मंतव्य 2 - संज्ञा उपाध्याय की कहानी - संत

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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश...

(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)

 

संज्ञा उपाध्याय : युवा कहानीकार। ‘कथन’

त्रैमासिक तथा ‘आज के सवाल’ पुस्तक शृंखला का

संपादन। लेखन के साथ-साथ अंग्रेज़ी से हिन्दी में

कहानियों-कविताओं के अनुवाद में सक्रिय। राष्ट्रीय

नाट्य विद्यालय में रहकर कई वर्ष बाल रंगमंच से जुड़े

रहने के बाद सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय में

अध्यापन।

कहानी

संत

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संज्ञा उपाध्याय

‘‘जटाशंकर अपने मन के खेत में सपनों की फ़सल बोता है और खाद-पानी देने, निराई-गुड़ाई करने के बजाय खुद ही काग भगोड़ा बनकर उसमें खड़ा हो जाता है। कुछ बीज फूट आते हैं, अंकुर निकलते हैं, तो जटाशंकर डर जाता है। फिर वे अंकुर सूख जाते हैं। तब जटाशंकर फिर नये सपने बोता है!’’

ये किसी महान रचना में से उद्धृत पंक्तियाँ नहीं हैं, जैसा कि कहानियों की शुरुआत में देने का फ़ैशनसा चल पड़ा है! यह वह मज़ाहिया मिसाल है, जो जटाशंकर के सिलसिले में हुई हमारी अंतिम मुलाकात के वक़्त संदीप ने तुरत गढ़ ली थी! आज सुबह, जब से संदीप का फोन आया, तभी से यह पूरे दिन लगातार मेरे मन में घूमती रही!

संदीप ने नया फ़्लैट खरीदा था। आज गृह प्रवेश के अवसर पर वह शाम को हम सब को दावत देने वाला था। ‘‘मनोज भाई, ज़रूर आना है शाम को! सभी से बात हो गयी है। शकील भाई और दीपक तो बाहर हैं, नहीं आ पाएंगे, बाकी इमरान, प्रसून, सुहैल, शेफाली वग़ैरह सब आ रहे हैं। पाँच बजे तक इमरान की कोई मीटिंग है मंडी हाउस में। वह आपको मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन से ले लेगा। आज कोई बहाना नहीं!

चार साल हो गये हैं हम सबको मिले, साथ बैठे!’’ ‘‘और जटाशंकर?’’ मैंने पूछना चाहकर भी नहीं पूछा और आने पक्का वादा करके फोन बंद कर दिया।

उसके बाद से ही दिमाग में जैसे बीते कई सालों की रील घूम रही है।

सच! समय कैसे बीतता है! यह शहर दिल्ली कितना बदल गया है! मंडी हाउस को याद करता हूँ, तो वही पुराना मंडी हाउस उभरता है स्मृति में, आज से लगभग बीस साल पहले का। कैसा अपना-अपनासा लगता था तब वह इलाका! देर शाम तक बहसों, मज़ाकों, ठहाकों से धड़कता हुआ! साफ़-साफ़ देख पाता हूँ भगवानदास रोड के कोने पर भगवान की चाय की दुकान के आगे पटरी बैठे हम सबको! कल का पता नहीं था कि क्या होगा, तब भी कैसे ज़िद के साथ जिये जा रहे थे हम! अपने-अपने सपनों और उम्मीदों के साथ!

बीते वक़्त को याद करना भी कैसा अज़ीब अनुभव होता है! जिन वक़्तों में हम मरने-मरने को हो रहे थे, जीने को छटपटा रहे थे, उन वक़्तों को अरसा बीत जाने के बाद याद करें, तो लगभग वैसी ही छटपटाहट होती है। लेकिन इस छटपटाहट में तब की-सी बेचैनी नहीं, आनंद होता है। आनंद, क्योंकि हम जानते हैं कि हम बच चुके हैं!

‘‘यही अभिनय है!’’ मंडी हाउस के गोलचक्कर के एक हिस्से में शकील ने इसी तरह बीते अनुभवों को याद करने का एक अभ्यास कराते हुए हम लोगों से कहा था।

शकील और मैं एक ही शहर के रहने वाले। दिल्ली विश्वविद्यालय में साथ पढ़े। वह कॉलेज के समय से ही नाटकों में रुचि लेने लगा था। अब तक भी सबसे बड़ा सपना माने जाने वाले आइ.ए.एस. से हम दोनों को ही कोई लगाव न था। वह नाट्य निर्देशक बनना चाहता था और मैं पत्रकार। लिहाजा एम.ए. करने के बाद ज्यों ही हम विश्वविद्यालय से बाहर हुए, पूरी तरह अपने लक्ष्य को पाने में जुट गये। दिल्ली की बस्ती मुखर्जी नगर यदि आइ.ए.एस. बनने का सपना पालने वालों का ठौर-ठिकाना है, तो लक्ष्मीनगर पत्रकारों, लेखकों, रंगकर्मियों का। तो हमने लक्ष्मीनगर में एक कमरा किराये पर लिया और अपना संघर्ष शुरूकिया।

यह वह समय था, जब निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण सबसे अधिक प्रचलित शब्द हो गये थे। चार साल पहले सोवियत संघ नाम का देश बिखर गया था और कॉलेज में अपने सीनियरों को इस मसले पर धुआँधार बहस करते हम चुपचाप ध्यान से सुनते थे कि समाजवाद का अंत हो गया या नहीं। हमें इन बातों की बहुत गहरी जानकारी नहीं थी और न ही इनसे कोई ख़ास मतलब। लेकिन विश्वविद्यालय से बाहर कहीं भी, मसलन बसों में या चाय के खोखों पर लोगों के बीच निजीकरण वगैरह की, छँटनी की, सार्वजनिक उद्यमों के बंद हो जाने की बहसें छिड़ जातीं, तो हम उन सुनी हुई बहसों से अर्जित ज्ञान को बड़े मौलिक रूप में पेल देते और उन लोगों की नज़रों में अपने लिए प्रशंसा का भाव पढ़ संतुष्ट हो लेते।

हमारे देखते-देखते दुनिया बदल गयी। हम उस पीढ़ी के लोग हैं, जिन्होंने सचमुच वक़्त को बदलते देखा है! मोबाइल पर तेज़ी से उँगलियाँ नचाने वाला मेरा बारह साल का बेटा उस डर को महसूस कर ही नहीं सकता, जिस डर से सार्वजनिक टेलीफोन में अठन्नी डालते समय मेरी उँगलियाँ थरथराया करती थीं। खरामा-खरामा इत्मीनान से चलने वाली ज़िंदगी को न ख़त्म होने वाली दौड़ में बदलते देखा है हमने, जिसमें साँस लेने को भी रुके, तो अगले के आपसे आगे निकल जाने का ख़तरा लगातार मँडराता रहता है! हमसे बीस साल बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए तो यह तेज़रफ़्तारी ही सच्चाई है। इसीलिए ज्यों ही हम ‘आह वे बीते दिन’ के अंदाज़ में आने को होते हैं, वे हमें बाबा आदम के जमाने का मान वहाँ से कट लेते हैं!

गनीमत है कि मैं सरकारी नौकरी में हूँ! मेरे जो दोस्त उस समय बदलाव के बहाव में बहकर या कहें सरकारी नौकरियों में होती जा रही कमी के कारण प्राइवेट सेक्टर में चले गये, वे इन नये बच्चों से क़दमताल करने के लिए हमेशा भागते ही नज़र आते हैं। जानतोड़ कोशिशों के बाद भी पिछड़ने का भाव उनके चेहरों पर हर समय बना रहता है...

ख़ैर, यह बीता वक़्त वह वक़्त था, जब जीवन आँधी की अलामत के बावजूद अपनी मंथर गति से चल रहा था।

शकील लगन वाला और मेहनती था। अच्छा कलाकार भी। पर दो बार लगातार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश पाने में असफल होने पर उसने यह प्रयास छोड़ दिया। जीवन जीना लगातार कठिन हो रहा था। मैं अख़बारों-पत्रिकाओं में फ्रीलांसिंग करके कुछ पैसा कमा लेता था। आख़िर शकील ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की दो-तीन कार्यशालाओं में भाग लेकर, शौकिया रंगमंच करने वाले दो-तीन समूहों के नाटकों में अभिनय करके दिल्ली के एक निजी स्कूल में ड्रामा टीचर की नौकरी पा ली। पैर टिकाने को थोड़ी ज़मीन मिलने के बाद अब उसका मक़सद अपना एक नाट्य समूह बनाना था।

हमारे मकान मालिक का लड़का संदीप जल्दी ही हम से घुल-मिल गया था। वह प्रथम वर्ष का छात्र था। शकील की बातें उसे बहुत प्रभावित करतीं। धीरे-धीरे उसके दोस्त दीपक और प्रसून भी अक़्सर हमारी शाम की बैठकी में शामिल होने लगे।

लक्ष्मीनगर एक घनी बस्ती थी। हमारे आसपास कई नौजवान रहा करते थे। संदीप, दीपक और प्रसून वहाँ बचपन से रह रहे थे। उनके और संगी-साथी भी अब हमारे यहाँ जुटने लगे। दुनिया भर की बातें होतीं। यह हमारे लिए महज़ वक़्तकटी नहीं थी। उस समय न मोबाइल थे, न फेसबुक। यह वह अड्डेबाज़ी थी, जिसमें हम निजी हँसी-मज़ाक से लेकर देश-दुनिया की समस्याओं पर जाने क्या-क्या चर्चा किया करते थे! कितना हँसते थे! कितना झगड़ते थे!

एक शाम दीपक एक लड़के को साथ लिये आया और मुझसे बोला, ‘‘मनोज भाई! यह शिवकुमार शर्मा है। इसकी एम. ए. प्रीवियस की हिन्दी की परीक्षा होने वाली है। इसे पढ़ने का वक़्त नहीं मिला। आप ज़रा इसकी कुछ मदद कर दीजिए!’’

मैं ‘आइये बैठिये’ कहने को मुँह खोलने ही वाला था कि उस लड़के ने अपनी ठहरी हुई लेकिन गूँजती- सी आवाज़ में कहा, ‘‘मुझे शिव कहिए। बस, शिव। मैं जाति-धर्म में यकीन नहीं रखता।’’

मैंने ज़रा ठहरकर उसकी ओर ध्यान से देखा। लंबा, छरहरा, गोरा लड़का। देखने में सुन्दर। घिसी हुई जींस और टी-शर्ट पहने। मैली-सी हो आयी सफ़ेद टी-शर्ट पर सुंदर लिखावट में लिखा था-‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’।

उसकी आँखों में वैसा ही ठहराव था, जैसा उसकी आवाज़ में था। कंधों से नीचे झूल रहे उसके लंबे बेतरतीब बाल उसके दुबले चेहरे को भरा-पूरा बना रहे थे। ‘‘तुम्हारे लंबे बालों के कारण तुम्हें शिव के बजाय जटाशंकर कहने का मन कर रहा है!’’ मैंने मुस्कराते हुए मज़ाक में कहा।

उसने भी मुस्कराते हुए संकोच भरे स्वर में कहा, ‘‘चलिए, वही सही। पर शर्मा-वर्मा कहलाना मुझे पसंद नहीं।’’

बस, उस दिन के बाद से मैंने उसे जटाशंकर कहना शुरूकर दिया। और धीरे-धीरे हम सबके बीच उसका यही नाम प्रचलित हो गया। वह मुझसे हिन्दी पढ़ने आया था, लेकिन इसके बजाय हमारी गपबाज़ी सुनने में उसे ज्यादा रस आने लगा। उसे शकील का थियेटर ग्रुप बनाने का विचार बहुत जमा। उसने कहा, ‘‘शकील भाई! ग्रुप बनाइए। बहुत ज़रूरी है। युवाओं में क्रांतिकारी चेतना पैदा करने में भी यह मददगार होगा!’’ ‘क्रांतिकारी चेतना’ सुनते ही मैंने और शकील ने पहले एक-दूसरे की ओर देखा, फिर उसकी ओर और फिर दीपक की ओर। दीपक ने समझकर बताया कि जटाशंकर एक वामपंथी छात्र संगठन का कर्मठ कार्यकर्ता है और जल्दी ही शायद उसका कोई पदाधिकारी भी बनने वाला है। वह दिन-रात संगठन का काम करता है। जे.एन.यू. की दीवारों पर वह कलात्मक ढंग से क्रांतिकारी नारे लिखा करता है। ‘‘इसकी टी-शर्ट पर पाश की यह पंक्ति जो आप देख रहे हैं, यह भी इसी ने लिखी है।’’

दीपक हमें यह सब बता रहा था। हम प्रभावित होते हुए सिर हिला-हिलाकर सुन रहे थे और बीच-बीच में जटाशंकर की ओर प्रशंसा भरी नज़रों से देख रहे थे। उस पूरे दौरान जटाशंकर खामोश रहा। तना बैठा, चेहरे पर गरिमामय हल्की-सी मुस्कराहट। अपनी इस शांत मुद्रा से मानो दीपक की हर बात की तस्दीक़ करता हुआ।

मुझे और शकील को राजनीति और आंदोलनों से कोई लेना-देना नहीं था। हम बस अपनी ज़िंदगी को ठीक ठिकाने पर लगाना चाहते थे। जाति और धर्म में हम भी यकीन नहीं रखते थे, तभी एक-दूसरे के साथ थे। लेकिन इस बात को कहा जाना भी ज़रूरी है, इस पर हमने गौर करने की कभी ज़रूरत नहीं समझी थी। ख़ैर, हमसे छोटी उम्र का एक लड़का सामाजिक बदलाव के आंदोलन में इस तरह सक्रिय है, इस बात ने जटाशंकर के प्रति थोड़ा सम्मान का भाव पैदा किया।

अब वह दीपक के साथ नियमित हमारे यहाँ आने लगा। धीरे-धीरे उसके साथ उसके दो मित्र इमरान और सुहैल भी आने लगे। वे जटाशंकर के संगठन से ही जुड़े थे और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से फ़िल्म बनाने का कोर्स कर रहे थे।

शकील को अब अपना थियेटर ग्रुप बनने की संभावना नज़र आने लगी थी। दीपक, संदीप, जटाशंकर, इमरान, सुहैल, इमरान की दोस्त सुकन्या, दीपक का दोस्त प्रसून...इस तरह हमारे यहाँ आने वाले युवा साथियों की संख्या बढ़ने लगी। शकील खुश था। उसे लगता था कि उससे उम्र में छोटे, कॉलेजों में पढ़ने वाले इन युवा लड़के-लड़कियों को नियंत्रित करना आसान होगा। इन लड़के-लड़कियों को भी कोई दिक्कत नहीं थी। वे अपनी रुचि और ज़रूरत से इस समूह के सदस्य बने थे। जटाशंकर के ‘क्रांतिकारी चेतना के प्रसार’ वाले विचार को शकील ने फिर उभरने का कोई मौक़ा नहीं दिया। उसका एकमात्र मक़सद इस समूह के ज़रिये एक निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाना था। जटाशंकर जल्दी ही सबसे नहीं खुलता था। मैंने पाया था कि बाहर से बहुत आत्मविश्वासी दिखने के बावजूद उसके अंदर हमेशा एक झिझक और सावधानी भरी रहती थी। मैं और शकील तो उससे बड़े थे, लेकिन वह अपने से तीन-चार साल छोटे संदीप, सुकन्या और प्रसून से भी बहुत घुल-मिलकर बात नहीं करता था। हाँ, दीपक, इमरान और सुहैल से उसकी अच्छी बनती थी। ऐसा लगता था, वे लोग उसे बहुत प्यार करते हैं और उसका ख़याल रखते हैं। दीपक और उसके बीच एक अज़ीब-सा संबंध था। दीपक बहुत-सी बातों पर जटाशंकर पर झल्ला जाता, सख़्त शब्द भी कह जाता, लेकिन अगली बार फिर दोनों साथ आते।

धीरे-धीरे थोड़ा-बहुत स्वयं जटाशंकर और काफी कुछ दीपक के जरिये जटाशंकर के बारे में मालूम हुआ। जटाशंकर बहुत मुखर नहीं था। मैंने पाया, वह केवल तब ही सबसे उत्साह से बोलता है, जब अपने संगठन के लिए किये गये कामों के बारे में बताता है। उस समय उसकी आँखें बेहद सपनीली हो

उठती थीं। ‘‘मनोज भाई, कल रात-रात भर नारे लिखे! राष्ट्रीय सम्मेलन है न! क्या माहौल है जे.एन.यू. में, आप आकर देखिए! खाने तक का होश नहीं रहा! दो साथी तो बेहोश होकर गिर गये।’’

यह सुनकर शकील कहता, ‘‘तुम्हारे नेता लोग तुम्हारा शोषण करते हैं। इस शोषण पर तुम लोग चुप क्यों रहते हो?’’

ऐसी बातों का जटाशंकर हमेशा बस एक हल्की-सी मुस्कराहट से जवाब देता था। वह कभी बहस में नहीं उलझता था, जबकि हमने ऐसे संगठनों से जुड़े लोगों को अक्सर बहस करते हुए देखा था।

पढ़ाकू गज़ब का था जटाशंकर। अक़्सर कोई न कोई किताब उसके पास होती। मेरी रुचि पढ़ने में और अपनी बातों में देख उसने मुझे बहुत-सी किताबें पढ़ने को दीं। सोवियत संघ के प्रकाशन गृहों से प्रकाशित गोर्की, तोलस्तोय, चेखव, तुर्गनेव, दोस्तोएव्स्की आदि का साहित्य मैंने उसी की बदौलत पढ़ा। मार्क्स, लेनिन, माओ आदि के विचारों को जाना।

एक दिन मैंने उससे पूछा, ‘‘तुम किस तरह इस विचारधारा और छात्र संगठन से आ जुड़े?’’ ‘‘मैं तो पैदा ही गरीब घर में हुआ, मनोज भाई!’’ उसने तनिक गर्व से कहा, ‘‘तो मेरा तो स्वाभाविक जुड़ाव हुआ न इस विचारधारा से! पांडव नगर का फ्लाइओवर देखा है आपने? जब वह बन रहा था, मैं वहीं क्रिकेट खेलता था अपने दोस्तों के साथ। मजदूरों की यूँ ही मदद कर दिया करता था। उस वर्ग से जुड़ाव तो पैदाइशी है मेरा!’’

दीपक से जब मैं यह सब साझा करता, तो वह कहता, ‘‘स्यूडो है पक्का! उसके घर जाकर देखिये कभी! उसके पिताजी बिजली विभाग में मामूली-सी नौकरी करते खट रहे हैं। उससे मदद चाहते हैं। उनसे तो कोई सहानुभूति नहीं है उसे! सुबह उनके जाने के बाद देर तक नवाबों की तरह सोया रहता है और आधी रात को दबे पाँव चोरों की तरह घर में घुसता है। बड़ा भाई पढ़ाई छोड़कर छोटे-मोटे काम कर रहा है कि दो बहनों की शादी और दो छोटे भाइयों की पढ़ाई के लिए पैसा जुटाने में पिता का हाथ बँटाये। जैसे-तैसे करके ज़रा-से प्लॉट पर डिबिया बराबर मकान बनाया है उन्होंने। चूँकि यह पढ़ता-लिखता है, इसलिए इसे एक अलग कोठरी दे दी है कि पढ़-लिखकर कुछ बन जाये। पर यह वहाँ अपने दोस्तों के साथ बहस-मुबाहिसों के नाम पर गप-गोष्ठियाँ करता है!’’ जटाशंकर मुझे अपने बारे में जो भी बताता, दीपक हमेशा उससे उलटा चित्र मेरे सामने प्रस्तुत करता। मुझे इसमें बड़ा मज़ा आता! तस्वीर के दो पहलू देख पाने का मज़ा! मैंने नोटिस किया कि वह दीपक के साथ आता-जाता ज़रूर है, पर उससे कतराता भी है!

एक दिन शहर की गलियों के माहौल पर बात हो रही थी। जटाशंकर ने ठंडी आवाज़ में कहा, ‘‘मेरी गली में सुबह दस-साढ़े दस बजे तमाम घरों से कपड़ों को मोगरी से पीटे जाने की जो आवाज़ आती है, वह मुझे बहुत डिप्रेस करती है।’’

हममें से कोई कुछ कह पाता, इससे पहले दीपक चिढ़ भरी आवाज़ में तपाक से बोला, ‘‘डिप्रेस होने के बजाय तुम्हें यह सोचना चाहिए कि हर घर की औरत किस तरह घर भर के कपड़े धोने में खट रही है!’’ जटाशंकर हल्के से मुस्कराया और ‘‘सिगरेट लेकर आता हूँ’’ कहकर बाहर चला गया। ‘‘स्यूडो साला!’’ दीपक झल्लाकर बोला, ‘‘अपने कपड़े तो अपनी माँ और भाभी से धुलवाता है!

हुँह! आवाज़ डिप्रेस करती है!’’ ‘‘दीपक, तूने डिप्रेशन का कारण तो पूछा नहीं! क्या पता जटाशंकर यही कारण बताता!’’ संदीप ने तुरंत अपने मज़ाहिया लहज़े में टीप जड़ी। संदीप में यह बड़ा गुण है। वह अब भी गंभीर और तनावपूर्ण होते माहौल को अपनी ऐसी चुटकियों से हल्का बना दिया करता है। उस वक़्त भी हम सब हँस पड़े और

बात आयी-गयी हो गयी।

कुछ दिन बाद जटाशंकर ने मुझे अपने घर बुलाया। कहा कि एक नुक्कड़ सभा का आयोजन होने जा रहा है, जिसकी तैयारी के लिए उसके कुछ दोस्त आएंगे। वह मुझसे पोस्टरों के लिए कुछ अच्छी पंक्तियाँ लिखने में मदद लेना चाहता था। मैं ग्यारह बजे के तय समय पर उसके घर पहुँचा, तो उसकी कोठरी के बाहर वह और उसके तीन-चार साथी खड़े थे। कोठरी के अंदर से किसी स्त्री के चीखने-डाँटने की आवाज़ें आ रही थीं। संभवतः उसकी माँ थीं। थोड़ी ही देर में धूल का एक बादल उठा और कोठरी के फ़र्श पर बिछी दरी बाहर आकर गिरी। साथ आया राख की गंध का भभका। मैंने जटाशंकर की ओर देखा। वह संकोच भरी हँसी हँस दिया। मैंने अंदर झाँककर देखा, तो दहशत के मारे पल भर में ही पीछे हट गया। अंदर सारा फ़र्श सिगरेट के टोटों से पटा पड़ा था, जो वह और उसके दोस्त न जाने कब से उस दरी के नीचे ही फ़र्श से रगड़कर बुझाते चले आ रहे थे! उसकी माँ वहाँ राख के गुबार में उकडूँ बैठी झाड़ू से उन्हें इकट्ठा कर रही थीं। ‘‘चलिए, अपन सामने पार्क में चलकर बैठते हैं, तब तक सफ़ाई हो जाएगी।’’ जटाशंकर अपनी गूँजती ठंडी आवाज़ में बोला।

उस दिन मुझे उससे बड़ी कोफ़्त हुई। शाम को दीपक को यह सब बताया, तो वह बिफरकर बोला, ‘‘यही तो आपको बताता हूँ मैं! देखा आपने? मेरा बचपन का दोस्त है। लड़-झगड़ लेता हूँ, पर किनारा नहीं कर पाता। गुस्सा तो बहुत आता है उस पर!’’

ख़ैर, जटाशंकर की संगत का असर मुझ पर यह हुआ कि मैं अब रूमानी और प्रेम भरी कविताएँ लिखना छोड़कर उन सवालों और मसलों पर लिखने लगा, जो मुझे मथने लगे थे। लेकिन अब उससे ज्यादा मेरी इमरान से बनने लगी थी। वह भी पढ़ाकू था। लेकिन कोरा पढ़ाकू नहीं। वह हर मसले पर अपने विचार रखता था और तीखी बहस करता था। उससे बात करने के बाद मुझे पता लगा कि जटाशंकर बहस से क्यों बचता है। ‘‘मनोज भाई, गरीब घर में पैदा होकर सहज ही शोषण से मुक्ति की बात करने वाली विचारधारा से जुड़ जाना- यह एक आम बात है। अच्छी बात है। लेकिन असल बात है, आप जिस गरीबी में पैदा हुए, उसके कारणों को जानना और उन कारणों को दूर करने के लिए कुछ करना। और यह करना केवल अपने लिए नहीं होता, बल्कि अपने साथ-साथ औरों को भी उस गरीबी, शोषण और अन्याय से मुक्त करने का प्रयास करना होता है। हकीकत यह है कि हमारे संगठन में ही नहीं, व्यवस्था में बदलाव चाहने वाले हर आंदोलन में कई लोग इसलिए जुड़ते हैं कि वे केवल अपने व्यक्तिगत जीवन को उसके ज़रिये बदलना चाहते हैं। वे किसी भी तरह जल्द से जल्द अपनी गरीबी और बदहाली से मुक्त होकर अपने से ऊपर के वर्ग में चले जाना चाहते हैं। उन्हें सबकी स्थिति में बदलाव से कोई बहुत लेना-देना नहीं होता। अपना जटाशंकर भी शायद ऐसे ही लोगों में है। वह बाहर तो बदलाव की बात करेगा, लेकिन अपने घर के हालात बदलने की बात नहीं करेगा। हो सकता है, भीतर ही भीतर वह अपनी दशा के लिए अपने परिवार वालों को ज़िम्मेदार मान उनसे नफ़रत भी करता हो!’’

इमरान की बातों ने जटाशंकर के विषय में मेरी सोच में एक नया आयाम पैदा कर दिया।

इस बीच शकील के नाट्य दल में ठीक-ठाक सदस्य हो गये थे। उसे एक नाट्य उत्सव में नाटक प्रस्तुत करने का अवसर मिल रहा था। उसने तय किया कि ‘इडिपस’ खेला जाये। सारे समूह से बात हुई। स्क्रिप्ट पढ़ी गयी। ऑडीशन हुए और किरदार बाँट दिये गये। जटाशंकर को मुख्य पात्र इडिपस बनाया गया। उसका लंबा कद, बढ़े हुए बाल और गूँज भरी आवाज़ इसमें प्रमुख कारण थे।

इसी बीच ग्रुप में एक नया आगमन हुआ। शेफाली। संदीप की दोस्त शेफाली। दिल्ली के एक कॉलेज में प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली शेफाली। चुलबुली नटखट शेफाली। ‘‘शेफाली, ये हैं शिवकुमार उर्फ़ जटाशंकर।’’ सबसे अलग-अलग मिलवाते संदीप ने उसका परिचय जटाशंकर से करवाया। ‘‘ओ! शिवजी! मेरे पापा कहते हैं, शिव सर्वहारा के देवता हैं!’’ शेफाली ने कहा और खिलखिलाकर हँस पड़ी।

सब हँस पड़े। हँसते हुए मैंने जटाशंकर की ओर देखा। ऐसा भाव मैंने अब तक उसके चेहरे पर नहीं देखा था। वह मंत्रमुग्ध-सा शेफाली को देख रहा था, जबकि वह अब इमरान, सुकन्या, सुहैल, दीपक वगैरह से बात करने लगी थी।

मैंने जटाशंकर से धीरे से पूछा, ‘‘क्या हुआ, जटाशंकर?’’

वह जैसे अचानक जागकर बोला, ‘‘मनोज भाई, सुना आपने? सर्वहारा! ऐसा शब्द इस्तेमाल करने वाली यह लड़की कितनी समझदार होगी!’’

मैं खुलकर मुस्करा पड़ा, तो जटाशंकर शरमा गया।

रिहर्सलों का दौर शुरूहुआ। शकील के पास संसाधन कम थे। उसे उत्सव आयोजकों की ओर से जो पैसा मिल रहा था, उसमें से वह अधिक से अधिक अपने लिए बचा लेना चाहता था। कलाकारों को पैसे दिये जाने की उसे चिंता नहीं थी। वे सब तो पूरी निष्ठा के साथ इस काम में लगे थे। अभी वह ज़माना नहीं आया था कि एकदम नया, अनुभवहीन व्यक्ति भी किसी काम को करने से पहले पूछे- मुझे क्या मिलेगा?

रिहर्सल बढ़िया चल रहा था। शकील अच्छा निर्देशक साबित हुआ। उसने अपने नौसिखिये कलाकारों को माँजना शुरूकिया। जटाशंकर पर वह विशेष मेहनत कर रहा था। फुर्सत में जब सब इकट्ठे बैठते, उसकी प्रशंसा होती। ‘‘जल्दी ही दिल्ली के रंगमंच पर एक नया धमाका होने जा रहा है-शिवकुमार शर्मा!’’ संदीप ऐलानिया ढंग से कहता।

सब ताली बजाते। मैं देखता, जटाशंकर ताली बजाती शेफाली को प्रेम से निहार रहा होता। उसकी आँखों में मुझे ढेर सारे सपने तैरते नज़र आते।

धमाका तो हुआ, पर नाटक के मंचन से दो दिन पहले।

रिहर्सल के लिए निर्धारित समय पर सब पहुँचे। जटाशंकर नहीं आया। उन दिनों मोबाइल नहीं हुआ करते थे। दीपक उसके घर गया। वह वहाँ भी नहीं था। शकील ने बाकी लोगों के दृश्यों पर काम करना शुरूकिया।

दो-ढाई घंटे बाद जटाशंकर आया। उसे देखते ही शकील उस पर बरस पड़ा, ‘‘यह क्या तरीका है, जटाशंकर! कहाँ गायब थे? आज डेज़्स रिहर्सल करनी थी!’’ ‘‘शकील भाई, मैं यह रोल नहीं कर पाऊँगा।’’

जटाशंकर की गूँजती आवाज़ सुनकर सन्नाटा छा गया। काफी देर तक कोई कुछ भी नहीं बोला। शकील भी नहीं, जो बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाया करता था। ‘‘बात क्या है? क्या किसी ने तुमसे कुछ कहा है?’’ अंततः शकील ने ही खामोशी तोड़ी। वह अभी तक हकबकाया हुआ था और दो दिन बाद होने वाले शो के बारे में सोचकर स्वयं को संयत रखने की भरसक कोशिश कर रहा था। ‘‘कुछ नहीं। किसी ने कुछ नहीं कहा। बस मैं यह रोल नहीं कर पाऊँगा।’’ जटाशंकर शांत था। उसके स्वर में हल्की-सी घबराहट झलक रही थी। वह किसी से आँख मिलाये बिना, सिर झुकाये, हाथ मसल रहा था।

अब शकील को भयंकर गुस्सा आया। वह जोर-जोर से जटाशंकर पर चिल्लाने लगा। जटाशंकर बिना प्रतिवाद किये बैठा रहा। उस पर मानो कोई असर ही नहीं हो रहा था। ‘‘परेशान मत होइए, शकील भाई! मैं करूँगा इडिपस का रोल।’’ इमरान ने दृढ़ आवाज में कहा, तो सबकी आँखें जटाशंकर और शकील से हटकर उसकी ओर चली गयीं।

शकील एकाएक खामोश हो गया। उसने इमरान के दोनों कंधों को मजबूती से पकड़ा। उसके बेआसरा दिल को मानो सहारा मिल गया था। कुछ देर इमरान की आँखों में देख उसने उसे कसकर गले लगा लिया। ‘‘पर तुम्हारा क्रियो का रोल कौन करेगा? वह भी तो खासा बड़ा है!’’ शकील की चिंता बरकरार थी। ‘‘अरे, जब यह इडिपस बन सकता है, तो मैं क्रियो क्यों नहीं?’’ संदीप अपने मज़ाहिया लहज़े में माहौल को हल्का करने के लिए बोला। वह कोरस में शामिल था और स्टेज़ मैनेजर का काम भी कर रहा था। लेकिन उसे पूरा नाटक याद था।

सब घटनाक्रम जल्दी-जल्दी घट रहा था। हर कोई मानो तुरत-फुरत प्रत्येक समस्या का समाधान कर देने को आतुर था। कहने को यह नौसिखियों का समूह था, लेकिन मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लग रहा था कि वे सब समझदारी और सामूहिक भावना से काम कर रहे थे।

यह सब देखकर शकील का गुस्सा भी शांत हो गया। स्वयं पर काबू रखना ज़रूरी था। समय कम था और काम ज्यादा। उसने बिना कुछ कहे जटाशंकर का कंधा थपथपाया। जटाशंकर मुक्ति की-सी साँस छोड़ उठ खड़ा हुआ और हल्की-सी विदा लेकर चला गया। उसके बाद वह नहीं आया।

दो दिन बाद शो हुआ और बहुत अच्छा हुआ। काफी अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिलीं। अख़बारों के लिए सांस्कृतिक गतिविधियाँ कवर करने वाले अपने मित्रों से मैंने शकील के इंटरव्यू कराये। नाटक की अच्छी समीक्षाएँ अख़बारों में छपीं। शकील का नाम हुआ। इमरान, सुकन्या, संदीप, सुहैल, दीपक, प्रसून, शेफाली-सब खुश थे। अभी उनमें से ज्यादातर अपने जीवन के उस दौर में थे, जबकि उन्होंने अपनी दिशाएँ तय नहीं की थीं। यह उनकी ज़िंदगी का एक यादगार अनुभव था।

शो की सफलता के बाद हमारे कमरे पर चाय पार्टी का आयोजन हुआ। जटाशंकर को भी बुलाया गया, पर वह नहीं आया। रिहर्सलों और शो के दौरान घटी घटनाओं, मज़ेदार प्रसंगों और झगड़ों को रस ले-लेकर याद किया गया। खूब हँसी-मज़ाक हुआ। करते-करते बात जटाशंकर पर आ टिकी। ‘‘मैं तो सोच रहा था, एक अच्छा अभिनेता दिल्ली के रंगमंच को दूँगा। पर उसने मुझ पर विश्वास ही नहीं दिखाया।’’ शकील गुस्से और अफ़सोस के स्वर में बोला। ‘‘आप पर क्या, उसने हम में से किसी पर भी विश्वास नहीं दिखाया, बल्कि हमारा विश्वास तोड़ दिया।’’ प्रसून तैश में बोला, ‘‘सपना तो वह भी यही देख रहा था कि उसका नाम हो जाएगा!’’ ‘‘ऐसे सपनों से क्या फायदा, जिन्हें आप बस देख सकें, उनके लिए कुछ करें नहीं!’’ दीपक बोला। ‘‘और फिर इस तरह मुँह छिपाकर भाग जायें!’’ सुहैल तुनककर बोला।

‘‘उसने अब संगठन की बैठकों में आना भी बंद कर दिया है। हालाँकि उसने बहुत मेहनत की। उसकी लगन और मेहनत को देखकर संगठन उसे दिल्ली इकाई का पदाधिकारी भी बनाना चाहता था, लेकिन इधर दुनिया बदली और सबसे पहले उस जैसे लोग संगठन से छिटककर अलग हो गये। पिछले कुछ समय से अक़्सर यही कहता है वह कि सब मेहनत बेकार गयी, कितना वक़्त बर्बाद हुआ!’’ इमरान ने यह नया ही सिलसिला हमें बताया। ‘‘चलो, जाने दो!’’ शकील कुछ देर तक छाये मौन को तोड़कर बोला। वह आज ज्यादा गंभीर होने के मूड में नहीं था, ‘‘दीपक, उससे कहना, आया तो करे!’’

दीपक ने सिर हिलाया और आगे की बैठक की बात तय कर पार्टी ख़त्म हो गयी।

उसके बाद दो-चार नाटक और हुए। जटाशंकर कुछ हिचकिचाहट के साथ एक दिन आया। किसी ने पिछली बातों का ज़िक्र नहीं किया। उसने किसी नाटक में शामिल होने की इच्छा नहीं जतायी। हाँ, नाटकों के ब्रोशर लिखना उसने खुद ही अपने ज़िम्मे ले लिया। भाषा उसकी अच्छी थी। लिखने का सलीका था। यह काम वह ख़ूबसूरती से करता।

इस बीच उसके परिवार में उस पर कुछ कमाने का दबाव बढ़ रहा था। संगठन वह छोड़ चुका था। जैसे-तैसे थर्ड डिवीज़न में एम.ए. पास हो गया था। नौकरी-वौकरी करना उसके बस का नहीं, यह वह घोषित रूप से कहता था। वह मित्रों से लेखन का कुछ काम दिलाने का आग्रह करता।

बाक़ी सब लोग भी अपने-अपने जीवन की दिशा तय कर रहे थे। मैं एक सरकारी संस्थान में पी.आर. की नौकरी पा गया था। शकील ने रंगमंच की दुनिया में अपनी अच्छी जगह बना ली थी और स्कूल की ड्रामा टीचरी छोड़ने का पक्का फ़ैसला कर लिया था। दीपक ने मुंबई जाकर फ़िल्म-टेलीविजन की दुनिया में क़िस्मत आजमाना तय कर लिया था। इमरान एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता-निर्देशक के सहयोगी के रूप में काम कर रहा था और भविष्य में खुद भी अच्छी डॉक्टयूमेंटरी फिल्में बनाने का सपना लिये चल रहा था। सुहैल उसके हर काम में उसके साथ था। सुकन्या थियेटर छोड़ एम.बी.ए. करने चली गयी थी और शेफाली अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो गयी थी।

समूह बिखर रहा था। जिस वक़्त सबके पास वक़्त था, सब आ जुड़े थे। अब सब अपने-अपने रस्ते चल दिये थे। तब भी, आदतन हम हफ़्ते में दो-एक बार मंडी हाउस में मिल ही लेते। जटाशंकर भी आता। इमरान ने उसे अपने कुछ संपर्कों के चलते दूरदर्शन और आकाशवाणी में लेखन का काम दिला दिया था और वह थोड़ा-बहुत पैसा कमाने लगा था।

उसका हुलिया भी अब बदल रहा था। पाश, भगत सिंह और चे ग्वेरा की घिसी हुई मैली टीशर्टें उसने त्याग दी थीं। बाल कटवा डाले थे। अब वह थोड़ा बोलने भी लगा था। शेफाली, सुकन्या, प्रसून और उनके साथ आने वाले उनके युवा दोस्तों को वह अपने जे.एन.यू. के आंदोलनों के किस्से बड़े नॉस्टेल्ज़िक तरीक़े से सुनाया करता। ‘‘उन दिनों हम अरबी घोड़े हुआ करते थे। जितना मर्ज़ी दौड़ा लो!...किसी के दबाव में नहीं आते थे। पार्टी सेक्रेटरी तक से कई मसलों पर लड़ जाया करते थे!...वॉल राइटिंग की है कभी? सारी-सारी रात दीवारों पर नारे लिखा करते थे हम!’’

मैं सोचता, जिस चीज़ से उसने पीछा छुड़ा लिया, उसी को वह अब तक भी क्यों पकड़े है? जवाब मिलता, शायद यही एकमात्र उपलब्धि है उसके जीवन की।

वह उन्हें अपनी गढ़ी हुई कहानियाँ भी सुनाया करता। उसने अपने लिए ‘फुकरा’ शब्द गढ़ लिया था और फुकरों को दुनिया के सबसे बेहतर, सबसे सच्चे लोग बताते हुए तरह-तरह के क़िस्से गढ़ता। चेखव उसका प्रिय लेखक था। वह अपनी उन फुकरा-कथाओं में चेखव की तरह ही ट्रैजी-कॉमिक पात्र रखता, जो दुनिया की नज़र में हास्यास्पद होते, लेकिन जिनके जीवन में दर्द छिपा होता। शेफाली ने एक दिन बताया कि जटाशंकर ने उससे बीस रुपये उधार माँगे।

‘‘मनोज भाई, हम सब तो अपने जीवन में कुछ न कुछ कर लेंगे, लेकिन जटाशंकर का क्या होगा?’’

शेफाली उसका सम्मान करती थी, उसके प्रति सच्ची चिंता से अक्सर यह पूछती। ‘‘क्यों? वह भी अपना कोई रास्ता ढूँढ़ लेगा। लिखने के काम में बड़ी संभावनाएँ हैं।’’ मैं कहता। ‘‘वह तो कहता है कि सब उसे भोला भंडारी कहते हैं!’’ शेफाली नासमझ-सी कहती। ‘‘अरे, यह उसने व्यंजना में बताया और तू उसे अभिधा में ले रही है!’’ संदीप शेफाली का उपहास करते हुए कहता, ‘‘उसका कहने का अर्थ है कि सब मुझे भोला भंडारी कहते हैं, लेकिन मैं हूँ नहीं!’’ दोस्त जटाशंकर की मदद कर रहे थे। उसका काम चल रहा था। एक शाम दीपक और वह मेरे कमरे पर आये।

‘‘मनोज भाई, हम कल मुंबई के लिए निकल रहे हैं।’’ दीपक ने कहा। जटाशंकर सिगरेट पीता हुआ गहरी सोच में डूबा-सा बैठा था।

मैंने दोनों को खूब शुभकामनाएँ दीं। वे अपनी आकांक्षाओं और आशंकाओं के बारे में बात करते हुए भी नयी उम्मीदों से भरे थे। दीपक ने अभिनय और जटाशंकर ने लेखन में किस्मत आजमाने का फ़ैसला किया था। ‘‘तुम अपनी किताबें तो साथ नहीं ले जा रहे होगे? मुझे दे जाओ। मेरे पास वे सुरक्षित रहेंगी, जब

चाहो, ले लेना।’’ मैंने जटाशंकर से कहा। ‘‘मनोज भाई, वे सब तो मैंने रद्दी में बेच दीं।’’

जटाशंकर की आवाज़ के ठंडेपन ने मुझे सर्द कर दिया। मैं हैरान-सा उसके मुँह को तकने लगा। मेरी नज़रें पहचान वह एकदम लापरवाह स्वर में बोला, ‘‘सरकारी साहित्य था वह! क्या करना था उसे रखकर?’’

उसके बाद मैं कुछ नहीं बोला। न वह। दीपक ही उठते हुए बोला, ‘‘अच्छा, मनोज भाई! चलते हैं।

ख़बर देंगे अपनी। काम बना और नाम हुआ, तो परदे पर आप देख ही लेंगे!’’

उसके बाद उनकी ख़बरें फोन और चिट्ठियों की मार्फ़त मिलती रहीं।

यही वह वक़्त था, जब हमारे आसपास सब कुछ बदल रहा था। बाज़ार तेज़ी से बढ़ रहा था और सरकारी संस्थानों में छँटनियाँ हो रही थीं। एन.जी.ओ. का शोर हर ओर था। सब अपने वर्तमान से जूझते अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़े जा रहे थे। मैं सरकारी नौकरी पा गया था, लेकिन जीवन अब कहीं भी पहले जितना सरल नहीं रह गया था।

हम लोगों का मिलना अब लगभग अनियमित हो चला था। बस कभी फोन पर या कभी किसी से मुलाक़ात हो जाने पर औरों के भी समाचार मिल जाते।

इस बीच दीपक कुछ फिल्मों में छोटे-छोटे क़िरदारों में नज़र आया। कभी उसका फोन आता, कभी ख़त। वह बताता कि उसने धीरे-धीरे दो साल में कुछ अच्छे संपर्क बना लिये हैं, जो भविष्य में उसके काम आएंगे। जटाशंकर के बारे में पूछने पर वह कोई उत्साहवर्धक जवाब न देता। जटाशंकर स्वयं बात न करता।

शकील रंगमंच का प्रतिष्ठित नाम बन चुका था। अब वह दिल्ली में कम रहता। अपने नाटक लेकर देश-दुनिया में घूमता। संदीप थियेटर के चक्कर में अपनी पढ़ाई चौपट कर बैठा था। उसका मन अभिनय में ही रमता। पर वह एक ज़िम्मेदार बेटा और पारिवारिक क़िस्म का इन्सान था। सो वह ‘स्ट्रगल’ की एय्ेयाशी अफोर्ड नहीं कर सकता था। उसने अपने लिए ऐसा रास्ता खोजा कि उसका रंगमंच का शौक़ भी पूरा होता रहे और पैसा भी कमाया जा सके। उसने वक्त बीतने के साथ बाल रंगमंच में अच्छी पैठ बना ली थी। धीरे-धीरे वह इस क्षेत्र के विशेषज्ञ के रूप में उभर रहा था।

प्रसून ने अपना रास्ता एकदम ही बदल लिया था। वह बी.ए. के मस्ती भरे बिंदास दिन बिताकर हिन्दी में एम.ए. करने चला गया और कुछ साल बाद पीएच.डी. करके डॉक्टर प्रसून बन गया। उसकी एक ही तमन्ना थी। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी। लेकिन वहाँ खूब मारा-मारी थी। प्रसून ने एक पत्रिका रज़िस्टर करायी और हिन्दी विभाग के तत्कालीन विभागाध्यक्ष के साहित्यिक अवदान पर उसका विशेषांक निकाला। नतीज़तन, अगली स्थायी भरती खुलते ही एक नामचीन कॉलेज में उसकी नियुक्ति हो गयी।

इमरान ने अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता नहीं छोड़ी थी। उसने एक एन.जी.ओ. बना लिया था। वह और सुहैल मिलकर असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों के बीच काम करते और उनसे संबंधित डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में बनाते। उनकी फ़िल्में नाम पा रही थीं और पुरस्कृत भी हो रही थीं।

शेफाली, जो शुरूसे एक कन्फ्यूज़्ड-सी लड़की थी, अब तक नहीं तय कर पायी थी कि उसे क्या करना है। वह भावुकतापूर्ण फ़ैसले किया करती थी और जब उसे अपनी गलती समझ में आती, तो फ़ैसले बदल लिया करती। उसके परिवार में काफी खुला माहौल था। इसलिए अपने जीवन के सही-गलत फ़ैसले वह खुद लिया करती। पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद दूरदर्शन में न्यूज़ रीडर का नियुक्ति पत्र लेने और ड्यूटी जॉइन करने जाने के बजाय वह किसी एन.जी.ओ. के साथ काम करने चली गयी। फिर जल्दी ही वहाँ से ऊबकर मल्टी मीडिया का कोर्स करने चली गयी। उसकी एनीमेशन में दिलचस्पी थी और वह सोचती थी कि खूब सारी अच्छी एनीमेशन फ़िल्में बनाएगी। लेकिन जल्दी ही इससे भी उसका मन भर गया। तब वह अख़बारों और पत्रिकाओं में लिखने लगी।

एक दिन संदीप का फोन आया, ‘‘मनोज भाई! दीपक और जटाशंकर आये हैं मुंबई से। आज शाम मिलने का कार्यक्रम रखा है मेरे घर पर। सब आ रहे हैं। आप भी आइए!’’

शाम को वहाँ मेरे अलावा कोई नहीं पहुँचा।

दीपक लपककर गले मिला। जटाशंकर मुस्कराता हुआ शाइस्तगी से गले मिला। उसने बाल फिर बढ़ा लिये थे। लेकिन वे पहले की तरह बेतरतीब फैले-बिखरे नहीं थे। बाकायदा सधाये हुए। उसने सिगरेट छोड़ दी थी। मैं सिगरेट पीने लगा, तो टोककर बोला, ‘‘छोड़ दीजिए, मनोज भाई! हेल्थ खराब होती है।’’ फिर मैंने आदतन चाय में एक चम्मच अतिरिक्त चीनी डालने के लिए संदीप से कहा, तो जटाशंकर फिर बोला, ‘‘मनोज भाई! अपना वजन देखिए! चीनी पीना बंद कीजिए। जिम ज्वॉइन कर लीजिए।’’ ‘‘बंद कर अपनी यह बकवास!’’ दीपक अचानक फट पड़ा। मैं और संदीप हिल गये। जटाशंकर के माथे पर शिकन आयी और साथ पसीना। उसने रूमाल निकाल उससे दोनों को ही पोंछ दिया और उठकर बोला, ‘‘मनोज भाई, मैं मिलता हूँ आपसे बाद में।’’ संदीप और दीपक की ओर देखे बिना वह बाहर निकल गया।

मैंने दीपक की ओर सवालिया निग़ाहों से देखा।

‘‘तीन साल की मेहनत पर पानी फेर दिया इसने, मनोज भाई! सब चौपट!’’ दीपक गुस्से, क्षोभ, रंज़, आवेश, दुख, असंतोष के मिले-जुले भावों में डूब-उतरा रहा था।

‘‘हुआ क्या?’’ मैंने उसके पास बैठते हुए पूछा।

‘‘हम अपने-अपने काम में हाथ आजमा रहे थे। इसने शुरूकी कुछ मीटिंगों के बाद ही समझ लिया था कि लिखवाने वाले क्या चाहते हैं। बड़े उत्साह से काम में जुट गया। खूब घोस्ट राइटिंग की। पैसा कमाया। मैंने पूछा, तू अपने नाम का क्या करेगा? तो साफ़-साफ़ कुछ नहीं बताया, लेकिन गोल-मोल से जवाब से मेरी समझ में यह आया कि इसे अब भी अपनी उस पुरानी प्रगतिशील छवि का बड़ा ख़याल है! बोला, शिव यह सब कैसे लिख सकता है?’’ मैं और संदीप खामोशी से सुनते रहे।

‘‘मुझे तो इसकी हरकतें ही समझ में नहीं आयीं। दिल्ली वालों के लिए यह चिंता कि कोई जान न जाये, क्रांतिकारी शिव ऐसी ओछी घटिया कहानियाँ लिख रहा है। और वहाँ मुंबई में रोज़ रात सोने से पहले मुझे किस्से सुनाया करता कि यह कितने ऊंचे ब्राह्मण परिवार से है और कैसे इसके दादा के समय में जजमानी से इसके यहाँ खाना और रुपया आया करता था। उस समय इसके स्वर में भरा गर्व मेरा खून खौला देता था! साला, स्यूडो!’’ ‘‘तो तुझे इसके व्यक्तिगत मामले से अलग हो जाना चाहिए था!’’ संदीप ने कहा।

‘‘कैसे हो जाता? जैसे ही मैं ऐसी कोई बात कहता, यह मानो किसी अवसाद में आ जाता। दिन-दिन भर कमरे में पड़ा रहता। मुझे डर लगने लगता कि मेरी गैर-हाज़िरी में कुछ कर न बैठे। दो-चार दिन बाद फिर ठीक हो जाता।’’ दीपक जैसे उन लम्हों को ही जी रहा था, ‘‘और वहाँ भी इसके रंग-ढंग वही रहे, जो यहाँ थे। लेकिन मैं भी कड़ियल ठहरा! मुझसे कहता, मैं बर्तन धो दूँगा, तू मेरे कपड़े धो दिया कर। मैंने साफ़ इनकार कर दिया। आपको पता है, जनपथ से पचास रुपये में ख़रीदी टीशर्ट को भी लौंड्री कराता था आपका यह जटाशंकर!’’ ‘‘फिर क्या हुआ? तुम लोग चले क्यों आये?’’

‘‘धीरे-धीरे इसका काम से मन हटने लगा। पहले भी कोई जान मारकर काम नहीं कर रहा था। दो-एक काम करता, फिर कई दिन आराम। पैसा तो मिल ही रहा था। गुज़ारा चल जाता था। फिर किसी ने इसे एक अच्छा प्रोजेक्ट दिया। एक सीरियल में रिसर्च और लेखन के लिए इसे जोड़ा गया। लेकिन मेहनत

कौन करे? वे पैसा अच्छा दे रहे थे, पर काम भी तो कसकर लेते! इन साहब को यह रास नहीं आया।

बोले, यहाँ घोर शोषण हो रहा है। चल, दिल्ली लौट चलें। वही अपना कुछ काम करेंगे। इस बीच शायद इसने इमरान से बात भी कर ली थी। बोला, इमरान को देख, कितना पैसा बना रहा है एन.जी.ओ. में। हमें भी बुला रहा है दिल्ली। चल, चलते हैं।...इसने दबाव बनाया, पर मैं नहीं माना। और यह सब छोड़कर चला आया।’’

दीपक कुछ दिन दिल्ली में बिताकर वापस मुंबई लौट गया। जटाशंकर ने इमरान का दामन थामा। इमरान तो था ही दोस्तों का दोस्त! उसने कुछ पूछा-ताछा नहीं। जटाशंकर का प्रेम से स्वागत किया। अब जटाशंकर इत्मीनान से था। इस बीच उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। बूढ़ी माँ अक़्सर बीमार रहतीं। मुंबई में कमायेबचाये पैसों से उसने अपने बड़े भाई के लिए दो सेकेंड हैंड वैन खरीद दीं, जिनसे उसने स्कूली बच्चों को लाने-छोड़ने का काम शुरूकर दिया। अब घर में जटाशंकर की थोड़ी वकत हो गयी थी। उसने अपने लिए भी एक सेकेंड हैंड कार खरीदकर सारे जमा पैसे स्वाहा कर दिये।

लेकिन अब उसके पास कमाई का एक नियमित ज़रिया था। इमरान का एन.जी.ओ., जिसमें वह क्रिएटिव राइटर के रूप में काम कर रहा था। इमरान उस पर बहुत दबाव न डालता। जटाशंकर भी, जितना काम उसे दिया जाये, करता। उसने कई डॉक्यूमेंटरी फिल्मों की अच्छी स्क्रिप्टें लिखीं। दिनचर्या उसकी वही पुरानी हो गयी। रात देर तक जागना और सुबह देर तक सोना। लेकिन अब यह उसका अधिकार हो गया था, क्योंकि अब वह कमाऊ पूत था। देर रात तक वह इंटरनेट खँगालता। कविताएँ पढ़ता। संदीप नजदीक रहने के कारण उससे अक्सर मिला करता। अब जटाशंकर के बारे में मुझे उसी से ख़बरें मिलतीं। ‘‘उसके अंदर का चेखव मरा नहीं। वह चेखव की तरह कहानीकार तो नहीं बन पाया, पर डॉक्टर ज़रूर बनना चाहता है!’’ संदीप ने ही अपने विशिष्ट अंदाज़ में बताया था, ‘‘उसने इंटरनेट पर होमियोपैथी का कोई ग्रुप ज्वाइन कर लिया है। कुछ किताबें भी खरीद लाया है। इन्हीं सब की मदद से वह होमियोपैथी के गुर सीख रहा है और दवाएँ भी बाँटने लगा है!’’

अब जटाशंकर के जीवन में थोड़ा इत्मीनान था। अब उसे प्रेम करना था। यह प्रेम उसने तय तो पहले से ही कर लिया था, लेकिन उसके अनुसार वक़्त उसका अब आया था। उसे ‘सर्वहारा का देवता’ कहने वाली शेफाली कहाँ थी? उसने संदीप से शेफाली का पता किया कि वह क्या कर रही है, कहाँ है। इस बीच शेफाली एक साप्ताहिक पत्रिका में फीचर एडीटर हो गयी थी। जटाशंकर ने संदीप से मिले नंबर पर शेफाली से संपर्क किया और तीन-चार बार फोन करके उसे मिलने को मजबूर कर दिया। उस पहली ही अकेली मुलाकात में जटाशंकर ने कॉफी पीते हुए शेफाली से कहा, ‘‘शेफाली, तुम और मैं शानदार ज़िंदगी जिएंगे मिलकर!’’

शेफाली, जो जटाशंकर का सम्मान करती थी, उसके लिए क्या, सभी के लिए चिंतित हुआ करती थी, जो लापरवाह-सी थी, जो न जाने क्यों प्रेम-व्रेम के चक्कर से दूर रहा करती थी, कन्फ्यूज़्ड-सी रहती थी, अचानक आये इस प्रस्ताव पर, बल्कि ‘निर्णय’ पर एकदम से कुछ कह नहीं पायी। मुँह खोले जटाशंकर को तकने लगी। जटाशंकर झेंप, प्रेम, भय, आशंका, उम्मीद सब अपनी आँखों में लिये उसे निहार रहा था।

शेफाली ज़रा संयत होकर बोली, ‘‘लेकिन मैं तो शादी करना ही नहीं चाहती! मेरा कोई भाई-बहन नहीं। मैं अपने माता-पिता के साथ ही रहना चाहती हूँ। उन्हें मेरी ज़रूरत होगी।’’ ‘‘तो क्या हुआ? मुझ पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं। मेरी माँ मेरे बड़े भाई के साथ रहेंगी। छोटा भाई बैंगलोर में है। बचा मैं, तो जिस दिन तुम कहोगी, उसी दिन अपनी किताबें और लैपटॉप उठाकर तुम्हारे साथ चल दूँगा। अपना क्या है! हम तो संत आदमी हैं!’’ ‘‘संत हैं, तो शादी क्यों करना चाहते हैं?’’ शेफाली ने झट सवाल जड़ दिया।

मेरी ज़रूरतें और महत्त्वाकांक्षाएँ बड़ी नहीं हैं, इस लिहाज़ से कहा। तुम जहाँ कहोगी, मैं चलने और रहने को तैयार हूँ। और यह सोचो कि तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए साथी की ज़रूरत होगी ही!’’ ‘‘सोचकर बताऊँगी।’’ शेफाली ने कहा।

और कुछ दिन बाद हम सबने मिलकर दोनों को बधाई दी। हैरानी के साथ। कि शेफाली ने क्या सोचकर

यह फैसला किया! लेकिन इसे उनका व्यक्तिगत मामला समझकर किसी ने भी ज्यादा दखलंदाज़ी नहीं की।

इस व्यक्तिगत मसले को सार्वजनिक शेफाली ने ही किया। चार महीने बाद एक दिन अचानक उसका फोन आया, ‘‘मनोज भाई! बहुत ही ज़रूरी बात है। आप मिलिए, प्लीज़!’’

उसका गुस्से और परेशानी भरा स्वर सुनकर मैं चिंतित हुआ। मंडी हाउस में ही मिलना तय हुआ। इतने सालों में हमारे मिलने-बैठने के अनौपचारिक ठिये शहर से मिटकर केवल हमारी स्मृतियों में ही रह गये थे। भगवान की चाय की दुकान गायब हो चुकी थी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का एक हिस्सा दिल्ली मेट्रो के कब्ज़े में चला गया था। अगले बरस होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए दिल्ली का सौंदर्यीकरण हो रहा था। मनुष्यों को विस्थापित कर पत्थर सजाये जा रहे थे। जिस गोल पार्क में शकील के साथ संघर्ष के दिनों में रिहर्सलें की थीं, घास पर लेटकर भविष्य के सपने बुने थे, घनघोर बहसबाजियाँ की थीं, वह उजाड़ होकर पी.डब्ल्यू.डी. के नीले बोर्डों से घिरा था।

हम भगवानदास रोड के कोने पर मिले। मैं, संदीप, इमरान और शेफाली। सोच रहे थे कि कहाँ बैठकर इत्मीनान से बात करें। पटरियाँ उखड़ी हुई थीं। वहाँ बैठना संभव नहीं था। सलाह करके हम चारों फीरोजशाह मार्ग की ओर चले। पुश्किन की मूर्ति के आगे से होते हुए हम रवींद्र भवन के बाहर वाले चाय स्टॉल पर पहुँचे।

चाय का ऑर्डर दे अब हम चारों वही पत्थर-पटिया जोड़-टिकाकर बनाये आसनों पर बैठ गये। दोएक मिनट की इधर-उधर की बातों के बाद सबकी सवालिया निगाहें शेफाली पर टिक गयीं। वह तो जैसे भरी बैठी थी।

‘‘मैंने जटाशंकर से संबंध ख़त्म कर लिया है। मैं उस जैसे कमजोर, ढकोसलेबाज़ इन्सान से शादी नहीं कर सकती।’’ फिर अपने उफनते हुए गुस्से के बीच उसने हमें जटाशंकर से अकेले में हुई पहली मुलाकात से अब तक का किस्सा सुनाते हुए यह बताया- शादी की रज़ामंदी होते ही जटाशंकर का व्यवहार बदलने लगा। उसने शेफाली को अपने घर के लोगों से मिलवाया, पर उसके बार-बार जोर देने पर भी यह नहीं बताया कि शादी के बाद वे दोनों शेफाली के घर के नज़दीक रहेंगे। उसने शेफाली से कहा कि उसकी माँ बूढ़ी और बीमार हैं। अचानक यह बात न समझ पाएंगी न सह पाएंगी। वक़्त और मौक़ा देखकर वह उन्हें ज़रूर बता देगा। शादी की तारीख़ तय करने के सवाल पर तुरंत शादी की रट लगाने वाले जटाशंकर ने तीन बार

तारीख़ खिसकायी। शेफाली से साफ़ कह दिया कि शादी बस कोर्ट में करेंगे। किसी रिश्तेदार-विश्तेदार को शामिल करने की ज़रूरत नहीं। शेफाली के माता-पिता जटाशंकर से मिले, उसकी पढ़ाई-लिखाई और उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। उसने बिना दिखावे के शादी करने की बात की, तो उन्होंने उसे भी स्वीकार कर लिया। शेफाली ने अपने घर के पास किराये का मकान ढूँढ़ने के लिए कहा, तो जटाशंकर ने लापरवाही से कहा कि इसमें क्या परेशानी है! मैं इमरान कह दूँगा, वह मिनटों में ढूँढ़ देगा!

‘‘मनोज भाई, मैं उससे जिस काम के लिए कहती, वह इमरान भाई का नाम ले लेता! हारकर मुझे एक दिन कहना पड़ा कि फिर मैं शादी भी इमरान भाई से ही कर लेती हूँ!’’ शेफाली की आवाज़ गुस्से में काँप रही थी, ‘‘और तो और, जब-तब वह अपनी भाभी के गुणगान करता कि वे कैसे गृहस्थी के काम में उलझकर लम्बे अरसे तक अपने मायके नहीं जातीं। या यह कहता कि कैसे उसके छोटे भाई की प्रेमिका उसे संजय ‘जी’ कहती है। मैं झुँझलाकर पूछती कि क्या तुम चाहते हो, मैं तुम्हें जटाशंकर ‘जी’ कहकर बुलाऊँ? इस पर वह नहीं-नहीं तो कहता, पर उसकी आवाज़ और चेहरे का भाव कुछ और ही कह रहे होते।’’

उत्तेजित-क्रोधित शेफाली रुआँसी हो आयी थी। संदीप ने उसकी पीठ सहलाकर बैग से पानी की बोतल निकालकर थमायी। दो-चार घूँट पानी पीकर शेफाली कुछ देर स्वयं को सँभालती रही। ‘‘और एक दिन मैंने उसके मोबाइल का वॉल पेपर देखा, जिस पर उसकी सुंदर लिखावट में कुछ लिखा था। मैंने सहज जिज्ञासा से पूछा, दिखाओ, यह क्या लिखा है। कविता? तो उसने झट मोबाइल छिपा लिया। मैं भी अड़ गयी। जैसे-तैसे उसका मोबाइल छीना। देखा, तो वह एक मंत्र था। यह क्या है? मैंने पूछा, तो वह बोला कि अब मैं नास्तिक नहीं रहा! बताइए, मनोज भाई, इमरान भाई! उस आदमी को मैं किस रूप में जानती थी और वह किस रूप में सामने आ रहा था!’’

मैं शेफाली को ढाढ़स बँधाता-सा उसका कंधा थपथपा रहा था। इमरान की नज़रों में गुस्सा, हैरानी, अविश्वास जाने क्या-क्या तैर रहा था। ‘‘मैंने कहा, यह तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? तो बोला, तुम तो ज़रा-सी बात का इशू बना रही हो! मैंने कहा, तुम्हारे आस्तिक हो जाने से मुझे कोई समस्या नहीं, पर इस बात को छिपाने से है। इस पर वह बात को टालने की कोशिश करने लगा।’’

शेफाली रुकी। हम सब ख़ामोश थे। संदीप ने चार और चाय का ऑर्डर दिया।

‘‘मनोज भाई, मैं अपने निर्णय को लेकर दुविधा में आ रही थी। इतने लंबे अरसे तक मैंने शादी के बारे में सोचा नहीं था। अब सोचकर उस फैसले पर टिकना चाहती थी। बहुत बार सोचती कि मेरी भी गलती हो सकती है, मैं खुद को सुधारूँगी। लेकिन जटाशंकर अपनी बातों और हरकतों से मुझे हर बार अपने फैसले पर फिर सोचने को मज़बूर करता रहा।’’ ‘‘और फिर तुमने फैसला बदल लिया।’’ संदीप बोला।

‘‘तो क्या करती?’’ शेफाली फिर गुस्से में आ गयी, ‘‘पिछले हफ़्ते मैंने उससे मिलने पर कहा कि अब शादी और नहीं टलेगी। तुम अपने परिवार वालों को सही-सही स्थिति बताओ! इस पर वह देर तक मुझे समझाने की कोशिश करता रहा कि उसकी माँ बीमार हैं। पर इस बार मैं ज़िद पर अड़ी रही। मैंने कहा, या तो तुम उन्हें बताओ, वरना मैं फोन करती हूँ!...मैंने तय कर लिया था कि आज फैसला होकर ही रहे!’’ ‘‘फिर?’’ मैंने पूछा।

‘‘मैं गुस्से में वहाँ से चली आयी। यह कहकर कि मुझे शाम तक जवाब चाहिए।’’ ‘‘और उसने कहा कि मैं यह शादी नहीं कर सकता! है न?’’ संदीप ने व्यंग्य से कहा। ‘‘नहीं, संदीप! उसने तब भी सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही डाल दी! फोन किया और बोला, तुम्हारे कहने से मैंने अपने घर में बात की। सब सुनते ही भाई का बी.पी. बढ़ गया है। उसे हॉस्पीटल ले जा रहा हूँ।

माँ का रो-रोकर बुरा हाल है। यकीन नहीं, तो आकर देखो, मेरे घर में क्या हालत है! अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ?’’ ‘‘तो तुमने क्या जवाब दिया?’’ इमरान ने पूछा।

‘‘इमरान भाई, मैं आपको बता नहीं सकती कि उस समय कैसी तिलमिला गयी थी मैं! उससे ज्यादा मुझे अपने-आप पर गुस्सा आ रहा था! पर मैं चिल्लायी नहीं। एकदम शांत स्वर में मैंने उससे कहा कि जाओ, अपने भाई को हॉस्पीटल ले जाओ और अपनी माँ का ख़याल रखो। और उनसे कह दो कि तुम उन्हें छोड़कर नहीं जा रहे हो। बस, अंतिम बात यह कि चीज़ों को रोमैंटिसाइज़ करना बंद करो। जो नहीं कर सकते, वह कभी किसी से मत कहो और जो कहो, तो करने की हिम्मत भी रखो!’’ ‘‘हम्म! यही तो उसका प्रॉब्लम है! तुमने ठीक-ठीक पकड़ लिया!’’ संदीप बोला।

‘‘और जानते हो, उसने यह सुनकर कुछ भी रिएक्ट नहीं किया! बल्कि मुझे तो लगा कि उसने सुकून की साँस ली है! ‘ठीक है’ कहकर उसने फोन काट दिया!’’ शेफाली हैरानी और खीज़ के स्वर में कहकर खामोश हो गयी। उसने लंबी साँस भरी और संदीप की बोतल का सारा पानी गटगट करके पी गयी। ‘‘हैरानी की बात यह है कि उससे रोज़ मुलाकात होने पर भी मुझे उसके चेहरे या व्यवहार से ज़रा भी अंदाज़ा नहीं लगा कि तुम लोगों के बीच इतना तनाव चल रहा है!’’ इमरान अफ़सोस से सिर हिलाता हुआ बोला, ‘‘वरना हम कुछ दख़ल देते! तुम कहती हो, हफ़्ता भर हुआ सब कुछ ख़त्म हुए! उसे देखकर तो कहीं से लगा नहीं कि उस पर कोई असर हुआ है या वह दुखी है!’’ ‘‘मुझे तो समझ ही नहीं आया कि वह चाहता क्या था! मेरे ख़याल से वह शादी नहीं करना चाहता था, बस, अपने परिवार वालों को बहकावे में रखने के लिए ही मुझे उनसे मिलाने ले गया!’’ शेफाली के स्वर में अब गुस्सा नहीं, घटना के कारण समझने का भाव घुला था। ‘‘नहीं, शादी तो वह ज़रूर करना चाहता था। तुम्हें वह शुरूसे पसंद करता था। लेकिन जब उस पर ज़िम्मेदारी आने लगी, तो भाग खड़ा हुआ!’’ मैंने ‘सर्वहारा के देवता’ वाला प्रसंग बताते हुए कहा। ‘‘तुम शुरूसे देखो, उसका यही व्यवहार है। वह सपने देखता है और खुश होता है। लेकिन जैसे ही यथार्थ से सामना होता है, वह भाग जाता है!’’ संदीप ने मुंबई वापसी का किस्सा संक्षेप में सुनाते हुए शेफाली से कहा। ‘‘और अपने को संत कहता है!’’ शेफाली फिर गुस्से में आते हुए और तुरंत ही खुद को शांत करते हुए बोली, ‘‘मैंने आज सुबह उसे फोन किया कि वह भी आये। उसने फोन नहीं उठाया। तब मैंने मैसेज लिखा-आओ। बात तो करो। चाय पियेंगे सब साथ। हँसकर विदा लेंगे।...पर इसका भी जवाब नहीं दिया उसने!’’ भड़ास निकल जाने के बाद शेफाली अब थोड़ी सहज लग रही थी।

मैंने हँसकर स्नेह से कहा, ‘‘ओ हो! हमारी कन्फ्यूज़्ड शेफाली अब समझदार हो गयी है! हम तो सोच रहे थे कि अब तुम उसे पीटे जाने का प्रस्ताव रखोगी!’’ ‘‘नहीं, मनोज भाई!’’ शेफाली भी हल्के से मुस्कराकर बोली, ‘‘कम से कम इतनी शुक्रगुज़ार तो मैं हूँ जटाशंकर की कि उसने मुझे खुद को समझने में मदद की! इस पूरे एपीसोड में मुझे समझ में आया कि मैं कितनी कन्फ्यूज़्ड हूँ! यह भी समझी कि प्रेम और शादी दो लोगों के बीच का नितांत निजी मामला नहीं होता, बल्कि सामाजिक मामला होता है! खुशकिस्मत हूँ कि मेरे माता-पिता मुझे समझते हैं!’’ ‘‘चल, तो अब ख़त्म कर इस एपीसोड को यही और यह सीख ले!’’ संदीप ने शेफाली की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, ‘‘जटाशंकर अपने मन के खेत में सपनों की फसल बोता है और खाद-पानी देने, निराई-गुड़ाई करने के बजाय खुद ही काग भगोड़ा बनकर उसमें खड़ा हो जाता है। कुछ बीज फूट आते हैं, अंकुर निकलते हैं, तो जटाशंकर डर जाता है। फिर वे अंकुर सूख जाते हैं। तब जटाशंकर फिर नये सपने बोता है!’’

हम हँस पड़े। लेकिन हँसते हुए भी इमरान का चेहरा कुछ परेशानी में डूबा था। वह जाने किस सोच में गुम था।

कुछ दिन बाद उसने मुझे फोन किया और बताया कि अगले दिन ऑफ़िस में उसने जटाशंकर से पिछले दिन की हमारी मुलाक़ात का सब हाल सुनाकर पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। जटाशंकर ने इसका जवाब नहीं दिया। कहा कि उसे कुछ घबराहट-सी हो रही है और वह घर जाना चाहता है। इसके बाद वह दोतीन दिन लगातार ऑफ़िस नहीं आया। मोबाइल भी बंद कर दिया। तब इमरान ने ऑफ़िस के एक लड़के को उसके घर भेजा। उसने लौटकर जो हाल बताया, उसे सुनकर इमरान ने तुरंत मुझे फोन किया। ‘‘मनोज भाई, यह लड़का लौटकर बता रहा है कि जटाशंकर की भाभी ने दरवाजा खोला और पूछकर इसे इशारे से बताया कि जटाशंकर अंदर के कमरे में है। यह उस छोटे-से कमरे में पहुँचा, तो देखा कि कमरे में ढेर सारी अगरबत्तियों और धूपबत्ती का धुआँ भरा है। जटाशंकर फर्श पर ध्यानावस्था में आँखें मूँदे बैठा है। यह असमंजस में भरा वहाँ खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद जटाशंकर ने आँखें खोलीं। इसे देखा और अज़ीब-से स्वर में बोला-आ गये तुम? ...यह घबराकर तुरंत वहाँ से भाग आया!’’ ‘‘यह तो चिंताजनक बात है! यह कौन-सा रास्ता पकड़ा जटाशंकर ने?’’ मैं चिंतित और परेशान हो उठा। ‘‘मनोज भाई, जिसे न खुद पर भरोसा हो और न दोस्तों पर, जो एक झूठी दुनिया में जीता हो, क्या उसका यह स्वाभाविक रास्ता नहीं? लेकिन मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि उसे इसमें से निकाला कैसे जाये?’’ इमरान दुखी था।

इसके बाद हम सभी ने जटाशंकर से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उसने अपने को सब से काट लिया। फोन नंबर बदल लिया। इमरान दो-तीन बार उसके घर गया, तो कहला दिया कि वह घर पर नहीं है।

धीरे-धीरे हम उसे भूलने लगे। हमारा आपस में मिलना भी बहुत कम होता गया। मिलकर बातें-बहसें करने वाले हमारे अड्डे तो यूँ भी खत्म हो गये थे। इस बीच सोशल मीडिया ने आभासी दुनिया में हमें एक अड्डा दे दिया था। हम तस्वीरों में एक-दूसरे को बदलते और एक-दूसरे के बच्चों को बढ़ते देख रहे थे। जटाशंकर इस आभासी दुनिया में भी कहीं नहीं था। वह शायद अपने भीतर की दुनिया में कहीं गुम होकर रह गया था। हमें पता नहीं, किसके ज़रिये कभी यह उड़ती-उड़ती ख़बर मिली थी कि उसके छोटे भाई की शादी हो गयी थी और जटाशंकर की जप-तप वाली साधना लम्बी होती चली गयी थी...

मैं मंडी हाउस स्टेशन पर उतरा। अब इस तरफ़ मेरा आना नहीं होता। दो-तीन साल पहले आया था। इतने समय में ही कैसा बदल गया है सब! पुराने घने विशाल पेड़ कट जाने से पूरा इलाक़ा इमारतों से भरा होने के बावजूद खाली-खाली-सा लगता है...

क़रीब दस मिनट वहाँ खड़ा मैं स्टेशन के बाहर-भीतर हो रहे लोगों की भीड़ देखता रहा। कहाँ तो एक समय था कि हर दो क़दम की दूरी पर कोई न कोई परिचित टकरा ही जाता था और कहाँ इस भीड़ के बीच का यह अज़नबीपन, जिसकी दहशत में मैं बस डूबने को ही था... ‘‘मनोज भाई!’’ इमरान की आवाज़ ने जैसे मुझे हाथ पकड़कर उबार लिया था। आज उसे लंबे समय बाद मैंने साक्षात् देखा। बाल सफ़ेद होने लगे हैं। चश्मे का नंबर बढ़ गया है। लेकिन खुलूस वही पहले जैसा! इस बीच उसकी फ़िल्मों के चर्चे अख़बारों में पढ़ता रहा हूँ।

इमरान की कार से हम संदीप के घर पहुँचे। संदीप मोटा हो गया है! उसने बताया कि उसे डायबिटीज़ हो गयी है! उसकी पत्नी और बेटी से मैं पहली बार मिला। उसकी माँ बहुत स्नेह से मिलीं। सालों बाद उन्हें देखा। वे मुझे देखकर उन पुराने दिनों को याद करने लगीं, जब मैं और शकील उनके मकान के एक कमरे में किराये पर रहा करते थे।

सुहैल ने अपनी बेटी को गोद में लेकर मुझसे मिलाया। फेसबुक की दुनिया से निकल उस प्यारी बच्ची को मैंने पहली बार गोद में लेकर प्यार किया।

प्रसून ने अपनी पत्रिका का नया अंक मुझे दिया और अपने सेमिनारों के किस्से सुनाता रहा।

पीछे से कंधे पर थपक पड़ी, तो मैंने मुड़कर देखा-शेफाली! चश्मा लगाये! बड़ी गंभीर लग रही थी!

पर थी वह अब भी वैसी ही खुशमिजाज़! उसने बताया कि इस बीच में उसने कई नौकरियाँ पकड़ी और छोड़ डाली हैं और फिलहाल किसी रिसर्च प्रोज़ेक्ट में काम कर रही है। मैंने कहा कि तुम नहीं सुधरोगी, तो खिलखिलाकर बोली, ‘‘मनोज भाई! मुझे ऐसे ही जीना पसंद है! बिना बँधे!’’

संदीप ने दीपक और शकील को फोन लगाकर कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये स्पीकर ऑन कर सबसे बात करायी। वे दोनों खुश थे कि हम सब इकट्ठे हैं। और दुखी भी कि वे इस खुशी में शामिल नहीं हो पाये! और जटाशंकर? वह नहीं आया था। संदीप ने उसे बुलाया भी नहीं था। शायद कोई उसे याद भी नहीं

करना चाहता था। लेकिन हम सब अतीत की जिस डोर से बँधे थे, जटाशंकर भी उसका एक रेशा था। सो बात उस पर आ ही गयी। कोई पूरी तरह जानता भी नहीं था कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है। अब किसी को उससे पहले की-सी सहानुभूति भी नहीं रह गयी थी। संवादहीनता और संपर्कहीनता धीरेधीरे इन्सान को उसके दायरे के किनारे पर धकेलते हुए एक दिन उससे बाहर ही कर देती है और फिर वह ओझल हो जाता है...

लेकिन सुहैल ने कुछ ही दिन पहले किसी कॉमन दोस्त से मिली जानकारी दी कि जटाशंकर घर से बाहर नहीं निकलता। वह अवसादग्रस्त हो गया है। अपने परिवार वालों को यह उसी ने बताया है कि वह ‘डिप्रेशन’ का शिकार हो गया है। अब भी वह सुबह ग्यारह बजे ही उठता है। नहा-धोकर अगरबत्तियाँ जलाकर आँख मूँदकर दो-तीन घंटे ध्यान में चला जाता है। उसके बाद खाना खाकर अपने बिस्तर पर लेटा बहुत देर तक कोई किताब पढ़ता रहता है। दसियों बार पढ़ी हुई किताब। पढ़ते-पढ़ते अक्सर वह सो जाता है। शाम की चाय के वक़्त वह उठता है। चाय पीता है। फिर दो घंटे ध्यान करता है। रात का खाना खाता है। बूढ़ी माँ के पैर दबाता है। फिर लेटकर देर तक पढ़ता रहता है। उससे किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई उसे निकम्मा कहने की हिम्मत नहीं कर सकता। उसने अपनी ज़रूरतें बेहद सीमित कर ली हैं। वह ध्यान में लीन रहता है...

सुहैल की बात ख़त्म होने पर कुछ पल को ख़ामोशी छायी रही। माहौल हल्का-हल्का बोझिल होने लगा, तो संदीप अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोला, ‘‘ज़रूरी तो नहीं कि ऐसा ही हुआ हो! मैं तो इस कहानी के अंत को किसी और रूप में देखता हूँ! कल्पना करो...’’

और उस रात संदीप के यहाँ से हम सब सुहैल की बतायी हक़ीक़त के साथ संदीप का गढ़ा यह फ़साना भी साथ लिये लौटे...

जटाशंकर ने अपने छोटे-से मकान की उसी कोठरी में, जो पढ़ने के लिए कभी उसे दी गयी थी, होमियोपैथी की प्रैक्टिस शुरूकर दी है। चेखव की तरह डॉक्टर बन जाने का उसका सपना पूरा हो गया है। उस कोठरी में एक मेज़ है। मेज़ के एक ओर की कुर्सी पर जटाशंकर बैठता है। दूसरी ओर दो-तीन कुर्सियाँ हैं। आने वाले मरीज़ों के लिए। एक छोटी-सी अलमारी है। काँच के पल्लों और चार शेल्फ़ों वाली। इसमें छोटी-छोटी शीशियाँ, गोलियों के थैले और दवाइयों के अर्क़ करीने से रखे हैं। मेज़ पर मोटी-मोटी कुछ किताबें रखी हैं, जिन पर खाक़ी काग़ज़ के कवर चढ़े हैं। पता नहीं चलता, ये किताबें किस विषय की हैं।

मरीज़ आते हैं। कभी-कभार। इक्का-दुक्का। वे दवा के बदले कुछ पैसे दे जाते हैं। शाम को गली में रहने वाले कुछ बूढ़े ज़रूर नियम से आते हैं। वक़्तकटी के लिए। जटाशंकर बाहर की दुनिया में फैली बदहवासी, तेज़रफ़्तारी, भागमभाग से दूर अपनी कोठरी के भीतर एक इत्मीनान की दुनिया बसाये हुए है। उसे अब कहीं नहीं जाना है। वह इन बूढ़ों से दुनिया भर की बातें करता है। ये बूढ़े सांसारिक दायित्वों से मुक्त हो गये, वे साधारण इन्सान हैं, जिन्होंने अपनी तमाम ज़िंदगी छोटी-छोटी नौकरियाँ करने, गृहस्थी चलाने और बच्चों को कुछ कमाने-खाने लायक बनाने में गँवा दी। जटाशंकर उन्हें अपने संघर्ष और क्रांतिकारी छात्र जीवन के सपनीले दिनों के किस्से सुनाया करता है। उन बूढ़ों के लिए जटाशंकर संत आदमी है। ऐसा विद्वान, जो क्या कुछ नहीं बन सकता था, लेकिन सब त्याग करके यहाँ लोगों की सेवा करता हुआ इतना सादा जीवन बिता रहा है...

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रचनाकार: मंतव्य 2 - संज्ञा उपाध्याय की कहानी - संत
मंतव्य 2 - संज्ञा उपाध्याय की कहानी - संत
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