सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख - प्राथमिक शिक्षा को रामभरोसे न छोड़ें

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प्राथमिक शिक्षा को रामभरोसे न छोड़ें कई गंभीर मुददों में से एक हमारे देश की प्राथमिक शिक्षा है । प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक इसलिए है क्योंकि...

प्राथमिक शिक्षा को रामभरोसे न छोड़ें

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कई गंभीर मुददों में से एक हमारे देश की प्राथमिक शिक्षा है प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक इसलिए है क्योंकि इसी के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का जीवन भर विकास होता है। यदि प्राथमिक शिक्षा अधूरी रह जाए तो बच्चे के भीतर प्रतिभा होते हुए भी वह अपनी प्रतिभा को निखार नहीं पाएगा। यदि बहुत बड़ी बात न की जाए , शिक्षा की उपादेयता को बढ़ा-चढ़ाकर न भी कहा जाए तो इतनी जरूरत तो हर किसी को है कि वह कम से कम  किसी एक भाषा में लिखे हुए को समझ के साथ धाराप्रवाह पढ़ सके और अपने विचारों को कम से कम किसी एक भाषा में अभिव्यक्त कर सके, लिख सके। यदि हम इतनी योग्यता हासिल कर लेते हैं तब हम साक्षर कहलाते हैं।

शिक्षा हमारे साथ कम से कम इतनी दूर तक जानी चाहिए कि हम समाज के आदर्शों के मुताबिक रहन-सहन सीख जाएं और समाज में स्थापित आदर्श के साथ अपनी आजीविका का चयन कर सकें।

सामान्य तौर पर कक्षा 5वीं तक की शिक्षा को प्राथमिक शिक्षा कहा जाता है। कक्षा-5वीं तक में बच्चे को धाराप्रवाह वाचन के साथ ही अभिव्यक्ति करने की क्षमता, सामाजिक परिवेश की जानकारी और गणित की सभी सामान्य संक्रियाओं की जानकारी हो जानी चाहिए। अधिकतर राज्यों में प्रथम कक्षा से ही दूसरी भाषा का भी अध्ययन कराया जाता है और अपेक्षा होती है कि कक्षा 5 वीं तक के बच्चे को उस दूसरी भाषा के सरल शब्दों का वाचन कर लेना चाहिए और सरल वाक्यांशों के अर्थ समझ लेना चाहिए।

आपको स्थिति की सच्चाई का पता लगाने के लिए निकट के किसी शासकीय विद्यालय का दौरा करना चाहिए। विशेषकर ग्रामीण शासकीय विद्यालयों का दौरा करना चाहिए। यदि अपवादस्वरूप आप किसी बहुत अच्छे शासकीय विद्यालय में नहीं पहुंच गए हैं तो आप अफसोस कर रहे होंगे कि हमारी प्राथमिक शिक्षा की इतनी बुरी स्थिति है। संभवतः आंकड़े ये होंगे कि आधे से अधिक बच्चे जो कक्षा 5 वीं या 4थी में होंगे वे धाराप्रवाह पुस्तक का वाचन नहीं कर  पा रहे होंगे। इन्हीं कक्षाओं के कुछ बच्चे ऐसे होंगे जिन्हें वर्णमाला का ज्ञान नहीं होगा। तो यह है हमारा ग्रामीण भारत और उसकी शिक्षा व्यवस्था।

यह कोई नहीं जानता कि प्राथमिक शिक्षा की ऐसी बुरी स्थिति कब से है ? क्या ऐसी स्थिति  हमारी आजादी और इसके पूर्व से है या फिर किसी काल विशेष में ऐसी गुणात्मक गिरावट आई है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बात को आप दस्तावेजों में ढूढ़ने का प्रयास करेंगे तो स्थिति उलट जाएगी। किसी भी विद्यालयीन रिकॉर्ड में यह नहीं दिखाया जाता कि उनके स्कूल का कक्षा -5वीं का ऐसा कोई बच्चा है जो मूलभूत दक्षताओं को पूरा नहीं करता ।स्कूल तो उन्हें मूलभूत दक्षताओं में पूर्णता का प्रमाण -पत्र जारी करता है जिसके आधार पर बच्चे को कक्षोन्नति प्राप्त होती है। परंतु व्यावहारिक तौर पर सच्चाई कुछ और है।

यह सच्चाई समाज के समक्ष समस्या के रूप में कभी सामने नहीं आ पाती। उसकी कई वजह हैं। ग्रामीण विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे उनके होते हैं जिन्हें अपनी आवाज उठाने का कोई माकूल प्लेटफॉर्म उपलब्ध नहीं है। या ये कहें कि जीवन कि मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में ही वे इतने टूटे होते हैं कि अपने बच्चे की उपलब्धि झांकने की उनमें फुर्सत नहीं होती। वे स्वयं भी इतने योग्य नहीं होते `कि वे ऐसा कर सकें। दूसरा , ग्रामीण विद्यालयों में अध्ययनरत जागरूक अभिभावकों के माता-पिता स्वयं अपने बच्चों को घर में पढ़ाते हैं जिसके आधार पर उनका बच्चा कक्षा में अव्वल रहता है, ऐसे लोग दो- चार ही होते हैं। वे स्कूल के भरोसे नहीं होते। इसलिए उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि स्कूल के बाकी बच्चों की स्थिति क्या है।

सरकारी स्तर पर इस बात का अंदाजा इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि सरकार की मशीनरी चलाने के लिए जितने लोगों की जरूरत है , उनसे कई गुना लोग निजी विद्यालयों और संपन्न घरानों से तैयार हो जाते हैं। फिर भी आपको यह जानकर हैरत होगी कि जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा स्थान रखने वाले भारत में अच्छे शिक्षकों की आज भी कमी है।इसका ताजा उदाहरण यह है कि मध्यप्रदेश में हुए शिक्षकों की एक प्रतियोगी परीक्षा में अंग्रेजी और विज्ञान के कुछ जटिल विषयों के बहुत कम अभ्यर्थी पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण कर पाए हैं। प्राथमिक शिक्षा में आई गुणात्मक गिरावट का संभवतः यह  प्रथम उदाहरण है।

जब हम यह कहते हैं कि प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बुरी है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ऊंची कक्षाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि बाकी कक्षाओं की स्थिति समझ लेने लायक है। वैसे भी जिस परीक्षा में 33 प्रतिशत अंक प्राप्त परीक्षार्थी उत्तीर्ण घोषित किए जाते हों, ऐसी बोर्ड परीक्षा में आधे के करीब बच्चों का अनुत्तीर्ण हो जाना हमारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। यदि हमारी प्राथमिक शिक्षा मजबूत होती तो हमारी बोर्ड परीक्षाओं का प्रदर्शन इतना खराब कभी नहीं होता।

हम हमेशा प्राथमिक शिक्षा की स्थिति का आकलन  सरकारी विद्यालयों के संदर्भ में करते हैं। जबकि प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने वाले बहुत से निजी विद्यालय भी  हैं जिनके कक्षा 5 वीं में अध्ययनरत बच्चों की वही स्थिति है जो सरकारी स्कूल के बच्चों की है। वास्तव में बहुत से निजी स्कूल उनके निकट के सरकारी स्कूल को अपना प्रतिस्पर्धी मानते हैं और वे सिर्फ इतना प्रयास करते हैं कि उनके स्कूल के बच्चों की स्थिति निकट के सरकारी स्कूल से अच्छी हो। कहने का तात्पर्य यह है कि सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता का गिरना , निजी स्कूलों के फलने-फूलने का अवसर देता है और अपेक्षाकृत उन विद्यालयों का भी स्तर गिराने का सहयोगी होता है।

यह देखा जाता है कि ऊंची कक्षाओं में जाने पर बच्चे की समझ काफी विकसित हो जाती है। बहुत से प्रश्नों के उत्तर वह बिना पुस्तकीय ज्ञान के, मात्र समझ के आधार पर दे सकता है। किंतु भाषायी अक्षमता के कारण वह सही तरीके से लिख नहीं पाता। वह पुस्तक का वाचन नहीं कर पाता। यही वह समय है जब उसका भाषायी अल्पज्ञान उसके आत्मविश्वास को कमजोर कर देता है। वह समझ सकता है कि शिक्षक उसके परिवेश की कौन सी बात कर रहा है परंतु वह आंखें होते हुए भी यह नहीं देख पाता कि वो सारी बातें उसके पुस्तक में लिखी हुई हैं। अपने समूह में ऐसे बच्चे संकोच और शर्म का एहसास करने लगते हैं। उन बच्चों की कोशिश होती है कि वे कक्षा की अंतिम पंक्ति में बैठें। उन्हें हमेशा डर होता है कि कहीं शिक्षक उनकी अभ्यास-पुस्तिका देख न ले।

कोई भी शिक्षक भारी-भरकम पाठ्यक्रम को छोड़कर दक्षता संवर्धन का जोखिम नहीं उठाता। और जैसे ये कक्षा एक से कक्षा 5 आए थे वैसे ही ये कक्षा 6 से कक्षा 8 पहुंच जाते हैं और अगले दो सालों के लिए कक्षा 9 भी पक्की हो जाती है। एक वर्ष 8 वीं उत्तीर्ण के रूप में और एक वर्ष 9 वीं अनुत्तीर्ण के रूप में । आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसे बच्चे की उम्र क्या होगी? 10वीं पढ़ने वाले बच्चे की उम्र क्या होगी? 15 वर्ष। अब यह बच्चा अपने आप आरटीई यानी सरकारी जिम्मेदारी से बाहर हो जाता है। यानी कि एक अंगूठा छाप किंतु 9 अनुत्तीर्ण का प्रमाण-पत्र लेकर ऐसा बच्चा अपने जिंदगी को 15वें वर्ष में आ जाता है। इनमें से अधिकांश बच्चे मजदूरी का रास्ता अपनाते हैं। अनुत्तीर्ण हो जाने और कुछ न जान पाने की इनके भीतर अथाह कुंठा  होती है। होनी भी चाहिए। ऐसा बच्चा किशोर वय का बच्चा होता है। ऐसी अवस्था जिसमें भविष्य के सपने पल ही नहीं रहे होते बल्कि आसमान में उड़ान भर रहे होते हैं। लेकिन उन्हें पता ही नहीं होता कि उड़ने के लिए उनके पर उगने ही नहीं दिए गए ।और गंभीर बात तो ये कि उन्हें आभास भी नहीं होने दिया गया कि ये बे-पर हैं।  ऐसे बच्चों की उम्र मजदूरी करने की नहीं होती। ज्यादातर मामलों में ये मजदूरी के नौसिखुआ होते हैं। तात्पर्य ये कि इन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि कौन -सी मजदूरी करने लायक है और कौन सी नहीं। ऐसे निरपराध बच्चे लालच में यदि किसी जोखिम भरे काम में , जिसमें अपराध भी शामिल हो ,में लिप्त हो जाएं तो इसमें उनका क्या दोष? कहना न होगा कि ऐसे बच्चे ही अपराध जगत रचते हैं। असामाजिक तत्व ऐसे ही बच्चों को बुराई फैलाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। यह एक भयावह स्थिति है। जनसंख्या में वृद्धि के साथ ही यह समस्या और बढ़ने वाली है।

प्राथमिक शिक्षा की बुरी स्थिति की पीछे वजह यह है कि शिक्षा के प्रति सरकार का रवैया बदला है। दो-चार उदाहरण होंगे जहां सरकारी शिक्षकों ने अपने स्थान पर स्कूल में किसी और से अध्यापन कार्य कराया होगा और उसके बदले उसे अपने वेतन का अति अल्प भाग दिया होगा। परंतु इस दोष को पूरे शिक्षाजगत में मढ़ देना कहां न्यायोचित है? शिक्षकों की भर्ती नीति में आमूल-चूल बदलाव किए गए और नियमित सरकारी शिक्षकों के वेतन के दशांश वेतन में तथाकथित कई पैरा नामों से शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया को अमल में लाया जाने लगा। सरकार को उस समय के शिक्षक के एक वेतन से पांच-पांच शिक्षकों की नियुक्ति करने में सफलता क्या मिली , सरकार ने इसे स्थायी नीति बना लिया। सरकारी पद एक ऐसा लालच है कि कदाचित कुछ लोग  अवैतनिक आमंत्रण भी स्वीकार कर लेंगे। परंतु क्या सरकार को इसे स्थायी नीति बना लेना चाहिए? परिणाम यह हुआ कि सरकार के पैरा नामों से की गई भर्ती से पहुचे शिक्षकों ने इसे कभी भी अपना प्राथमिक व्यवसाय स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसके साथ अन्य धंधों में अपना दिमाग लड़ाना शुरू कर दिया। जिसके कारण उनके मनोमस्तिष्क में शिक्षक की छवि कभी बन ही नहीं पाई। दूसरे , जिन्होंने स्वरुचि के कारण इसे प्राथमिक व्यवसाय माना उन्होंने मनोमस्तिष्क में सरकार में प्रति आक्रोश भर लिया जो जब-तब आंदोलनों के रूप में दिखाई पड़ता है।

अल्पवेतन के कारण अधिकारियों का दृष्टिकोण भी बदला है। इतना कम वेतन कि ऐसे शिक्षकों पर कार्यवाही करने में या तो शर्म आती है या तरस। मध्यप्रदेश में शिक्षाकर्मियों का एक संवर्ग था जिसे बदलकर अब अध्यापक कर दिया गया है। जब तक यह संवर्ग शिक्षाकर्मी के रूप में था , तब तक शायद की किसी शिक्षाकर्मी के विरुद्ध किसी प्रकार की अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई हो। हां, अध्यापक संवर्ग के गठन के बाद अवश्य कुछ कार्यवाहियां हुई हैं। यद्यपि अधिकांश कार्यवाहियां  अनुपस्थिति या अन्य कारणों पर होती हैं बच्चों की गुणवत्ता का उससे कोई लेना -देना नहीं होता है। इस प्रकार मात्र शिक्षकों की भर्ती नीति में बदलाव के कारण प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित होती चली गई।

हमने अभी 66वंा गणतंत्र दिवस मनाया है। इतने वर्षों में हमारे यहां कोई भी व्यक्ति सेवानिवृत्ति को प्राप्त हो जाता है। परंतु शिक्षा के क्षेत्र में किए गए प्रावधानों के शून्य परिणामों से पैदा हुई हमारी छटपटाहट यह बताती है कि शिक्षा के क्षेत्र में विशेषकर ग्रामीण भारत की शिक्षा में हम अभी भी शैशवकाल में हैं। हम कुछ भी नहीं कर सकते यदि कोई अभिभावक अपने बच्चे को नियमित विद्यालय नहीं भेजता। न तो ललचाने के लिए कोई पुरुस्कार है और न ही भय पैदा करने के लिए कोई दण्ड। एक सरकारी शिक्षक अंगूठे छाप को 5वीं , 8वीं और उससे भी उच्चतर कक्षा उत्तीर्ण का प्रमाण-पत्र सौंप देता है , और हमारा तंत्र हाथ पर हाथ धरे बैठा रह जाता है। इससे साफ स्पष्ट होता है कि प्राथमिक शिक्षा के संबंध में अभी भी हमने इतनी सुविधाएं नहीं बनाईं हैं कि कोई सामान्य बच्चा प्राथमिक शिक्षा की इतनी बुरी स्थिति  को प्राप्त न  हो। और इसीलिए हम शिक्षकों को जैसा वे करते हैं, करने देते हैं।

शिक्षा व्यवस्था में खाना-पूर्ति का जमाना जाना चाहिए। मास्साबों को वो सारी सुविधाएं दी जानी चाहिए जिसके वे हकदार हैं। समाज में उन्हें प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए। वेतन -भत्तों और अन्य सुविधाओं के लिए उन्हें अधिकारियों और बाबुओं के सामने गिड़गिड़ाने की , हाथ जोड़ने की जरूरत न पड़े। शिक्षकों की किसी भी समस्या को राजनैतिक रंग देकर वोट बैंक बनाने की पुरानी कुत्सित सोच से सरकारों को अलग होना होगा। शिक्षकों की सारी समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने की सरकार की नीति होनी चाहिए।साथ ही शिक्षकों को चाहे वे किसी भी नाम से क्यों न पुकारे जाते हों , इतना दायित्वबोध होना चाहिए कि उनकी जिम्मेदारी में कई भविष्य पल रहे हैं। शिक्षक को हुल्लड़बाजी , गुटबाजी और कुछ भी करके स्कूल में समय गुजारना शोभा नहीं देता। जब-जब शिक्षा की बुरी तस्वीर अखबारों में छपेगी ,तब-तब पार्श्व में जिम्मेदारी के प्रति उदासीन, गैरजिम्मेदार शिक्षक की तस्वीर भी होगी। सरकार के सारे उपाय बेकार हो जाएंगे ,जब तक शिक्षक उन उपायों को अमल में लाने के लिए उत्साहित नहीं होगा। यहां पर सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है कि वह शिक्षकों का उत्साह बनाए रखे किन्तु सरकार से भी बड़ी जिम्मेदारी शिक्षकों की है कि वह समाज के प्रति अपने पुनीत कर्तव्य को सरकार की किसी सुविधा का मोहताज न बनाए। यदि एक शिक्षक पढ़ाना चाहे तो वह बेहतर जानता है कि वह किस तरह पढ़ाए। शिक्षक इतना करना तो आरंभ ही कर दे कि उसके कुछ करने और न करने का फर्क समझ में आए। प्राथमिक शिक्षा के प्रति गंभीर होना उतना ही जरूरी है जितना कि देश की सुरक्षा के प्रति गंभीर होना ।                                                                    

-सुरेन्द्र कुमार पटेल,वार्ड क्रमांक 4, ब्योहारी जिला-शहडोल मध्यप्रदेश  

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रचनाकार: सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख - प्राथमिक शिक्षा को रामभरोसे न छोड़ें
सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख - प्राथमिक शिक्षा को रामभरोसे न छोड़ें
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