राजेश कुमार पाठक की कहानी - रैपर

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रैप र अपने पति के एक दर्दनाक हादसे में मौत के बाद सुषमा ने अपने बाल-बच्‍चों की परवरिश करने के खातिर कुछ घरों में खाना पकाने का काम पकड़ रख...

रैप

अपने पति के एक दर्दनाक हादसे में मौत के बाद सुषमा ने अपने बाल-बच्‍चों की परवरिश करने के खातिर कुछ घरों में खाना पकाने का काम पकड़ रखा था। महीने भर में इतना कुछ घर आ ही जाता था जिससे वह साधारण ढ़ंग से ही सही पर कुशल वित्तीय प्रबंधन से अपने बाल-बच्‍चों की सरकारी स्‍कूलों में शिक्षा-दीक्षा दे पा रही थी।

एक दिन की बात है वह एक दुकान से अपने घर के लिए कुछ आवश्‍यक रसद आदि की खरीददारी कर रही थी। उसके दोनों जुड़वा बच्‍चे उसके साथ थे। बच्‍चे की उम्र कोई दस वर्ष की थी। उसी बीच एक नई चमचमाती कार उस दुकान के नजदीक आकर रूकी। कार से 10-12 साल का एक लड़का बाहर निकला और उसी दुकान से एक नई ब्रांड की चॉकलेट खरीदी, पैसे दिए और अपनी कार में बैठ वह चलता बना। यह सब सुषमा के बच्‍चे भली-भांति देख रहे थे। उसके बालपन ने माँ से उसी नई ब्रांड के चॉकलेट लेने की जिद करनी शुरू कर दी। किसी तरह समझा-बुझाकर सुषमा अपने आवश्‍यक घरेलू सामानों को ले बच्‍चों के साथ घर लौट आई। दुकान में अपने बच्‍चों को उसने जो कुछ भी समझाया वे बातें उसे बरबस झकझोरती जा रही थीं। उसने अपने बच्‍चों को समझाते हुए कहा था, बेटे, यह चॉकलेट बहुत महंगी है। हम इतने भी सक्षम नहीं है कि इन चॉकलेटों को खरीद सकें। मैं जानती हॅूं, तुम्‍हें क्‍या पता पैसे कहाँ से आते है ? इसकी जितनी कीमत है उन पैसों से तो हम इतनी रसद खरीद सकते है जिनके बल पर आसानी से हम जैसा एक परिवार पांच दिनों तक पैदा होने वाली पेट की भूख मिटा सकती है। इन चॉकलेटों का क्‍या, अभी खाया नहीं कि फिर खाने का मन कर जाय।

पर सुषमा इस तरह जीवन की कठोर सच्‍चाई अपने बच्‍चों को सुना समय से पहले उन्‍हें परिपक्‍व करना नहीं चाहती थी। बच्‍चे भले मान चुके थे पर सुषमा का ही मन नहीं माना था। उसे रह-रहकर उसके बच्‍चे के बालमन उसे ही कचोट रहा था मानों जीवन की हकीकत उससे ही उसके बच्‍चे की परवरिश का इम्‍तिहान लेना चाह रही हो।

आखिरकार उसने मन बना ही लिया कि वह अपने बेटों के बालमन को यूँ आसानी से खोने नहीं देगी। अपनी योजनानुसार वह हमेशा उस मंहगी चॉकलेटों के रैपर की तलाश में रहती जिसे पाकर वह उस रैपर को एक सस्‍ती चॉकलेट खरीद उस पर चढ़ा कर अपने बच्‍चों को महंगी चॉकलेट खाने का अहसास करा सके। सुषमा के प्रयासरत रहने के बावजूद जब उन चॉकलेटों के खाली रैपर नहीं मिल पा रहे थे तो आखिरकार उसने एक दुकानदार से महंगी चॉकलेटों के केवल रैपर की खरीद का मन बना लिया परंतु यह भी उतना ही सच था कि कोई भी दुकानदार उस महंगी चॉकलेट के रैपर को हटा अपनी चॉकलेट उसी मंहगी कीमत पर तो लोगों को बेच नहीं ही सकता था। यह सब देख-सुन सुषमा उदास रहने लगी। वह कभी-कभी सोचती आखिर इतनी मंहगी चॉकलेट बनाने का भी क्‍या कोई खास वजह होती है ? जब बच्‍चे, चाहे वह अमीर के हों या गरीब के, छोटे-मोटे चॉकलेटों से काम चला सकते हैं तो इतनी महंगी चॉकलेट होने के क्‍या फायदे? क्‍या इनसे पेट भरे जा सकते हैं ? चॉकलेट छोटी हो या बड़ी, महंगी हो या फिर सस्‍ती पर है तो ये चॉकलेट ही। कोई भले कहता हो कि इनसे शरीर में अतिरिक्‍त ऊर्जा मिलती है पर बच्‍चों का क्‍या इनके मन-शरीर में तो प्रकृति प्रदत्त इतनी ऊर्जा होती ही है जिसे वे चाहकर भी खर्च नहीं कर पाते। फिर इन चॉकलेटों से ही ऊर्जा प्राप्‍त करने की क्‍या जरूरत रह जाती है। बात ऊर्जा की नहीं। बात तो फिर अमीरी और गरीबी पर ही आकर टिक जाती है। महंगी चॉकलेट से बच्‍चों की तो नहीं पर उनकी खरीद करने वालों की शान लोगों की नजरों में बढ़ जाती है, और तो और सस्‍ती चॉकलेटें किसी के जीवन के लिए स्‍वास्‍थ्‍यकर नहीं है तो कम साधन वाले लोगों के द्वारा खरीदे जाने के लिए बनती ही क्‍यों है ? कारण तो सभी समझ ही सकते हैं कि सस्‍ती चॉकलेट गरीब खरीद कर किसी न किसी रोग को ही आमंत्रित करेंगे। और एक बार रोग उनके घर दस्‍तक दे दे तो उससे उबरना उन जैसे साधनविहीन लोगों के लिए कितना कष्‍टकर एवं दुखदायी हो जाता है।

यह सब सोचते सुषमा को अचानक अहसास हुआ कि बातें तो बच्‍चों को लेकर थी और वह खामखाह इतनी गंभीर हो गयी। उसने मन ही मन ठान लिया कि मंहगी चॉकलेटों के खाली रैपर भले ना मिले पर वह उससे भी आकर्षक रैपर बनाकर उसमें अपनी ममता की मिठास लपेट ऐसी चॉकलेट बनाएगी कि उसके बच्‍चे उसे खाने के लिए टूट पडेंगे। फिर क्‍या था। बड़ी मेहनत एवं तल्‍लीनता से एक दिन उसने वैसा ही कुछ सोचा हुआ चॉकलेट बना बड़े ही प्रेम से अपने बच्‍चों को चॉकलेट वाले दिन की घटना सुना उन्‍हें अपनी आँखें बंद कर अपने हाथ फैलाने की याचना की और उनके हाथ फैलाते ही अपने हाथों से बनी आकर्षक दिख रही रैपर में लिपटी-सिमटी चॉकलेटों को देकर खुशी से इस तरह उछल पड़ी मानों उनके साथ उसका भी निश्‍छल बालपन फिर लौट आया हो।

परंतु उन बच्‍चों के आँख खुलते, उनके ताप-तेवर एवं गुस्‍से को देख भय से सुषमा के चेहरे पर उतर आया उसका बालपन फिर उसी रास्‍ते उससे ओझल होता चला गया।

दोनों बच्‍चों ने अपने सिराहने से उठा एक-एक महंगी चॉकलेट अपनी माँ के हाथों में रखकर कहा-ये है असली चॉकलेट। मैं तो समझने ही लगा हॅूं। मेरी उतनी भी औकात नहीं कि महंगी चॉकलेट खा सकॅूं। फिर तुझे इसकी क्‍या जरूरत पड़ गई कि तुम्‍हें हमारी ही भावनाओं से खेलने का मन कर गया ? मैं समझ सकता हॅूं, मेरे जन्‍मदिन पर मेरी माँ वह सबकुछ देना चाहती है जो उसके पास भी ना हो। और जो उसके पास है वह तो हर रोज देती है। मैं तेरी ममता से सोचने की इतनी क्षमता पा चुका हॅूं कि क्‍या असली या क्‍या नकली है उसे समझते देर नहीं लगती फिर तेरे हाथ की बनी यह चॉकलेट ही क्‍यों नहीं ? मुझे नकली अमीरी से असली गरीबी ज्‍यादा अच्‍छी लगती है।

सुषमा अचरज भरी निगाहों से अपने बेटों में समय के साथ-साथ नहीं बल्‍कि समय से काफी पूर्व आयी परिपक्‍वता से मन ही मन उससे मिल रहे नये संबल का अहसास करती रही। वह पूछ ही बैठी-मगर इतनी महंगी चॉकलेट तुम्‍हारे पास आयी तो आयी कैसे ?

हमारे मित्र गंधर्व ने दी है। जन्‍मदिन जो हमारा ठहरा। सुषमा के बेटे ने बड़े ही गर्व से कहा। इधर सुषमा का मन इस बात से भय खा रहा था कि कहीं इन चॉकलेटों के खाने से उनके बच्‍चे को फिर दुबारा उसे खाने का कहीं मन ना कर जाय। वह सोचती, फिर वह क्‍या कर पाएगी? वह अपने बच्‍चों से यह भी नहीं कह सकती कि उन्‍हें वे अपने दोस्‍त को वापस कर दें।

क्‍या सोच रही हो माँ ? क्‍या मैं बहुत बोल गया ?, बच्‍चे ने कहा।

आँखों में खुशी और आत्‍मविश्‍वास के आँसुओं के साथ सुषमा ने कहा, नहीं रे ! मैं तो समझ ही नहीं सकी कि तुम दोनों इतने भी समझदार हो चले ? मैं तो अब तक समझती आयी थी कि उम्र समझदारी का पीछा करती है पर आज अहसास हुआ कि जब वक्‍त के थपेड़े पड़ जाये तो समझदारी ही उम्र की पीछा करने लग जाती है और बच्‍चे वक्‍त और उम्र से पहले समझदार हो जाते हैं।

इसी दौरान एक बेटे ने अपनी माँ की आँखें दोनों हाथों से ले कर, दूसरे बेटे अपने मित्र से मिले उपहार वाली चॉकलेटें अपनी माँ को खिलाता चला गया। जब उपहार वाली चॉकलेट माँ खा चुकी थी तो उसने मां की आँखों से अपना हाथ हटा पूरी मस्‍ती करते, झूमते-गाते माँ की ममता से लिपटी रैपर को खोल उसके हाथों से बनी चॉकलेटों का खा-खाकर दोनों भाई माँ के आगोश में थोड़ी देर के लिए आराम की नींद सो गए थे

 

राजेश कुमार पाठक

पॉवर हाउस के नजदीक

गिरिडीह-815301, झारखंड

hellomrpathak@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. अत्यन्त ही भवुक कर देने वाली रचना है

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  2. अत्यंत सार्थक और सुंदर कथा

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  3. बहुत ही मर्मस्पर्श कहानी, धन्यवाद...राजीव आनंद

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रचनाकार: राजेश कुमार पाठक की कहानी - रैपर
राजेश कुमार पाठक की कहानी - रैपर
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