससे चिन्तित होकर लड़के के बाप और उसके दादा ने सुलह करने की सोची. उन्होंने गांव के सभी ठाकुरों को एकजुट किया. ठाकुरों का आपसी मामला होने के कारण गांव की पंचायत ने दीपक को समझाया और उसे तीन लाख रुपये देकर गवाही से मुकरवा दिया गया. इसके बाद मामलें को बंद होना ही थी. इसके अतिरिक्त बचाव पक्ष के वकील के माध्यम से जज साहब को भी लाखों रुपये भेंट में चढ़ाये गये. इस प्रकार गवाहों के अभाव में लड़की का बाप और दादा बाइज्ज्त बरी हो गये.

पैसे की ताकत ईमान की ताकत से बड़ी होती है.

दूसरी घटना भी इतनी ही दर्दनाक थी. जगेसर काछी का लड़का पवन हाईस्कूल कर चुका था. वह खेलकूद में अच्छा था और दौड़ भी अच्छी लगा लेता था. वह सेना में भर्ती होना चाहता था. उसके साथ गांव के चार-पांच लड़के भी खेलकूद और दौड़ में भाग लेते थे. वे सभी सेना में भर्ती होना चाहते थे और जी-जान से इसके लिए मेहनत कर रहे थे. इसीलिए जब जिले में सेना की भर्ती का कैम्प लगा, तो उन सबने टेस्ट में भाग लिया. सौभाग्य या दुर्भाग्य से केवल जगेसर काछी का बेटा पवन ही टेस्ट में सफल हो सका और भर्ती के लिए मेडिकल करवाने की पर्ची उसे मिल गयी.

टेस्ट के बाद जब सभी लड़के गांव वापस आ रहे थे, तो रास्ते में किसी बात को लेकर ठाकुरों के लड़कों और पवन में कहासुनी हो गयी. ठाकुर के लड़कों ने उसकी अच्छी-खासी पिटाई कर दी और उसे धमकी दी, ‘‘साले, देखते हैं कि कैसे तुम सेना में भर्ती होते हो. तुम अकेले सेना में जाओगे तो हमारी गांव में बदनामी नहीं होगी? जिस दिन गांव से बाहर निकलोगे, तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे.’’

बेचारा पवन डर गया. डर के कारण उसने घर से निकलना बंद कर दिया. इधर मेडिकल की तारीख निकट आ रही थी, उधर उसके मन में डर सांप की तरफ फन फैलाकर बैठ गया था. घरवाले उसके ऊपर फौज में जाने का दबाव बना रहे थे. वह कच्ची उम्र का लड़का था. घरवालों के दबाव और लड़को के भय का तनाव वह झेल न सका और घर के अंदर ही फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. आत्महत्या करने के पहले उसने एक पर्ची में आत्महत्या का कारण लिख दिया था कि ठाकुरों के लड़कों की मार के डर से वह आत्महत्या कर रहा था.

रोना-पीटना मचा, पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गयी, पूछताछ हुई; परन्तु अंत में ढाक के वही तीन पात. ठाकुर के लड़कों का कुछ नहीं हुआ. यहां भी रुपये ने अपना कमाल दिखाया और ठाकुरों के लड़के खुले सांड़ की तरह गांव में घूमते रहे.

यही लड़के आजकल गांव में उत्पात और आतंक मचा रहे हैं. वह फौज में भर्ती नहीं हो पाए हैं, तो लूटपाट के धन्धे में लिप्त हो गए हैं. गांव की किसी भी बहू-बेटी को छेड़ देना, उससे जबरदस्ती करना उनका आए-दिन का काम है. वह बाहर ही नहीं, गांव के आदमियों को भी डरा-धमकाकर पैसे लूट लेते हैं. गांव वाले तो कुछ नहीं बोलते, डर के मारे चुप रहे जाते हैं, परन्तु जब यह लड़के गांव के बाहर वारदात करते हैं, तो इनके खिलाफ रपट लिखाई जाती है. आए दिन गांव में पुलिस बनी रहती है, परन्तु इन लड़कों की हरकतों पर कोई असर नहीं होता और उनकी हरकतों में बढ़ोतरी होती ही जा रही है.

गांव का हर भला आदमी और औरत डरी-सहमी रहती है कि पता नहीं कब उसके साथ क्या हो जाए.

सबसे बुरा तो दयाराम लोध के साथ हुआ. बेचारा गरीब आदमी है, मेहनत मजदूरी करके गुजारा करता है. मित्र ने बताया कि उसकी जवान बेटी का चक्कर बलराज सिंह के लड़के विनोद के साथ हो गया. विनोद भी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर आवारागर्दी में लिप्त रहता है. दयाराम की बेटी की बदनामी जब सिर चढ़कर बोलने लगी, तो उसने ढूंढ़-ढांढ़कर एक गरीब लड़के के साथ उसकी शादी कर दी. उसकी लड़की ससुराल चली गयी, परन्तु बदनामी ने फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ा.

आज के जमाने में मोबाइल जरूरत कम, मुसीबत की जड़ ज्यादा है. हर आवारा लड़के के हाथ में मोबाइल फोन है. भले ही बात करने के लिए उसमें पैसे न हों, परन्तु फिल्मों गानों की भरमार है. लड़कियां लड़कों से बचकर जाएं तो कहां जाएं. दयाराम की बेटी की शादी अवश्य हो गयी थी, परन्तु मोबाइल फोन के कारण बदनामी और विनोद ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. विनोद उसकी ससुराल में उसको फोन करने लगा. कुछ दिन तक तो उसने किसी तरह से चुरा-छिपाकर विनोद से बात की, परन्तु ससुराल में किसी नवव्याहता का फोन पर बातें करना ससुराल वालों की नज़रों से छुपा नहीं रह सकता था. जल्द ही उसकी पोल खुल गयी. पति ने मारपीट कर पूछा, तो उसने डर के मारे विनोद के बारे में सब कुछ बता दिया.

उसका पति सहनशील नहीं था. उसने आव देखा न ताव. सीधे अपनी ससुराल पहुंचा और सीधे स्वभाव के दयाराम से उसकी बेटी की काली करतूतों का चिट्ठा खोल दिया. बात सच थी, यह दयाराम को पता था, परन्तु उसने सोचा कि किसी तरह सुलह हो जाये.

बहुत सोच-विचार कर उसके तय किया कि इस बारे में विनोद के पिता से बात की जाए. उसकी बेटी की शादी हो गयी है, कम से कम अब तो उसकी ससुराल में फोन करके विनोद उसे परेशान और बदनाम न करे. बस इसी नीयत से वह अपने दामाद के साथ बलराज सिंह के पास गया था. लेकिन इतनी छोटी सी बात पर वह इस कदर खफा हो गये कि उन्होंने लाठी उठा ली, ‘‘सालों, हरामजादों, मेरे घर मेरे ही लड़के की बुराई करने आए हो. अपनी लड़की को संभाल कर क्यों नहीं रखते. मेरा लड़का कोई उसकी ससुराल गया था, जो भागे-भागे यहां चले आए.’’ और गुस्से में तड़ से उन्होंने लाठी चला दी. दयाराम ही आगे था, पहली लाठी उसे पड़ी. वह वहीं ढेर हो गया. पीछे खड़े उसके दामाद को भी दो लाठियां पड़ गयीं, परन्तु वह जवान लड़का था, दाएं-बाएं झुककर सिर को तो बचा गया, परन्तु चूतड़ पर एक लाठी लग ही गयी.

इस मामले में भी पुलिस को खबर की गयी. परन्तु....अब आप तो जानते हैं, पुलिस कितनी सही काररवाई करती है. बेचारे दयाराम को इलाज करवाने के पैसे भी नहीं मिले. सारे गांव में बदनामी हुई, सो अलग. बलराज सिंह बस एक बार थाने गये और मामला ठंडे बस्ते में पहुंच गया.

गांव अब पुराना गांव नहीं रहा था. शहर में भी ऐसी घटनाएं और वारदातें होती हैं, परन्तु इतना आतंक और अत्याचार वहां नहीं है. गांव अब रहने लायक नहीं रह गये हैं, परन्तु केवल मेरे ही गांव के हालात इतने बुरे नहीं हैं. जिस प्रकार आए दिन अखबारों में खबरें छपती रहती हैं, कमोबेश हर गांव-शहर की यहीं हालत है.

इतने सालों बाद मैं गांव में एक दिन के लिए आया था. मेरे मन में बचपन के सुनहरे दिनों की यादें थीं, उनको मैं ताजा करना चाहता था. यादें तो ताजा न हो सकीं. उसकी जगह दूसरी कटु यादों ने आकर मेरे मन में अपना डेरा डाल दिया था. गांव के निश्छल और निष्पाप चरित्र का हनन हो गया था और उसकी छवि धूमिल करने में गांव की युवा पीढ़ी अपना महत्वपूर्ण योगदान देने में जुटी थी.

दूसरे दिन सुबह ही मित्र से विदा लेकर मैं शहर वापस आ गया. अगली बार जब कभी गांव जाऊंगा तो पता नहीं कौन सी बुरी खबरें सुनने को मिलेगी, कह नहीं सकता.

 

(राकेश भ्रमर)

ई-15, प्रगति विहार हॉस्टल,

लोधी रोड, नई दिल्ली-110003

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रचनाकार: राकेश भ्रमर की कहानी - गांव में एक दिन
राकेश भ्रमर की कहानी - गांव में एक दिन
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