संदर्भः- संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश- कशमीर में शरणार्थियों को नागरिक बनाने की सिफारिश प्रमोद भार्गव भारत की कश्मीर घाटी में बड़ी सं...
संदर्भः- संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश-
कशमीर में शरणार्थियों को नागरिक बनाने की सिफारिश
प्रमोद भार्गव
भारत की कश्मीर घाटी में बड़ी संख्या में ऐसे आभिशापित लोगों की भी आबादी है,जिनके लिए देश तो अपना है,लेकिन प्रदेश पराया है। जी हां,यह विसंगति कोई कल्पना नहीं,जम्मू-कश्मीर राज्य की ठोस हकीकत है। इस विसंगति को दूर करने की सुध आजादी के 68 साल बाद लोकसभा की संयुक्त संसदीय समिति ने ली हैं। समिति ने सिफारिश की है कि इन्हें देश की नागरिकता देने के साथ,वे सब लोकतांत्रिक अधिकार दिए जाएं,जिनका अधिकारी प्रत्येक भारतीय-नागरिक है। समिति ने तो सिफारिश आगे बढ़ा दी है,देखना है कि देश की शीर्षस्थ संवैधानिक संस्था संसद क्या रुख अपनाती है ? क्योंकि इस सिफारिश की भनक लगते ही पाक परस्त कश्मीरी अलगाववादियों ने जहर बुझे विभाजन के बोल बोलना शुरू कर दिए हैं। इसके समर्थन के लिए नेशनल कांफ्रेस समेत अन्य क्षेत्रीय दल भी आगे आ गए हैं। इस सिफारिश को यह दल घाटी का मुस्लिम चरित्र बदलने की साजिश जताकर जनता में अपनी पैठ जमाने की कोशिश में लग गए हैं।
कश्मीर घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिमों को छोड़कर हरेक धर्म व जाति समूह एक ऐसी हताशा का शिकार हैं,जो देश के नागरिक होने के बावजूद अलगाववादी कानूनी व्यवस्था के कारण खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। आतंकी दहशत इस निराशा को और गहराने का काम करती है। बंटवारे के समय 1947 में सांप्रदायिक दंगों के चलते अपना सब कुछ गंवाकर हजारों हिंदू परिवार पश्चिम पाकिस्तान से पलायन करके घाटी के सीमांत इलाकों और जम्मू क्षेत्र में आ बसे थे। इनमें से ज्यदातर पीढ़ी दर पीढ़ी राहत शिविरों में शरणार्थी जीवन का अभिशाप भोग रहे हैं। इन परिवारों की अब तीसरी ऐसी पीढ़ी युवा हो रही है,जो संविधान-सम्मत लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित है। इनमें कश्मीरी डोगरे,अनुसूचित जाति के हिंदू लद्दाखी बौद्ध,सिख और अन्य दलित व पिछड़ी जाति के लोग हैं। इन लोगों की विड़बना है कि इनके पास भारत की नागरिकता तो है,लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य की नागरिकता नहीं है। इस मानवता विरोधी विडंबना का कारण धारा-370 है। जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिला हुआ है। इस लिहाज से इस धारा पर व्यापक परिप्रेक्ष्य में बहस का मुद्दा उठता रहा है। आम चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 370 पर बहस की वकालात की थी। इन्हें सभी लोकतांत्रिक व संवैधानिक हक दिए जाने का मुद्दा भाजपा के प्रदेश अंजेडे में भी शामिल था। शायद इन्हीं मंशाओं की पूर्ति को अमलीजामा पहनने के नजरिए से संसदीय समिति ने इनके व्यापक नागरिक अधिकारों से जुड़ी सिफारिशों को आगे बढ़ाया है।
कश्मीर घाटी में इंसानियत की सूरत कितनी बदहाल है और मानवाधिकारों के हनन का पैमाना कितना व्यापक है,यह इन शरणार्थियों के हालात की पड़ताल करके जाना जा सकता है। चूंकि ये लोग रिफूजी थे और इनका ताल्लोक महाराजा हरिसिंह के तात्कालीन राज्य से नहीं था,इसलिए इन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य की नागरिकता आज तक नहीं मिली है। दरअसल धारा-370 के प्रावधानों के चलते इस राज्य के स्थायी निवासियों को ही नागरिक अधिकार देने की व्यवस्था है। इन्हें कानून की भाषा में 'स्टेट सब्जेट' कहा जाता है। इसी विषय के दायरे में आने वाले लोग यहां जमीन-जायदाद का क्रय-विक्रय कर सकते हैं। उन्हें ही उच्च शिक्षा हासिल करने का हक है। सरकारी नौकरियों पर भी उन्हीं का एकाधिकार है। राज्य विषय से इतर लोग देश के नागरिक भले ही हैं,किंतु राज्य के नागरिक नहीं हैं। नतीजतन वे सरकारी योजनाओं से जुड़े हरेक लोक कल्याणकारी लाभ से वंचित हैं। इन्हें पंचायत,नगरीय निकाय और विधानसभा चुनाव लड़ने की बात तो छोड़िए,मतदान करने तक का अधिकार प्राप्त नहीं है। हां,संसदीय चुनाव में जरूर ये मतदान का हक रखते हैं। इन शरणार्थियों की संख्या करीब ढाई लाख है। इनमें से अधिकतम अनुसूचित जाति के हैं। इनके बच्चे दसवीं पास कर भी लेते हैं तो इन्हें आगे पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति नहीं मिलती। आखिर देश के नागरिक होने के बावजूद ये बुनियादी अधिकारों से वंचित क्यों है,यह मानवीयता के नाते भी सोच का विषय है ?
हालांकि 1947 में ही ये शरणार्थी भेदभाव की कुछ आशंकाओं के चलते पंजाब में बसने को इच्छुक थे,लेकिन तब यहां के तात्कालीन मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने इन्हें रोक लिया था। उन्होंने भरोसा जताया था कि इन्हें वे सब नागरिक अधिकार मिलेंगे,जो भारत के अन्य नागरिकों को मिलेंगे। इस वचन पर अमल शेख अब्दुल्ला ने तो अपने जीते जी किया नहीं,उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला और फिर उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला ने भी नहीं किया। जबकि दोनों को लंबे समय तक प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला है। राज्य के स्टेट सब्जेट के बहाने इनके बाजिब हकों को पिछले 68 साल से टाला जा रहा है। केंद्र सरकारों ने भी इन विस्थापितों के पुनर्वास की पहल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं की। यह पहला अवसर है,जब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती दिखाई दे रही है।
यह देश और जम्मू-कश्मीर का दुर्भाग्य ही है कि जब भी कश्मीर में समावेशी चरित्र के वातावरण निर्माण की बात उठती है तो इन प्रयासों को 'घाटी का मुस्लिम चरित्र बदलने की साजिश के बहाने' अलगाववादियों के साथ क्षेत्रीय दलों का भी विरोध में स्वर मुखर हो जाता है। समिति की सिफारिशों का खुलासा होने के साथ ही हुर्रियत और नेशनल कांफ्रेस इसके विरूद्व मुहिम चलाने की धमकी देने लग गए हैं। इस मुद्दे को जम्मू बनाम कश्मीर बना देने की आशंका उपजने लगी है। क्योंकि राज्य की यह विडंबना रही है कि घाटी के नेता यदि जम्मूवासियों के हित में कोई कदम उठाते हैं तो उन्हें घाटी में राजनीतिक हानि होने का अंदेशा घेर लेता है। यदि नेशनल कांफ्रेंस इस विषय का सामाधान खोजती है तो पीडीपी के नेता कश्मीरियों को गुमराह कर देने का राग अलापने लग जाते हैं। फिलहाल इन विभाजित मानसिकताओं के चलते यह मसला जम्मू और कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दलों में बंटा रहकर लंबित होता चला आ रहा है।
पीडीपी और भाजपा के बीच गठबंधन की सरकार पर सहमति न बनने पर यही मुद्दा सबसे अहम रोड़ा है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद-370 के मामले पर भाजपा की राय किसी से छिपी नहीं है ? इस मुद्दे पर पीडीपी का भाजपा के साथ टकराव बना रहा है। इस लिहाज से पीडीपी की यह आशंका निर्मूल नहीं है कि यदि राज्य में सरकार बनाने की दृष्टि से वह भाजपा से घाटी के शरणर्थियों और कश्मीरी पंडित से जुड़ा कोई अप्रिय समझौता करती है तो घाटी के मुस्लिम उससे छिटक सकते हैं ? ऐसे में यदि केंद्र सरकार इस मुद्दे को विधेयक के रूप में लोकसभा में पारित करने का दम भरती है तो राज्य के अलगाववादी नेता व राजनीतिक दल मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में सांप्रदायिक खेल,खेल सकते हैं। क्योंकि अमारनाथ यात्रा में बाधा पैदा करने की दृष्टि से यह खेल कुछ साल पहले खेला जा चुका है।
देश के अन्य राष्ट्रीय दलों के लिए समिति की सिफारिशों को बिना विरोध के लागू कराने में सहयोग को एक अवसर के रूप में लेने की जरूरत है। कांग्रेस को इस मुद्दे का समर्थन इसलिए करना चाहिए,क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के छद्म से उबरने का जो ब्लू प्रिंट उसने सामने रखा है,उसकी व्यावहारिकता इस मुद्दे को समर्थन से साबित होगी ? मायावती को इस मुद्दे का समर्थन इसलिए लाजिमी है,क्योंकि घाटी के दुर्गम सीमाई इलाकों में नागरिक हकों से महरूम शरणार्थियों में सबसे ज्यादा दलित हैं। तय है,यह अवसर घाटी में बहुलतावादी सांस्कृतिक पुर्नस्थापना का भी है। इसलिए इस मुद्दे को बिना वोट की राजनीति से मुक्त होकर,बेखैाफ समर्थन देने की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
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शिवपुरी म.प्र.
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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