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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)
रंग राग
युवा कला का मौजूदा परिदृश्य
पंकज तिवारी
कला के बारे में कुछ कहने से पूर्व मैं ज्यॉ काक्टो के आकर्षक किन्तु विरोधाभासी सूक्ति को यहाँ रखना चाहूँगा, जहाँ वह यह कहते हैं कि कविता के बिना काम नहीं चल सकता, लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि उसका काम क्या है? कला की ज़रूरत और समय के साथ कला की संदिग्ध होती भूमिका के बारे में अगर आज कुछ कहा जाये, तो इसी तरह से विचार करना होगा। जिस तरीक़े से पिछले कुछ वर्षों में प्रकृति को विकृत अवस्था में पहुँचा कर दो हाथों व दो पाँवों वाले जीव ने मस्तिष्क में छिपे छोटे से किन्तु कभी न भरने वाली स्मृति के उपयोग को कठघरे में ला खड़ा किया है, कहना न होगा कि कला साहित्य से मोहभंग होना स्वाभाविक है। कलाकार के लिए अनुभव, स्मृति व उसके सरोकार ही उसकी मूल पूँजी हैं। कलाकार समाज के लिए सबसे बड़ा जादूगर होता है और उसे हमेशा लीन रहना पड़ता है। अपनी जादूगरी को संभाल कर स्पष्ट तरीक़े से समाज के समक्ष प्रस्तुत कर देने तक। जाहिर है कलाकार और समाज के बीच दोतरफा संवाद की गुंजाइशें हमेशा बनी रहनी चाहिए। दोनों की आपसी जवाबदेही के प्रति सजगता जरूरी है। मगर क्या यह जवाबदेही आज के दौर में क्षीण होती नहीं महसूस हो रही है? व्यापक समाज में कला की पैठ बनने की जगह उसका दायरा सिकुड़ता चला जा रहा है। आज जबकि भारतीय कला व्यावसायिकता के मामले में इतनी मिशालें खड़ी कर चुकी है, कलाकार के नाम से ही कलाकृतियाँ करोड़ों में बिक जाती हैं, मगर कलाकृति से आम मनुष्य का दूर-दराज़ तक कोई नाता नहीं दिखता है। दीगर बात है कि कोई भी कलाकार कला आराधना प्रारम्भ करते हुए सबसे पहले ऐसे ही सामाजिक परिदृश्यों पर ही कूँची चलाता है, लेकिन जैसे ही उसे आभास होता है कि मैं कुछ सीख चुका हूँ, यानी कलाकार कहलाने का हकदार हो चुका हूँ वैसे ही वह भूल जाता है कि उसकी भविष्य की कृतियों में यह उपस्थिति होनी चाहिये। यानी आज कलाकार का असली संकट अपनी जड़ों से अलग हो जाना है। हम भारतीयता की जड़ों को संभाल कर नहीं रख पा रहे हैं और दिनोंदिन पाश्चात्य सभ्यता की जकड़न में फँसते चले जा रहे हैं, फलतः हम अपना वजूद टटोलने की हिम्मत भी नहीं कर पाते। पाश्चात्य धारणा है कि कला, कला के लिए है। मगर कला क्या सचमुच स्वांतःसुखाय है? फिर कलाकार कला-प्रदर्शनियाँ वगैरह क्यों लगाते हैं? कोई भी कला अंततः एक मनुष्य की मेधा का ही परिणाम होती है, अतः किसी भी स्तर पर वह मनुष्य की दुनिया से भला निरपेक्ष कैसे हो सकती है?
कला हमेशा से ही समय के साथ क़दमताल मिला कर चलती रही है बल्कि आगे भी यह प्रक्रिया प्रासंगिक रहने वाली है। कला कभी भी समय या समाज से निरपेक्ष होकर अपना जीवन नहीं जी सकती। जिस तरीक़े से आज हर तरफ़ जीवन-जगत में अस्थिरता घर कर गयी है, मस्तिष्क हर दफ़ा उधेड़बुन में फँसा हुआ है, शान्ति-सुकून तो कोसों दूर छिटक रहे हैं, कहना गलत न होगा कि कला भी इसका शिकार हुई है। विशेषकर युवा पीढ़ी की कला जो रातोंरात चमक कर फलक पर छा जाना चाहती है, भले ही पान के पीक से कैनवास को भर दिया गया हो। आज का कलाकार आधुनिकता के चक्कर में रचनात्मकता व विषय वस्तु पर ध्यान न देकर माध्यम पर ज्यादा जोर दे रहा है। उदाहरण के तौर पर लिपिस्टिक का पोस्टर बनाते समय आज का युवा पूरे फलक पर बडा सा होंठ, छोटी-सी चमकीली ब्रान्डेड लिपिस्टिक बना कर फलक को खुला छोड़ देता है। बैकग्राउण्ड के बारे में सोचते हुए सहसा उसे कोई उथला सा ख्याल आता है और अपनी ही दोस्त लड़की के होंठ में रंग लगाकर कैनवास पर छिटपुट किस करवा देता है, और चंद लाइनें लिखकर पूरा कर देता है एक कृति। कुछ ऐसी ही है हमारी युवा पीढ़ी। शायद यही
वजह है कि समकालीन कला आम आदमी की समझ से बाहर होती जा रही है। आज का कलाकार जानी- पहचानी आकृतियों की रेखाओं को न पकड़ कर सीधे आत्मा को पकड़ने में लगा हुआ है, फलतः कला का कोई स्पष्ट चेहरा नहीं बन पा रहा है। सही है कि हम जितना अधिक कल्पना में गोता लगाएंगे, यथार्थ का दायरा बढ़ता जाएगा, क्योंकि कल्पना ही ख़्वाब की जड़ है और ख़्वाब से ही निर्मित होती है यथार्थ धरातल। यथार्थ धरातल की वास्तविक समझ और उस पर दख़ल ही किसी कलाकार को वाक़ई समाज का जादूगर कहलाने का अधिकारी बना देता है। बढ़ती अविज्ञेय अमूर्तता के लिए कलाकार और कला रसिक दोनों ही दोषी हैं। दोनों के बीच की संवादहीनता ने ही शायद अनटाइटिल्ड (अनाम) कृतियों को जन्म दिया है। डॉ. राजेश व्यास का ठीक ही मानना है कि कलाकार रचना करते समय उस समय की संवेदना को रच-बुन रहा होता है, उसी समय वह अतीत के आमन्त्रण के साथ भविष्य के सुरों को संजो रहा होता है। कलाकार के लिए वह समय भी महत्वपूर्ण होता है जिस समय वह अपनी सर्जना को कैनवास पर परोस रहा होता है। ऐसा लगता है कि उस समय यदि कलाकार कृति के शीर्षक को स्पष्ट नहीं कर पाया तो शायद बाद में वह भी असमर्थ हो जाता है, भाषा व शीर्षक को पकड़ पाने में।
अपने देश में हिन्दी कला समीक्षा की लम्बी व समृद्ध परम्परा रही है। भारतीय कला मनीषियों ने समय- समय पर इस ओर सटीक ध्यान दिया है। पर आज बहुत ही कम हिन्दी पत्रिकाएं या समाचार पत्र होंगे जो
कला समीक्षा को स्थान देते हों यानी कहा जा सकता है कि बीच का धनात्मक निशान यानी मीडिया यहीं कमजोर पड़ जाता है कला की दुनिया से आम दुनिया को मिला पाने में। हालांकि कुछ अपवाद भी हैं। जबकि अन्य भाषाओं के समाचार माध्यमों में तो इसके लिए बाक़ायदा कॉलम फिक्स है व कैम्प लगाकर कला के प्रति लोगों को जागरूक किया जाता है। जबकि इस मामले में हिन्दी एकदम से उदासीन दिखती है। कोई भी कलाकार हिन्दी में अपना कैटलाग मात्र इसलिए नहीं बनवाना चाहता क्योंकि ऊँचे दामों पर कलाकृति को ख़रीद पाने वाले वर्ग में हिन्दी उपेक्षित है। फलतः युवा कलाकार हिन्दी के वजूद को बचाने के लिए संघर्ष न कर आत्मसमर्पण कर देना ज्यादा बेहतर समझता है। कला की दुनिया में हिन्दी को लेकर जो भयानक क़िस्म का हीनता बोध पसरा है, वह भी एक बड़ा कारण है जो कि कला को देशज यथार्थ से जुड़ने नहीं दे रहा है। कलाकार सबसे पहले अपनी मिट्टी को ही झाड़कर मार्डन दिखने की कोशिश करने लगता है। ऐसे में उसके पास देने के लिए कुछ भी मौलिक नहीं बचता और वह अनुकरण कला का विकास करने में अपनी मेधा झोंकने लगता है। बाद में वह इसी प्रक्रिया के तहत अमूर्त की शरण गहता है। यानी उसका यह चुनाव भी रचनात्मक कम, वैकल्पिक ज्यादा होता है। जब हम किसी वस्तु या कर्म के साथ स्वयं को इतने सघन रूप से जोड़ लेते हैं, उसमें लीन हो जाते हैं अर्थात् इतना डूब जाते हैं कि स्व का बोध ही नहीं रह जाता, उस समय हम अपने नहीं बल्कि समाज के होते हैं, संपूर्ण सृष्टि के होते हैं। यानी अनैच्छिक सह-संवेदन की स्थिति से गुज़रते हुए वस्तु तथा आत्मा में कोई भेद नहीं रह जाता, यही सौंदर्यानुभूति का क्षण है, यही आदर्श आत्मा की वास्तविक क्रिया है। और यहाँ से उपजी हुई कृति शुद्ध कला कही जा सकती है। कलाकृति का वाह्य रूप ऐंद्रिय सुख देता है, जबकि कलात्मक अनुभव सम्पूर्ण काल्पनिक अनुभव है। कलाकृति की श्रेष्ठता तकनीक पर आधारित न होकर श्रेष्ठ भावों व विचारों पर आधारित होती है। कलाकार समय के प्रतिनिधि के तौर पर कला की सृष्टि करता है। ‘प्रोटेस्टर’ कृति के माध्यम से युवा कलाकार हरमीत सिंह (स्कल्पचर) की समाज के प्रति चिंता को देखा जा सकता है, जिसमें एक वृक्ष का तना जो पूर्णरूपेण सूख चुका है, पर चढ़ते हुए सैकड़ो चींटे एक साथ कई संदेश हमारे जेहन में छोड़ जाते हैं। लखनऊ की कुसुम वर्मा की कृति (पेंटिंग) जिसमें पृथ्वी के ऊपर पंख फैलाकर बैठा सफ़ेद पक्षी उड़ते हुए तमाम परिंदों को बल दे रहा है और शांति मे सौंदर्यानुभूति का दर्शन करवा रहा है। अमित कुमार की कृति ‘चेस बोर्ड’ पर मानव सिर जिसकी दोनों आँखें नाक पर बैठे कीड़े को देख रही हैं, बिल्कुल शतरंजी लगता है। सौन्दर्य-बोध कृति में ही अजय सिंह (वाराणसी) की कृति ‘दीपावली’ प्रमुख है, मिक्स-मीडिया में बनी यह कृति सामाजिक सरोकारों के साथ-साथ बनारस घाट को भी बड़े मनोहारी ढंग से दिखाती है। स्कल्पचर में प्रीति मिश्रा (लखनऊ) व सुनील कुमार (दिल्ली) भी काफी सराहनीय कार्य कर रहे हैं। सत्येंद्र कुमार वर्मा (वाराणसी), योगेश राय (गोरखपुर), कुनाल (मुम्बई), मु. इरशाद (बलिया), सुनील चौधरी (जबलपुर) आदि भी इस कड़ी में प्रमुख भागीदारी दर्शा रहे हैं। विकास मनुष्य की प्रथम आकांक्षा होती है, चाहे वह यथार्थ वातावरण हो या कृत्रिम धरातल पर निर्मित क़ायदे-कानून। इस विकास की महत्ता अलग-अलग लोगों की निगाह में अलग-अलग भले ही हो लेकिन है तो है। इन्हीं सारी निगाहों में प्रबल निगाह कला के माध्यम से विकास की परिभाषा समझाने का प्रयास किया गया है लातूर के युवा शिल्पकार रविकांत काम्बले द्वारा। जहाँ आज के दौर में मॉर्डन आर्ट के नाम पर पता नहीं किस दुनिया का सैर कराया जा रहा है। जिसे कलाकार खुद नहीं समझ पाता, भला दर्शक क्या समझेगा। यानी अशीर्षक कृति के इस दौर में अमूर्त शिल्प के माध्यम से यथार्थ दृश्य को दिखाना सच ही चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसमें रविकांत बखूबी सफल हैं। आनन्द प्रकाश (इलाहाबाद) एक ऐसे कलाकार हैं जिनकी कृतियों में टेक्सचर व निराकार भी आकार के व्यापक रूप में दृष्टिगोचर हो उठते हैं।
इन सबों के इतर रंग संतुलन कमाल का बन पड़ा है। हर कृति में ऐसा लगता है जैसे अन्तहीन जंगल में घुसते चले जा रहे हैं। इसी कड़ी में राजीव रंजन पांडेय (आगरा) की कार्यशैली को भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता। ग्रोथ को देखने का उनका नज़रिया कुछ ऐसा है जहाँ नारी व योनियों की अधिकता है या हम कह सकते हैं कि सांकेतिकता में विकास को दर्शाने में वे माहिर हैं। संकेतों के माध्यम से उनकी दृष्टि समस्त सृष्टि को एक साथ टटोलने में सक्षम-सी दिखती है। टेराकोटा, मिक्स मीडिया, वुडमेटल सभी पर प्रयोग कर सृष्टि को मूर्त रूप दे देना, वह भी अमूर्तांकन पद्धति में, निश्चित ही शिल्पकार के दूरद्रष्टा होने की ओर संकेत करता है, इसी कड़ी को साकार कर रहे हैं भदोही के विद्यानिवास मिश्रा। जीवन का उद्गम महत्व को कम लाइनो में रेखांकन (शीर्षक-थ्रिल आफ माइंड) के माध्यम से इंगित कर देना यह दर्शाता है कि लखनऊ के मनोज कुमार संवेदनशील कलाकार होने के साथ-साथ मानव जीवन पर गहरी पकड़ रखने वाले दार्शनिक भी हैं।
गणेश पोखरकर (मुम्बई) की कला की विषय वस्तु जैसे इन्हें खुद ढूढ़ती है या यूँ भी कह सकते हैं कि इनकी विषय वस्तु इतनी विविध आयामी है कि तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा जैसे गीत चरितार्थ हो उठते हैं। यात्रा के दौरान चेतनावस्था में देखा गया दृश्य, हाथ में तूलिका के आ जाने पर स्वतः ही कैनवास पर फिसल पड़ता है। वह भी बड़े-बड़े पैचेज़ में यानी कि कलाकार आभास मात्र न दिखाकर प्रत्येक वस्तु को जूम करके देखने के बाद चित्र की व्यापकता फलक पर उकेर दे रहा हो। इसमें सिद्धहस्त दिखे हैं भाष्कर भट्टाचार्य जी (कोलकाता)। चित्रकार पूनम किशोर अपने चित्रों को बिम्ब के माध्यम से भले ही प्रस्तुत कर रही हैं लेकिन यह भी झुठलाया नहीं जा सकता कि वह अपने पर फैलाये दुनिया की हर जानी-अनजानी पहाड़ी, गाँवों, गलियों की खाक छानती, आवारागर्दी करती हुई, आसमान से असीमित अपेक्षाएं रखती हुई हम सभी को एक नवीन दुनिया की सैर कराने का भरपूर प्रयास कर रही है।
कहीं-कहीं कल्पना यथार्थ का व यथार्थ कल्पना का रूप भी धर लेती है जो एक अच्छे कलाकार को और भी अच्छा बनाने में मदद करती है। इसी कड़ी में तीन सहेलियाँ पूनम (वाराणसी), मीना शर्मा (सोनभद्र) तथा पुष्पा (लखनऊ) अपनी साधना में तल्लीन हैं। जिस प्रकार कहा गया है कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है, ठीक वैसे ही विन्दु-विन्दु से प्रकृति की सार्थकता को व्यक्त करने में कलाकार पंकज शर्मा (भोपाल) इतने सफल हो गये हैं कि प्रकृति के हँसते-खेलते बेहद अनौपचारिक सम्बन्ध स्वतः उजागिर हो उठे हैं।
सृजनात्मकता का अभिप्रेत उड़ते धुँए को देखकर विकराल आग का अंदाज़ा लगा लेना व उसे यथेष्ट रूप में व्यक्त कर देना है जिसको देखकर समाज अपनी खामियों को वर्तमान या भविष्य में सुधारने का प्रयास कर सके। यानी आईना बनकर समाज के सामने खड़ा हो जाता है एक सर्जक। सर्जक की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि सृजन को लेकर उसके सर कलम का फतवा जारी हो जाने के बाद भी वह अपने आप को रोक नहीं पाता। कह सकते हैं कि जब तक वह समाज में रहता है, समाज का ही अंग बनकर रहता है। एक सच्चे कलाकार की पहचान उसकी सादगी, सच्चाई और साहस से होती है।
कलाकार इतना साहसी व न्यायप्रिय होता है कि वह किसी को नहीं बख्शता। यदि कोई गलत है, तो कलाकार की कृति में खलनायक की भूमिका में ही नज़र आएगा, भले ही वह उसका कितना भी सगा क्यों न हो। जो कलाकार अपनी मेधा ऐर श्रम का संतुलित सामंजस्य कायम कर लेता है, वह काफी आगे निकल जाता है। ऐसे ही एक युवा कलाकार हैं, लातूर के श्रीनिवास म्हात्रे। उनकी गति को देखते हुए उन्हें मशीन नाम दिया गया है। मुम्बई में प्रिन्ट स्टूडियो बनाने वाला यह पहला कलाकार है। ये लगभग नयी पीढ़ी के सबसे होनहार प्रिन्ट आर्टिस्टों में आते हैं जो सिर्फ़ और सिर्फ़ खोज में तल्लीन है। इनकी विषय वस्तु का हिस्सा गतिशील वस्तुएँ जैसे साइकिल, रिक्शे की गति, पैडल, चैन, हैंडल, सीट आदि हैं। इनकी कला को समझने के लिए इनके साथ ही बौद्धिक स्तर पर दौड़ लगाना होगा। अम्बिकेश यादव (जौनपुर) तो जैसे रम से गये हैं अपनी एक अलग दुनिया में, जहाँ पहुँच पाना निश्चित रूप से आसान नहीं होता। इन नये कलाकारों से भारतीय कला को बहुत अपेक्षाएं हैं।
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बिलोंई, मधुपुर, मुँगरा, बादशाहपुर, जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
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