1. प्रयास जारी है कोई अदृश्य शक्ति, मुझे अर्जुन बनने से रोकती है, हर अच्छे कार्य पर बार - बार टोकती है, माया की कलियुगी मूर्ति भ...
1. प्रयास जारी है
कोई अदृश्य शक्ति,
मुझे अर्जुन बनने से रोकती है,
हर अच्छे कार्य पर
बार - बार टोकती है,
माया की कलियुगी मूर्ति भी,
मेरे अभ्यास में बाधा है,
मेरा हर वांछित लक्ष्य,
अधूरा और आधा है,
किंतु प्रयास जारी है,
हर लक्ष्य को पाने का ,
प्रतीप धारा को अनुकूल बनाने का,
मुझे चाहिये बस,
कृष्ण का मार्गदर्शन,
क्या तुम वह कृष्ण बनोगे!
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2. विद्यालय।
यह विद्यालय है,
अर्थात विद्या का आलय है,
परंतु आज यहाँ,
विद्यार्थी के नयनों में नीर है,
विद्यालय की स्थिति अति गंभीर है,
अध्यापक आकर,
कुर्सी में सिर टेक रहे हैं,
आँखें बंद किये वेतन का,
सपना देख रहे हैं,
बेचारे विद्यार्थी भी क्या करें,
भीतर तो रोष है,
बाहर में कहने से डरें,
अध्यापक खुद नहीं जानता,
वह क्या पढ़ाता है,
जो भी हो बस,
ड्यूटी निभा जाता है,
कुछ कहो तो चिल्लाते हैं,
चिल्लाओ तो चपरासी बुलाते हैं,
बेचारे फैसला किस्मत पर,
छोड़ देते हैं,
फैल होने की डिगरी,
धीरता से ले-लेते हैं,
सभी जानते हैं,
आज के स्कूल में,
ऐसा ही हो रहा है,
फिर भी गलतीकर्ता अपनी,
गलतियों को सफाई से धो रहा है।
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3. जीवन का मूल
हे मानव! जीवन का मूल समझ,
जनमा है तू क्यों धरती पर,
मन में जरा विचार ये कर,
ना उलझ माया के बंधन में,
ये काँटें हैं ना फूल समझ,
हे मानव! जीवन का मूल समझ।
जग के झूठे भ्रम में पड़कर,
समय जो तूने खोया है,
भ्रम के पतले धागे में,
इक-इक माया पिरोया है,
थोड़ा समय है बचा सुधरजा,
हुआ जो तुझसे भूल समझ,
हे मानव! जीवन का मूल समझ।
कुछ भी नहीं रह जाता यहाँ,
केवल सत्य ही रह जाता है,
रट ले नाम प्रभु का निशदिन,
प्रभु ही सबको बतलाता है,
यह तन भी नहीं है तेरा,
छोड़ दे मोह जीवन का,
इसे तू भू का धूल समझ,
हे मानव! जीवन का मूल समझ।
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4. गम
दुनिया में एक 'गम' ही,
नहीं है दोस्त,
जिसको सब याद करें,
तुम तो दुनिया के मेले में हो,
फिर क्यों पड़े अकेले में हो,
कर दो नाम ये जिंदगी किसी के,
फिर वह तुम्हें याद,
वो तुम्हारे बाद करे।
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5. राजनीति
दो नेता विपरीत दिशा से आ रहे थे,
दोनों अलग-अलग मंच पर,
भाषण देने जा रहे थे,
दोनों की दृष्टि टकराई,
फिर दोनों की गाड़ी पास आई,
एक ने दूसरे से कहा-़''यार,
हम दानों का दिमाग एक है,
पोशाक एक है, धंधा एक है,
फिर रास्ता कैसे अलग है!''
दूसरे नेता ने कहा-'यही तो राजनीति है,
जनता ने इसीलिए हम दोनों के,
गले में हार डाला है,
क्योंकि मैं सत्ता में हॅूं,
तू विपक्षी वाला है,
अभी हम दोनों मंच पर जाएंगे,
और भोली-भाली जनता के सामने,
एक-दूसरे को खूब गालियाँ देंगे,
बदले में जनता की तालियाँ सुनेंगे,
बाद में दोनों मिलकर,
ठंडई की दुकान पर आइस्क्रीम खाएंगे,
एक-दूसरे को दी हुई गालियाँ भूल जाएंगे,
अरे! क्या हुआ जो तू विपक्षी वाला है,
विपक्षी ही सही, तू मेरे,
जीजा के भाई का साला है,
हम दोनों जनता को तमाशा दिखाएंगे,
और जो मिलेगा मिल बाँटकर खाएंगे,
यही तो राजनीति है!
अंग्रेजों ने 'फूट डालो और
शासन करो की नीति अपनायी थी,
लेकिन ज्यादा दिन,
शासन नहीं कर पायी थी,
यह 'राजनीति' है!
इस नीति से राज हमेशा चलता है,
ये देश हमारी माँ है,
इसके सफेदपोश गद्दार बेटे,
इसका बटवारा करें,
यही तो राजनीति है!
देश में हवाला करो,घोटाला करो,
फिर भी मंत्री बने रहो,
यही तो राजनीति है!
पहले स्वयं जनता के पीछे घूमो,
फिर जनता को पीछे घुमाओ,
ऐसे ही, नेताओं की जिंदगी बीती है,
यही तो राजनीति है!
यही तो राजनीति है!!
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6. आरक्षण की छूट
कॉलेज के प्रोफेसर ने,
छात्रा से श्रृंगार रस का उदाहरण पूछा,
छात्रा उत्तर दे रही थी-
''राम को रूपनिहारत जानकी''
प्रोफेसर ने बीच में टोकते हुए कहा-
''पुराना डायलाग मत सुनाओ,
हमें कुछ नया चाहिए,
छात्रा चुप खड़ी रही''
प्रोफेसर ने फटकारते हुए कहा-
जल्दी सुनाओ नहीं तो,
खींच के लगाउंगा बेंत में,
छात्रा कह उठी-''सन्-सनन्-साँय-साँय
हो रही थी खेत में''
सर! आप ही ने कहा था-
''अपने दिमाग का
सारा पट खोल देना,
जब कोई पंक्ति ना मिले तो,
यही पंक्ति बोल देना,
परीक्षा हाल में अंग्रेजी का,
पेपर चल रहा था,
बगल में बैठा प्रोफेसर,
तंबाकू मल रहा था,
उसी वक्त एक छात्र ने,
जोर से आवाज लगाई,
पानी! पानी! पानी!
प्रोफेसर ने कहा-'चुप रहो!
यहाँ लड़कों को,
पानी एलाउ नहीं है,
ये परीक्षा हाल है,
कोई प्याउ नहीं है,
छात्र ने कहा-सर!
अभी तो मेरे बगल में,
बैठी लड़की ने,
1 घंटे में,
4 ग्लास पानी पी है,
उससे तो आपने,
कोई शिकायत नहीं की है,
प्रोफेसर ने कहा-बेवकूफ!
यह तो गवर्मेंट रूट है,
तेरे बगल में बैठी कन्या है!
उसे 50 ः आरक्षण की छूट है।
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7. खामोश आंखें
होली आयी और चली गयी,
पिछले साल से भली गयी,
पर किसी ने देखा!
किसका क्या जला?
मैंने देखा,
'उसकी डूबती खामोश आँखें'
जो उसकी पलकों को,
भिगो रही थीं,
और वह खड़ा,
एकटक देख रहा था,
'होली को जलते'
जैसे उसे मालूम न हो,
'खामोश आँखों ' के कारनामे
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8. गर्मी का मौसम
जेठ की चिलचिलाती धूप में,
रवि ने निकाला प्रचंड मुखड़ा,
देख रहा चारों ओर वक्रता से,
धरती हुआ सूख कर टुकड़ा,
हर कोने में पड़ रही,
दिनकर की तीव्र ज्योति,
झाँक रहा सबके माथे पर मोती,
कोई दबा लेता है गर्मी को,
अपनी कृत्रिम सुविधा से,
कोई पसीने से नहाता है,
निर्धनता की दुविधा से,
इतनी प्रचंड गर्मी में भी,
पेड़ अनमोल फल देते हैं,
राह चलते राही को,
अपनी गोद में ढॅंक लेते हैं,
जहां पेड़ों पर पपीहा गाता है,
वहाँ गर्मी का मौसम भी सुहाता है।
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9. प्राण नया हो
नये वर्ष की हर बेला पर,
हम सबका मान नया हो,
नयी क्रांति नयी चेतना,
जग का फिर गुणगान नया हो,
नये वर्ष की नयी हों बातें,
मातृभूमि का गान नया हो,
सरस हो जीवन और शांतिमय,
व्यक्ति का हर मुकाम नया हो,
शिक्षा हो संस्कार हो सबमें,
हर प्राणी में ज्ञान नया हो,
प्रेम भाव से भरे हों जन,
हर जीवन में प्राण नया हो।
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10. सीख
बने-बनाये शब्दों पर
तू क्यों फंदे!
कलम सलामत है तेरी,
तू लिख बंदे,
उम्मीद मत कर कि कोई,
आयेगा तुझे,
तेरे दर पे सिखाने,
इंसां को देख,
तू खुद सीख बंदे,
बुराई लाख चाहे भी,
तुझे फॅंसाना,
अच्छाई को पूज,
खुद मिट जाएंगे,
विचार गंदे।
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11. फेंकूराम
यूं ही घूमने निकला था शाम को,
तो रास्ते में फेंकूराम मिल गये,
उन्होंने सरकार की बात छेड़ी,
कहा-'हद है,सरकार ऐसी होती है'
मैंने कहा-'सरकार को दोष,
क्यों देते हो भाई!
फेंकू बोले बात संसद तक ठीक थी,
लेकिन अब तो उतरने वाली पेंट है,
और जिसे पत्नी बनाकर लाया था,
वह सी.बी.आई. की सरकारी एजेंट है।
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12. मत गिरने दो
मन में आत्मा में आँखों में,
मीठी-मीठी बातों में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
स्नेह में ममत्व में भावनाओं में,
मूल्यों में सम्मान में दुआओं में,
हर क्षेत्र हर दिशाओं में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
वादों में इरादों पनाह में,
विश्वास में परवाह में,
वांछितों की चाह में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
आवाज में अंदाज में,
प्रजा में सरताज में,
कल में आज में,
हर रूप में हर राज में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
सुख दुख में त्यौहारों में,
एक में हजारों में,
मौन में इशारों में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
समीप में दूरी में,
बलात में मजबूरी में,
शान में जी हुजूरी में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
जमीन पर ऊॅंचाई में,
भीड़ में तन्हाई में,
रोजी-रोटी की कमाई में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
हाट में बाजार में,
मेले में त्यौहार में,
पवित्रता की आड़ में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
नेतृत्व में अभिनय में,
सहयोग में संबंधों में,
नेत्रधारित अंधों में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
सड़कों में पगडंडियों में,
मैदानों में,
हर जगह हर पायदानों में,
चरित्र गिर रहा है,
मत गिरने दो।
रक्तों में भक्तों में,
सशक्त और अशक्तों में,
रंगों में रिस्तों में,
सतत और किस्तों में,
मेरी आत्मा का चित्र,
इन दायरों में घिर रहा है,
मेरा भी चरित्र गिर रहा है,
बताओ कैसे ? मत गिरने दूँ!
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13. महफिल का भार
शादी की महफिल में,
हैलोजन के भार से,
दबा कंधा,
ताशों और ढोल का,
वजन उठाये हर बंदा,
हाइड्रोजन भरे गुब्बारे,
सजाने वालों का पसीना,
स्टेज बनाने गड्ढे खोदने का,
तनाव लिये युवक,
चूड़ीदार परदों पर,
कील ठोंकता शख्श,
पूड़ी बेलती कामगर,
महिलाओं की एकाग्रता,
कुर्सियाँ सजाते,
युवकों का समर्पण,
कैमरा फ्लैश में,
चमकते लोगों की शान,
कहीं न कहीं,
इन सबका होना जरूरी है,
किसी की खुशी,
किसी की मजबूरी है,
ये सभी मिलकर,
बनाते वादी हैं,
इन सबकी खुशियों से ही,
धूम से होती शादी है।
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14. आत्मा का धिक्कार
अहंकार के घोड़े पर सवार हो,
मदद का टुकड़ा काटने चला था,
छाँट रखा था दिखावे का मन मैंने,
खैरात में मिले,
खैरात को बाँटने चला था,
जब वह नेत्रविहीन होकर भी,
मुझे निहार रही थी,
तब मेरी आत्मा,
मुझे धिक्कार रही थी।
मेरे पेट की आँतों में,
तृप्ति का गागर था,
आँखों की पुतली में,
नींद का सागर था,
स्वार्थ के दायरे में,
हर साज अपना था,
चलते सुस्त कदमों में,
विलासिता का सपना था,
उसकी अॅंतड़ियों में,
'भूख' की नागिन,
फुंफकार रही थी,
तब मेरी आत्मा,
मुझे धिक्कार रही थी।
अश्कों की बूंदों को,
बहाना तो चाहा था,
हमदर्दी का काजल,
लगाना तो चाहा था,
दहलीज को पारकर,
पहचान बनाना चाहा था,
शैतानी ताकत को भी,
वह ललकार रही थी,
तब मेरी आत्मा,
मुझे धिक्कार रही थी।
गलतफहमी के आसमान में,
उड़ता जा रहा था,
भ्रम की जंजीरों से,
जकड़ता जा रहा था,
उसकी सहजता को,
लाचारी का नाम दे रहा था,
उसके भोलेपन को,
दया का इल्जाम दे रहा था,
हकीकत को नजरें,
स्वीकार रही थीं,
तब मेरी आत्मा,
मुझे धिक्कार रही थी।
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15. ओ! निश्छलता!
ओ निश्छलता!
क्यों नहीं हो मेरे मन में?
रहती क्यों,
नवजात शिशु के,
मुखमंडल में,
तुम क्यों रहती!
स्वच्छाकाश,
चंद्र-तारे
और धरातल में,
तुम क्यों रहती!
हवा के झोंकों,गिरि की सुंदरता,
उन्मुक्त गगन में,
क्यों नहीं हो मेरे मन में?
तुम क्यों रहती!
नदी की लहरों,
फूलों के चेहरों और हरियाली में,
क्यों रहती तुम!
माँ की ममता,
दुआओं और खुशहाली में,
हर वक्त हर घड़ी,
दे रही हो साथ,
प्रभु के दिये,
इस जीवन में,
फिर, क्यों नहीं रख पाता मैं,
तुझे अपने कर्मों के कंपन में,
ओ निश्छलता!
क्यों नहीं हो मेरे मन में!
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16. मेरी ‘माँ‘ के हैं
सागर जैसी आँखों में,
बहते हुए हीरे मेरी ‘माँ‘ के हैं,
होठों के चमन में,
झड़ते हुए फूल में मेरी ‘माँ’ के हैं,
काँटों की पगडंडियों में,
दामन के सहारे मेरी ‘माँ’ के हैं,
गोदी के बिस्तर में,
प्यार का चादर मेरी ‘माँ‘ का हैं,
प्यासे कपोलों,
पर छलकते ये चुंबन मेरी ‘माँ‘ के हैं,
ईश्वर से मेरी,
कुशलता की कामना मेरी ‘माँ’ के हैं,
इतराता हूँ इतना,
पाकर यह जीवन,
मेरी ‘माँ’ का हैं।
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17. बचपन
बचपन को मैं देख रहा हॅूं,
विद्यालय का प्यारा आँगन,
साथी-संगियों से वह अनबन,
गुरू के भय का अद्भुत कंपन,
इन्हीं विचारों के घेरे में,
मन को अपने सेंक रहा हूं
बचपन को फिर देख रहा हॅूं,
निश्छल मन का था सागर,
पर्वत-नदियों में था घर,
उछल-कूद कर जाता था मैं,
गलती पर डर जाता था मैं,
लेकिन आज यहाँ पर फिर से,
गलती का आलेख रहा हूँ,
बचपन को फिर देख रहा हॅूं,
चिर लक्ष्य का स्वप्न संजोया,
भावों का मैं हार पिरोया,
मेहनत की फिर कड़ी बनाई,
उस पर मैंने दौड़ लगाई,
वह बचपन का महासमर था,
अब पचपन को देख रहा हूँ।
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18. मैं कवि-सम्मेलन में जाता हूं
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं,
भेद-भाव की दरिया को,
पाटने की कोशिश में,
सूरज के घर में चाँद का,
संदेशा लेकर जाता हॅूं, हाँ,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
खुशियों को ढूंढ़ने निकला हॅूं,
मिल भी गयी दुखदायी खुशी,
दुखदायी खुशी के चक्कर में,
हसीन गम को भूल जाता हूं, हाँ,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
ऐशो-आराम की जिंदगी मिली है,
आराम से सोता पर क्या करूँ,
पहले हजारों अर्धनिद्रा से ग्रसित,
बांधवों को सुलाता हॅूं, हाँ,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
कार्यों को करने की प्रेरणा दी मैंने,
कई सलाह भी दिये मैंने,
पर खुद काम से जी चुराता हूं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
जिसकी मदद से पहुंचा इस मुकाम पे,
वही मेरे हाथ जोड़े खड़ा है,
मैं खुश मूढ़! ऐहसानों का बदला,
इस तरह चुकाता हॅूं, हाँ,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
तुम्हारी दी इज्जत से रहा हूं,
दिखावे की जिंदगी भी है मेरे पास,
अपमान भी करता हॅूं तुम्हारी,
झूठे अहम के वश में,
अपनी हैसियत भूल जाता हॅूं।
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं,
दुनिया में शिकायतों का,
सिलसिला चलता ही है,
मैंने बहुत शिकायतें की हैं तुम्हारी,
अब माफीनामा भी फरमाता हॅूं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं॥
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19. मन की आवाज
लिखने को तो लिख दूंगा कुछ भी,
लोग गॅंवारा करेंगे!
होगी गलती लिखने पर,
हॅंसकर गलती सॅंवारा करेंगे!
व्यर्थ बातों को,
सुनकर बहक जाऊॅं तो,
सही रास्ते की ओर इशारा करेंगे!
सबका दुख हरने का बीड़ा उठाऊॅं,
तो दुखियों पर दया की,
दृष्टि भी डाला करेंगे!
समाजोद्धार करने को निकलूँ तो,
शुभकामनाओं को वारा करेंगे!
कोई जुगनू भी आये कहीं से,
उसे जुगनू से तारा करेंगे!
शत्रु करे मुझपर हमले करे तो,
उसे मिलकर भी मारा करेंगे!
चुरा ले गया है सम्मान कोई,
उसे फिर से हमारा करेंगे!
प्रथम बलि भी देता हूँ अपनी,
मेरे बाद, प्राणों को हारा करेंगे!
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20. कोशिश
फिर की है कोशिश मैंने,
बुलंदियों पर उड़ने की,
बादलों का साया भी,
मंडरा रहा है,
पर साहस का पंख,
फड़फड़ाता ही रहा,
सवालों के गिद्धों को,
भ्रमित कर रहा था,
तभी 'मुकाम' ने पुकारा,
'मैं यहाँ' मूक निहारता गया।
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21. साहित्य
साहित्य के जंगल में घुसते ही,
टेढ़े-मेढ़े शब्दों का घना साया,
देखकर दिमाग चकराया,
हमने कल्पना में गूँथी,
वनदेवी को ढूँढ़ा,
पर वह दृष्टिगत नहीं हुई,
दृष्टिगत हुआ तो बस,
राजनीति का कलयुगी दानव,
जिसने आधिपत्य,
किया है साहित्य पर।
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22. सच्चाई
रेल की पटरियों पर,
दौड़ती जिंदगी,
हर छुक-छुक की,
आवाज में, आती-जाती,
जैसे एक-एक साँस,
जीवन की सच्चाई को,
उजागर करते हुए,
जैसे कह रही हों,
कि आगे एक,
स्टेशन आ रहा है,
जहाँ गाड़ी,
हमेशा के लिए रूक जाएगी।
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23. गरीब का पेट
एक एमरजेंसी केस,
अस्पताल में आया,
घरवालों ने,
पेट में में दर्द बताया,
कहा-‘डॉ. साहब,
जल्दी से ऑपरेशन कीजिए,
जैसे भी हो,
इन्हें बचा लीजिए‘,
डॉक्टर ने कहा-
अभी ऑपरेशन में लेट है,
क्योंकि यह पेट,
गरीब का पेट है।
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24. कलियुगी द्वापर
द्वापर के इंजीनियर ने,
बड़ी मेहनत से बृज बनाया,
सोचकर कि, बने कुछ स्पेशल,
उसे सॅंवारा-सजाया,
पर कलियुग के नक्कालों से,
कृष्ण जी बच न सके,
उनके सृजन का न हो नकल,
ऐसा बृज रच न सके,
द्वापर ने एक गिनाया,
कलियुग ने सेंचुरी गिना दिया,
कलियुगी इंजीनियरों के,
कांपीटीशन ने,
हर जगह,
ओवरबृज बना दिया।
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25. गधे की हुंकार
कलेक्टर की कुर्सी पर बैठकर,
गधे ने घोड़े की आवाज लगाई,
आवाज सुनते ही गधी,
झट से बाहर आयी,
बोली! क्योंजी!
गधा होकर घोड़े की,
आवाज लगाओगे!
लेकिन यह तो बताओ,
गधे की जात में रहकर,
घोड़े का गुण,
कहाँ से लाओगे!
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26. वफादारी
एक कुत्ते ने दूसरे कुत्ते को,
देखकर जोर से भौंका,
सामने से आ रहा नेता,
यह दृश्य देखकर चौका!
उसने कुत्तों से कहा-‘‘भाई,
क्यों लड़ते हो?
कुत्तों ने कहा- नेताजी!
लड़ना तो आपका काम है,
हमने तो शर्त लगाई थी,
किसकी आवाज में,
अपने मालिक का नाम है,
इसलिए हमने भौंका,
आपने हमें देखकर,
व्यर्थ ही चौका,
जाइये नेताजी अपनी,
टोपी को मत उछालिये,
हमारे जैसे वफादार कुत्ते,
आपके पास नहीं हैं,
अपनी कुर्सी को सम्हालिये,
नेताजी को कुत्तों की बात सुनकर,
बड़ी शर्म आयी,
उन्होंने सोचा-
‘‘ हमारी पार्टी के दलाल तो,
हमें ही लूटते हैं,
पार्टी के दलालों से अच्छे तो,
हमारे देश के कुत्ते हैं।
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27. जीवनतंत्र
किस काम का है वह भोजन
जो भूखे की भूख न मिटा सके,
किस काम का है वह पराक्रम
जो देश के लिए लहू न बहा सके,
किस काम की है वह जवानी
जो किसी के काम न आ सके,
किस काम का है वह हृदय
जो किसी के हृदय को न भा सके,
किस काम का है वह सुंदर तन
जो मन की सुंदरता न पा सके,
किस काम की है वह वाणी
जो दिया वचन न निभा सके,
किस काम का है वह जीवन
जो किसी को जीना न सिखा सके।
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28. हकीकत
कविता के आरंभ में
फैशन मंत्र पढ़ता हूँ,
आप भी बुलाएँ फैशन की जय,
शुरूआत करता हॅूं,
भारत में फैशन नहीं था,
इसलिए आयात करना पड़ा,
वर्तमान भाव देखिये,
फैशन का भाव कैसे बढ़ा,
जिस कन्या को देखो,
फैशन की लत है,
लेकिन फैशनी देवियों को देखना,
सरासर गलत है,
ये जहाँ से गुजरती हैं,
हो जाता है चक्का जाम,
गलती करते हैं ये,
और ट्रैफिक पुलिस बदनाम,
देश के कोने-कोने में,
एक ही आवाज है,
फैशन अपनाओ,
फैशन का राज है,
संस्कृति बचाओ संस्था ने,
एक आयोजन किया,
आयोजन में,
सिंपल बालाओं को निमंत्रण दिया,
आयोजन में प्रतियोगिता रखी गयी,
जिसमें प्रत्येक बाला से,
एक प्रश्न करना निश्चित हुआ,
प्रतियोगिता का उद्देश्य,
विदेशी फैशन को हरना था,
प्रश्नकर्ता का,
प्रथम प्रश्न था-‘‘हमारे देश में,
फैशन कितना सही है?
बाला का उत्तर था-‘‘फैशन
हटाया जाए तो देश का
अस्तित्व ही नहीं है‘‘
प्रश्नकर्ता सोच में पड़ गए,
बाला के उत्तर से डर गए,
उन्होंने दूसरी बाला से
प्रश्न किया-‘‘फैशन समाप्त करने
हेतु क्या करना चाहिए?
बाला का उत्तर था-
''अति सर्वत्र वर्जयेत होता है,
इसलिए फैशन का,
प्रचार करना चाहिए‘‘
अब प्रश्नकर्ता हड़बड़ाए,
मन ही मन बड़बड़ाए,
सोचने लगे‘ये कैसी बात हो गयी है,
संस्कृति बचाने वालों की,
संस्कृति ही खो गयी है,
अब प्रश्नकर्ता ने अंतिम बाला से,
अंतिम प्रश्न किया-‘‘अश्लीलता,
रोकने हेतु क्या करना चाहिए?
बाला ने उत्तर दिया-
‘‘इसमें डरने वाली क्या बात है!
फैशन शत्रु की चुनौती है तो,
मुकाबला करने से क्यों डरेंगे!
वह एक अश्लील हरकत करेगा,
तो हम दस हरकत करेंगे,
इस उत्तर को सुनकर,
प्रश्नकर्ता का मन डोला,
उसने संस्कृति बचाओ छोड़कर,
‘फैशन अपनाओ‘ दुकान खोला,
यह कविता नहीं है,
वर्तमान पीढ़ी की हकीकत है,
यह मानकर चलिए,
इस हकीकत से जो,
सबक नहीं सीखेगा,
भविष्य में उसका अस्तित्व,
कपड़े में नहीं दिखेगा।
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29. बेरोजगारी की नौकरी
मैं रोजमर्रा के चंगुल से,
छूटकर आ रहा था,
बना प्रश्नवाचक माथे की रेखा,
मैंने तमाशबीन जनसैलाब को देखा,
पास जाकर देखा तो,
तमाशा बड़ा तगड़ा था,
बेरोजगारी के विषय पर,
नवयुवकों का झगड़ा था,
मैंने चिल्लाकर कहा-‘‘टाइम
पास के लिए ऐसा पापड़ मत बेलो,
संसद का खेल खेलने से पूर्व,
चांडालों से अनुमति तो ले लो,
इतने में ही एक युवक की आवाज आई,
वह बार - बार एक ही वाक्य
दोहरा रहा था
बेईमान मंत्री पर
ईमानदारी का आरोप
लगा रहा था,
मंत्री ने सुना तो
उसके मन में प्रश्न जागा
उसने प्रश्न को
अपने पी. ए. पर दागा
और कहा-क्या हमारे देश के
नौजवान खुश नहीं हैं,
पी.ए. ने कहा-''सर !
ऐसी बात नहीं है,
आपने तो देश में
सर्वधर्म समभाव बनाया है
देश को मक्कारी और
करप्शन का तोहफा गिनाया है,
आपके शासन में तो विज्ञान ने
नयी तकनीक विकसित की है
तभी तो आपने देश के नवयुवकों को
'बेरोजगारी की नौकरी' दी है''
तब मंत्री ने कहा -अगर ऐसा है तो
हम देश को दुर्गति के
पथ पर आबाद कर देंगे,
सभी को बेरोजगारी की
नौकरी देकर नाबाद कर देंगे,
प्रमोशन भी होगा
बेबसी और लाचारी का
बोनस भी बंटेगा
भुखमरी और महामारी का
सबकी पीठ पर बैठकर
मक्कारी की चादर ओढूंगा,
1919 के बने रिकार्ड को
21 वीं सदी में तोडूंगा,
तब तो एक जलियांवाला बाग था,
मैं पूरे देश को जलियां बाग बनाउंगा,
और राजनीति की बंदूक से
भुखमरी और बेरोजगारी की
गोली चलाउंगा,
तब देखना विश्व में मेरा मुल्क
पहले नंबर पर आयेगा,
100 में 99 बेईमान होंगे फिर भी
मेरा देश महान कहलाएगा ।
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30. ब्राइलरी हिजगा
एक गॅंवइहे मुर्गे ने,
अपनी मुर्गी को छेड़ा,
तो मुर्गी ने मुर्गे को खदेड़ा,
कहा-''कलमुंहे, रोज तो,
छेड़ने आ जाते हो, पर,
कभी भी अच्छा गिफ्ट,
नहीं लाते हो,
जरा शहरी मुर्गियों को देखो,
हर रोज घूमने,
दार्जिलिंग जाते हैं,
और वापसी में,
सिलीगुड़ी मोड़ पर चाउमीन खाते हैं''
इस पर मुर्गे ने कहा-''रानी!
इतनी सी बात पर,
इतना झुंझलाती हो,
अरे! अपना आँकड़ा,
इन फैशनेबल मुर्गियों से,
क्यों लगाती हो,
माई डियर मुर्गी!
तुम्हारा हमारा गुणगान तो,
ये पूरा संसार गायेगा,
अगर हम भी दार्जिलिंग जाने लगे,
तो देशी और ब्रायलर में,
क्या फर्क रह जाएगा!
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31. भाईचारा
इस जीवन में सबको जल्दी,
रहता है हर पल,
कोई कहता है आज ही सब कुछ,
कोई कहता है कल,
जाना सबका तय है एक दिन,
कौन यहाँ भुजबल?
पुण्य कमाले इस जीवन में,
सबसे मिलकर चल।
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32. राम
फिर से सब हद पार हुई,
जीत के शक्ल में हार हुई,
सर थे दस और एक था रावण,
अब तो संख्या हजार हुई,
हर दिशा में त्राहि मची है,
घर-घर राम पुकार हुई।
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33. नर्क
प्रभु ने एक आत्मा को,
धरती पर भेजने की योजना बनाई,
तब आत्मा ने प्रभु से दयापूर्वक,
गोहार लगाई- ‘‘प्रभु!!
मेरा पतन करके मुझे,
कठोर सजा दीजिए,
किंतु नर्क से बदतर,
धरती पर मत भेजिए,
धरती पर भाई, भाई के,
खून का प्यासा है,
हर तरफ दुख, तकलीफ,
और निराशा है,
महंगाई की मार वज्र से भी,
घातक है,
वहाँ पर हर प्राणी,
अधम, नीच और पातक है,
राजनीति का गंदा दलदल,
दूर-दूर तक फैला है,
प्रकृति ने जिसे बनाया जिसे मीठा,
उसी का स्वाद कसैला है,
हर घर का मुखिया स्वयं,
कुसंस्कृति का प्रचारक है,
पाप को मिटाने वाला योगी ही,
पुण्य का संहारक है,
रावण और कंस के तो,
कारखाने खुले हैं,
शूर्पणखा के करोड़ों रूप,
कलियुग में घुले हैं,
हे प्रभु !
इस पापालय में जाकर,
मैं आपको भूल जाउंगा,
आप देंगे मनुष्य का जीवन, किंतु मैं,
माया रूपी फाँसी में झूल जाउंगा,
विश्वास कीजिए मेरा कथन,
शत-प्रतिशत सच्चा है,
धरती में जाने से तो,
अपना नर्क ही अच्छा है।
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33- मिट्टी
जब तक जिंदा है शरीर,
दुनिया को बहुत प्यारी है,
जब तक है जिंदगी,
दुनिया भी हमें प्यारी है,
पर वक्त का काँटा एक,
दिन थम जाएगा,
बहता हुआ रक्त,
थक्कों में जम जाएगा,
तब निष्प्राण शरीर को,
अपने भी छोड़ जाएंगे,
करते थे प्रगाढ़ स्नेह,
वे भी मुख मोड़ जाएंगे,
उस वक्त किसी की नजर,
हम पर न पड़ पायेगी,
तब ‘मिट्टी‘ केवल ‘मिट्टी‘
हमें अपनायेगी।
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34- सवाल
भारत तो बस भारत था,
मलबों में क्यों बाँट दिया,
क्षेत्रवाद और भाषावाद के,
टुकड़ों में क्यों काट दिया!
आरक्षण के दीमक ने,
क्यों सेंध लगाकर चाट दिया,
वीरों का ये महासमर था,
फिर नक्सल ने क्यों मात दिया।
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मनोज कुमार श्रीवास्तव
शंकरनगर नवागढ़, जिला-बेमेतरा,
छ.ग., पिन-491337
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