(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश...
(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)
विजेंद्र की कविताएं
दखिनी हवा
देखे मेरे उत्तर में पहाड़ हैं
छोटी-छोटी मँगरियों की लम्बी शृंखलाएँ हैं
तेज़ पछुआ बहती है मेरे बाँए
मुझे करती उद्विग्न
अन्दर करता हूँ अनुभव
मरुथल उजाड़ का
कहीं-कहीं कटीली झाड़ियाँ
कहीं-कहीं पत्थरों के ढेर
काई सने ढलानों पर उगे सुर्ख़ फूल
मैं उनके नाम नहीं जानता
ओह...कितनी शीतल हवा है बर्फ़ानी हड्डियों को तोड़ती अन्दर तक
मुझे करती बेहाल
खाल को खुरचती
कैसे रहते हैं फूस की झोपड़ियों में लोग
इतनी शीतल हवा को झेल कर
मैंने देखा है उन्हें
खोद कर खाते कंद मूल
तापते अगिहाने के आस-पास खेजड़े से तोड़ते सूखी लकड़ियाँ
कहाँ हैं बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ वहाँ जहाँ से आती हो धूप, हवा, चिड़ियों की चहक उद्यान में चलते फव्वारे सुबह शाम
ये दुनिया एकदम अलग है
कोहरे से धुँधले हुए शीशे
कहाँ हैं वहाँ फुलझड़ियाँ वहाँ तो अँधेरा है जाने कब से
चूल्हें की मंद रोशनी में दिखते
उनके उदास चेहरे दुखते हुए जख़्म गहरे।
कहाँ हैं स्रोत
नहीं मालूम स्रोत कहाँ हैं ऐसे स्रोत जो उमड़ते हैं पत्थरों से जिनकी जड़ें होती हैं
घने वनों में निर्जन चट्टानों में जिन्हें कभी खोदा नहीं गया जिन्हें देखा उमगते थार में दोआबा, पठारों कच्छ के रण में
चट्टानों में बने हैं
जिनके सूख जाने के काले दाग ऋतुओं पर सिलवटें ग्रीष्म इन्हें नहीं करता दग्ध
शीत की ठिठुरन से
ये काँपते नहीं दिखे
वसंत की कोंपलों से विरक्त
अपने रोंयों में सुनता हूँ
इनकी ध्वनिहीन रमक़
खेतों में अंकुरित गेहूँ के बिरवे
खरपत उन्हें खाने को तत्पर
सूरज अपनी किरणों से
करता है अराधना
इनकी आँखें देखती हैं प्यासों को
क्यों होता जाता हूँ इनसे दूर, और दूर
मुझे क्यों नहीं होता ज्ञान
लोगों की प्यास का, भूख का, कुपोषण का
इनमें देखता हूँ अग्नि कणों की पौंड़ी नसें
खूँदते चले जाते हैं उन्हें हिंस्र पशुओं के पैने खुर नहीं कह पाते अपनी
गहन पीड़ाएँ मूक
गहरी चोटों के निशान
छिपाए रहते हैं रोंएदार त्वचा से
सूर्योदय के ध्वजों में अंकित ख़सी रात की तस्वीरें
इन्हें तुम्हारे खाली पात्र
नहीं खिला पाएँगे ।
इतना सुन्दर कभी नहीं देखा उसे
वह ग्राम बाला थी
कपास के खेत में
चुनती खिली कपास
बाल सहज बिखरे थे
धूप ने उनकी चमक
कुछ बढ़ा दी थी
तेज़ धूप में सँवलाया उसका मुख श्रम की कठोरता को झेलता
उसका सुगठ ज़िस्म
इतना सुन्दर उसे
पहले कभी नहीं देखा
वह चुनती रही कपास अचक-अचक और भी थीं कपास चुनने को
मेरी दृष्टि उसी पर टिकी रही
मैं नहीं समझ पाता
कठोर श्रम इतनी दूर से
मुझे भाता है उसका निश्छल सौंदर्य
लगता है सुन्दर उसका कपास चुनना
क्या उसको भी लगता होगा
यह सब सुन्दर
क्या उसको देता है आनन्द
धूप में चुनना कपास
वह जानती है
यह खेत उसका नहीं है
कपास चुनती है मालिक का उसे मिलेगा इसका सिर्फ़ आठवाँ हिस्सा शेष भरेगा घर मालिक का
बहुत देर तक देखता रहा
देखता रहा एकटक आँखें गड़ाए
पर उसने नहीं देखा
उसे करना था काम पूरा
मेरा उससे होता क्या रिश्ता
लाल चुनरी थी
नीला था घाघरा
हाथें में कड़े थे सुर्ख लाख के
चुन्नी से ढँका हुआ था
वक्षोज-उभरा सीना
मैं गया और पास
शायद वह देखे मेरी ओर
हवा तेज़ थी
उसका पल्लू उड़ता था
मेरी ओर बार-बार
वह उसे सँभालती रही अचानक देखा मेरी ओर जैसे न देखी हो कोई कोर
आते हैं रस लेने निकम्मे लोग
चुन के देखें कपास
इस तपन में, इस खैरी घमस में
सोचें क्या मिलता है कठिन काम के एवज में
नहीं है किसी को चिन्ता
हमारे दुख की
लगा जैसे समय ठहरा है
वह ठहरा रहे
मैं उसे देखता रहूँ
अपने को गहरे में परखता रहूँ।
C / O R N Mani , house 503 , Aravali - Omaxe Hills , Sec - 43 ,
Near green land, Faridabad NCR , Haryana - 121001
आशुतोष दुबे की कविताएं
अन्धे का सपना
मैं एक अन्धे का सपना हूँ एक रंग का दुःस्वप्न
एक रोशनी मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते-देते थक जाती है जो आकार मेरे भीतर भटकते हैं वे आवाज़ों के हैं जो तस्वीरें बनतीं-बिगड़ती हैं वे स्पर्शों की हैं
मेरी स्मृतियाँ सूखे कुएँ से आतीं प्रतिध्वनियाँ हैं
वे खंडहरों में लिखे हुए नाम हैं जिनका किसी और के लिए कोई अर्थ नहीं है
मेरे भीतर जो नदी बहती है वह एक आवाज़ की नदी है
और मेरी हथेलियों में जो गीलापन उसे छूने से लगता है वही पानी की परिभाषा है
मेरी ज़मीन पर एक छड़ी के टकराने की ध्वनि है जो किसी जंगल में मुझे भटकने नहीं देती।
उत्तरजीवी
कलम के दौड़ कर गुज़र जाने के बाद
कुछ कागज़ अपनी ख़र्च हो गयी सफ़ेदी का अफ़सोस नहीं करते
वे मन-ही-मन उड़ने लगते हैं फँस जाते हैं न जाने किन डालियों में
उनकी अटकी हुई चिन्दियाँ हवाओं में फरफराती हैं वे अपनी इबारतों में समूचे बच जाते हैं।
अस्तगामी
सूरज को डूबते देखना
मुग्ध अवसाद में
देखना है कि किस तरह एक सुन्दरता दूसरी को जगह देती है
और दोनों को जानने के लिए
उन्हें अलग-अलग तरह से देखना होता है
एक आदमी को अस्त होते हुए देखना आत्मा में सांय-सांय का भर जाना है
निचाट दोपहर में हवा का सूखे पत्तों को बिखेर देना है
उसी बुहार में
अपने को देखना है
समेटना है
और देखे गये को बूझना है
अब तुम वहाँ हो
अब तुम वहाँ हो जहाँ मैं तुम्हें देख सकता हूँ
अब मैं वहाँ हूँ जहाँ से तुम मुझसे बात कर सकती हो
हम एक-दूसरे के जीवन में नहीं हैं
पर एक-दूसरे की दुनियाओं को देख सकते हैं
काँच की दीवार के पार से
जब परिभाषाओं की दस्तक दरवाज़े पर होनी ही थी
पता नहीं क्या हुआ
हम क्यों लौट गये
कभी-कभी समय अपनी गेंद को ऐसे स्पिन कर देता है कि होने वाला अघटित रह जाता है और अनसोचा होकर रहता है
लेकिन हम अफसोस में नहीं, खुश हैं
और एक-दूसरे को खुश देखकर भी खुश हैं
और इसका कोई तर्क ढूंढना मुश्किल है कि ऐसा क्यों है
सच तो यह है कि हम अब और ज़्यादा बातें करते हैं
हँसते हैं, तुनकते हैं, वक़्त बिताते हैं
क्योंकि इस सबको कहीं और नहीं पहुँचना है ज़्यादा से ज़्यादा काँच की दीवार के उस तरफ़
जहाँ से तुम मुझे देख सकती हो और मैं तुम्हें
अपनी-अपनी दुनियाओं की खुशियों और झंझटों में मसरुफ़
जहाँ कामना पीली पड़कर झर चुकी और शुभकामना को हम सींच रहे हैं।
अन्यत्र
एक अहमकाना मुहब्बत में गिरफ़्तार जब आप एक-एक करके कई मौक़े छोड़ देते हैं
अपने शहर को छोड़ देने के
तो धीरे-धीरे ज़्यादा दुनियादार और आपसे नाउम्मीद हो चला शहर छोड़ देता है आपको
वह न आपका वफ़ादार होता है न वफ़ादारी चाहता है आपसे
एक दिन सड़कें, इमारतें, बाज़ार, चौक, चौराहे
बदल जाते हैं पहचान के बाहर
उन पर अज़नबी लोगों की गाड़ियों का जाम है
आप उसी शहर में जीते हुए खुद को तैयार करते हैं मरने के लिए किसी और शहर में
काला
वह सिर्फ़ एक रंग नहीं
बेदख़ली है तमाम रंगों की
और इसलिए काला है
उसके इलाक़े में रोशनी का आना मना है मगर इससे यह नतीज़ा निकालना जल्दबाज़ी होगी कि वह कोई अमावस है लगातार क़िस्म की
अमावस का सलूक चाँद के साथ जैसा भी हो तारों के लिए वह एक मौक़ा है
मगर वह अपने अछोर अंधेरे के नशे में चूर है
इसलिए काला है
वह धूप में जलते मैदानों में चलने से आया पक्कापन नहीं
उसमें मिट्टी के रंग-सी सांवली विनम्रता नहीं
वह गर्भजल के कुनकुने अंतरिक्ष जैसा सुखद भी नहीं वह पृथ्वी के भीतर का रत्नगर्भ रहस्य भी नहीं
उसमें एक पसरी हुई स्याह आक्रामकता है
सुई की नोक भर जगह भी किसी को न देने का हठ
वह अपनी तानाशाही है,
अपने मद का मतवाला है
इसलिए काला है...।
6, जानकीनगर एक्सटेंशन, इन्दौर-452001 (म.प्र.)
उमेश चौहान की कविताएं
ख़तरे की आहट
मुझे बहुत ही अज़ीब लगता है
जब अचानक ही एक दिन कोई आदमी
मुझसे अपना सुर बदलकर बात करने लगता है
किसी का सुर बदल जाने पर मुझे कुछ वैसा ही लगता है कि जैसे सूखे मौसम में अचानक ही
हवा का रुख बदल जाने पर
फालतू में लगता है कि ज़ोरदार बारिश होगी कभी लगता है कि तूफ़ान आएगा
कभी बर्फ़ीली हवा भी तासीर बदल जाने पर चुभने लगती है शरीर में ठीक लू की तरह
किसी के भाँति-भाँति के सुर मुझे तब तक नहीं डराते जब तक मैं ठीक से भाँपता रहता हूँ उनमें छिपा प्यार, नफ़रत, दोस्ती और घृणा लेकिन मैं एकदम से घबरा जाता हूँ जब नहीं फर्क़ कर पाता
किसी के शब्दों में छिपी हिंसा और हमदर्दी में जब नहीं भेद कर पाता
उनके वक़्त के साथ बदल जाने वाले अर्थों को
मुझे अपने ही घर के संदर्भ में
बाहर के लोगों के साथ बोली जाने वाली कूटनीतिक भाषा से बड़ा डर लगता है
मुझे उस वक़्त
एक बहुत बड़े ख़तरे की आहट सुनाई पड़ती है जब हमेशा कड़क भाषा बोलने वाला कोई आदमी
अचानक ही एक दिन मीठे-मीठे सुरों में
अतीत की सारी भयावहता को भूल जाने का संदेश देता हुआ
मुझे मेरे ही सपनों का अर्थ समझाने की कोशिश करता है।
सदाबहार वन
जैसे किसी सदाबहार वन में
पेड़, पेड़ होते हैं
लताएँ, लताएँ होती हैं
झाड़ियाँ, झाड़ियाँ,
घास, घास होती है
और तमाम अन्तर्संघर्षों के बावजूद इन सबके अस्तित्व को निरन्तर सँजोकर रखता हुआ
अलग-अलग मौसम में
अलग-अलग फूलों के रंग बिखेरता हुआ
वन, वन होता है हमेशा हरा-भरा रहने वाला एक सदाबहार वन!
वैसे ही किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में
धर्म, धर्म होते हैं
नस्लें, नस्लें होती हैं
भाषाएँ, भाषाएँ होती हैं
बोलियाँ, पहनावे, खान-पान होते हैं
और इन तमाम विविधताओं के बावजूद
इन सबकी पहचान को अक्षुण्ण बनाये रखकर
अलग-अलग त्योहारों, परंपराओं, विश्वासों के आवेश में डूबा हुआ
देश, देश होता है
सभी नागरिकों को समान रूप से अधिकार, अवसर और सम्मान देने वाला देश!
जैसे जर्मनी के लोग जर्मन होते हैं
फ्रांस के फ्रेंच, रूस के रूसी और जापान के जापानी
वैसे ही भारत के लोग भी भारतीय होते हैं
लेकिन जैसे जर्मनी, फ्रांस, रूस के लोग
महज़ ईसाई नहीं होते
या जापान के लोग सिर्फ़ बौद्ध नहीं होते वैसे ही भारत के लोग भी
केवल हिन्दू या मुसलमान अथवा सिख या ईसाई नहीं होते!
वैसे भारत में भी ऐसा होता है कि
पंजाब के सारे लोग पंजाबी होते हैं,
गुजरात के गुजराती,
महाराष्ट्र के मराठी
और बंगाल के बंगाली और कहीं ओड़िया या मलयाली
किन्तु ऐसी समेकित भाषायी संज्ञाएँ रखते हुए भी भारत के तमाम प्रांतों के लोग
अपनी-अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान नहीं खोते!
इस सदाबहार देश का सत्य यही है कि विविधताओं से भरे होने के बावजूद अपनी संपूर्णता में सारे भारतीय सिर्फ़ हिन्दू या हिन्दी नहीं होते!
आज यदि कोई यह कहे
कि सदाबहार वन की पहचान सिर्फ़ पेड़ हैं
तो वहीं से जन्म लेने लगता है
घास के लिए एक बड़ा ख़तरा वहीं से शुरूहो जाता है
झाड़ियों और लताओं के लिए
अपनी अस्मिता को बचाये रखने का संकट
वहीं से ख़त्म होने लगती है
सदाबहार वन की असली पहचान
और वहीं से अपने स्वार्थ में फिर से जंगली होने लगता है जंगल से निकलकर आया हुआ एक आदमी!
मक्कारी
भयानक मक्कारी वह नहीं होती जो नदी के किनारे आँखें बंदकर लेटे किसी मगरमच्छ के चेहरे में छिपी होती है क्योंकि उसे तो भांपकर हम
कभी भी कर सकते हैं अपना बचाव
भयानक मक्कारी तो वह होती है जो नदी के पानी के भीतर घात लगाकर बैठे
मगरमच्छ की आँखों में होती है
क्योंकि उसे देखना या भांप पाना हमारे लिए असंभव होता है
नदी के भीतर छिपे मगरमच्छों की मक्कारी से बचने के
हमारे सामने दो ही विकल्प होते हैं
पहला, कायरों की तरह उस पानी में उतरा ही न जाय जिसमें वे रहते हों
दूसरा, साहस के साथ हाथ में एक धारदार चाकू थामकर किसी गोताखोर की तरह धंसा जाय पानी के भीतर और फाड़ दिया जाय उसकी मक्कारी के प्रेरणास्रोत बने कभी न भरने वाले पेट को
कभी-कभी वैचारिक मक्कारी वाले मगरमच्छ को
काटने के लिए भी पैने करने पड़ते हैं
खरे-खरे शब्दों के धारदार हथियार।
माँ मेरे शब्दों की आत्मा में रहती हैं
मैंने परिवार के हर रिश्ते को
अपने शब्दों के बीच संजोया है
लेकिन माँ के लिए आज तक कभी कोई कविता नहीं लिखी
मुझे हमेशा यही लगता है कि
माँ मेरे शब्दों की आत्मा में रहती हैं
उन्हें मेरे शब्दों की शक्ल अख़्तियार करने की कोई ज़रूरत नहीं
माँ मेरे भीतर का आकाश है
माँ मेरे भीतर की ज़मीन है
माँ मेरे भीतर का पानी है
माँ मेरे अंतस की भावना है
माँ मेरी आँखों में सजा सपना है
माँ मेरी बोली में घुली मृदुलता है माँ मेरी संवेदनाओं की तरलता है
माँ मेरे जीवन की जिजीविषा है
यह सच है
कि माँ थी तो जीवन में बहुत कुछ था उनका प्यार, उनकी मनुहार, उनका गुस्सा, उनकी मार,
घर में उनकी खुदमुख़्तारी,
बाहर उनकी लाचारी,
उनकी सीख, उनका विश्वास,
उनका चेहरा, कभी मुस्कराता, कभी उदास
आज माँ नहीं हैं तो भी
बहुत कुछ है जीवन में उनसे मिला हर संकट में, हर कष्ट में, पहन लेता हूँ हिम्मत का वही पुराना कुर्ता मैं जो बचपन में हर बार फट जाने पर उनके ही हाथों से जाता था सिला
पिता अगर मेरे लिए सुषेन वैद्य थे तो माँ संजीवनी बूटी थीं
पिता के दिये गुणसूत्रों ने
भले ही मुझे मेरी पहचान दी हो
पर माँ तो जन्म के पहले से ही
मेरे शरीर के ख़ून में घुलकर बहती हैं
इसीलिए माँ मेरी कविताओं के शब्दों में नहीं उनकी आत्मा में बसी रहती हैं।
मेरी भाषा
आजकल जाने क्यों मुझे लगता है कि मेरी भाषा कहीं खो गयी है, वह मुझमें ही कहीं गुम हो गयी है
या मेरे देश की राजनीति में
या फिर ग़ुलामी की हीनभावना का शिकार हो गयी है
यह स्पष्ट नहीं किन्तु मेरे घर का सच यही है कि मेरे बेटे के पास अब मेरी भाषा नहीं बची है
मेरे बेटे ने जब से लिखते समय
भाषा के की-बोर्ड पर
एक साथ शिफ्ट कन्ट्रोल आल्ट दबाकर डिलीट का बटन दबाया है तब से उसकी भाषा एकाएक
हमारे इतिहास, भूगोल दोनों से अलग होकर
एक नये कलेवर में
शब्दों के वैश्विक बाज़ार में अपना अज़ूबा प्राइस टैग लगाकर किसी बिकाऊ माल की तरह टंग गयी है उसमें ऊल-जलूल जो गाना चाहो लिखवा लो!
उसमें जिसको शर्मिन्दा करना चाहो करवा लो!
उसमें जहाँ दंगा-फ़साद रचवाना चाहो रचवा लो!
उसमें जिस देश के शब्द मिलाना चाहो मिला लो!
मेरे बेटे के सर्च इंजन की भाषा
मेरी खोज़ की भाषा से एकदम अलग है
इसीलिए आज अपनी भाषा में खोजने पर
मुझे मेरा बेटा नहीं मिलता
और जब वह अपनी भाषा में मुझे खोजता है
तो वहाँ मुझे न पाकर
बीसवीं सदी के एक बूढ़े ख़ब्ती को पाता है
कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी भाषा कहीं गुम नहीं हुई है
वह तो अपना मन मसोसते हुए
भारत के नक्शे पर
मोटे अक्षरों में उभरे
इंडिया के वर्चस्व से अपने को बचाने की कोशिश में
गाँव की चौपालों में दुबककर किसी किसान की फसल का बीज बन गयी है!
काश! मेरा यह अहसास गलत साबित हो कि इक्कीसवीं सदी आते-आते मेरी भाषा मुझसे कहीं छिन गयी है।
बुद्धिलाल पाल की कविताएं
भूल-भुलैया
आदमी आदमी को
सीढ़ी बनाता है,
चढ़ता है
दूसरों को धक्का देकर
आदमी सीढ़ी बनता है
चढ़ाता है दूसरों को
अपने को
स्थापित करने के लिये
आदमी चढ़ता है सीढ़ी पर गिरता है चढ़ता है ख़त्म नहीं होती है सीढ़ी
आता है एक समय बन जाती है सीढ़ी भूल-भुलैया!
अघोषित
गरीब अपराधी होते हैं
अमीर कोई अपराध नहीं करते
अमीर के अपराध
गरीब पर थोप दिये जायें
गरीब को कोई फर्क़ नहीं पड़ता अमीर को पड़ता है
लिहाजा!
घोषित कर दिया जाये
गरीब ही अपराध करते हैं
उनकी यह घोषणा अलिखित, अघोषित है जिसका सही-सही पालन होना सुनिश्चित हो!
अ-लक्ष्य
लोग अपने कुनबों पर थिरककर नाचे थे बात ठीक थी
लोग अपने क़स्बों पर थिरककर नाचे थे बात ठीक थी
लोग अपनी धरोहर संस्कृति पर थिरककर नाचे थे बात ठीक थी
परंतु जब भी ये
लपके सत्ता की ओर
नस्लवाद, जातिवाद
धर्मवाद के साथ
तब-तब अच्छा नहीं हुआ
अच्छा नहीं हुआ
लेकिन बार-बार यही हुआ
सदियों से
आजमाये गये ये तरीके कभी फेल नहीं हुए राजा की बोलो जय!
डर
डर
कुंडली मारकर जब बैठ जाये तब फुंफकारने लगता है सांप जैसा
डर
जब पेट के अंदर सिकुड़ता है तो सरपट भागता खोजता सुरक्षित स्थान
कोई अंधेरी सुरंग
या बिल में घुस जाता है चूहे जैसा
डर
डरकर समूह बनाता
या उकसाता लोगों को
कबीलाई युद्धों के लिए
डर
राजा भी बनना चाहता है
अपनी जीत के लिये जो फासीवाद की तरह उन्मादी होता है
डर
अपनी जीत पर
बहुत महत्वाकांक्षी
साम्राज्यवादी होता है
डर
खतरनाक होता है डर के जबड़ों में जहरीले दांत भी होते हैं काट लेता है निर्दोष को भी
डर कहता तो है
वह जंगल के ख़िलाफ़ है
पर बदहवास होता है
रचता है दूसरा जंगल
डर को
डर दिखाकर
दिग्भ्रमित किया जाता है डर की राजनीति
खूब फलती-फूलती है
डर से
मुक्ति आवश्यक है
डर से मुक्ति की चिंता करना दुनिया की चिंता करना है।
पहला झूठ
आमूलचूल परिवर्तन के लिए
संघर्ष का लम्बा रास्ता जाता है
यह अलग बात है
कहीं व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर कहीं तात्कालिकता के लोभ में
लोग परंपरागत हो जाते हैं
और पहला झूठ
संवेदनशील होने का सहारा लेते हैं
वस्तुतः वे
सड़ांध वाले पोखर हो जाते हैं।
एम आई जी-562, न्यू बोरसी, दुर्ग (छ.ग.)
महाभारत में कर्ण एक अद्भुत चरित्र है। उसके जीवन को
कविता में अभिव्यक्त करते हुए राजेश्वर जी ने मानव जीवन की विडंबना, युद्ध के विद्रूप और स्त्री की नियति का एक पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है। नवाचारी दृष्टिकोण के कारण यह कविता न सिर्फ
महाभारत के इस प्रसंग को नये संदर्भ देती है बल्कि मौजूदा परिप्रेक्ष्य
में इस पाठ को अत्यंत प्रासंगिक व समकालीन बना देती है
राजेश्वर वशिष्ठ की कविताएं
स्त्री पर्व
कुरुक्षेत्र में युद्ध जीत कर
युधिष्ठर आते हैं कुंती के पास
देना चाहते हैं सांत्वना मृतक प्रपौत्रों के लिए
उन सभी सम्बंधियों के लिए जिन्हें मृत्यु ने वरण किया था
सफ़ेद वस्त्रों में लिपटी वृद्धकाय कुंती
याद नहीं करती अभिमन्यु को उसे याद नहीं आते वे दिग्गज जो लड़े और मरे धर्म के लिए
वह आसमान को देखते हुए
बरसा रही है आँसू झर रही है एक बदली-सी
पीले उदास सूरज की साक्षी में
उसे याद आता है ऋषि दुर्वासा का आश्रम उनका स्नेह और वह वरदान जिसने ला खड़ा किया था सूर्य को उसके समक्ष एक प्रेमी की तरह पिघल गया था उसका कौमार्य
सूर्य की बाहों में
कुंती हुई थी तृप्त सूखी धरती-सी
और जन्म लिया था कर्ण ने
वह माँ बन गयी थी
दुंदुभी बज रही थी उसके पयोधरों में
वह स्नेह देना चाहती थी अपने पुत्र को एक माँ का
उसे छुपा कर रखना चाहती थी
अपने आँचल में
पर समाज कब अलग था किसी भी युग में?
जानते थे दुर्वासा इसका पति कभी नहीं बन पाएगा पिता इसीलिए दिया था वरदान कि विवाह के बाद वह अभिमंत्रित करे जितने चाहे देवताओं को और पा ले उतने ही पुत्र
उनकी शक्ति और गुणों से भरपूर
पर मचल गयी थी कुंती वासना के उत्ताल ताल में
ऋषि पत्नी ने समझाया कुंती को अभी नहीं हुआ है तेरा विवाह
इसलिए भूल जा ममत्व
और बहा दे इस सूर्य पुत्र को किसी बहती नदी में मानो ममत्व भी गिरवी पड़ा हो किसी पुरुष की छाया तले क्या कहती कुंती? आज भी क्या कुछ कह पाती है औरत इन परिस्थितियों में?
शरीर पर सूर्य की आभा लिये चला गया कर्ण किसी नये गंतव्य पर भूल कर अपना क्षत्रित्व किसी नयी माँ को ममत्व देने के लिए पर उसे क्या भूल पायी कुंती?
कुंती के मौन रुदन पर द्रवित होते हैं धर्मराज पूछते हैं धीरे से- कुछ बोलो माँ.....
किसी अपराधी की तरह काँपती है कुंती बताती है कर्ण का सत्य!
फूट-फूट कर रोते हैं धर्मराज युधिष्ठिर बुदबुदाते हैं होठों में
तो पाण्डव ही निकले सगे भाई के हत्यारे...
तर्पण करते हैं युधिष्ठिर कर्ण के लिए भी
पर सोचते हैं मन में
इतने उथले पेट क्यों होते हैं स्त्रियों के क्या इस रहस्य को छुपाया नहीं जा सकता था
मृत्युपर्यंत...
धर्मराज कभी नहीं समझ पाये स्त्री मन और जान भी नहीं सकते थे वह पीड़ा जो सदा दहकी थी कुंती के मन में अपनी संतानों को
उसने स्वयं कभी नहीं बताये उन देवताओं के नाम जो उनके पिता थे कभी नहीं बताया अपने पति का सत्य कि वह नपुंसक था
कुंती सदा जीवित रही अपराधबोध के साथ और मरी भी अपराध बोध के साथ ही
बस नाम ही तो बदलते हैं स्त्री तो अंततः स्त्री ही रही, हर युग में!
वृशाली
मृत्युदेव स्तब्ध हैं
धीरे-धीरे रो रहा है इंद्र
सूर्य चुपके से चले गये हैं किसी बादल की ओट में युद्ध का सत्रहवाँ दिन
कर्ण का शव कर रहा है प्रतीक्षा
अंतिम संस्कार की
मतभेद दूर करते हैं श्रीकृष्ण
कुंती और युधिष्ठिर को समझाते हुए
अधिकार देते हैं दुर्योधन को कर्ण की मुखाग्नि का
आश्चर्य है,
मृत्युपर्यन्त कर्ण था राधेय
एक अज्ञात कुलशील जिसे न क्षत्रिय स्वीकार किया गया और न ब्राह्मण
और अब उनका अंतिम संस्कार होगा एक क्षत्रिय की तरह
मृत्यु के बाद भी नहीं समाप्त होती जाति कैसी जटिल व्यवस्था में जी रहे हैं हम क्या कुछ भी बदला है आज तक?
कुंती आदेश देती हैं
कर्ण की पट रानी वृशाली को
तुम्हें सती होना होगा
कर्ण की देह के साथ
आज अंतिम बार सती होगी वृशाली
वृषकेतु धीरे से उठता है
छोड़ता है माँ का हाथ
और जाकर खड़ा हो जाता है अर्जुन के पीछे फिर से अकेली हो जाती है वृशाली
पुरुषों के इस नृशंस संसार में
अब उसे जलना ही होगा उस देह के साथ जिसके साथ उसका थोड़ा बहुत भोग का ही सम्बंध था
सती होने से पहले
वृशाली को ले जाया जाता है शृंगार कक्ष में परिचारिकाएं लेपती हैं चंदन का लेप
अतीत के सपनों में खो जाती है वृशाली एक चलचित्र चलता है आँखों के सामने विशाल बाहु कर्ण हैं, अंग देश के राजा कौरवों के मित्र और अर्जुन से बड़े धनुर्धर
उनके कानों के कुंडल बिखेरते हैं सूर्य रश्मियाँ
प्रवेश करती है रत्नजड़ित महल में
धन्य हुई वृशाली
एक राजा को पति पाकर
वृशाली पिघल रही है कर्ण के बाहुपाश में कर्ण चूम रहे हैं उसे नख से शिख तक
तैर रही है एक छोटी-सी नाव
उद्वेलित समुद्र में
अचानक उसके हाथों को पकड़े हुए
कहते हैं कर्ण-
ओह, द्रौपदी से सुंदर नहीं हैं तुम्हारे हाथ!
वृशाली जम जाती है बर्फ़ सी
इस तरह से ख़त्म होती है उसकी सुहागरात एक उपेक्षित पत्नी जो जानती है अपने पति की चाह जीती रहती है किसी साध्वी-सी
पुत्र वृषकेतु के साथ
विवाह तो संतानोत्पत्ति का यज्ञ ही है आज तक
पुरुष जीता है किसी और के साथ
और रहता है किसी और के साथ तुम छली गई वृशाली जैसे आज भी छली जाती हैं अनेक नारियाँ
वृशाली पीकर खून का घूँट आरती उतारती है कई सौतनों की
क्योंकि दुर्भाग्य से वह पटरानी है कर्ण की गद्दी पर बैठेगा उसका पुत्र
बस यही है पटरानी का अधिकार
क्या माँएं आज भी संतान के स्वार्थ के लिए
नहीं जी लेती हैं किसी बेरहम घर में अवांछित-सा जीवन?
वृशाली जागती है ढोल-नगाड़ों की आवाज़ से
वह बैठी है लकड़ियों के ढेर पर
गोद में कर्ण का सिर रखे
वह निस्पंद है, विचार शून्य है
दुर्योधन लगाते हैं आग सूखी लकड़ियों में
वृशाली प्रतीक है उस निष्ठुर समाज के हीनताबोध का जहाँ पुरुष रख सकता है अनेक स्त्रियाँ पर स्त्रियों को अधिकार नहीं अपने भरोसे अपना जीवन जीने का कितना कायर और असुरक्षित है हमारा समाज कितने बदले हैं हम!
धुएं से श्याम हो गये हैं योद्धाओं के शरीर
महाभारत के सत्रहवें दिवस के अवसान पर सभी लौट रहे हैं अपने-अपने तम्बुओं में जहाँ बैठी मृत्यु बाँच रही है उनका भाग्य
अग्निदेव काँप रहे हैं एक स्त्री के दर्प से कितने ही राजा जले हैं उसमें पर वे कभी हुए नहीं इतने कातर
रोते हुए वृशाली को स्वीकारते हैं अपनी कन्या की तरह जो थक-हार कर लौट रही है पृथ्वी से
वृशाली आज भी चमकती है
चाँद बन कर आकाश में
कभी-कभी पूर्णिमा के दिन टपकता है एक आँसू उसकी आँख से जिसे स्त्रियाँ सहेज लेती हैं अपनी आँखों में!
कर्ण का तिरस्कार
अग्नि पूजा से जन्मी थी द्रौपदी हुए कितने ही यज्ञ,
दिशा-दिशा घूमे द्रुपद संतान के लिए
तब जाकर जन्मी
नित्य-यौवना पाँचाली द्रुपद के राजमहल में
उसके नयन थे नील कमलों से
झरती हँसी ओठों से
समुद्र की लहरों सी नृत्यरत केश-राशि
ताम्र नख लिए दमकती थीं उसकी उँगलियाँ
पुष्ट वक्षा चलती थी किसी हस्तिनी सी उस श्यामा की गंध फैलती थी किले परकोटे से बाहर तक
द्रुपद चाहते थे
पाँचाली विवाह करे अर्जुन से
पर पाण्डव तो भस्म हो चुके थे लाक्षागृह में तो अब खोजा जाये कोई और धनुर्धर जो चढ़ा ले प्रत्यंचा उस महाधनुष की और बेंध दे घूमती मछली की आँख
पाँचाली बैठी थी अपने स्वयम्वर में रूप सौंदर्य से परिपूर्ण हटा नहीं पा रहे थे उस कमलिनी पर से आँखें कितने ही राजकुमार
दुर्योधन थे अन्य कौरवों के साथ
कर्ण भी थे मानो क़ैद किसी इंद्रजाल में
आँखे डूब गयीं थी पाँचाली के नील सरोवर में
वह देख रहे थे माला लिये द्रौपदी के दो हाथ
कर्ण को ज्ञात था
अर्जुन के सिवाय वही बेध सकता है मछली की आँख
दुर्योधन सहित असफल रहे सब वीर
मछली घूमती ही रही जल में
देखते हुए अपनी आँख से
वीरों का हास्य मिश्रित उपहास
कर्ण के लिए बहुत मामूली थी यह शर्त्त
धीर गम्भीर वह उठे,
तान दी प्रत्यंचा और चलाने लगे तीर कृष्ण ने देखा पाँचाली की ओर
ठहरो वीर, बोल उठी पाँचाली किसी सारथी के पुत्र से करूँविवाह
यह नहीं स्वीकार मुझे
विवाह तो राजवंशों में ही होते हैं!
सूर्य के अट्टहास से काँप उठा सौर मंडल आसमान चरमराकर टूटा धरती पर
कर्ण की यह एक और पराजय थी अपने भाग्य से फिर हार गया था कर्ण
चिल्लाया कर्ण,
यदि राजकुल में ही तुम्हें करना था विवाह
तो क्या ज़रूरत थी इस प्रतियोगिता की
यह सरासर अपमान है गुणवत्ता का
इस आरक्षण की सूचना दी जानी थी पहले ही
मुस्कुराए कृष्ण- यही तो राजनीति है राधेय
सत्ता का संचालन केवल गुणवत्ता से नहीं होता उसके लिए चाहिए कठोर अनुशासन द्रौपदी चाहे रहे आजीवन कँवारी विवाह नहीं करेगी किसी दास पुत्र से!
दिल में घोर विषाद लेकर लौट आया था कर्ण अपने महल में
पर उसके मन से स्त्रियों के प्रति धुल गया था बचा-खुचा सम्मान जल रही थीं उसकी आँखें
देते हुए स्त्रियों को शाप
तुम भी बरसती रहोगी बदली सी
दुख स्थाई रूप से विराजेगा तुम्हारी कजरारी आँखों में
समय क्षमा करना उसे उसकी माँ भी स्त्री थी जिसने उसे बहा दिया था गंगा में और पाँचाली भी स्त्री ही जिसने किया था उसकी योग्यता का तिरस्कार!
कर्ण की कथा ख़त्म नहीं होती किसी एक महाभारत के बाद यह कथा जीवित रहती है हर युग में नये से नये संदर्भों के साथ!
कर्ण तुम मरे ही कब थे।
कुंती की याचना
मित्रता का बोझ
किसी पहाड़-सा टिका था कर्ण के कंधों पर पर उसने स्वीकार कर लिया था उसे किसी भारी कवच की तरह हाँ, कवच ही तो, जिसने उसे बचाया था हस्तिनापुर की जनता की नज़रों के वार से जिसने शांत कर दिया था द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म को उस दिन वह अर्जुन से युद्ध तो नहीं कर पाया
पर सारथी पुत्र
राजा बन गया था अंग देश का
दुर्योधन की मित्रता चाहे जितनी भारी हो
पर सम्मान का जीवन तो यहीं से शुरू होता है!
कर्ण बैठा था
एक पेड़ की छाया में कुछ सुस्ताते हुए किसी गहन चिंतन में निमग्न
युद्ध अवश्यम्भावी है
अब लड़ना ही होगा अर्जुन को
अब कौन कहेगा- तुम नहीं लड़ सकते अर्जुन से
तुम राधेय हो,
एक सारथी के पुत्र, कुल गौत्र रहित अब अंगराज कर्ण लड़ेगा अर्जुन से
सरसराई पास की झाड़ी, चौंका कर्ण
प्रतीत हुआ कोई स्त्री लिपटी है श्याम वस्त्र में
उसने आग्रह किया कर्ण से, आओ मेरे साथ कर्ण चकित हुआ पल भर को
पर चल दिया उसके पीछे किसी अज्ञात पाश में आबद्ध
वह तो कुंती थीं! कर्ण आश्चर्य से भर उठा आप यहाँ पांडव माता? मैं तुम्हारी भी माँ हूँ कर्ण, कुंती है मेरा नाम
जड़वत खड़ा था कर्ण
उसने कुंती को ग़ौर से देखा और कहा- मुझे लगा था उस दिन हस्तिनापुर में जब तुम मुझे देखकर मूर्छित हो गयी थी
पर नहीं जानता था
आज इस तरह मिलने आओगी
मैं अभागी हूँ कर्ण विवाह से पहले तुम आये मेरे गर्भ में मैं कैसे पालती अवैध संतान?
संतान अवैध होती है या सम्बंध
मैं अच्छी तरह से जानता हूँ पाण्डु-पत्नी
तुमने अपने पाप को छिपाने के लिए
मुझे बहा दिया बहते जल में एक माँ ने पल भर को भी नहीं सोचा कि इस बालक को निगल जाएगा कोई मगरमच्छ
उठा कर ले जाएगा कोई गिद्ध
या यह डूब जाएगा नदी की लहरों में
तुम मुझे पाल सकती थी दुर्वासा के आश्रम में किसी ऋषि कुमार की तरह
तुम मुझे दे सकती थी कोई सम्मानजनक कुलनाम तुम स्त्री थी ही नहीं कुंती, माँ कैसे बनती?
मुझे क्षमा कर दो कर्ण मैं लज्जित हूँ अपने कृत्य पर!
नहीं देवि, मैं सूर्य का पुत्र हूँ,
यह जान गया हूँ अपने अनुभव से और यह भी जान गया हूँ कि तुम आज स्नेह जताने आयी हो किसी स्वार्थ से
तुम चाहती तो उस दिन हस्तिनापुर में भी
मुझे स्वीकार सकती थी पुत्र
पर तुम्हें सूर्य से उत्तम पुरुष लगे इंद्र
तुम सिर्फ़ अर्जुन के विषय में सोचती हो
वही है तुम्हारा पुत्र
बोलो क्या माँगने आई हो कर्ण ने आज तक किसी भिखारी को खाली नहीं लौटाया!
लज्जित होकर कुंती ने कहा
मैं नहीं चाहती युद्ध में मेरे पुत्रों का क्षय हो!
युद्ध विकास के लिए कब लड़े जाते हैं माते!
क्षय तो होता ही है,
राजपुत्रों का हो या सैनिकों का
मैं द्रवित हूँ,
प्रभावित नहीं हूँ आपके निवेदन से कर्ण या अर्जुन में से किसी एक को तो मरना ही होगा पर भरोसा करो,
मैं नहीं मारूँगा तेरे किसी अन्य पुत्र को तुम तब भी पाँच पाण्डवों की माँ ही कहलाओगी!
अब जाओ माते कुंती
मुझे करने दो युद्ध से जुड़े अनेक कार्य
मैं जानता हूँ
युद्ध में मेरे तीर से बिंधते हुए
किसी के पास अवकाश नहीं होगा मेरा कुलनाम पूछने का
कर्ण लड़ते हुए ही जिया है
और लड़ते हुए ही मरेगा।
इंद्र का छल
भोर का सूरज क्षितिज से झाँकता है
दूर तक धरती भरी है सैन्य दल-बल से
युद्ध का मैदान है, अश्व हैं,
गज हैं, बहुत से रथ खड़े हैं
वीर तलवारें लिए उद्घोष करते हैं गदाधारी, धनुर्धारी सब लगे हैं व्यूह रचना में!
सभ्यता अपने चरम पर आ चुकी है
अब उसे संतृप्त होना है मनुष्यों के लहू से दर्प को अभिमान को करवट बदलना है फूटना है उस सघन ज्वालामुखी को जो दबा है कर्ण के उर में!
सूर्य की किरणें निरंतर काँपती हैं
भोर के नभ में
बादलों से सूर्य का रथ घिर गया है किन्तु मन टिकता नहीं है, मन्त्र में जप में बहुत उद्विग्नता है
कर्ण पूजा कर रहे हैं शिविर मंदिर में
पिता मेरे,
आज अर्जुन से लड़ूँगा
कई वर्षों की दहकती आग सीने में दबाकर
वीरता देना मुझे प्रतिपल;
धैर्य देना, बुद्धि देना बस नहीं छल-बल!
पिता मेरे, आज अंतिम बार
तुम क्षमा कर दो मुझे उदात्त होकर
मित्रता के बोझ ने, न्याय से वंचित हृदय ने और जीवन की हताशा ने
न्याय पथ से दूर रखा है मुझे;
मैं जानता हूँ पर विवश हूँ इतिहास में, मैं कौन्तेय होने की जगह राधेय होना चाहता हूँ!
सूर्य की आँखे भरी थीं उन क्षणों में हृदय विगलित हो रहा था बस कहा इतना-
पुत्र मेरे कवच कुंडल साथ रखना,
ये तुम्हारे जन्म के शृंगार हैं, मत भूलना हर युद्ध में, तुम ही विजयी होगे!
कर्ण का मन क्लांत था पर युद्ध तो तय था!
कर्ण पूजा से उठे तो ब्रह्मवेशी एक याचक सामने था आश्चर्य, युद्ध भूमि तक चला आया बटुक यह!
दान लोगे विप्रवर?
स्वर्ण-मुद्रा, गौ-वंश या कुछ और चाहोगे?
कुटिल दृष्टि डाल कर वह विप्र बोला - जाओ धनुर्धर, जो मुझे अभिसिक्त है हृदय से भी महत्तर है दान उसका तुम मुझे, दे न पाओगे!
ख्याति जग में है तुम्हारी दान दाता की
पर कठिन होगा मुझे वह वस्तु देना इसलिए, मैं कुछ नहीं लूँगा, मैं क्षमा का दान देता हूँ, इस ले लो!
कर्ण ने गम्भीरता से विप्र को देखा,
इंद्र था वह, आ गया था छ्द्मवेशी ब्राह्मण बन
कवच-कुंडल माँगने को
आज अंतिम युद्ध होगा उसके पुत्र अर्जुन से!
कवच-कुंडल चाहते हो तुम भिखारी?
लो इसी पल,
वचन है यह कर्ण का
मैं तुम्हें पहचानता हूँ, इंद्र हो तुम! इतिहास, याद रखेगा तुम्हारी दुष्टता को कर्ण तो बस कर्ण ही होगा!
कवच-कुंडल दान में देते हुए
रक्त से स्नानित हुए थे कर्ण
बस यही अंतिम निशानी थी कुंती और सूरज की
जो गर्भ से अब तक चली थी साथ उसके!
चिंतित नहीं थे कर्ण किंचित भी
युद्ध तन से ही नहीं जाते लड़े
आत्मा के खोल में
वीरता अब भी बची थी।
इंद्र बोले- दान लेकर मैं बहुत लज्जित हुआ हूँ दुर्भाग्य से, नीतियाँ ही नष्ट होती हैं समर में
था नहीं अनुमान मुझको यह ज़रा भी,
दे सकोगे, कवच-कुंडल दान में तुम
कर्ण, जय या पराजय भाग्य के हाथों बंधी है! इस खेल में हम हैं खिलाड़ी श्रेष्ठता के आचरण से आज तुम गुरुतर हुए हो!
मैं तुम्हें वरदान दूँगा
शक्ति मेरा अस्त्र है मारक धुरंधर
उस अस्त्र का संधान दूँगा
तुम जिसे चाहो, मौत उसको चूम लेगी
चयन बस होगा तुम्हारा
अस्त्र मुझ तक लौट आएगा तत्क्षण एक जीवन ले सकेगा!
कर्ण ने सम्मान से,
सद्भावना से इंद्र को भेजा
युद्ध से पहले;
आज फिर छद्म से अर्जुन लड़ा उससे!
सभ्यता के उत्स में
कर्ण का जीवन
कहानी दुख और संघर्ष की है
वह अकेला ही पुरुष था वीरता जिससे सुशोभित थी मृत्यु जिस पर जान देती थी
युद्ध का सत्रहवां दिन है आज
कर्ण अर्जुन से लड़ेगा वीरता से वीरता का सामना होगा देव-दानव आज व्रत पर ही रहेंगे दिन नहीं है
यह पराजय का!
कृष्ण : कर्ण से हारे
कर्ण,
देखता है बिम्ब अपना
काँपते जल में
मन व्यथित है, तन शिथिल है
गूँजते ब्रह्मांड में जो शब्द,
उसको डँस रहे हैं,
वीरता उसकी हुई निष्फल
भीष्म ने भी आज उसको छल लिया है शांत दुर्योधन रहा क्यों जब हुआ निर्णय
पांडवों से युद्ध में कर्ण पीछे ही रहेंगे? कुमुक देखेंगे, व्यूह रचना ही करेंगे।
कर्ण चिंतन की अतल गहराइयों में हैं अस्मिता उसकी सघन परछाइयों में हैं!
ध्येय मेरा पाण्डवों से युद्ध करना है सिद्ध करना है मुझे धनुर्विद्या की प्रतिष्ठा को
और यह भी-द्रोण का भी दर्प झूठा है
कर्ण का संघर्ष उसकी आत्मा की लय मृत्यु उसकी सहचरी है, है नहीं कोई भय!
कृष्ण आते हैं चमकती दामिनी-सी स्त्रियोचित मंद स्मित लेकर पूछते हैं- कर्ण कैसे हो? चौंकता है कर्ण इस अज्ञात आगम से सोचता है फिर कोई तूफान आया है!
आपका स्वागत मुरारी, चरण वंदन भी
बोलिए आदेश क्या है आज, इस क्षण में?
कर्ण मैं तुमको बताना चाहता हूँ
एक सच्चाई छिपी जो आज तक तुम से
यह अनल है वीरता से इसे साधो धैर्य को धारण करो तुम, खिन्नता को शीघ्र त्यागो!
सूर्य के तुम पुत्र हो,
कौन्तेय हो तुम
पूर्व परिणय, प्रेम में आबद्ध होकर
तुम धरा पर आ गये थे
कवच कुंडल सूर्य ने तुमको दिये थे
पर, मातृत्व का सुख ले न पायी वह अभागी
लोक लज्जा के निहित जल में बहाया था तुम्हें! तुम नहीं राधेय हो, विश्वास जानो
लौट आओ पाण्डवों तक
बात मानो!
कर्ण सचमुच स्तब्ध था!
याद आया
हस्तिनापुर में ललकार देना पार्थ को
याद आयी मूर्छा भी पृथा की
चमक उठना कवच कुंडल का
सूर्य किरणों में लड़खडाना पितामह भीष्म का भी
कृष्ण,
मान लूँ सच भी इसे तो क्या करूँगा यह समय तो युद्ध का है!
मान मेरा, शान मेरी अब जुड़ी है कौरवों से!
हस्तिनापुर में समय था पाप धोने का
कुंती यदि स्वीकार कर लेती मुझे
तो भूल जाता दुख सारे
चरण छू लेता पृथा के
मान लेता लोक लज्जा का बहाना दास बन कर काट देता उम्र सारी अब नहीं, केशव समय कुछ सोचने का!
कर्ण, फिर से सोच लो,
तुम हार जाओगे
देखता हूँ युद्ध तुम न जीत पाओगे; कौरवों का अंत होगा!
यह भी संभव है तुम बनो सम्राट पांडव राज्य के
स्वीकार तुम होगे युधिष्ठिर को!
कृष्ण तुम जाओ,
परीक्षा और, अब नहीं दूँगा
वचन देता हूँ
संवाद यह गोपन रहेगा
कर्ण सिंहासन नहीं, सम्मान चाहेगा
मृत्यु देवी का वरण कर
स्वर्ग जाएगा।
कर्ण की मृत्यु
आँख नम है सूर्य की
पर कर्ण धीरोद्दात नायक की तरह
डट कर खड़ा है
शौर्य के प्रतिमान में
आस्था उसकी हिमालय-सी अटल है कवच कुंडल दान कर भी!
वह जानता है युद्ध केवल सभ्यता के ह्रास की अंतिम कड़ी है जीत जिसको मानते हम, यंत्रणा सबसे बड़ी है
इस समय के सघन वन में आत्मछल के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं हम!
कल जो हुआ था युद्ध में
भूला नहीं है कर्ण अब तक
बहुत असहज मन लिये वह सोचता है
झूलते ही रह गये क्यों तीर
मात्र प्रत्यंचा पकड़कर पार होना था जिन्हें पाण्डवों के हृदय, तन से!
क्यों बच गया अर्जुन नागास्त्र के संधान से भी?
शल्य ने जब रथ किया था ठीक उसके सामने ही किस भावना के ज्वार ने कर्ण के चैतन्य को हतप्रभ किया था, सोचता है कर्ण?
युद्ध तो चलता रहा फिर भी
अस्त होते सूर्य के सम्मुख कर्ण ने अवसर दिया क्यों पार्थ को युद्ध से प्रस्थान का?
क्या पृथा की स्मृति ने निर्बल किया तुमको क्यों हुआ यह कर्ण?
तेरी धमनियों में
सूर्य का ही रक्त है अब तक
पृथा का स्पर्श तुमको याद क्या होगा!
तीर-शैय्या पर पड़े हैं भीष्म द्रोणाचार्य जीवन दे चुके हैं सिर कटा कर युद्ध की बलिवेदी पर
वीर कितने जा चुके हैं जो लड़े थे
कौरवों की शान की ख़ातिर कर्ण ने मारा नहीं क्यों पाण्डवों को कल थे कई अवसर?
क्रुद्ध दुर्योधन बहुत है!
कौरवों का महानायक कर्ण ही है दृष्टि उसकी ज्ञान उसका जीत और अभिमान उसका
युद्ध उसकी नीतियों पर चल रहा है चाहे असहमति हो सैन्य बल उसके इशारे पर लड़ाई कर रहा है!
सत्रहवाँ दिन युद्ध का है कई अक्षौहिणी वीर अब तक मर चुके हैं रक्त से दलदल हुई है धरा सारी!
चेतना अपनी पुनः संचित किये
आगे बढ़ा है कर्ण, विश्वास अब भी डोलता है उसका युद्ध यह पहला नहीं है!
गदाधारी भीम ने वध कर दिया है प्रिय दुःशासन का वज्र सा टूटा कर्ण पर
अब नहीं बच पाएगा कोई यहाँ पर
सुनो अर्जुन, मैं आ रहा हूँ!
कर्ण का बल और पौरुष अग्नि से बढ़ कर
वायु से उत्तम त्वरा है सिंह सा है अहम उसका दीर्घबाहू काल सा वह चल रहा है
गम्भीर हैं श्री कृष्ण यह कहते हुए- धैर्य से तुम देख लो अर्जुन किसी से कम नहीं है कर्ण और तुम यह भी समझ लो
नीति सम्मत व्यवस्थाएं
युद्ध में लड़ती कहाँ हैं
युद्ध तो आहुति है,
दर्प, लिप्सा और पशु बल की
इसलिए ही
युद्ध का मंतव्य केवल जीत है अर्जुन!
सामने है कर्ण, अर्जुन देखकर उसको चकित है
हर बार प्रत्यंचा धनुष की
काटता ही जा रहा है गाँडीव का अपमान है यह!
सैन्य दल बल सहित
मारक युद्ध चलता जा रहा है थी प्रतीक्षा आज तक इस युद्ध की इन नायकों को!
कर्ण का रथ चरमराकर रुक गया है रक्त से दलदल बनी भू में फंस गया पहिया!
कर्ण, माँगता है समय अर्जुन से रुको हे पार्थ! जब तक रथ निकलता है इस रक्ताभ कीचड़ से नियम है युद्ध का यह तो!
कृष्ण कहते हैं
चलाओ तीर तुम अर्जुन
यहाँ हम युद्धरत हैं,
समय कोई दे नहीं सकते
शत्रु तो बस शत्रु है
व्यूह में छल,
घेर कर अभिमन्यु को मारा वहाँ पर कर्ण भी तो थे!
नीति चर्चा इस समय क्यों याद आयी है
जब अन्याय के वे पक्षधर हैं
कर्ण भी तो जानते हैं
पाण्डवों को युद्ध में किसने धकेला!
ग्रस्त था वह शाप से भी
भूला कर्ण संधान अस्त्रों का,
कर न पाया आत्मरक्षा अंजालिका ने वध किया उसका!
महाभारत युद्ध में
अवसान तेरा कर्ण
कौरवों की पराजय लिख रहा है
पराजय, उन नीतियों की, दम्भ की, संत्रास की भी जो इस युद्ध का कारण बनी थीं!
हे कर्ण, हे राधेय,
तुम संघर्ष की अभिव्यंजना हो शक्ति तुम देते रहोगे उन जनों को जो मान कर सम्बल तुम्हें अस्मिता के युद्ध में जम कर लड़ेंगे जीत उनके सामने होगी और वे आगे बढ़ेंगे!
FF—203, Ashabari Housing Complex,
B. P. Township, Patuli, KOLKATA – 700094
rajeshwar_v@hotmail.com
नीलोत्पल की कविताएं
कुछ बातें अलग थीं
कुछ बातें अलग थीं
हम नहीं हमारी परछाइयाँ जानती थीं कि रुकना भी एक गति है कई गति की एक ठहरी हुई गति जीवन का प्रयास विफ़ल ही रहता है यह लौटने के बाद पता चलता कि
वास्तव में हमने जो कुछ इकट्ठा किया है
वह एक बंद दरवाज़ा है
कुछ बाहर नहीं जाता सिवाय अपने गूंगेपन के
लहरों का आकस्मिक उठना-गिरना
समुद्र को अधिक खोल कर रख देता उड़ती चिड़िया और क़रीब आती जब उदासी की दीवारें हमें ढँक लेतीं
यह प्रेम का स्वभाव है
वह किताबों के भीतर भी निस्पृह रहा
सारे अपराध हमारी अंतड़ियों में थे
हम कहीं भी रहें
प्रायश्चित ही बचाते हैं ध्यान उन बातों के लिए नहीं था जो शब्दों के भीतर से आतीं
कहना असंभव है हम अलग हैं
तस्वीरें बयान करती हैं कि जंगल और स्मृति एक असमाप्त पतझर है...
हमारे दुख हँसना नहीं जानते थे
तस्वीरें उलझ जाती हैं समय के बहाव में फ़िर कोई नदी का ज्वार पार कर जाता है
उम्मीदों की आख़िरी परछाई। लहके से रह गये कुछ रंग जिन्होंने बचाया प्रेम का अनछुआपन।
ल्ल मंतव्य
जीवन वहीं ज़िंदा था जहाँ परिणाम नहीं थे। कई बार शब्द रह जाते अधूरे हम अपनी कहानी बयान करने से रह गये।
जीवन की कोई परिभाषा नहीं थी हमने उन उत्सवों से जाना जिन्हें मनाने पर कोई अपराध साबित नहीं होता था।
कई पहाड़ छाती पर दुशाला ओढ़े
अपनी व्यथाएँ बचा ले जाते
यह आकर्षण नहीं था
हमारे दुख हँसना नहीं जानते थे
पहलू
मैं सब पर विश्वास करता हूँ। मेरा किसी पर यक़ीन नहीं।
मैं असंख्य फूलों को देखता हूँ
और उनका झरता प्रसन्न पराग भी
वे हत्याएं जो मैंने नहीं की
सच है
वह जो अभिव्यक्त करने में नाकाम रहा वह अधूरापन भी मेरे साथ रहा
राजनीतिक कारणों से जीवन से दूर हुआ
समय के बचे हुए अंतिम पृष्ठों पर निराशाएं थीं जिसे हम भूल रहे थे
मैं उस भरोसे पर भरोसा करता हूँ जो मेरा नहीं
बंद सीपियाँ समुद्र का चुप हैं मैं उन जहाजों को याद करता हूँ जो लौटे नहीं
अनजान तटों पर, नया सफ़र शुरू होता है
खाली जेब आत्महत्या से बचती है सारी संभावनाएं इसी के निकट बनती हैं
एक झूठ भी कई अर्थ ग्रहण कर लेता है जब सारी निकटताएं आँख मींचती हैं।
झूठ एक कोशिश है
सच एक बचा क्षण
प्रकृति की तरह मुक्त नहीं हम
झुकाव की मुद्रा में सारे पेड़ समय का अंत है बारिश एक गति है जो रंगों और ज़मीन के भीतर चलती हैं
जिन्होंने आस्थाओं को अपना लिया वे अपनी मुद्रा को बदलते हुए स्थिर हैं जो छूटे हुए हैं
वे गहरी आकांक्षाओं से पीड़ित
समय के बाहर कोई ताला नहीं
सारी कलाओं ने अपने घर वही बनाए
परिंदों के अपने कोई नियम नहीं
मृत्यु की अवधारणा उन्हें नहीं सताती
वहाँ जो घट रहा है पेड़, नदी, आसमान के बीच
सफ़ेद पड़ गयी हैं सारी चीज़ें जीवन का कोई आकार तय नहीं जोकर अपना नक़ाब उतारता है
कोई हलचल नहीं होती
सारे अनाम चेहरे उस नक़ाब को पहन
शामिल हो जाते हैं भीड़ में भूमिकाएं बदलती रहती हैं
चीज़ों के भरसक प्रयास
हमें अधिक राजनीतिक बनाते हैं
सब कुछ यही आकार, बदलाव, प्रस्फुटन
और हम एकमात्र अपने ही क़ैदी
173/1, अलखधाम नगर, उज्जैन-456010,
पंकज चौधरी हिन्दी में वंचित आबादी की पीड़ा और प्रतिरोध को सर्वाधिक बेबाक ढंग
से अभिव्यक्त करने वाले युवा कवि हैं। कविता में उनकी साफ़गोई बराबर ध्यान खींचती है
पंकज चौधरी की कविताएं
ये बदतमीज़ लड़कियां
अपनी-अपनी ड्यूटी से घर लौट रही ये लड़कियाँ
भरी मेट्रो ट्रेन में अपने-अपने ब्वायफ्रेंड को किस कर दे रही हैं
लड़कों के बालों में अंगुलियाँ फिरा दे रही हैं उनके कंधों पर अपने हाथों को रख दे रही हैं और ऐसे आँख मार रही हैं जैसे उनको भारी तलब लग गयी हो जबकि लड़के हैं कि लाज से मारे जा रहे हैं अपनी-अपनी फ्रेंडों से दूर भागने की कोशिश में हैं
तब भी लड़कियाँ हैं कि गगनचुम्बी हँसी छोड़ रही हैं
आप कह सकते हैं कि ये बदतमीज लड़कियाँ हैं
शराब पी रखी होंगी सिगरेट तो इन्हें पीते ही देखा है सारी शर्मो-हया को घोंट लिया है
तमाम मर्यादाओं, परंपराओं, आस्थाओं, संस्कृति को रौंद दिया है
आप इनके बारे में कुछ भी कल्पना कर सकते हैं
और हो सकता है कि आपकी कल्पना यथार्थ के काफी करीब भी हो या आपकी कल्पना से भी काफी आगे निकल चुकी हों ये लड़कियाँ जैसे सेक्स पर वे
आपकी भाषा में बिच होकर बोलती हैं
और अपने तरोताज़ा, हँसमुख और सुंदर होने का राज़
सुबह, दोपहर और शाम की सेक्स को बताती हैं
अगर आप
उनके उरोजों की तुलना गुम्बदों से करते हैं नितंबों को विंध्याचल पर्वत की उपमा देते हैं
और उनकी योनि को जवाहर सुरंग सरीखी बताते हैं
तो इसका उन्हें कोई उज्र नहीं
इसको तो वे अपना शानदार विज्ञापन ही मानती हैं
और जब वे खुद-ब-खुद
अपने ब्रेस्ट, क्लीवेज़, बटोक्स
और वजाइना के बारे में बिंदास होकर बोल रही हों तो फिर क्या कहने
दोस्ती के पहले ही दिन
अपने ब्वॉयफ्रेंड से वे यह पूछना नहीं भूलतीं कि तुम्हारा साइज क्या है किसी महिला का अपने पुरुष मित्र से यह सवाल
बिलकुल वैसा ही है जैसा किसी पुरुष का अपनी होने वाली पत्नी से उसकी वर्जिनिटी से संबंधित सवाल बार-बार करना
वर्जिनिटी इन लड़कियों के लिए महापाप का कारण है और इसे वह उन पाखंडी साध्वियों-संन्यासिनों के लिए छोड़ती हैं जो पता नहीं अपने कौमार्य का चढ़ावा कितनी-कितनी बार योगियों,
महाराजाओं और शंकराचार्यों को चढ़ा चुकी होती हैं
प्री-मैरिटल सेक्स में यकीन करने वाली ये छोरियाँ
बेडरूम में अपने पार्टनर का बढ़-चढ़कर सपोर्ट करती हैं
सेक्स की एक-से-एक तरक़ीबों को आजमाती हैं
और जब वे अपने पार्टनर के ऊपर चढ़ जाती हैं तो वे यह भूल जाती हैं कि
मर्द को सदैव ऊपर और औरत को नीचे होना चाहिए वह अपने पार्टनर का जब उद्याम भोग कर लेती हैं
तो उसे एक जोरदार किस लेना भी नहीं भूलतीं
और इस तरह वे बेडरूम से
किसी मर्द का सेक्सगुरुहोकर निकलती हैं
वे पहनने के लिए आज साड़ी और सूट का सेलेक्शन नहीं करतीं
बल्कि टाइट जिंस और खुली बांहों वाली टॉप-स्कर्ट
उनकी प्राथमिकताओं में शुमार है
ताकि इनसे वे कम्फोर्टबल तो रह ही सकें
साथ ही साथ उनके शारीरिक सौन्दर्य और गोलाइयों की भी सटीक और अचूक अभिव्यक्ति हो सके
और ऐसा करते हुए वे
बड़े-बुजुर्गों की उस सीख को भी धता बता रही होती हैं
जो ‘आपरूपी भोजन और पररूपी शृंगार’ की नसीहत बघारते नहीं थकते
सेक्स और देह उनके लिए आज कोई टैबू नहीं उनकी देह पर आज किसी और का पेटेंट नहीं जिसकी देह उसी का पेटेंट सही देह उनकी तो मर्जी भी उनकी
देह उनकी तो जागीर भी उन्हीं की
उनकी देह और शारीरिक संरचना
आज मजबूरी नहीं बल्कि मजबूती में तब्दील हो गई है
मेट्रो की लड़कियाँ जितनी ज्यादा स्वावलंबी उनकी देह उतनी ही आजाद और जिसकी देह जितनी ज्यादा आजाद जीवन की राहों पर वह उतनी ही आबाद और घर की जंज़ीरें उतनी ही कमज़ोर।
हिन्दी कविता के द्विजवादी प्रदेश में आपका प्रवेश दंडनीय है
साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनका
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी उनका कविता रोतरदम की यात्रा उनकी विश्व कविता सम्मेलन की यात्रा भी उनकी भारत भवन उनका
महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय भी उनका राजकमल, राधाकृष्ण और वाणी प्रकाशन से किताबें उनकी
साहित्य अकादेमी और भारतीय ज्ञानपीठ से भी किताबें उनकी
नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पांडे
नंद किशोर नवल, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार जैसे आलोचक भी उनके
चर्चित कवि, बहुचर्चित कवि, वरिष्ठ कवि भी उनके
प्रसिद्ध कवि, सुप्रसिद्ध कवि, सशक्त हस्ताक्षर और महान कवि भी उनके
कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल
अशोक वाजपेयी और विष्णु खरे भी उनके
आलोकधन्वा, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल भी उनके
अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, उदय प्रकाश भी उनके
कुमार अम्बुज, एकांत श्रीवास्तव और प्रेमरंजन अनिमेष भी उनके आलोचना, पहल, कसौटी उनकी
नया ज्ञानोदय, तद्भव, कथादेश और वागर्थ भी उनकी
आउटलुक उनकी इंडिया टुडे भी उनकी जनसत्ता, हिन्दुस्तान, भास्कर उनके
उजाला, प्रभात खबर और नवभारत टाइम्स भी उनके
ऑल इंडिया का मंच उनका, दूरदर्शन का भी मंच उनका
कविता पाठ के मंच भी उनके रूसी, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश
जापानी, चाइनीज और हंगारी में भी अनुवाद उनके अपना क्या, सारा कुछ उनका
हिंदी कविता में सौ-सौ का आरक्षण उनका
भारत का लोकतंत्र भले सबका, लेकिन कविता का लोकतंत्र सिर्फ़ उनका
सारा कच्चा माल भले ही गैर-द्विजों का
लेकिन सारे के सारे कवि सिर्फ़ द्विजों के
कहने को तो भारत हजारों जातियों, धर्मों का देश
लेकिन हिन्दी कविता पर मात्र तीन-चार जातियों का ही अवशेष कितने अमीर खुसरो, कबीर और रैदास मर-मर जाते लेकिन तुलसी, प्रसाद और निराला उठ-उठ जाते द्विजों का ऐसा नंगा नाच जहाँ
गैर-द्विजों के नायक की वहाँ गुंजाइश कहाँ
द्विजों का एकछत्र राज यहाँ गैर-द्विज पर भी मार सके नहीं जहाँ द्विजों का ऊर्वर प्रदेश जहाँ गैर-द्विजों का बंजर प्रदेश वहाँ द्विजों के लिए पूनम का उजाला जहाँ
गैर-द्विजों के लिए अमावस का अँधेरा वहाँ।
जैसा कि उसने कहा
उसे
बहुत
बहुत
बहुत
बहुत
बहुत चाहिए
सोना चांदी हीरा जवाहिरात
और नीलम नहीं
बल्कि पति का संग-साथ
और पति जब थक जाये
तो फिर दूसरे का संग-साथ
और दूसरा भी जब थक जाये तब फिर तीसरे का संग-साथ...
किस-किस से लड़ोगे यहाँ
किस-किस से लड़ोगे यहाँ
कोई यहाँ ब्राह्मणवादी है तो कोई यहाँ राजपूतवादी
कोई यहाँ कायस्थववादी है तो कोई यहाँ कोयरीवादी, कुरमीवादी कोई यहाँ यादववादी है तो कोई यहाँ बनियावादी
कोई यहाँ जाटववादी है तो कोई यहाँ वाल्मीकिवादी, कोई खटिकवादी
कोई यहाँ हिन्दूवादी है तो कोई यहाँ मुस्लिमवादी, ईसाईवादी
कोई यहाँ पूँजीवादी है तो
कोई यहाँ अहम्वादी, कोई यहाँ आभिजात्यवादी है कोई यहाँ कलावादी
कोई यहाँ बिहारवादी है तो कोई यहाँ यूपीवादी, एमपीवादी
कोई यहाँ अवसरवादी है तो
कोई यहाँ तलवावादी कोई बलवावादी
कोई यहाँ बकवादी है तो कोई यहाँ इस्तेमालवादी
कोई यहाँ अफसरवादी है तो
कोई यहाँ कुलीनवादी, दयावादी
सब यहाँ आदमी के वेष में वादी है-मवादी हैं-विवादी हैं
और वाद का कवच ओढ़ रखा है, इन्सानियत का ताज़ गिरा रखा है
आदमी बने भी तो बने कैसे
सब ने ऐसे-ऐसे वादों का मल खा रखा है।
प्रार्थना
हे ईश्वर, तुम यदि कहीं हो, तो मेरी प्रार्थना है तुमसे कि तुम मुझे पाखंडी मत बनाना
क्योंकि पाखंडी का पाखंड अंततः उसे ही खंड-खंड करता है
और दण्ड में उसका ही धर्म, समाज और राष्ट्र बदनाम होता है हे ईश्वर, तुम यदि कहीं हो, तो मेरी प्रार्थना है तुमसे कि तुम मुझे मक्कार मत बनाना
क्योंकि मक्कारी ही बीमार करने का काम करती है
और हम अपाहिज, विकलांग और दया के पात्र बन जाते हैं हे ईश्वर, तुम यदि कहीं हो, तो मेरी प्रार्थना है तुमसे कि तुम मुझे वादाख़िलाफ़ मत बनाना
क्योंकि वादाख़िलाफ़ी ही घमासान को बुलावा देती है
और घमासान हमें मटियामेट करते रहे हैं
हे ईश्वर, तुम यदि कहीं हो, तो मेरी प्रार्थना है तुमसे कि मैं अगर किसी के काम आ सकूँ तो मेरे मन में मसीहा का अहंकार नहीं भरना
क्योंकि मसीहा का अहंकार ही तानाशाही में तब्दील हो जाता है
और तानाशाह का अंज़ाम बहुत ही दर्दनाक होता है हे ईश्वर, तुम यदि कहीं हो, तो मेरी प्रार्थना है तुमसे कि तुम मुझे उनके प्रति नमकहलाल बनाये रखना जो मेरे गर्दिश के दिनों में काम आये हां, और तुम अगर मुझे नमकहराम बनाओगे
तो जान लो नमकहरामों पर से दुनिया का विश्वास उठ जाएगा और जिसका खामियाजा अंततः
नमकहरामों की संतति, जाति, समाज और राष्ट्र को ही भुगतना होता है हे ईश्वर, तुम यदि कहीं हो तो मेरी एक प्रार्थना और है तुमसे
कि तुम मुझे ऐसा बुद्धिमान मत बनाना जो भोले लोगों को बेवकूफ बनाकर
अपना उल्लू सीधा करता है
और अंधेरे बंद कमरे में/ अकेले में ठठाकर हँसने का काम करता है कि उसने किसी को बेवकूफ बना दिया
हे ईश्वर इसलिए तुम मुझे ऐसा बुद्धिमान मत बनाना
क्योंकि आदतन ऐसा बुद्धिमान
अपने बाप को भी बेवकूफ बना जाता है।
द्वाराः जीपी वर्मा मकान नं.-348, गली नं.-4, दूसरी मंजिल, गोविंदपुरी, कालकाजी, नई दिल्ली
पंखुरी सिन्हा की कविताएं
मित्रता पर ज़ोर
कुछ इस हद तक ज़ोर था मित्रता पर और कुछ इस हद तक थी
शर्तें उसकी
कि वह बिना लाग-लपेट का काम का रिश्ता
उलझता जाता था
अतिरिक्त मिठास की परतों में
और केवल ख़राश पैदा होती थी
हर जगह
काई ज़मने की तरह काम की सीढ़ियों पर भी...
चाँद तो वही है
वही है चाँद जिसे यहाँ से भी
अपनी नंगी आँखों से
देख रहे हैं हम
नंगी नहीं
चश्मा लगाये
या लेंस पहनकर
वो जिन्हें दृष्टि दोष है
और सभी निश्चित रूप से
धूप चश्मे उतार कर
आजकल हिटलरी सवालों के घेरे में
कुछ ज़रुरत से ज़्यादा बड़ा राजनीतिक विषय है
किसी भी क़िस्म की शारीरिक लाचारी कमज़ोरी, व्याधि जबकि एक लड़ाई
नित्य नये क़िस्म की विकलांगता पैदा कर रही है
बहुत ढेर सारी जगहों में
लाशों के इर्द गिर्द पर चाँद तो वही है जिसे लड़ाई हार कर देश लौटकर
अपने पैतृक घर के छज्जे से निहारा किये
वही है चाँद
उस महफूज़ छज्जे में चमकता हुआ जिसने इतना नचाया उस फिरंगी शहर में एक महफूज़ छज्जे के लिए...
ए-204, प्रकृति अपार्टमेंट्स,सेक्टर-6 प्लाट नं.-26 द्वारका, नई दिल्ली-110075
संजय कुमार शांडिल्य की कविताएं
कविताएं साइकिल रिक्शा होती हैं
हम अपने कलेजे से चलाते हैं
कविताएं साइकिल रिक्शा होती हैं
हलक सूखता है वक़्त की दोपहर में महसूस यह भी होता है जल जाये रूह का ज़िस्म
तब हम घंटियाँ बजाते हैं
आवाजों का इस्तेमाल करते हैं एक सूती गमछे की तरह। फिर पैडल पर पाँव का जोर
बढ़ता है
जैसे हम इन रास्तों को पीछे
छोड़ना चाहते हैं।
शब्द हमें हर बार उछाल देता है
देह में कहाँ इतनी संभावना।
हमारी शक्ति से नहीं
काम ख़त्म करने की खुशी
खींच रही हो इन्हें।
छोटी दूरी तय हो जाने की खुशियाँ किसी के कहीं पहुँच जाने की खुशियाँ हम यह भी तो नहीं जानते हैं किसका अंतरिक्ष कहाँ है किसकी धरती है कहाँ हम तो बस कलेजे से चलाते हैं
गाँव एक नदी है
गाँवों के लिए एक अंतिम बस होती है मोरम वाली सड़क होती है गाँवों के लिए जिस पर बीस वर्षों में कोलतार नहीं गिरता मिट्टी के घर होते हैं गाँवों में
जिसमें सिर्फ़ प्यार के लिए सेंध मारता है कोई छत से तीन कोस दूर का आसमान दिखता है गाँव में
एक सूखती हुई बरसाती नदी की चिन्ता भी
पहाड़ के नदियों की तरह होती है
गाँव की जवानियाँ
गाँव के काम नहीं आते गाँव के बेटे
गाँव में मोतियाबिंद आँखें हैं जिसमें कभी ख़त्म नहीं होनेवाला इन्तज़ार रहता है जैसे गाँव के पानी में आर्सेनिक
इन्तज़ार ख़त्म नहीं होता आँखें ख़त्म
हो जाती हैं
गाँवों की हत्या होती है सरकारी योजनाओं से
गाँव में लोग जीवित नहीं हैं
साँसें प्रमाण नहीं कि लोग जीवित हैं
गाँव बचा है गीत और कविता के रोमान में
और बंदूकों की क्रांति में
दोनों ही अपरिचित हैं अतिथियों जैसे आजकल आप गाँव जाना नहीं चाहते आजकल गाँव आपको नहीं चीन्हता गाँव एक ख़त्म होती नदी है
सिर्फ़ लाशें जलती हैं रेत में जब ज़िस्म की बदबू फैलने लगती हैं बच्चे भूख नहीं रोक सकते कई दिन।
सहायक अध्यापक, सैनिक स्कूल, गोपालगंज, पत्रालय-हथुआ, गोपालगंज (बिहार)
तीन भोजपुरी लोकगीतों की पुनर्रचना : हृषिकेश सुलभ
किसी ने नहीं सुनी मेरी
मुझे बांझ कहती है सास मेरी और मेरी ननद ब्रजवासिन पुकारती है
जो लाया ब्याह कर उसने घर से निकाल दिया
वन में
घनघोर वन में अकेली खड़ी हूँ मैं
ऐ बाघिन
अनंत असह दुःख हैं मेरे
खा जाओ मुझे
कर दो मेरी पीड़ा अंत
जाओ, लौट जाओ उस घर
वही है आश्रय तुम्हारा
दुःख हों या सुख
मैंने अगर खा लिया तुम्हें तो
बाँझ हो जाऊँगी मैं भी
ऐ नागिन, डँसो मुझे
विष तुम्हारा अमृत बनेगा मेरे लिए
मुक्ति मिलेगी मुझे
जाओ, लौट जाओ उस घर
वहीं करो तप
तीर्थ वहीं है तुम्हारा
मैंने अगर डँस लिया तुम्हें बाँझ हो जाऊँगी मैं भी
ऐ भूमि...माँ हो तुम
अपनी गोद दो मुझे फटो कि समा जाऊँ
छिप जाऊँ तुम्हारे गर्भ में शरण दो माँ
नहीं बेटी,
लौट जाओ अपने पति के घर
मैं नहीं दे सकती आश्रय
न गोद
न गर्भ
अगर दिया यह सब तुम्हें
बंजर हो जाऊँगी मैं जाओ, लौट जाओ....
2
मंडप काँप रहा है
वेदी काँप रही है
काँप रही हैं कुश की डंठलें
ब्राह्मण के मंत्र काँपते हैं काँप रही है पिता की जंघा जिस पर बैठाकर मुझे वे कर रहे हैं दान मेरा
काँप रही हैं दसों दिशाएं
मैं बाबा बाबा गुहराती रही एक पुरुष ने सिन्दूर दिया और मैं परायी हो गयी...
भइया भइया पुकारती रही और वह डोली पर बैठाकर ले गया
किसी ने नहीं सुनी मेरी तुमने तो जना था अपनी कोख से तुमने भी नहीं अम्मा...
3
चन्द्र-ग्रहण
साँझ में
और
सूर्य-ग्रहण भोर में
पर ऐ मेरी बेटी, बेटी-ग्रहण जन्म के समय से
जो मैं जानती
कि तुम पल रही हो कोख में
पी लेती तीखी मिर्चें पीसकर मिर्च की झांस से मर जाती तुम गर्भ में ही मिट जाता गहन संताप यह
ऐ बेटी,
भादो मास की अँधियारी रात
क्यों जनम लिया तुमने
हँसुआ नहीं मिला
छुरी नहीं मिली
सीप से काटा गया तुम्हारा नाभिनाल
हर दिशा में खोजते रहे पिता तुम्हारे
पर नहीं मिला वर
अब कैसे करूँ
और किसको करूँ तुम्हें दान...
पीरमुहानी, कब्रिस्तान के पास, पटना-800003,
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